केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान
भारत का सबसे बडा पक्षी अभयारण्य जो 1964 में अभयारण्य और 1982 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। यह 29 वर्ग किलोमीटर में फैला-पसरा हैं जिसमें शीतकाल में यूरोप, अफगानिस्तान, चीन, मंगोलिया तथा रूस आदि देशों से पक्षी आते है। लगभग 100 वर्ष पूर्व भरतपुर के महाराजाओं ने इसे आखेट स्थल के रूप में विकसित किया था। इसे यूनेस्को द्वारा संचालित विश्व धरोहर कोष की सूची में शामिल कर लिया हैं। 5000 किलोमीटर की यात्रा कर दुर्लभ प्रवासी पक्षी साइबेरियन क्रेन सर्दियों में यहॉ पहचते हैं जो पर्यटको का मुख्य आकर्षण होते हैं।
जिम कार्बेट
प्रकृति की अपार वन-सम्पदा को अपने में समेटे हुए जिम कार्बेट राष्ट्रीय अभयारण्य उत्तरांचल राज्य के नैनीताल जिले में रामनगर शहर के निकट एक विशाल क्षेत्र को घेर कर बनाया गया है। यह गढवाल और कुमाऊँ के बीच रामगंगा नदी के किनारे लगभग 1316 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। इस पार्क का मुख्य कार्यालय रामनगर में है और यहां से परमिट लेकर पर्यटक इस उद्यान में प्रवेश करते हैं। जब पर्यटक पूर्वी द्वार से उद्यान में प्रवेश करते हैं तो छोटे-छोटे नदी-नाले, शाल के छायादार वृक्ष और फूल-पौधों की एक अनजानी सी सुगन्ध उनका मन मोह लेती है। पर्यटक इस प्राकृतिक सुन्दरता में सम्मोहित सा महसूस करता है।
अभयारण्य में पर्यटन विभाग द्वारा ठहरने और उद्यान में भ्रमण करने की व्यवस्था है। उद्यान के अन्दर ही लॉज, कैन्टीन व लाइब्रेरी है। उद्यान कर्मचारियों के आवास भी यहीं हैं। लाइब्रेरी में वन्य जीवों से संबंधित अनेक पुस्तकें रखी हैं। पशु-पक्षी प्रेमी यहां बैठे घंटों अध्ययन करते रहते हैं। यहां के लॉजों के सामने लकड़ी के मचान बने हैं, जिनमें लकड़ियों की सीढियों द्वारा चढा जाता है और बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था है। शाम के समय सैलानी यहां बैठकर दूरबीन से दूर-दूर तक फैले प्राकृतिक सौन्दर्य तथा अभयारण्य में स्वच्छंद विचरण करते वन्य जीवों को देख सकते हैं। सैलानी यहां आकर प्राकृतिक सौन्दर्य का जी भर कर आनन्द उठा सकते हैं। हाँ वनरक्षक ताकीद कर जाते हैं कि देर रात तक बाहर न रहें और न ही रात के समय कमरों से बाहर निकलें। ऐसी ही हिदायतें यहां जगह-जगह पर लिखी हुई भी हैं। इसकी वजह है कभी-कभी रात के समय अक्सर जंगली हाथियों के झुंड या कोई खूंखार जंगली जानवर यहां तक आ धमकते हैं।
अभयारण्य का भ्रमण केवल हाथियों में सवार होकर ही किया जा सकता है, क्योंकि मोटर-गाडियों के शोर से वन्य-जीव परेशान हो जाते हैं। हाथी पर्यटकों को लाँज से ही मिल जाते हैं। हाथी में बैठकर पर्यटक जंगल की ऊंची-नीची पगडंडियों, ऊंची-ऊंची घास तथा शाल के पेड़ों के बीच से होकर गुजरते हैं। यहां शेर-बाघ ही नहीं हाथियों के झुंड, कुलांचें भरते हिरणों का समूह, छोटे-छोटे नदी-नाले, झरनों का गीत, रामगंगा नदी की तेज धारा का शोर, शाल वृक्षों की घनी छाया और घने जंगल का मौन सब कुछ अपने आप में अनोखा है। रामगंगा नदी के दोनों तरफ घने जंगल के बीच यह अभयारण्य प्रकृति की अनोखी छटा बिखेरता है।
इस अभयारण्य में शेर, बाघ, हाथी, हिरण, गुलदार, सांभर, चीतल, काकड़, सुअर, भालू, बन्दर, सियार, नीलगाय आदि जानवर तथा कई तरह के पक्षी देखे जा सकते हैं। हाँ, प्रभातबेला तथा सांझ ढलने के वक्त कई जानवरों के झुंडों को देखने का तो अपना अलग ही मजा है। इसी वक्त पक्षियों का कलरव बड़ा ही मधुर लगता है।
कहा जाता है कि 1820 में अंग्रेजों ने इस बीहड़ जंगल की खोज की थी। उस वक्त यहां खूंखार जंगली जानवरों का साम्राज्य था। ब्रिटश शासन ने शुरू में यहां शाल वृक्षों का रोपण करवाया और इस उद्यान का नाम द हैली नेशनल पार्क रखा। आजादी के बाद इस उद्यान का नाम रामगंगा नेशनल पार्क रखा गया। 1957 में इसे जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान का नाम दिया गया।
जिम कार्बेट एक चतुर अंग्रेज शिकारी थे। उनका जन्म नैनीताल जिले के कालाढूंगी नामक स्थान में हुआ था। उन्होंने यहां के आदमखोर बाघों का शिकार कर इलाके के लोगों को भयमुक्त कराया था। स्थानीय लोग उन्हें गोरा साधु कहते थे। कालाढूंगी में उनके निवास को अब एक शानदार म्यूजियम का रूप दिया गया है। इसमें जिम कार्बेट के चित्र, उनकी किताबें, शेरों के साथ उनकी तस्वीरें, उस समय के हथियार, कई तरह की बन्दूकें और वन्य-जीवन से संबंधित कई प्रकार की पठनीय सामग्री देखने को मिलती है। शान्त वातावरण और घने वृक्षों की छाया में बने इस म्यूजियम के आंगन में बैठना बहुत अच्छा लगता है।
जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान समुद्र तल से 400 से 1100 मीटर तक की ऊंचाई में फैला है। इसका सबसे ऊंचा क्षेत्र कांडा है। इस उद्यान में घूमने का सबसे बढिया मौसम 15 नवम्बर से 15 जून, है। इसी दौरान यह सैलानियों के लिए खुला रहता है। यहां पहुंचने के लिए रामनगर रेलवे स्टेशन सबसे नजदीक है। यह दिल्ली से मात्र 240 किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से 290 किलोमीटर है। बसों, टैक्सियों और कार द्वारा यहां 5-6 घंटे में पहुंचा जा सकता है।
सरकार ने 1935 में वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम के तहत देशभर में राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के नेटवर्क में उनके आवास का संरक्षण किया है। 1973 में जब बाघ परियोजनाओं की शुरूआत की गई थी, उस समय 14 राज्यों में 23 आरक्षित वन क्षेत्र बनाए गए। बाद में दो और क्षेत्रों को इसके अन्तर्गत लाया गया, जिससे अब इनकी संख्या 25 हो गई है। इसके अन्तर्गत काजीरंगा, दुधवा, रणथम्भौर, भरतपुर, सरिस्का, बांदीपुर, कान्हा, सुन्दरवन आदि अभयारण्यों की स्थापना की गई। 1993 में जिम कार्बेट पार्क इस योजना के तहत आया।
वैज्ञानिक, आर्थिक, सौन्दर्यपरक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय मूल्यों की दृष्टि से भारत में वन्य जीवों की व्यावहारिक संख्या बनाए रखना तथा लोगों के लाभ, शिक्षा और मनोरंजन के लिए एक राष्ट्रीय विरासत के रूप में जैविक महत्व के ऐसे क्षेत्रों को सदैव के लिए सुरक्षित बनाए रखना इस योजना का मुख्य उद्देश्य है।
आज अवैध शिकारियों के शिकार के कारण देश में बाघ, शेरों और हाथियों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। उनके अवैध शिकार पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाने के लिए 1974 में एक प्रकोष्ठ की स्थापना की गई थी, जिसके तहत अवैध शिकारियों की धर-पकड़ का प्रावधान है। लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी अवैध शिकार जारी है। इसका क्या कारण हो सकते हैं? कारण चाहे जो भी हों, हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम वनों और वन्य जीवों को संरक्षण देने के प्रति गंभीर बनें। यह अकेले सरकार की जिम्मेदारी ही नहीं है, बल्कि इसमें हम सबकी भागीदारी निहायत जरूरी है।
दुधवा टाइगर रिजर्व
दुधवा टाइगर रिजर्व में पाली जाने वली हिरन की पांच प्रजातियों में खासी वृद्धि हुयी है। विभाग के वर्ष 2005 के आंकड़ों के मुताबिक इनकी संख्या बढ़कर 25 हजार पहुंच गयी है। दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में प्रांतीय वन्य पशु बाराहसिंगा आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। बरसात में सुहेली नदी के उफनाने से पार्क के वन्य पशुओं को भी सुरक्षित स्थान तलाशना पड़ता है। भोजन की तलाश में पार्क से बाहर निकले हिरन कभी शिकारियों के तो कभी कुत्तों के शिकार हो जाते हैं। पिछले दो माह में दर्जन भर हिरन कुत्तों के हमले से गंभीर रूप से जख्मी हुए हैं। दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना 614 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र वन को संरक्षित कर 1977 में की गयी थी। पार्क क्षेत्र में हिरनों के झुण्ड देखे जा सकते हैं। दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में हिरनों की पांच प्रजातियां पायी जाती है। इनमें सबसे मुख्य बारहसिंगा है। इसके अलावा काकर पाढ़ा, चीतल, सांभर भी बहुतायत रुप में पाए जाते हैं।
बारहसिंगा, हिरन प्रजाति का वन्य पशु है। जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य पशु घोषित कर रखा है। यह दुर्लभ वन्य जीव होने के कारण इसे अनुसूची में रखा गया है। बारहसिंगा दुधवा टाइगर रिजर्व, कतर्निया घाट, वन्य जीव बिहार, पीलीभीत, हस्तिनापुर वन्य जीव बिहार, आसाम के काजीरंगा बंगाल के सुन्दर बन के वनों में भी पाया जाता है। मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में भी बारहसिंगा की दूसरी प्रजाति पाई जाती है। बारा सिंघा प्राय: नम दलदली घास वाले क्षेत्र में रहना पसन्द करते हैं। बारहसिंगा प्राय: समूहों में रहना पसन्द करता है। इसकी ऊंचाई कंधे पर लगभग 120 से 135 सेमी तक एवं भार 170 से 180 किलो ग्राम तक होता है। इसके सींग 75 सेमी लम्बे होते हैं। अधिकांश बारहसिंघों के सींगों में 10 से 14 तक शाखाएं होती हैं। अधिकतम 20 शाखाएं वाले बारहसिंगा भी देखे गए हैं। नर बारहसिंगा के शरीर का रंग मादा से अधिक गहरा होता है। ग्रीष्म ऋतु में इसके शरीर का पीला भूरा होता है। जिस पर हल्की चित्तियां देखी जा सकती हैं। शीतकाल में शरीर पर बाल अधिक उगने से यह चित्तियां बालों में ही छिप जाती हैं। नव जात शावकों के शरीर पर स्पष्ट सफेद धब्बे देखे जाते हैं। जो आयु बढ़ने के साथ-साथ विलुप्त होने लगते हैं। बाराह सिंघा प्राय: चरने के लिए प्रात: या शायं काल ही दिखायी पड़ते हैं। दिन में यह आराम करते हैं। इनकी दृष्टि एवं श्रवण शक्ति सूंघने की शक्ति के समान तेज रहती है। मादा एक बार में एक ही बच्चे को जन्म देती हैं। यह दुर्लभ जाति का प्राणी है। इसे अनुसूची प्रथम में रखा गया है। हिरण प्रजाति में सांभर बड़ा सदस्य होता है। सांभर घने वन क्षेत्रों में रहना पसन्द करता है। सांभर कभी-कभी अकेले भी दिखाई पड़ता है। अधिकतर समूह में ही देखे जाते हैं। कंधे की ऊंचाई लगभग 140 से 150 सेमी तक होती है। इसकी सींगे 70 से 90 सेमी तक लम्बी तथा 3 से चार शाखाओं वाली होती हैं। शरीर का रंगा गाढ़ा भूरा होता है। यह प्राय रात्रि में ही चरते हैं। इसे अनुसूची तृतीय में रखा गया है। इसकी दृष्टि सामान्य तथा श्रवण एवं सूंघने की शक्ति तेज होती है। इन दो प्रजातियों के अलावा हिरण की प्रजाति में पाढ़ा, चीतल तथा काकड़ आते हैं। दुधवा टाइगर रिजर्व में यह सभी प्रजातियां पायी जाती हैं। दुधवा नेशनल पार्क में किशनपुर पशु बिहार सहित कुछ अन्य क्षेत्र जोड़कर नाम दुधवा टाइगर रिजर्व 1994 में कर दिया गया। दुधवा टाइगर रिजर्व का 884 वर्ग किमी क्षेत्रफल है। 2005 की गणना के अनुसार दुधवा टाइगर रिजर्व में सांभर की संख्या 76 चीतल 12427, बाराहसिंगा 2854, पाढ़ा 4036, काकड़ की संख्या 785 है। दुधवा टाइगर रिजर्व में यह संख्या 20178 है जो अब बढ़कर 25000 से अधिक हो गयी है।
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नीलगिरी मंडल में प्रोजेक्ट एलीफैंट चलाया जा रहा है। इस मंडल में बांदीपुर और नागरहोला राष्ट्रीय उद्यान, मुथुमाला वन्य क्षेत्र और मुथहंगा वन्य अभ्यारण आते है। लेकिन बढ़ते तापमान एवं कम वर्षा के कारण ये सभी सूखे से प्रभावित हैं। जिसके कारण जानवरों को पीने के पानी और भोजन की कमी की सामना करना पड़ रहा है।
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वन्यजीव संरक्षण की दिशा में बेहतर कदम उठाते हुए अतिसंकटग्रस्त वन्यप्राणी 16 पिग्मी हॉग्स को असम के सोनाई रूपाई अभयारण्य में छोड़ा गया। इन्हें पिग्मी हॉग कन्जरवेशन प्रोग्राम (पीएचसीपी) के तहत छोड़ा गया है। उल्लेखनीय है कि 12 वर्ष पहले यह प्राणी यहाँ से पूर्ण रूप से लुप्त हो गया था लेकिन इस कार्यक्रम के चलते इसके पुनर्जीवित होने की आशा एक बार फिर जागी है
पीएचसीपी की सफलता की कहानी 1996 से शुरू हुई जब 6 पिग्मी हॉग्स को मानस राष्ट्रीय अभयारण्य से पकड़कर यहाँ लाया गया था। तब इन जीवों के साथ प्रजनन की समस्या चल रही थी। तब पीएचसीपी ने डूरैल वाइल्डलाइफ कन्जरवेशन ट्रस्ट, वर्ल्ड कन्जरवेशन यूनियन पिग्स, पिकेरीज और हिप्पो स्पेशलिस्ट ग्रुप के साथ मिलकर इनके प्रजनन का बीड़ा उठाया और इनकी संख्या में इजाफा कर 75 तक पहुँचाने में कामयाब रहे।
पिग्मी हॉग्स सूअरों की सबसे छोटी प्रजाति है। इनकी ऊँचाई 25 से 30 सेंटीमीटर होती है और एक समय ये भारत, नेपाल और भूटान में बहुतायत में मिलते थे। 1960 के दशक में ये इन देशों में लुप्तप्राय हो गए थे और उसके बाद ये बहुत थोड़ी संख्या में मानस राष्ट्रीय अभयारण्य में मिले जिससे प्रकृतिप्रेमियों में खुशी की लहर दौड़ गई। इससे पूर्व 90 के शुरुआती दशक में बोडोलैण्ड के अभियान के समय इनकी बची-खुची संख्या को भी अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ा और उस समय यह लगभग लुप्त हो गए थे।
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