Jati Pratha Par Nibandh pdf जाति प्रथा पर निबंध pdf

जाति प्रथा पर निबंध pdf

GkExams on 12-05-2019

भारतीय समाज में जाति प्रथा पर निबन्ध -



जाति-प्रथा हिन्दू समाज की एक प्रमुख विशेषता है । प्राचीन समय पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि इस प्रथा का लोगों के सामाजिक, आर्थिक जीवन पर विशेष प्रभाव रहा है ।



वास्तव में समाज में आर्थिक मजबूती और क्षमता बढ़ाने के लिए श्रम विभाजन के आधार पर इस प्रथा की उत्पत्ति हुई थी । आरंभ में इस विभाजन में सरलता थी और एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति को अपना सकता था । परन्तु समय के साथ-साथ इस क्षेत्र में संकीर्णता आ गई ।



जाति प्रथा का प्रचलन केवल भारत में ही नहीं बल्कि मिस्र, यूरोप आदि में भी अपेक्षाकृत क्षीण रूप में विद्यमान थी । ‘जाति’ शब्द का उद्‌भव पुर्तगाली भाषा से हुआ है । पी. ए. सोरोकिन ने अपनी पुस्तक ‘सोशल मोबिलिटी’ में लिखा है, ”मानव जाति के इतिहास में बिना किसी स्तर विभाजन के, उसमें रहने वाले सदस्यों की समानता एक कल्पना मात्र है ।” तथा सी. एच. फूले का कथन है ”वर्ग-विभेद जब वंशानुगत होता है, तो उसे जाति कहते हैं ।”



इस विषय में अनेक मत स्वीकार किए गए है । राजनैतिक मत के अनुसार जाति प्रथा उच्च श्रेणी के ब्राह्मणों की चाल थी । व्यावसायिक मत के अनुसार यह पारिवारिक व्यवसाय से उत्पन्न हुई है । साम्प्रदायिक मत के अनुसार जब विभिन्न सम्प्रदाय संगठित होकर अपनी अलग जाति का निर्माण करते है, तो इसे जाति प्रथा की उत्पत्ति कहते है । परम्परागत मत के अनुसार यह प्रथा भगवान द्वारा विभिन्न कार्यो की दृष्टि से निर्मित की गई है ।



कुछ लोग यह विश्वास करते है कि मनु ने ‘मनु स्मृति’ में मानव समाज को चार श्रेणियों में विभाजित किया है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र । विकास सिद्धांत के अनुसार सामाजिक विकास के कारण जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई है । सभ्यता के लंबे और मंद विकास के दौरान जाति प्रथा में कुछ दोष भी आते गए । इसका सबसे बड़ा दोष छुआछूत की भावना है । परन्तु शिक्षा के प्रसार से यह सामाजिक बुराई दूर होती जा रही है ।



जाति प्रथा की कुछ विशेषताएँ भी है । श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण इससे श्रमिक वर्ग अपने कार्य में निपुण होता गया क्योंकि श्रम विभाजन का यह कम पीढ़ियों तक चलता रहा था । इससे भविष्य-चुनाव की समस्या और बेरोजगारी की समस्या भी दूर हो गई ।



तथापित जाति प्रथा मुख्यत: एक बुराई ही है । इसके कारण संकीर्णता की भावना का प्रसार होता है और सामाजिक, राष्ट्रीय एकता में बाधा आती है जोकि राष्ट्रीय और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है । बडे पैमाने के उद्योग श्रमिकों के अभाव में लाभ प्राप्त नहीं कर सकते ।



जाति प्रथा में बेटा पिता के व्यवसाय को अपनाता है, इस व्यवस्था में पेशे के परिवर्तन की संभावना बहुत कम हो जाती है । जाति-प्रथा से उच्च श्रेणी के मनुष्यों में शारीरिक श्रम को निम्न समझने की भावना आ गई है । विशिष्टता की भावना उत्पन्न होने के कारण प्रगति कार्य धीमी गति से होता है ।



यह खुशी की बात है कि इस व्यवस्था की जड़ें अब ढीली होती जा रही हैं । वर्षो से शोषित अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति के लोगों के उत्थान के लिए सरकार उच्च स्तर पर कार्य कर रही है । संविधान द्वारा उनको विशेष अधिकार दिए जा रहे है । उन्हें सरकारी पदों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश प्राप्ति में प्राथमिकता और छूट दी जाती है ।



आज की पीढी का प्रमुख कर्तव्य जाति-व्यवस्था को समाप्त करना है क्योंकि इसके कारण समाज में असमानता, एकाधिकार, विद्वेष आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं । वर्गहीन एवं गतिहीन समाज की रचना के लिए अंतर्जातीय भोज और विवाह होने चाहिए । इससे भारत की उन्नति होगी और भारत शीघ्र ही समतावादी राष्ट्र के रूप में उभर सकेगा ।

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Comments Pooja on 01-12-2022

Jati prata dur rakhane ke ham kay kadam uta sakte hai

Luvkush Rawat on 24-11-2022

Pdf


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