अलबरूनी की भारत यात्रा
“मेरी पुस्तक तथ्यों का ऐतिहासक अभिलेख है मैं पाठकों के सम्मुख हिन्दुओं के सिद्धांत एकदम ठीक रूप में प्रस्तुत करूंगा और उनके संबंध में यूनानियों के वे सिद्धांत पेश करूँगा जो हिन्दू सिद्धान्तों से मिलते-जुलते हैं ताकि उन दोनों के बीच जो संबंध है वह उजागर हो सके….।”
“अपने विषय का प्रतिपादन करने से पहले हमें इस संबंध में समुचित विचार करना होगा कि वह क्या बात है जो भारत संबंधी किसी भी विषय के मूल तक पहुंचने में विशेष रूप से कठिनाई उपस्थित करती है। इन कठिनाइयों का बोध या तो हमारे कार्य को आगे बढ़ाने में सुविधा प्रदान करेगा या यदि हमारे कार्य में कोई त्रुटि रह जाए तो उसका कारण सिद्ध होगा।”
“पहली कठिनाई तो यह है कि वे हमसे हर उस बात में भिन्न हैं जिसमें हममें और अन्यजातियों में समानता है। पहले भाषा को ही लें…..यदि आप इस कठिनाई का समाधान करना चाहते हैं (यानी संस्कृत सीखना चाहते हैं) तो आपके लिए ऐसा करना आसान नहीं होता क्योंकि शब्द-भंडार तथा विभक्तियों दोनों ही दृष्टि से इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है।”
“यही नहीं, भारतीय लेखक बहुत लापरवाह भी हैं और वे सही तथा सुसंबद्ध विवरण प्रस्तुत करने में परिश्रम नहीं करते….।
दूसरी कठिनाई यह है कि वे धर्म में भी हमसे सर्वथा भिन्न हैं। कोई भी वस्तु जो किसी विदेशी की आग या पानी से छू जाए उसे वे अपवित्र मानते हैं…..।”“तीसरी बात यह कि वे सभी प्रकार के आचार-व्यवहार में…हमारी वेश-भूषा और हमारे रीति-रिवाजों से अलग हैं….।
कुछ और भी कारण हैं…(यथा) उनके जातिगत चरित्र की विशेषताएं….।”“अतः यह है भारत की वस्तुस्थिति। यही कारण है कि अपने विषय में अपार रुचि होने के बावजूद मुझे उसमें पैठने में बड़ी मुश्किल पेश आई…और यह भी तब जबकि मैंने संस्कृति के ग्रंथ एकत्र करने के लिए परिश्रम या धन खर्च करने में कोई कसर नहीं उठा रखी।”
यदि लेखन-शैली की ओर ध्यान न दिया जाए, जो कुछ पुरानी है, तो उपर्युक्त पंक्तियों को भारत पर लिखी किसी विदेशी समाजशास्त्री की हाल ही की किसी पुस्तक की भूमिका के उद्धरण समझा जा सकता है। वास्तव में यह एक ऐसी पुस्तक के आरंभिक पृष्ठों से ली गई पंक्तियां हैं जिसका लेखक आज से एक हजार से कुछ अधिक वर्षों पहले जन्मा था। इनके लेखक के लिए यहां की संस्कृति बिल्कुल नई थी लेकिन उसने उस समझने और अपने यहां के लोगों के लिए सहानुभूति पूर्वक प्रस्तुत करने का ऐसी अवधारणा ईमानदारी के साथ प्रयत्न किया कि उसे ‘‘सबसे पहले वैज्ञानिक और किसी भी युग के एक महानतम भारतविद्’’ के नाम से अभिहित किया गया।1 इस पुस्तक का नाम है ‘किताब फ़ी तहफ़ूक़ मा लिल हिन्द मिन मक़ाला मक़्बूला फ़िल अक़्ल-औ-मरजूला’ जिसे आम तौर पर ‘किताब-उल-हिन्द’ कहा जाता है और उसका लेखक था अबू रेहान मुहम्मद इब्न-ए-अहमद जिसे ज़्यादातर लोग अल-बिरूनी के नाम से जानते हैं। एडवर्ड सी. सखाऊ ‘किताब-उल-हिन्द’ के संपादक और अनुवादक हैं|
अल बिरूनी का जन्म 973 ई. में ख़्वारिज़्म इलाके में हुआ था जिस पर उस समय तूरान और ईरान के सामानी वंश (874-999) का शासन था। ख़्वारिज़्म, आधुनिक ख़ीव जो उन्नीसवीं शताब्दी में मध्य एशिया में तुर्किस्तान का ख़ान राज्य था। यह अब उज्बेकिस्तान का एक भाग है।. यद्यपि अल-बिरूनी का जन्म ख़्वारिज्म में हुआ था तथापि उसके माता-पिता ईरानी मूल के थे और उन्हें उस स्थान पर परदेशी माना जाता, इसी कारण से उन्हें फ़ारसी उपनाम बिरूनी (बाहर के) दिया गया। उसका जन्म नगर में नहीं बल्कि उपमहानगरीय क्षेत्र में हुआ था जिसके कारण उसे अल-बिरूनी की संज्ञा दी गई और आज वह अपने असली नाम के बजाय इसी नाम से जाना जाता है। ‘बिरूनी’ फ़ारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘बाहर का’; प्रस्तुत संदर्भ में इसका अभिप्राय ख़्वारिज़्म नामक नगर का सीमांत प्रदेश है।
अल-बिरूनी के जीवन से संबंधित अरबी के कुछ प्राचीन ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि बिरून सिंध के एक शहर का नाम था और चूंकि वह उसी शहर में पैदा हुआ था इसलिए उसका नाम अल-बिरूनी पड़ा। लेकिन यह भ्रांत धारणा है जो शायद इस वजह से पैदा हुई होगी क्योंकि सिंद में निरून नामक एक नगर था और प्रतिलिपिक की गलती से उसे बिरून पढ़ लिया और फिर उसी स्थान को अल-बिरूनी का जन्म स्थान मान लिया गया।1 अल-बिरूनी की भारतीय संस्कृति में प्रखर रुचि को ही शायद उसके भारतीय मूल का परिचायक मान लिया गया।
अल-बिरूनी ईरानी मूल का मुसलमान था। उसके आरंभिक जीवन और लालन-पालन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है2 लेकिन लगता है उसे अपने बचपन में पढ़ने-लिखने के पर्याप्त अवसर मिले होंगे। स्वाध्याय में उसकी रुचि आजीवन बनी रही। इस संबंध में एक कथा है कि उस समय जबकि वह अपनी अंतिम सांसे ले रहा था और उसका एक मित्र उससे मिलने आया तो अल-बिरूनी ने उससे गणित संबंधी उसके समाधान के बारे में पूछा जिसका हवाला उस मित्र ने पहले कभी उसे दिया होगा। उसका मित्र हैरान हो गया और बोला, ‘ताज्जुब है कि तुम इस अवस्था में भी इन बातों के प्रति चिंतित हो।’’ अल-बिरूनी ने बड़ी मुश्किल से उसकी हैरानी दूर करते हुए कहा, ‘‘क्या मेरे लिए यह वांछनीय न होगा कि मैं निर्मेय का समाधान जाने बिना मर जान के बजाय उसे जान लूं और फिर दम तोड़ूं ? इस पर मित्र ने उसे इच्छित जानकारी दी और वह कमरे से बाहर निकला ही था कि उसने लोगों को अल-बिरूनी की मृत्यु पर विलाप करते सुना।
अल-बिरूनी एक महान भाषाविद् था और उसने अनेक पुस्तकें लिखी थीं। अपनी मातृभाषा ख़्वारिज़्मी के अलावा जो उत्तरी क्षेत्र की एक ईरानी बोली थी और जिस पर तुर्की भाषा का प्रबल प्रभाव था, वह इब्रानी, सीरियाई और संस्कृत का भी ज्ञाता था। यूनानी भाषा का उसे कोई प्रत्यक्ष ज्ञान तो न था लेकिन सारियाई और अरबी अनुवादों के माध्यम से उसने प्लेटो तथा अन्य यूनानी आचार्यों के ग्रंथों का अध्ययन किया था। जहां अब तक अरबी और फ़ारसी का संबंध है इस दोनों भाषाओं का उसे गहन ज्ञान था और उसने अधिकांश पुस्तकें जिनमें ‘किताब-उल-हिन्द’ शामिल है फ़ारसी ही में लिखी थीं क्योंकि वही उस युग की अंतर्राष्ट्रीय भाषा थी। उसी में समस्त सभ्य संसार के वैज्ञानिक ग्रंथ संगृहीत थे और वही विज्ञान तथा साहित्य की विभिन्न शाखाओं में उपलब्ध बहुमूल्य योगदानों का माध्यम थी।
अल-बिरूनी का आरंभिक जीवन एक ऐसे युग में बीता था जिसके दौरान मध्य एशिया में बहुत तेजी के साथ और बड़े प्रचंड राजनीतिक परिवर्तन हुए थे और उनमें से कुछ परिवर्तनों का प्रभाव उसके जीवन और कृतियों पर भी पड़ा था।
इसके पहले ख़्वारिज़्म के स्थानीय राजवंश—मैमूनी—के संरक्षण में ही रहा था जिसने 995 ई. के आसापस सामानियों की पराधीनता का जुआ उतार फेंका था। इसका अल-बिरूनी के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और वह ख़्वारिज़्म छोड़कर चला गया और कुछ समय तक जुरजन में (जो कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व क्षेत्र में स्थित था) शम्सुल माइली क़ाबूस बिन वास्मगीर के दरबार में रहा जिसे उसने अपना ‘आसार-उल-बाक़िया’ अन-इल-कुरुन-अल-खालिया1 समर्पित किया था जो उसने सबसे प्राचीन तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में माना जाता है। लगता है कि 1017 में जब सुल्तान महमूद ग़ज़नवी ने (999-1030) ख़्वारिज़्म के राज्य पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया तो अल-बिरूनी ख़्वारिज़्म लौट आया। ख़्वारिज़्म के दरबार के प्रमुख व्यक्तियों में जिन्हें विजेता की राजधानी गजनी ले जाया गया था अल-बिरूनी भी था। उसके बाद वह अधिकतर ग़ज़नी में रहकर जीवकोपार्जन करता रहा और 440 हिं. (1048-1049)2 में 15 वर्ष की आयु में वहीं उसकी मृत्यु हुई।
यह बात स्पष्ट नहीं है कि अल-बिरूनी की सुल्तान महमूद के दरबार में क्या स्थिति थी। शायद वह एक बंधक के रूप में था; लेकिन एक विद्वान के रूप में उसकी उपलब्धियों के कारण और विशेष रूप से एक खगोलशास्त्री तथा ज्योतिषी होने के नाते वह एक सम्मानित बंधक रहा होगा। लेकिन इसके बावजूद सुल्तान महमूद के साथ उसके संबंध बहुत निकट के तथा मैत्रीपूर्ण नहीं रहे। भारत पर उसकी विख्यात ग्रंथ सुल्तान महमूद के राज्यकाल में ही (1030) के आसपास) रचा गया था, किन्तु उसमें सुल्तान का कुछ ही प्रसंगों में उल्लेख मिलता है और वह भी बहुत संक्षेप में। इसके बिलकुल विपरीत महमूद के पुत्र सुल्तान मसूद (1030-1040) के प्रति उसका दृष्टिकोण सौहार्दपूर्ण था जिसे उसने अपनी महानतम कृति ‘अल-क़ानून अल-मसूदी फ़िल हइया-वलनुजूम’ समर्पित की थी और उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की थी। अल-बिरूनी के जीवन का अंत भाग जो मसूद के दरबार में बीता था भौतिक समृद्धि और धन-संपत्ति से संपन्न रहा होगा।
ग़ज़नी में उसके प्रवास का यही वह काल है जबसे उसकी भारत में और भारतवासियों के प्रति रुचि प्रारंभ हुई थी। जैसा कि हमें ज्ञात है खगोलविज्ञान, गणित और आयुर्विज्ञान पर भारत में लिखे गए अनेक प्रमुख ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद बहुत पहले अब्बासी काल के आरंभ में ही हो चुका था। इसमें से कुछ अल-बिरूनी के पास भी रहे होंगे। यह बात स्वयं ‘किताब-उल-हिन्द’ से स्पष्ट हो जाती है जिसमें अल-बिरूनी ने संस्कृति की उन पांडुलिपियों का जो उसने देखी थीं और उनमें से कुछ नकलनवीसों की गलतियों आदि का उल्लेख किया है। अल-बिरूनी को अपने ग़ज़नी-प्रवास के दौरान भारत विषयक अध्ययन के लिए अधिक अवसर मिले होंगे।
ग़ज़नी शहर पूर्वी क्षेत्र में इस्लाम का प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र था और उसने पड़ोसी देशों में जिनमें भारत भी शामिल है कुशल व्यक्तियों को आकर्षित किया होगा। उसमें अनेक भारतीय युद्धबंदी, कुशल शिल्प और विद्वान भी थे जो महमूद के भारत पर आक्रमण के बाद लाए गए होंगे। इसके अलावा पंजाब भी जिसमें हिन्दुओं का भारी बहुमत था, ग़ज़नवी साम्राज्य का ही एक अंग बन गया था। ग़ज़नी तथा भारत के कुछ अन्य नगरों में जहां वह गया होगा1 अल-बिरूनी का अनेक भारतीय विद्वानों और पंडितों से संपर्क हुआ होगा और जिनके साथ जैसा कि एस. के. चटर्जी ने संकेत दिया है उसने पश्चिमी पंजाब की बोली के माध्यम से जिसे अल-बिरूनी ने सीख लिया होगा या फ़ारसी के माध्यम से शास्त्रीय संबंध स्थापित किया होगा जिसे कुछ भारतीयों ने सीख लिया होगा।
गजनी प्रवास के समय अलबीरूनी की भारत यात्रा के प्रति रुचि केसे जाग्रत हुई
अल बेरूनी के अनुसार भारत के लोग क्या करने मे माहिर थे?
➕
Al biruni ki yatra vritant ki visheshtaian bataiye
अलबरूनी ने भारत यात्रा किस कारण की थी
अलेबेरूणी भारतात कोणत्या वर्षी आला
अलबरूनी भारत प्रथम यात्रा पे कब आया ??
Albaruni ke dwara jikra kiya gaya hadi jati ke bare me adhik histrical jankari?
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