राजस्थान की अर्थव्यवस्था pdf
राजस्थान की अर्थव्यवस्था मुख्य रुप से कृषि कार्यों एव पशुपालन पर ही निर्भर करती है, तथा कृषि के उपरान्त पशुपालन को ही जीविका का प्रमुख साधन माना जा सकता है। राजस्थान मुख्यत: एक कृषि व पशुपालन प्रधान राज्य है और अनाज व सब्जियों का निर्यात करता है। अल्प व अनियमित वर्षा के बावजूद, यहाँ लगभग सभी प्रकार की फ़सलें उगाई जाती हैं। रेगिस्तानी क्षेत्र में बाजरा, कोटा में ज्वार व उदयपुर में मुख्यत: मक्का उगाई जाती हैं। राज्य में गेहूँ व जौ का विस्तार अच्छा-ख़ासा (रेगिस्तानी क्षेत्रों को छोड़कर) है। ऐसा ही दलहन (मटर, सेम व मसूर जैसी खाद्य फलियाँ), गन्ना व तिलहन के साथ भी है। चावल की उन्नत किस्मों को भी यहाँ उगाया जाने लगा है। चंबल घाटी और इंदिरा गांधी नहर परियोजनाओं के क्षेत्रों में इस फ़सल के कुल क्षेत्रफल में बढ़ोतरी हुई है। कपास व तंबाकू महत्त्वपूर्ण नक़दी फ़सलें हैं। हाँलाकि यहाँ का अधिकांश क्षेत्र शुष्क या अर्द्ध शुष्क है, फिर भी राजस्थान में बड़ी संख्या में पालतू पशू हैं व राजस्थान सर्वाधिक ऊन का उत्पादन करने वाला राज्य है। ऊँटों व शुष्क इलाकों के पशुओं की विभिन्न नस्लों पर राजस्थान का एकाधिकार है।
सिंचाई की व्यवस्था
अत्यधिक शुष्क भूमि के कारण राजस्थान को बड़े पैमाने पर सिंचाई की आवश्यकता है। जल की आपूर्ति पंजाब की नदियों, पश्चिमी यमुना (हरियाणा) और आगरा नहर (उत्तर प्रदेश) तथा दक्षिण में साबरमती व नर्मदा सागर परियोजना से होती है। यहाँ हज़ारों की संख्या में जलाशय (ग्रामीण तालाब व झील) हैं, लेकिन वे सूखे व गाद से प्रभावित हैं। राजस्थान भांखड़ा परियोजना में पंजाब और चंबल घाटी परियोजना में मध्य प्रदेश का साझेदार राज्य है। दोनों परियोजनाओं से प्राप्त जल का उपयोग सिंचाई व पेयजल आपूर्ति के लिए किया जाता है। 1980 के दशक के मध्य में स्वर्गीय प्रधानमंत्री की स्मृति में राजस्थान नहर का नाम बदलकर इंदिरा गांधी नहर रखा गया, जो पंजाब की सतलुज और व्यास नदियों के पानी को लगभग 644 किलोमीटर की दूरी तक ले जाती है और पश्चिमोत्तर व पश्चिमी राजस्थान की मरुभूमि की सिंचाई करती है।
पशुधन
राजस्थान में पशु-सम्पदा का विषेश रुप से आर्थिक महत्व माना गया है। राज्य के कुल क्षेत्रफल का 61 प्रतिशत मरुस्थलीय प्रदेश है, जहाँ जीविकोपार्जन का मुख्य साधन पशुपालन ही है। इससे राज्य की शुद्ध घरेलू उत्पत्ति का महत्त्वपूर्ण अंश प्राप्त होता है। राजस्थान में देश के पशुधन का 7 प्रतिशत था, जिसमें भेड़ों का 25 प्रतिशत अंश पाया जाता है। भारतीय संदर्भ में पशुधन के महत्त्व को दर्शाने के लिए नीचे कुछ आँकड़े दिए गए है, जो इस प्रकार हैं-
राजस्थान में देश के कुल दुग्ध उत्पादन का अंश लगभग 10 प्रतिशत होता है।
राज्य के पशुओं द्वारा भार-वहन शक्ति 35 प्रतिशत है।
भेड़ के माँस मे राजस्थान का भारत में अंश 30 प्रतिशत है।
ऊन में राजस्थान का भारत में अंश 40% है। राज्य में भेंड़ों की संख्या समस्त भारत की संख्या का लगभग 25 प्रतिशत है।
महत्त्व
राजस्थान की अर्थव्यवस्था के बारे में यह कहा जाता है कि यह पूर्णत कृषि पर निर्भर करती है तथा कृषि मानसून का जुआ मानी जाती है। इस स्थिति में पशुपालन का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। राजस्थान में पशुधन का महत्व निम्नलिखित तथ्यों से देखा जा सकता है-
राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान - राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में पशुधन का योगदान लगभग 9 प्रतिशत है।
निर्धनता उन्मूलन - निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम में भी पशु-पालन की महत्ता स्वीकार की गई है। समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम में गरीब परिवारों को दुधारु पशु देकर उनकी आमदनी बढ़ाने का प्रयास किया गया था। लेकिन इसके लिए चारे व पानी की उचित व्यवस्था करनी होती है तथा लाभान्वित परिवारों को बिक्री की सुविधाएं भी प्रदान करनी होती हैं।
रोज़गार-सृजन - पशुपालन में ऊँची आमदनी व रोज़गार की संभावनाएँ निहित हैं। पशुओं की उत्पादकता को बढ़ाकर आमदनी में वृद्धि की जा सकती है। राज्य के शुष्क व अर्द्ध-शुष्क भागों में कुछ परिवार काफ़ी संख्या में पशुपालन करते है और इनका यह कार्य वंश-परम्परागत चलता आया है। इन क्षेत्रों में शुद्ध घरेलू उत्पत्ति का ऊँचा अंश पशुपालन से सृजित होता है। इसलिए मरु अर्थव्यवस्था मूलतः पशु-आधारित है।
डेयरी विकास - पशुधन की सहायता से ग्रामीण दुग्ध उत्पादन को शहरी उपभोक्ताओं के साथ जोड़कर शहरी क्षेत्र की दुग्ध आवश्यकता की आपूर्ति तथा ग्रामीण क्षेत्र की आजीविका की व्यवस्था होती है। राजस्थान देश के कुल दुग्ध उत्पादन का 10 प्रतिशत उत्पादन करता है। राज्य में 1989-1990 में 42 लाख टन दूध का उत्पादन हुआ, जो बढ़कर 2003-2004 में 80.5 लाख टन हो गया।
परिवहन का साधन - राजस्थान में पशुधन में भार वहन करने की अपार क्षमता है। बैल, भैंसे, ऊँट, गधे, खच्चर आदि कृषि व कई परियोजनाओं में बोझा ढोने व भार खींचने का काम करते हैं। देश की कुल भार वहन क्षमता का 35 प्रतिशत भाग राजस्थान के पशु वहन करते है। देश में रेल व ट्रकों द्वारा कुल 30 करोड़ टन माल की ढुलाई होती है, जबकि बैलगाडियों से आज भी 70 करोड़ टन माल ढोया जाता है।
खाद की प्राप्ति - पशुपालन के द्वारा कृषि के लिए खाद की प्राप्ति भी होती है। इस समय जानवरों के गोबर से निर्मित वर्मी कम्पोस्ट खाद्य अत्यधिक प्रचलन में है।
पशुधन की संरचना
राजस्थान राज्य में विभिन्न प्रकार के पशु पाए जाते हैं, जिनकी संख्या को निम्न तालिका में प्रदर्शित किया गया है-
2003 में विभिन्न प्रकार के पशुओं की संख्या-
गौवंश अथवा गाय-बैल - 1.09 करोड़
भैंस जाति - 1.04 लाख
भेड़ जाति - 1.00 करोड़
बकरी जाति - 1.68 करोड़
शेष ऊँट, घोडै़, गधे, सूअर आदि - 10 लाख
इस प्रकार संख्या की दृष्टि से पशुओं में गाय-बैल तथा भेड़-बकरी प्रमुख हैं। राजस्थान में उपलब्ध विभिन्न जानवरों, जैसे- गाय, बकरी, भेंड आदि का वर्णन निम्नलिखित है-
(1.) गाय - राजस्थान में गाय पशुपालन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। कुल पशु-सम्पदा में गौवंश का 22.8 प्रतिशत है। इसकी निम्नलिखित नस्लें राजस्थान मे पाई जाती हैं-
नागौरी
कांकरेज
थारपारकर
राठी
(2.) भेंड़ - देश की कुल भेंडों की लगभग 25 प्रतिशत राजस्थान में पाई जाती हैं। राज्य के लगभग 2 लाख परिवार पशुपालन कार्यों में संलग्न हैं। यहाँ पाई जाने वाली भेड़ों की प्रमुख नस्लें इस प्रकार हैं-
जैसलमेरी भेड़
नाली भेड़
मालपुरी भेड़
मगरा भेड़
पूगल भेड़
मारवाड़ी भेड़
शेखावाटी भेड़ या चोकला
सोनाडी भेड़
पशुधन विकास की समस्याएँ
मानसून की अनिश्चिता - राजस्थान में प्राय: सूखे की समस्या रहती है। इसी वजह से पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा उपलब्ध नहीं हो पाता। योजना एवं समन्वय का अभाव - सरकार अभी तक इस क्षेत्र के विकास के लिए एक सम्पूर्ण योजना का खाका तैयार नहीं कर पायी है, तथा समन्वय का अभाव देखा गया है। पशु स्वास्थ्य योजना - अक्सर देखा जाता है कि किसी एक बीमारी के कारण सभी पशु उसकी चपेट में आ जाते हैं। इस स्थिति को समाप्त करने के लिए योजना एवं सुविधाओं का अभाव देखा गया है। पशु आधारित उद्योगों की कमी - राजस्थान में ऊन, दूध तथा चमड़ा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, परन्तु इन पर आधारित उद्योगों की राजस्थान में कमी होने से दूध, चमड़ा दूसरे राज्यों में निर्यात कर देने से राज्य को पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाता है।
विकास हेतु समाधान
राजस्थान में पशुधन का बेहरत प्रयोग हो सके और इससे अधिक से अधिक लाभ लिया जा सके, इसके लिए कई कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
गोपाल कार्यक्रम
पशुधन के विकास हेतु यह कार्यक्रम 1990-1991 में चालू किया गया था। इस गैर-सरकारी संगठन अथवा गांव के शिक्षित युवक (गोपाल) को उचित प्रशिक्षण देकर उसकी सेवाओं का उपयोग किया जाता है। इसमें विदेशी नस्ल का उपयोग बढ़ाने के लिए गोपाल को क्रॉस प्रजनन के लिए कृत्रिम गर्भाधान की विधि का प्रशिक्षण दिया जाता है। एक क्षेत्र के बेकार साड़ों को पूर्णतः बधिया दिया जाता है। पशु-पालकों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जाता है कि वे अपने पशुओं को स्टॉल पर किस प्रकार खिलावें और सदैव बाहर चरने की विधि पर आश्रित न हों।
भेड़ प्रजनन कार्यक्रम
राज्य में ऊन व मांस के उत्पादन में गुणात्मक व मात्रात्मक सुधार करने के लिए भेड़ प्रजनन कार्य में सुधार के व्यापक प्रयास किए गए हैं। क्रॉस-प्रजनन कार्यक्रम नाली, चोकला, सोनाडी व मालपुरी नस्लों पर लागू किया गया है। इसमें कृत्रिम गर्भाधान के जरिए भेड़ों की नस्ल सुधारी जाती है। इसके अलावा चयनित प्रजनन कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
विपणन व्यवस्था
पशुपालकों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त हो, इसके लिए एक तरफ़ पशुओं के क्रय-विक्रय हेतु पशु मेला लगाये जाते हैं। दूसरी तरफ़ दूध को बिना मध्यस्थों के सीधा उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियों की स्थापना की गयी है। राज्य में पशु मेलों का आयोजन ग्राम पंचायत, नगरपालिका एवं पंचायत समितियों के माध्यम से किये जाता है। राज्य में वर्तमान में 50 पशु मेले लगते हैं, जिनमें 10 मेले राज्य स्तरीय प्रसिद्ध पशु मेले, पशुपालन विभाग द्वारा आयोजित किये जाते है।
पशु चिकित्सा
राज्य में पशुओं की बीमारियों से रक्षा एवं रोकथाम के लिये नये चिकित्सालय खोले गये हैं, जहाँ 1951 में 147 चिकित्सालय थे। 2001-2002 में राज्य में 12 पशु क्लिनिक्स, 22 प्रथम ग्रेड के पशु चिकित्सालय, 1386 पशु चिकित्सालय, 285 पशु औषधालय तथा 1720 उपकेन्द्र कार्यरत हैं। इसके अलावा 34 ज़िला रोग प्रयोगशालाएँ राज्य में कार्यरत हैं। पशुपालकों को उनके घर पर ही पशु चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराने हेतु उपखण्ड स्तर पर 8 चल पशु चिकित्सा इकाइयाँ गठित करने की योजना बनाई है।
एकीकृत पशु विकास कार्यक्रम
8वीं योजना के प्रारम्भ में यह जयपुर एवं बीकानेर संभाग में चालू किय गया था, परन्तु वर्तमान में यह कार्यक्रम प्रदेश के कोटा, जयपुर, बीकानेर, अजमेर, उदयपुर संभागों के 21 ज़िलों में लागू हैं, जहाँ 749 उपकेन्द्र स्थापित किये गये हैं। इस योजना में पशुओं के स्वास्थ्य के अतिरिक्त कृत्रिम गर्भाधान, बेकार पशुओं का बन्ध्याकरण तथा उन्नत किस्म के चारे के बीजों का वितरण का उद्देश्य शामिल है।
पशुपालन व अनुसंधान
राज्य में द्वितीय पंचवर्षीय योजना में दो पशु चिकित्सा महाविद्यालय बीकानेर तथा जयपुर में स्थापित किये गये हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने बीकानेर एवं सूरतगढ़ में भेड़ अनुसंधान केन्द्र स्थापित किये हैं। जोधपुर में ऊन एवं भेड़ प्रशिक्षण स्कूल स्थापित किया गया है। विश्व बैंक की सहायता से जामडोली में पशु चिकित्सकों एवं अधिकारियों को विशेष तकनीकी प्रशिक्षण हेतु राजस्थान पशु-धन प्रबंध संस्थान का भवन निर्माण कार्य करवाया है।
उद्योग
भारत के सांद्रित जस्ता, सीसा, पन्ना व गार्नेट का संपूर्ण उत्पादन राजस्थान में ही होता है। देश जिप्सम व चांदी अयस्क उत्पादन का लगभग 90 प्रतिशत भाग भी राजस्थान में होता है। यहाँ के प्रमुख उद्योग वस्त्र, वनस्पति तेल, ऊन, खनिज, व रसायन पर आधारित हैं, जबकि चमड़े का सामान, संगमरमर की कारीगरी, आभूषण निर्माण, मिट्टी के बर्तन का निर्माण और पीतल का जड़ाऊ काम इत्यादि जैसे हस्तशिल्पों से काफ़ी विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। अनेक औद्योगिक राजधानी कोटा में नायलॉन और सूक्ष्म उपकरण बनाने की फ़ैक्ट्री के साथ- साथ कैल्शियम कार्बाइड, कास्टिक सोडा व रेयॉन टायर के तार निर्माण के संयंत्र भी हैं। उदयपुर में ज़िंक गलाने का संयंत्र है। राज्य को विद्युत आपूर्ति पड़ोसी राज्यों व चबंल घाटी परियोजना से होती है। कोटा के निकट रावतभाटा में नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र है।
Sir, plz this topik explain..... Raj.ki odhoyogik sanvardhi or haal ke roojhaan......
Rajasthan ki economic kis par aadharit he
Salt indstri kha ha
Please Sir send me rajasthan ki
India ki gdp me rajasthan ka kitna anshdan hai..
बकरी
राजस्थान की अर्थव्यवस्था मे किस पशु का सर्वाधिक योगदान हैै
Bahut acha0h0
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