नैतिक मूल्यों के उत्थान में शिक्षक की भूमिका
शिक्षा मनुष्य के सम्यक् विकास के लिए उसके विभिन्न ज्ञान तंतुओ को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया है। इसके द्वारा लोगों में आत्मसात करने, ग्रहण करने, रचनात्मक कार्य करने, दूसरों की सहायता करने और राष्ट्रीय महत्व के कार्यक्रमों में पूर्ण सहयोग देने की भावना का विकास होता है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को परिपक्व बनाना है ।
नीति शास्त्र की उक्ति है-‘‘ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः।” अर्थात् ज्ञान से हीन मनुष्य पशु के तुल्य है। ज्ञान की प्राप्ति शिक्षा या विद्या से होती है। दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। ‘शिक्ष’ धातु से शिक्षा शब्द बना है, जिसका अर्थ है-विद्या ग्रहण करना। विद्या शब्द ‘विद’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-ज्ञान पाना। ऋषियों की दृष्टि में विद्या वही है जो हमें अज्ञान के बंधन से मुक्त कर दे-‘सा विद्या सा विमुक्तये’। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में ‘अध्यात्म विद्यानाम्’ कहकर इसी सिद्धांत का समर्थन किया है।
शिक्षा की प्रक्रिया युग सापेक्ष होती है। युग की गति और उसके नए-नए परिवर्तनों के आधार पर प्रत्येक युग में शिक्षा की परिभाषा और उद्देश्य के साथ ही उसका स्वरूप भी बदल जाता है। यह मानव इतिहास की सच्चाई है। मानव के विकास के लिए खुलते नित-नये आयाम शिक्षा और शिक्षाविदों के लिए चुनौती का कार्य करते है जिसके अनुरूप ही शिक्षा की नयी परिवर्तित-परिवर्धित रूप-रेखा की आवश्यकता होती है। शिक्षा की एक बहुत बड़ी भूमिका यह भी है कि वह अपनी संस्कृति, धर्म तथा अपने इतिहास को अक्षुण्ण बनाए रखें, जिससे की राष्ट्र का गौरवशाली अतीत भावी पीढ़ी के समक्ष द्योतित हो सके और युवा पीढ़ी अपने अतीत से कटकर न रह जाए। 1
वर्तमान समय में शिक्षक को चाहिए कि सामाजिक परिवर्तन को देखते हुए उच्च शिक्षा में गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए केवल अक्षर एवं पुस्तक ज्ञान का माध्यम न बनाकर शिक्षित को केवल भौतिक उत्पादन-वितरण का साधन न बनाया जाए अपितु नैतिक मूल्यों से अनुप्राणित कर आत्मसंयम, इंद्रियनिग्रह, प्रलोभनोपेक्षा, तथा नैतिक मूल्यों का केंद्र बनाकर भारतीय समाज, अंतरराष्ट्रीय जगत की सुख-शान्ति और समृध्दि को माध्यम तथा साधन बनाया जाय। ऐसी शिक्षा निश्चित ही ‘स्वर्ग लोके च कामधुग् भवति।’ कामधेनु बनकर सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली और सुख-समृध्दि तथा शा़िन्त का संचार करने वाली होगी।2
वर्तमान शिक्षा में नैतिक मूल्यों का महती आवश्यकता है। वैदिक शिक्षा प्रणाली का मानना है कि समस्त ज्ञान मनुष्य के अंतर में स्थित है। भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार आत्मा ज्ञान रूप है ज्ञान आत्मा का प्रकाश है। मनुष्य को बाहर से ज्ञान प्राप्त नहीं होता प्रत्युत आत्मा के अनावरण से ही ज्ञान का प्रकटीकरण होता है। श्री अरविन्द के शब्दों में ‘‘मस्तिष्क को ऐसा कुछ नहीं सिखाया जा सकता जो जीव की आत्मा में सुप्त ज्ञान के रूप में पहले से ही गुप्त न हो।’ स्वामी विवेकानंद ने भी इसी बात को इन शब्दों में व्यक्त किया है-‘‘मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान मनुष्य में स्वभाव सिद्ध है कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता सब अंदर ही है हम जो कहते है कि मनुष्य ‘जानता’ है। यथार्थ में मानव शास्त्र संगत भाषा में हमें कहना चाहिए की वह अविष्कार करता है, अनावृत ज्ञान को प्रकट करता है ।
अतः समस्त ज्ञान चाहे वह भौतिक हो, नैतिक हो अथवा आध्यात्मिक मनुष्य की आत्मा में है। बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढका रहता है और जब आवरण धीरे-धीरे हट जाता है तब हम कहते है कि हम सीख रहे है जैसे-जैसे इस अनावरण की क्रिया बढ़ती जाती है हमारे ज्ञान में वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य नए सिरे से कुछ निर्माण करना नहीं अपितु मनुष्य में पहले से ही सुप्त शक्तियों का अनावरण और उसका विकास करना है।3
चारित्रिक एवं नैतिक शिक्षा पर बल देते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था – ‘शिक्षा मनुष्य के भीतर निहित पूर्णता का विकास है वह शिक्षा जो जनसमुदाय को जीवन संग्राम के उपयुक्त नहीं बना सकती, जो उनकी चारित्रिक शक्ति का विकास नहीं कर सकती, जो उनके मन में परहित भावना और सिंह के समान साहस पैदा नहीं कर सकती , क्या उसे भी हम शिक्षा नाम दे सकते है?’ शिक्षा का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था -‘सभी शिक्षाओं का, अभ्यासों का अंतिम ध्येय मनुष्य का विकास करना है। जिस अभ्यास के द्वारा मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रवाह और आविष्कार संयमित होकर फलदायी बन सकें।’
शिक्षार्थी के जीवन में नैतिक मूल्य परक उच्च शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि नैतिक मूल्यों वाली उच्च शिक्षा लोगों को एक अवसर प्रदान करती है जिससे वे मानवता के सामने आज शोचनीय रूप से उपस्थित सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक मसलों पर सोच-विचार कर सकें। अपने विशिष्ट ज्ञान और कौशल के प्रसार द्वारा उच्च शिक्षा राष्ट्रीय विकास में योगदान करती है। इस कारण हमारे अस्तित्व के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।4
उच्च शिक्षा के संदर्भ में गुणवत्ता की महत्ता का विश्लेषण करते हुए तत्कालीन उच्च शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव बसंत प्रताप सिंह ने कहा है- ‘‘उच्च शिक्षा का संबंध जीवन में गुणात्मक मूल्यों के विस्तार से है जिससे सभ्यता के विकास क्रम में अर्जित मानवता के दीर्घकालिक अनुभवों को आत्मलब्धि की दिशा में समाजीकरण के साथ अग्रसारित किया जा सके। ऐसे अनुभवों के समुच्चय ही कालान्तर में मूल्य बनते हैं जिन्हें अपनाने की परम्परा ही संक्षेप में संस्कृति कहलाती है।5 और इस संस्कृति के निर्माण में एक शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज के बदलते सामाजिक परिवेश में शिक्षा, शिक्षा के प्रकार और शिक्षा प्राप्त करने के तरीकों में कई परिवर्तन आए है, जिसमें शिक्षक की भूमिका में भी बदलाव आया है, एक अच्छे शिक्षक के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए महाकवि कालिदास ने कहा है कि श्रेष्ठ शिक्षक वही है जिसकी अपने विषय में गहरी पैठ हो। उसका अपने विषय पर तो अधिकार होना ही चाहिए, अध्यापन क्षमता भी उत्कृष्ट कोटि की होनी चाहिए, जिससे छात्रों को श्रेष्ठ ज्ञान लाभ मिल सके।6
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मसीही नैतिक शिक्षा में तर्क वितर्क की प्रमुख कंपनी क्या है
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शिक्षा में नैतिक मूल्यों का पतन एवं सामाधान
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