लोक साहित्य की परम्परा
लोक साहित्य ऐसी संश्लिष्ट रचना है जिसमें शिष्ट साहित्य-सदृश समग्र विधाओं को परिभाषित कर निरखना-परखना बाह्य दृष्टि से भले उचित हो, आंतरिक दृष्टि से कदापि संभव नहीं। यह जन-मन-जीवन-अनुभव का प्रारूप ही लोक द्वारा प्रदत्त एक सूत्र है जो प्रगीत-तत्वों से मिलकर लोकगीत तथा कथा से जुड़कर लोकगाथा बनती है। इसी तरह संवादों में ढलकर लोकनाट्य और किस्सा-गोई का वैशिष्ट्य लेकर लोककथा बनती है। इसके बावजूद वह भावनाओं व विचारों के प्रवाह में एक-दूसरी लोकविधाओं को स्पर्श करती है। यही कारण है कि लोककथा, लोकगाथा या लोकनाट्य मे विवाह का संदर्भ आने पर विवाह-गीत, प्रणय संपादन में ददरिया, विप्रलम्भ की स्थिति में सुवा-गीत, युद्ध के गीतों में पंडवानी आदि अन्यान्य गीतों व लोक छंदों का आगमन होता है। लोकसाहित्य का लोक अभिप्राय ही उसे शिष्ट साहित्य से पृथक करता है जो आंतरिक दृष्टि से एक होकर सार्वदेशिक तथा आंचलिक रंगों के प्रभाव से क्षेत्रिय बन जाता है। यही लोक अभिप्राय किसी लोकसाहित्य की आत्मा है जिनका तुलनात्मक अध्ययन लोक साहित्य के मूल स्वरूप को उद्घाटित करने के साथ उनके युगानुरूप परिवर्तन के इतिहास को प्रस्तुत करती है।
लोकसाहित्य परंपरा पोषक और संस्कृति-संवाहक होता है। इसमें युगानुरूप परिवर्तन बहुत धीमी गति से और आंशिक ही होता है। इसकी आत्मा को अक्षुण्ण रखकर यदि प्रयोग किए गए तो वे लोक-स्वीकृत और शिष्ट-समाहत हो सकतें हैं। कुछ समीक्षक लोक साहित्य को मूलरूप में विद्यमान होने के पक्षधर है। इसके अनुसार इनमें परिवर्तन या प्रयोग उसकी विकृति के परिचायक हैं लेकिन युगाग्रह और विकास को महत्व देने वाले परिवर्तन एवं प्रयोग के प्रतिष्ठापक हैं।
लोकसाहित्य लोक अर्जित भावनाओं के सरल-सहज उदगार हैं अत: उनमें परंपरा स्वत: संपृक्त हैं। शिष्ट साहित्य में परंपरा कृत्रिम और अपेक्षाकृत आरोपित होती है। जबकि लोक साहित्य में यही इसका प्राण है। यही कारण है कि इसमें कवि का श्रेय एक व्यक्ति न लेकर सभी लोकगायक ग्रहण करते हैं और इसका प्रत्येक गायक कवि नहीं, लोकगायक या लोकगीतकार कहलाता है। इसी आधार पर यह भाषा, बोली, जाति, वर्ण,पद के भेद को दूर करने में सक्षम और लोक को लोक बनाये रखने तथा समाज के प्रत्येक मनुज को समरस का सिद्धान्त संस्कार के रूप में प्रदान करने का संयोजन करता है। ये लोकगीत ही हमारे जीवन के अलिखित, व्यावहारिक शास्त्र हैं जो परंपरा से प्रचलित प्रतिष्ठित हैं। आज इसकी उपेक्षा के कारण ही मनुज लोक या समाज से हटा है, संस्कृति और भूमि से कटा है। ऐसे संक्रमणकाल में लोकसाहित्य की वापसी किसी न किसी बहाने लोग स्वीकार रहे हैं और प्रयोग के आधार पर ही सही, इसकी उपयोगिता का ग्रहण कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य के आधार पर समय-सीमा को निरखते हुए सूत्र रूप में यहाँ अपनी बात प्रस्तुत कर रहा हूं।
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों ने परंपरा, मर्यादा, नियम-अनुशासन के जो संस्कार दिए हैं वे अद्वितीय हैं। बेटी-बिदा-प्रसंग में पुत्री की मां, पिता,भाई और भाभी की वेदना को माप लिया गया है। माता की ममता असीम हैं अत: उसके रूदन से नदी बहने लगी। पिता की पीडा अपेक्षाकृत अल्प है, अत: उनके अश्रु से तडाग का निर्माण हुआ। भाई की भारवाहक व्यथा से डबरे भर गये लेकिन परायी घर से आयी भौजी के नेत्र सजल भी नहीं हो सके-
दाई के रोये नदिया बहत हे, ददा के रोये तलाव।
भाई के रोये डबरा भरत हे, भौजी के नयन कठोर।।
शिष्ट काव्य में पीड़ा को मायने और मर्यादा को मथकर संस्कार देने की ऐसी लोकोपयोगी शिक्षा अलभ्य है। अधोलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है कि बहन कटि को कसकर रो रही है जबकि भाई ग्रीवा को ग्रहण कर विलाप कर रहे हैं। यदि पिता मुख को ढाँपकर रूदनकर रहे हैं तो माँ गाय की तरह रंभाकर अर्थात् ''बोम-फारकरÓÓ रो रही है-
कनिहा पोटार के बहिनी रोवय, गर पोटार के भाई।
ददा बपुरा मुंह छपक के। बोम फार के दाई।।
यहाँ लोकगीतकार ने भाभी को हाशिये पर भी नहीं रखा है। रूदन की माप के आधार पर पीडा को प्रस्तुत करना लोकगीतकार को जितना अभीष्ट है, उतना ही वह वाणी के आधार पर भी व्यथा को व्यक्त करने और मापने का आग्रही है। अधोलिखित पंक्तियों में वह उद्घाटित करता है कि माँ बेटी को रोज आने, पिता छह माह में तथा भैया वर्ष में एक बार तीज-पर्व के अवसर पर लेने आने का तथ्य निवेदित करते हैं जबकि भौजी ननद को परायी होने का एहसास दिलाती हुई कहती है कि अब उसका इस घर में क्या काम है-
दाई कहे रोज आबे बेटी, ददा कहै छयमास हो।
भइया कहै तीजा-पोरा म, भौजी कहे कौन काम हो।
परम्परा- ग्रथित लोकगीत प्रकृति से प्रसूत और भूमि से उद्भूत हैं। यही कारण हैं कि इनके उपमान ओर प्रतीक अत्यन्त प्रभावी तथा समरस होते हैं। अधोलिखित छत्तीसगढ़ी सुवा-गीत में लोक गीतकार की उद्भावना हैं कि सुग्गे की चोंच टेढ़ी लाल कुंदरू फल सदृश है जिस पर मसूर की दो दालों की दो आँखे हैं। तन हरे भुट्टे की तरह है-
चोंच तोर दिखत हे, लाली-लाली कुंदरू,
रे मोरे सुवा, आँखी दिखे मसूरी के दार।
जोंधरी के पाना साँही,डेना-संवारें,
रे मोरे सुवा, सुन लेंबे बिनती हमार।।
नये उपमानों व प्रतीकों की शक्ल में कहीं एक प्रयोगवादी कविता पढ़ी थी। काली-कलूठी स्त्री की मोटी होंठ पर लिपिस्टिक को निरखकर कवि ने लिखा है--
तेरी काली-काली मोटी-मोटी
सुघर होंठ पर लिपिस्टिक ऐसी शोभा देती है
जैसे कोयले की खान में आग की ज्वाला सुलग गई हो।
उल्लेखनीय है कि कोयले की खान में ज्वाला सुुलगती देखकर एक काली महिला की मोटी होंठ पर लिपिस्टिक के लेप का बिम्ब नहीं उभरता जबकि उपर्युक्त छत्तीसगढ़ी, लोकगीत के उद्धरण में लाल कुंदरू फल, मसूर की दाल और भुट्टे के संयोजन से सुग्गा तैयार हो जाता है। प्रयोगवाद के नाम पर प्रस्थापित आज कितने उपमान व प्रतीक समरस हैं इसके विपरित नाम व यश लिप्सा से परे ये लोकगीतकार अर्थात् निरक्षर भट्टाचार्य अनेक आंचलिक उपमान व प्रतीक देकर लोकमानस में प्रतिष्ठित हैं। लोकगीतों में संस्कार रचे-बसे हैं जबकि शिष्ट साहित्य में यही संस्कृति से जुड़कर स्थायित्व प्राप्त करते हैं। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में व्यवहृत दो संस्कार-संपन्न लोकोक्तियों के उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा। हिन्दी में प्रचलित लोकोक्ति ''अंधा कानूनÓÓ यदि सचमुच अंधा होता तो ''अंधा पीसे कुत्ता खायेÓÓ की तरह धनी और गरीब दोनों के लिये सहायक होता। छत्तीसगढ़ी मड़ई गीत में मुझे एक मुहावरा मिला-''कनवा हे कानून अउ भैरा हे सरकार ग।ÓÓ इसमें काना-कानून मुहावरा प्रयुक्त है जो सार्थक है। पूजीपतियों के लिए कानून का एक नेत्र खुला और गरीबों के लिये इसकी एक आंख बंद है। इसी तरह ''काला अक्षर भैंस बराबरÓÓ लोकोक्ति भी उचित जान नहीं पड़ती क्योंकि भैंस और अक्षर रंग साम्य ही रखते हैं जबकि भैंस का हितैषी निरक्षर है। छत्तीसगढ़ी में समाहत ''काला अक्षर साँप बरोबरÓÓ अधिक उपयुक्त है। अक्षर और सर्प दोनों टेढ़े-मेढ़े है। अशिक्षित सर्प की तरह प्रतीत होने वाले अक्षरों से बिदकते हैं। समाचार पत्रों में हम सब छोटे अक्षर से लोकर मोटे अक्षर तक रोज देखते-पढ़ते हैं। छोटे अक्षर सबसे लघु सर्प ''अंधा साँपÓÓ की मोटाई वाले तथा सबसे बड़े अक्षर अजगर सर्प की मोटाई वाले ही दृष्टिगत होते हैं। अक्षर और सर्प में जो साम्य है, उसे छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में संरक्षित लोकोक्ति अक्षुण्ण रखती है जबकि ''आंख के अधूरे और गांठ के पूरेÓÓ हम शिष्ट साहित्य सर्जक और तथाकथित समीक्षक होकर भी संस्कार विपन्न भ्रम के भंवर में फंसे है। ऐसे अनेक उदाहरण है जिससे यह प्रमाणित होता है कि परंपरा पर आधारित लोकगीत अथवा लोकवार्ता की समग्र लोकविधाएं, जिजीविषा की उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है क्योंकि उन्हें मालूम है कि जब तक लोक रहेगा, लोक साहित्य जीवित रहेगा।
लोककलाएं प्रदर्शनकारी नहीं होती वे लोक के लिये अर्पित-समर्पित और सहज निर्मित स्फुरित लोकरचना होती है जो संस्कार व वातावरण के अनुरूप सहज-अभिव्यक्त होती है। इधर लोक कलाओं को प्रदर्शन और विचित्रता-निदर्शन का पर्याय मानकर उसे धिकृत-विकृत करने का जो उपक्रम किया जा रहा है, वह क्षम्य नहीं कहा जा सकता। यहां प्रदर्शनकारी लोककलाओं से आशय उसके जन-मन के मध्य लोकप्रिय होने और व्यवसाय के रूप में इसी पीढ़ी दर पीढ़ी संचालित रखने से है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यवसाय समझकर कलाकार इस क्षेत्र में अग्रसित हों और लोकलाओं को प्रदर्शनकारी बना दें। लोक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का महत्वपूर्ण संयोजन प्रदर्शन से संपृक्त होकर प्रकारान्तर में लोकनाट्य के प्रभाव दबाव को ही व्यक्त करता है। उदाहरणार्थ नाचा या गम्मत लोकनाट्य है लेकिन लोककीर्तन की परंपरा में अवस्थित लोकगाथा पंडवानी भव्य मंचों में जाकर लोकनाट्य से संपृक्त हुआ तद्नुरुप पंडवानी-गायक (गायक और गायिका भी) अभिनय के द्वारा हाव-भाव की विविध अभिव्यक्ति करने लगे। इस तरह लोकगाथाओं पर अभिनेयता का आकर्षण बढ़ा। इसी भांति छत्तीसगढ़ी लोक गाथा लोरिक चंदा में एक अभिनय अथवा विविध पात्रों के द्वारा लोकगाथा के साथ नाट्य प्रस्तुति का प्रभाव उसकी प्रदर्शनीयता की ही प्रतीति है। इसके विपरीत ढोला मारू, सरवन, गोपी-चंदा आदि लोकगाथा के रूप में अक्षुण्ण है लेकिन निकट भविष्य में लोकनाट्य से ओतप्रोत होकर ये भी प्रदर्शनकारी होंगी, ऐसा विश्वास बनता है। लोरिक चंदा को जहां प्रदर्शनकारी लोकनाट्य का स्वरूप देते हुए श्री लक्ष्मण चंद्राकर ने नव्य प्रयोग किया, वहीं उसकी प्रारंभिक प्रस्तुति को अक्षुण्ण रखते हुए श्रीमती रेखा निषाद व सोनसागर चनैनी पाटी कचांटुर ने साभिनय प्रस्तुति के द्वारा इसका मनमोहक प्रदर्शन किया है। पंडवानी की ''बेदमती शाखाÓÓ जहां प्रदर्शनकारी लोककला की श्रेणी में आकर भी लोककीर्तन व लोकगाथा के सन्निकट है, वहीं इसकी कापालिक शाखा लोकनाट्य के अधिक समीप है। प्रथम शैली के प्रमुख लोककलाकारों में श्री झाड़ूराम देवांगन, पूनाराम निषाद आदि है, जबकि दूसरी शैली में पद्मश्री तीजनबाई प्रसिद्ध है। भरथरी व ढोला की लोककथात्मक प्रस्तुति जहां श्रीमती सूरूज बाई की विशिष्टता है, वहीं उसकी लोकनाट्य प्रस्तुति श्रीमती रेखा निषाद की निजता है।
लोकनाट्य की भाव-भूमि पर छत्तीसगढ़ी लोककलाएं प्रदर्शनकारी ही सिद्ध हुई है। यदि श्री हबीब तनवीर के इस प्रयास ने उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्रदान की तो श्रीरामचंद्र देशमुख को ''चंदैनी गोंदाÓÓ कारी, से देशव्यापी प्रसिद्धि मिली। ''एक रात का स्त्री राजÓÓ लोकनाट्य ''डिंडबा नाचÓÓ का प्रयोगजन्य लोककला- रूप है जिसे श्री रामचंद्र देशमुख ने प्रस्तुत किया। यह लोकनाट्य महिलाओं तक सीमित था। इसे जन-जन तक प्रदर्शित करने का उपक्रम अभिनंदनीय है। ''अरे मायावी सरोवरÓÓ में डॉ. शंकर शेष ने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का प्रयोग किया है लेकिन उसका पर्यावरण प्रस्तुत करके उसे प्रस्तुत किया है। यही प्रयोग ग्राह्य है, जैसे कि ''भारत : एक खोजÓÓ दूरदर्शन धारावाहिक में पद्म श्री तीजन बाई के पंडवानी का प्रयोग अत्यंत प्रभावी है। श्री हबीब तनवीर के ''चरणदास चोरÓÓ और ''आगरा बाजारÓÓ को लोकसाहित्य का समावेश अर्थात् लोककथा और लोकगीत के अनुरूप परंपरा और परिवेश के परिपालन के कारण ही सफलता मिली है लेकिन यदि गांव के नाम ससुराल, मोर नाम दामाद में वे पिता द्वारा पुत्री- विक्रय की प्रथा की चर्चा करते हैं तो जन-मन इसे अंगीकार नहीं करता।
इसी भांति सुवा गीत में बाह्य प्रयोग एक बार स्वीकृत है लेकिन उसे दु्रत गति से गाकर और शास्त्रीयता का पुट देकर आकर्षक ढंग की प्रस्तुति का दावा करने वालों को यह कहने में संकोच नहीं है कि लोकगीत में लोकसंगीत का रहना और लोकधुन विशेष के कारण उसकी पहचान है। प्रत्येक लोकगीत लोकछंद है जिन पर कविता लिखकर आंचलिक कवि लोकप्रिय हो सकता है। देश की अनेक भाषा बोलियों के कवि गायक लोकगीत-शिल्प विधि को आधार मानकर अपनी पहचान बना चुके हैं लेकिन इसका परिष्कार और ताम-झाम के हिसाब से आधुनिक रूप में प्रस्तुति का प्रवास उचित नहीं होगा।
Loksahitya Parampar barnam Adhunikta long answer
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।