साहित्य शैली का महत्व
Homeआलेखडा॰ नगेंद्रडॉ.केदार सिंहसाहित्य-समाज-सिनेमा''शैली विज्ञान साहित्य के भाषिक विधान से आगे नहीं जाता''-डा॰ नगेंद्र ''शैली विज्ञान साहित्य के भाषिक विधान से आगे नहीं जाता''-डा॰ नगेंद्र
आलेख,डा॰ नगेंद्र,डॉ.केदार सिंह,साहित्य-समाज-सिनेमा,
साहित्य में समीक्षा के विभिन्न सिद्धान्त और पद्धतियाँ उपस्थित हैं। इन सभी पद्धतियों ने अपने समीक्षा कर्म के लिए विभिन्न प्रतिमानों को अपनाया है। इनमें से कुछ प्रतिमान कृतिबाह्य हैं तो कुछ कृतिकेंद्रित। कृतिबाह्य प्रतिमानों में समीक्षा का बल साहित्य से अधिक साहित्येत्तर तत्त्वों यथा - इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि पर अधिक होता है। ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक समीक्षा इसी श्रेणी में आती हैं। कृतिकेंद्रित समीक्षा में स्वयं कृति को विशुद्ध साहित्यशास्त्रीय नियमों की कसौटी पर कसा जाता है जिसमें उसके रूप, संरचना, शैली आदि का विवेचन होता है। स्पष्ट है रूपवादी, संरचनावादी और शैली वैज्ञानिक समीक्षा इसी श्रेणी में आती हैं।
शैली विज्ञान मूलतः भाषा विज्ञान का एक अंग है। इसलिए शैली वैज्ञानिक समीक्षा के केन्द्र में कृति की भाषा ही रहती है। शैली वस्तुतः भाषा का ही एक रूप है। भाषा के बिना साहित्य की परिकल्पना नहीं हो सकती। अज्ञेय के अनुसार - ’काव्य सबसे पहले शब्द है और सबसे अंत में यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।’’ स्पष्टतः कविता जिस अर्थ का वहन करती है उसकी अभिव्यक्ति शब्द के बिना असंभव है। इसलिए कविता या साहित्य की समीक्षा में भाषा पक्ष का विश्लेषण जरूरी है।
भाषा का विश्लेषण करते समय यह प्रश्न भी उठता है कि क्या सामान्य लोक व्यवहार की भाषा की ही कसौटी पर साहित्यिक भाषा का भी विवेचन होना चाहिए ? विद्वानों के अनुसार बोलचाल की भाषा का कार्य सूचना देना मात्र है। साहित्य का कथ्य अधिक गहरा होता है। उसकी विशिष्ट अनुभूति और विशिष्ट कथ्य विशिष्ट भाषा की अपेक्षा करते हैं। भाषा की मूल शब्दावली तथा संरचना को लेकर वह ध्वनि, शब्द तथा संरचना का विचलन करके - अर्थात् उन्हें सामान्य से भिन्न स्थिति में प्रयुक्त करके, शब्दों में कथ्य के अनुरूप नया अर्थ भर कर प्रस्तुत करता है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि सामान्य बोलचाल की भाषा में साहित्य रचा ही नहीं जा सकता? सामान्य भाषा में भी जहाँ विशिष्ट कथ्य या अनुभूति की व्यंजन हो जाती है वहाँ इसकी प्रकृति सर्जनात्मक हो जाती है। प्रेमचंद और नागार्जुन में यह विशेषता दृष्टिगोचर होती है। तात्पर्य यह कि सामान्य भाषा भी जब साहित्य में प्रयुक्त होती है तो उसमें एक विशेष अर्थवत्ता और लयात्मकता आ जाती है जो भाषा की सामान्यता को सर्जनात्मकता से रंग देती है।
भाषा में यह सर्जनात्मकता शैली के माध्यम से आती है। यह विशिष्टता कथ्य के अनुरूप ध्वनियों, शब्दावली, वाक्य-रचना, अलंकार, छंद आदि के चुनाव से आती है। इसके अतिरिक्त इसमें लेखक की निजी दृष्टि और विशेषता भी होती है। उदाहरण के लिए प्रेमचंद और प्रसाद की कहानियों की शैली का अंतर देखा जा सकता है। शब्द-चयन, वाक्य-रचना, वर्ण-पद्धति, चरित्रांकन सभी में इन दोनों की कहानियाँ कितनी भिन्न हैं। लेखकीय वैविध्य के अलावा गद्य और पद्य की अलग-अलग शैलियाँ हैं। गद्य में भी कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि की अलग-अलग शैलियाँ हैं।इन तमाम वैविध्य को देखते हुए शैली का कोई निश्चित स्वरूप तय नहीं किया जा सकता। परंतु एक बात ध्यातव्य है कि शैली के उपकरण भाषा के बाह्य अवयव होते हुए भी यह बाहरी स्तर तक ही सीमित नहीं है। इसका मुख्य उद्देश्य विशिष्ट अर्थ या आशय का संप्रेषण है। अतः यह भाषा के आभ्यंतर या आर्थी स्तर तक जाती है, सामान्य अर्थ के साथ ही ध्वनित अर्थ का भी प्रकाशन करती है।
शैली की रचना चूँकि भाषा के स्तर पर होती है अतः भाषा विज्ञान से इसका गहरा संबंध है और शैली विज्ञान प्राथमिक तौर पर भाषा विज्ञान की ही शाखा है। साहित्य समीक्षा के संदर्भ में यह साहित्यिक कृतियों के भाषिक तत्त्वों का विश्लेषण विवेचना कर कृतियों की शैली निर्धारित करता है। इस कारण इसकी प्रकृति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। हम जानते हैं कि साहित्यिक कृतियों के दो प्रमुख पक्ष होते हैं - भाव पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष। भाषा-शैली रचना के अभिव्यक्ति पक्ष से जुड़ी होती है। डा॰ नगेंद्र के अनुसार शैली विज्ञान साहित्य के भाषिक विधान से आगे नहीं जाता। अतः यह समीक्षा का एक अंग मात्र हो सकता है, संपूर्ण साहित्य समीक्षा नहीं। पर विद्वानों के दूसरे वर्ग के अनुसार शैली वैज्ञानिक समीक्षा इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह साहित्यिक आलोचना के बाह्य प्रतिमानों को नकार कर उसे आभ्यंतर प्रतिमान यानि कृति पर केंद्रित करती है और भाषिक संरचना को स्पष्ट कर यह समीक्षा को एक नया आयाम प्रदान करती है। इनके अनुसार यह समीक्षा कृति के कथ्य की उपेक्षा नहीं करती बल्कि कथन की भंगिमा या शैली कथ्य को स्पष्ट करती है। कहने का तात्पर्य यह कि यह पद्धति भाषा वैज्ञानिक तकनीक जरूर अपनाती है पर साथ-ही-साथ यह साहित्य सिद्धांत से भी जुड़ी रहती है और इसके दोनों पक्ष मिलकर समीक्षा को पूर्ण करते हैं।
आधुनिक शैली विज्ञान को वस्तुनिष्ठ रूपवादी चिंतन से जोड़ा गया है किंतु भारतीय काव्यशास्त्र में अत्यंत प्राचीन काल से भाषा तत्त्व पर बल रहा है। वामन ने विशिष्ट पदरचना या रीति को काव्य की आत्मा कहा है तो भामह ने वक्रोक्ति को। कंुतक कवि स्वभाव, कवि प्रतिभा आदि पर बल देते हुए भी काव्य के अनुभूति पक्ष के साथ-साथ अभिव्यक्ति को भी महत्व देते हैं। क्षेमेंद्र ने भी औचित्य सिद्धांत में काव्य के लिए समुचित भाषा का प्रयोग को आवश्यक माना है। इस प्रकार भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य तथा उसकी भाषा शैली के अनिवार्य संबंध को स्वीकारा गया है और भाषा-शैली के विविध पक्षों के विवेचन पर ही उसका काव्यालोचन आधारित रहा।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र में शैली संबंधी विवेचन के सूत्र अरस्तू के काव्यशास्त्र में मिलते हैं किंतु आधुनिक शैली विज्ञान का जन्म मुख्यतः भाषा विज्ञान की एक शाखा के रूप में 20वीं सदी के आरंभ में हुआ। इस धारा के प्रमुख प्रवर्तकों में से याकोबसन चेकोस्लोवाकिया चले गये और वहाँ प्राग लिंग्विस्टिक सर्कल पर सस्यूर के साथ उनके विचारों का भी प्रभाव पड़ा। भाषा विज्ञान का जो स्वरूप वहाँ उभरा, उसकी दो अवधारणाओं ने आगे आने वाले भाषा चिंतन और साहित्य चिंतन को काफी प्रभावित किया। वे हैं भाषा तथा वाक् और संकेतक तथा सकेतित संबंधी अवधारणाएँ। इन अवधारणाओं का नई समीक्षा पर भी प्रभाव पड़ा। उसने शैली के स्तर पर श्क्लोव्स्की के विचारों से भी प्रभाव ग्रहण किया और साहित्यिक रचना को स्वनिष्ठ मानते हुए उसकी भाषिक संरचना के विश्लेषण पर विशेष बल दिया। यहीं से शैली विज्ञान का स्वरूप उभरना शुरू हुआ। नयी समीक्षा में साहित्यिक कृति को स्वायत्त तथा स्वयं साध्य मानते हुए सामान्य भाषा और साहित्यिक भाषा के अंतर पर भी प्रकाश डाला गया और दिखाया गया कि साहित्यिक भाषा, बिंब, प्रतीक, अलंकार आदि प्रविधियों और युक्तियों का उपयोग करती है। इसमें क्लीथ बु्रक्स, वारेन टेट आर्किबाल्ड हिल तथा रोमन याकोबसन की शैली वैज्ञानिक विश्लेषण संबंधी संकल्पनाओं से बहुत सहायता मिली।
आज शैली विज्ञान भाषा के अत्यंत मह़त्त्वपूर्ण अंग के तौर पर ही नहीं, बल्कि साहित्यिक शैली विज्ञान तो एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हो गई है। यह समीक्षा पद्धति सामान्य भाषा का नहीं वरन साहित्यिक भाषा का विश्लेषण करती है और भाषा के अंदर छिपे भावों तक पैठती है तथा भाव के साथ भाषा की संगति का आध्ययन करती है। जहाँ सामान्य भाषा का कार्य सूचनाएँ देना है वहीं साहित्यिक भाषा प्रकट अर्थ के अतिरिक्त किसी आभ्यंतर अर्थ का भी उद्घाटन करती है। शैली वैज्ञानिक समीक्षा यह देखती है कि रचनाकार की भाषा उस अभ्यांतर अर्थ का उद्घाटन करने में सक्षम है या नहीं। शैली वैज्ञानिक समीक्षा पद्धति साहित्यिक भाषा की प्रकृति का भी अध्ययन करती है। इसमें बिंब विधान, अलंकार योजना, छंद, वाक्य-विन्यास, शब्द चयन इन सबों पर ध्यान दिया जाता है। शैली चूँकि भाषा का विशिष्ट प्रयोग है इसलिए इसका विश्लेषण भी विशिष्ट ही होगा। यह समीक्षा पद्धति भाषा के माध्यम से अभ्यांतर अर्थ को प्रकट करती है। और इसके लिए समीक्षक को साहित्यशास्त्र का भी ज्ञान होना चाहिए क्योंकि कृति के अर्थ तक पहुँचने के लिए उसे साहित्य शास्त्र संबंधी उपकरणों से भी अपना संदर्भ जोड़ना होता है। वास्तव में आलोचना तभी पूर्ण होती है जब उसमें भाषा और साहित्य - दोनों के तत्त्वों का विश्लेषण हो। और इन दोनों तत्त्वों का सामंजन शैली विज्ञान में हो जाता है।
शैली विज्ञान की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि यह कई बार रचनाकार के मंतव्य से आगे जाकर इस बात की पड़ताल करती है कि रचना की अपनी व्यंजना क्या है। हो सकता है रचना वह कुछ ध्वनित कर रही हो जो कृतिकार के ध्यान में भी न आया हो क्योंकि रचना अपने सर्जन के बाद सर्जक से मुक्त हो जाती है। ऐसे में उसका वस्तुपरक विश्लेषण अनेक ऐसे अर्थ दे सकता है जिसकी कल्पना स्वायत्तता से जुड़ी होती है और इसपर रचना रचनाकार के जीवन या मानसिकता का प्रभाव नहीं होता।
शैली विज्ञान समीक्षा पद्धति अभी विकास के क्रम में है। इसमें मत, मतांतर और विवादों का क्रम चल रहा है और अभी तक इसका स्वरूप स्थिर नहीं हो पाया। इस कारण इसके गुण-दोषों पर कायदे से दृष्टिपात नहीं किया जा सकता। पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि कृतिकेंद्रित होने के कारण यह रचना की विशेषताओं को अच्छी तरह मूल्यांकन कर सकती है। पर साथ-ही-साथ एक कमी भी है कि इस पद्धति में रचना के सामाजिक और नैतिक मूल्य उपेक्षित हो जाते हैं, क्योंकि ये सामाजिक मूल्य हैं, साहित्यिक नहीं।
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