रीति सिद्धांत की अवधारणा
2. रीति-सिद्धांत
रीति-सिद्धांत : स्थापनाएं और मूल्यांकन : सामान्य अर्थ में रीति शब्द एक प्रणाली, शैली अथवा प)ति का बोèाक है। जिस प्रकार एक प्राणी रुचि-भिन्नता के आèाार पर वेश-भूषा एवं व्यवहार आदि की विभिन्न शैलियों एवं प्रणालियों को ग्रहण कर व्यकितत्व का निर्माण करता है, उसी प्रकार काव्यकार भी भाषा की विविèा प्रणालियों का अनुसरण कर काव्य-रचना किया करता है। काव्यशास्त्रा की दृषिट से प्रणाली भाषा की एक कलात्मक प)ति है-जिसे ''रीति की संज्ञा दी गर्इ है। भारतीय साहित्यशास्त्रा में ''रीति के लिए प्रवृत्ति, मार्ग, संघटना, वृत्ति आदि शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। सामान्य व्यवहार में जिस प्रकार ''जीवन की प्रणाली मनुष्य के सांस्Ñतिक अèयवसाय की प्रतीक है, उसी प्रकार काव्य के क्षेत्रा में ''कवि की रीति उसके कलात्मक अèयवसाय की धोतक है। भारतीय काव्यशास्त्राकारों में आचार्य वामन ने ''रीति तत्त्व की गुणात्मक विशेषताओं का आख्यान करते हुए उसे एक संप्रदाय का रूप दिया है तथा काव्य की ''आत्मा के रूप में उसकी प्रतिष्ठा पर ''काव्यालंकारसुत्रावृत्ति नामक ग्रंथ में उसकी सांगोपांग विवेचना की है।
(क) ''रीति शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ एवं संक्षिप्त इतिवृत्त :
गत्यर्थक ''री³ èाातु में ''रिक्तन प्रत्यय के योग से ''रीति शब्द की निष्पत्ति मानी गर्इ है, जिसका अर्थ है- वत्र्म, प)ति, प्रणाली आदि। ''रीति शब्द का काव्यशास्त्राीय अर्थ है-काव्याभिव्यकित या काव्य-संरचना के लिए कवि द्वारा स्वीÑत विशिष्ट पर-रचना या विशेष भाषिक प्रणाली। आठवीं सदी के प्रख्यात आचार्य वामन ''रीति शब्द के सर्वप्रथम प्रयोक्ता एवं रीति-सिद्धांत के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। किंतु उनसे पूर्व भी उनकी इस मान्यता का बीज आचार्य भरत के ''प्रवृत्ति तत्त्व के रूप में उपलब्èा होता है। दंडी ने गुणों की संहति के रूप में जिस तत्त्व को ''प)ति कहा, वामन ने उसे ''रीति नाम से पुकारा। वर्णों की मैत्राी पर विचार करते हुए ''वृत्ति नामक एक नवीन तत्त्व माना जो एक प्रकार से रीति का ही नामांतर था। (रुद्रट ने रस के औचित्य की दृषिट से रीति का विवेचन किया।) नवीं सदी के èवनि-प्रस्थापक आचार्य आनंदवर्èान ने ''रीति का विवेचन ''संघटना के रूप में किया।
èवनिकार के उपरांत राजशेखर ने ''रीति के साथ ''वृत्ति एवं ''प्रवृत्ति का भी उल्लेख कियां कुंतक ने रीति के स्थान पर ''प)ति शब्द का प्रयोग किया तथा कवि-स्वभाव के आèाार पर उसका विभाजन किया। आचार्य भम्भट ने भी अनुप्रास अलंकार के अंतर्गत ''वृत्ति के रूप में ''रीति का निरूपण किया। आचार्य विश्वनाथ ने ''रीति नामकरण को स्वीकार कर ''रस तत्व की दृषिट से उसके वैशिष्टय का प्रतिपादन किया।
(ख) रीति-निरूपण में विविèाता के कारण : हम यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि भारतीय काव्यशास्त्रा में ''रीति अथवा उसके वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग काव्य-भाषा की प्रणाली या प)ति के लिए किया गया है। कवि भावाभिव्यकित के लिए भाषिक संरचना की जिस प)ति या प्रणाली को स्वीकार करता है।
यह एक व्यापक सत्य है कि प्रदेश विशेष का परिवेश, उसमें घटित घटनाएं एवं परिसिथतियां, जिस प्रकार उस प्रदेश की मूर्ति, चित्रा, नृत्य एवं वस्तु आदि कलाओं को प्रभावित करती हैं उसी प्रकार उस प्रदेश के काव्य एवं काव्यकार की भाषिक संरचना के रूप को भी अपने परिवेश-प्रभाव से अस्पृष्ट नहीं रहने देती हैं। परिणामत: प्रादेशिक परिवेश के आèाार पर भाषिक संरचना का जो रूप उभरकर आता है उसे उस प्रदेश की भाषा-शैली या अभिव्यकित-प्रणाली कहा जाता है। भारतीय काव्यशास्त्रा में भी बाण द्वारा उलिलखित ''उदीच्य एवं पश्चाद्वर्ती आचार्यों द्वारा स्वीÑत ''वैदर्भी आदि रीतियों के आदिम स्वरूप का निèर्ाारण प्रादेशिक परिवेश के आèाार पर ही हुआ है।
इसी प्रकार कवि का स्वभाव भी उसकी अभिव्यकित-प)ति का घटक होता है। इस रूप में कवि की अभिव्यकित-प्रणाली उसकी प्रÑति से उदभूत होने के कारण वैयकितक हुआ करती है( क्योंकि इस प्रकार की अभिव्यकित प्रणाली में उसका व्यकितत्व प्रतिबिंबित रहता है। इस प्रकार की अभिव्यकित-प्रणाली की समस्त विशेषताएं, काव्यकार के निजी व्यकितत्व की झलक देती है, काव्यकार-विशेष की पहचान करवाती हैं। भाषाविज्ञान में तो शैली (अभिव्यकित-प)ति) को रचनाकार का वैशिष्टय माना गया है और कहा गया है कि ''शैली ही मनुष्य है।
रचनाकार की संरचना-प्रणाली को प्रभावित करने वाला तीसरा कारण प्रतिपाध विषय होता है। प्रतिपाध विषय से हमारा अभिप्राय चित्तवृत्तियों एवं भाव-संवेगों की अभिव्यंजिका विषय वस्तु की अभिव्यकित से है। प्रतिपाध विषय की कोमल, कठोर प्रÑति के आèाार पर कविता की भाषा विशिष्ट रूप ग्रहण करती है( क्योंकि अभिव्यकित अनुभूति सापेक्ष हुआ करती है। आचार्य आनंदवर्èान ने रसािद के (चित्तवृत्तियों के) अनुरूप शब्द एवं अर्थ के विनियोजन को ''वृत्ति कहा है-यह ''वृत्ति एक प्रकार से ''रीति का ही अपर पर्याय है। इस प्रकार प्रतिपाध विषय भी काव्याभिव्यकित के स्वरूप निèर्ाारण में महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता है।
भारतीय साहित्यशास्त्रा में रीति-चिंतन की दिशा एवं स्वरूप का निèर्ाारण यधपि उपयर्ुक्त तीन कारणों के आèाार पर हुआ है( किंतु इनके अतिरिक्त दो दृषिटयाँ और भी हैं जिन्होंने रीति-विवेचन की मूल अवèाारणा को प्रभावित किया है। इन दो दृषिटयों में से प्रथम का संबंèा काव्य की अलंकारमयता से है और दूसरी का संबंèा काव्य की ''रसात्मकता से है। प्रादेशिक परिवेश एवं कवि-स्वभाव से प्रभावित रीति-विवेचकों की अवèाारणा के मूल में प्राय: अलंकारवाद की दृषिट प्रमुख है तथा विषयानुकूल रीति-विवेचन में रस तत्व का आग्रह प्रमुखता से दृषिटगोचर होता है।
भामह के उपरांत दंडी सबसे पहले आचार्य हैं जिन्होंने रीति का विèािपूर्वक प्रतिपादन किया। दंडी के अनुसार ''वैदर्भी एवं ''गौड रीति प्रादेशिक भाषा-शैली के दो रूप हैं। ये संख्या में अनंत हैंं इनका पारस्परिक भेद भी अत्यंत सूक्ष्म हैं। किंतु यहां केवल दो रीति ही स्वीकार हैं। इनमें ''वैदर्भ श्रेष्ठ है। श्लेष, प्रसाद, समाèाि, माèाुर्य, ओज, सुकुमारता, अर्थ-व्यकित, उदारता, के रूप में, दस गुण इस ''वैदर्भ रीति के हैं। इस रीति में माèाुर्य-व्यंजक वणो±ं का प्रयोग किया जाता है। इन गुणों का विपर्यय प्राय: ''गौड मार्ग में देखा जाता है। इस प्रकार दंडी ने गुणों के आèाार पर ''वैदर्भ को सत्काव्य और ''गौडीय को निÑष्ट सि) किया है, गौडीय में भी अर्थाभिव्यकित उदारता एवं समाèाि की अवसिथति स्वीकार कर उसे काव्य-पद से वंचित नहीं किया है।
रीति-विवेचन के इतिहास में वामन का स्थान सर्वोपरि है। आचार्य दंडी के ''गुणात्मक रीति को रीति-सिद्धांत के रूप में प्रतिषिठत करने वाले आचार्य वामन हैं। वामन ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ''रीति शब्द का प्रयोग किया और जिन्होंने रीति के स्वरूप का निèर्ाारण कर उसे काव्य की आत्मा घोषित किया।
उनके अनुसार काव्य ''अलंकार के कारण ग्राá होता है यहां ''अलंकार शब्द से उनका अभिप्राय उपमादि अलंकारों से नहीं है( अपितु काव्यात्मक ''सौंदर्य के उस रूप से है जिसका सदभाव काव्य में दोषों के परित्याग तथा गुण एवं अलंकारों के ग्रहण से होता है।
वामन में ''विशिष्ट पद-रचना के रूप में रीति को परिभाषित किया तथा पद-रचना की विशिष्टता का निमित्त कारण गुण को बताया। उनके मत में इस गुणात्मक पद-निर्मित का नाम रीति है। गुण का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, ''शब्दार्थ के वे èार्म जो काव्य में शोभा को उत्पन्न करते हैं-गुण कहलाते हैं। गुण काव्य का सहज एवं नित्य तत्त्व है तथा अलंकार का स्वरूप इसके सर्वथा विपरीत है। इस प्रकार वामन ने अलंकारों की अपेक्षा गुणों को अèािक महत्त्व दिया है( क्योंकि उनके अभाव में काव्य-सौंदर्य संभव ही नहीं है। वामन के मत में काव्य-सौंदर्य के निमित्त कारण इन गुणों की संख्या दस है। ये गुण नामत: वही हैं जिनका भरत एवं दंडी ने उल्लेख किया है किंतु स्वरूप एवं संख्या की दृषिट से उनसे भिन्न है। शब्द-निष्ठता एवं अर्थ-निष्ठता के कारण इनकी कुल संख्या बीस हो जाती है।
गुणात्मक रीति के अभाव में काव्यत्व का भी अभाव हो जाता है। इस प्रकार वामन के मत में काव्य का काव्यत्व बीस गुुणों एवं तीन रीतियों में प्रतिषिठत है। परिणामत: काव्यत्व का मूलतत्त्व रीति ही आत्म-पद की अèािकारिणी सि) होती है।
यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि वामन ने सर्वाèािक महत्त्व वैदर्भी को दिया है और इसका कारण उसकी समग्र गुण-संपन्नता एवं अर्थगुण-आस्वाधाता को माना है। यहां वामन ने अर्थगुणों की आस्वधतां के रूप में काव्य में अर्थ तत्व के महत्व का आख्यान किया है। अर्थात अभिनव अर्थ नवीन अर्थकी अर्थ-दृषिट, रस-प्रकर्थता एवं अर्थ-विमलता आदि अर्थगत (वस्तुगत) विशेषताओं के कारण वैदर्भी रीति सâदयों के âदयों को आàादित करती है। अत: अनिवर्चनीय सार-तत्त्व ही वैदर्भी की सर्वाèािक प्रियता का मूलकारण सि) होता है। वैदर्भी शैली में निब) सामान्य अर्थ भी अलौकिक चमत्कार के कारण âदयहारी प्रतीत होने लगता है रीति का महत्व वस्तु तत्व से अèािक सि) होता है। इसीलिए उन्होंने रीति को काव्य का सर्वोत्Ñष्ट तत्व माना है।
काव्य का रूप तत्व ही रीति-सिद्धांत का प्रमुखत: साèय था, प्रतिपाध था, किंतु विषयानुकूलता की दृषिट से रीति-विवेचन का साèय, काव्य का èवन्यर्थ या व्यंग्यार्थ हो गया। विषय की दृषिट से विवेचन करने वाले आचार्यों ने रीति का संबंèा काव्य के अंगीतत्व रस-èवनि के साथ प्रस्थापित किया। इनके यहां रीति तत्व स्वयं गौण रहकर काव्य के प्रèाान रस का अनुसरण करता है। उसके अनुकूल रूप èाारण कर उसका अभिव्यंजक बनता है।
èवनिकार आनंदवर्èान विषयानुसारी रीति-विवेचकों में अग्रगय हैं। उनका मुख्य प्रतिपाध èवनि अथवा रस है। इसलिए उन्होंने èवनितत्व को केंद्र बिंदु मानकर रीति एवं गुण पर विचार किया है। उन्होंने रीति के अर्थ में ''संघटना शब्द का प्रयोग किया है। आनंदवर्èान ने समास तत्व के आèाार पर संघटित रसादि की व्यंजक काव्यसंरचना को संघटना की संज्ञा दी है। यह संघटना तीन प्रकार की होती है-असमासा, मèयसमासक, एवं दीर्घसमासा। संघटना का भेदक तत्व समास को माना जाता है। समास-हीन संरचना का नाम असमासा संघटना है। जहां समास रहता है किंतु उसकी संख्या और परिभाण बड़ा नहीं होता उसे मèयम समासा संघटना कहते हैं और जिस रचना में समास की संख्या और परिमाण दोनों प्रचुर मात्राा में होते हैं, उसे दीर्घसमासा संघटना कहा जाता है। इन संघटनाओं को क्रमश: वैदर्भी, पांचाली एवं गौडी रीतियों एवं उपनागरिका, कोमला तथा परुषा वृत्तियां समझना चाहिए। यह संघटना माèाुर्य आदि गुणों का लेकर रस को अभिव्यक्त करती है। इस प्रकार समस्त तथा असमस्त पदों के द्वारा गुणों के आèाार पर निर्मित रीति या संघटना रसाभिव्यकित का माèयम है।
èवनिकार के मत में रसतत्व ही रीति का नियामक है। किंतु इसके अभाव में वाच्य, वक्ता एवं विषय भी रस के नियामक होते हैं। इनके यहां शब्द-निष्ठ एवं अर्थ-निष्ठ वृत्तियां समरूपा हैं( क्योंकि रसानुकूल वर्ण, शब्द एवं अर्थ योजना ही तो वृत्ति एवं रीति है। आचार्य मम्मट ने वृत्ति रूप में रीतियों का विवेचन किया। उन्होंने माèाुर्य व्यंजक वर्णों वाली उपनागरिका वृत्ति में वैदर्भी का, ओज व्यंजक वणो± वाली परुषा वृत्ति में गौडीय, तथा प्रसाद गुण के व्यंजक वर्णों वाली कोमला वृत्ति में पांचाली का अंतर्भाव किया।
कवि-स्वभाव-प्रेरित रीति-विवेचन :
कवि के स्वभाव के आèाार पर रीति का विवेचन करने वाले एकमात्रा आचार्य कुंतक हैं।
रीति के स्थान पर ''प)ति शब्द का प्रयोग भी किया गया है। ''इस का अर्थ है ''कविप्रस्थान हेतु अर्थात काव्य की संरचना में प्रवृत्त होने का माèयम अथवा प)ति। इनके विèाान में कवि की आंतर शकित, प्रतिभाव एवं अभ्यास का महत्वपूर्ण स्थान है।
सुकुमार प)ति : अभिनव अर्थ का उन्मीलन करने वाली बौद्धिक क्षमता से उदभूत नए-नए शब्द एवं अर्थ, âदयाàादक अलंकारों की योजना, पदार्थ के नैसर्गिक रूप में चित्रा, रसों का उन्मेष-आदि विशेषताएं, ''सुकुमार प)ति के स्वरूपाèाायक तत्व है। स्वाभाविकता इस का उपादेय तत्व है। इस में कवि की प्रगल्भता का स्थान सर्वोपरि है।
विशिष्ट प)ति : उकित की विशिष्टता इस मार्ग की उल्लेखनीय विशेषता है। इस मार्ग में बुद्धि की अपेक्षा ''व्युत्पत्ति एवं ''अभ्यास अपेक्षित तत्व है। वक्रोकित का वैचित्रय इस प)ति में पराकाष्ठा पर होता है। इस प)ति में प्रत्येक प्रकार का सौंदर्य प्रयत्न साèय होता है। सुकुमार की भांति यह सहज नहीं होता।
मèयम प)ति : इस में उपयर्ुक्त दोनों का समन्वय रहता है। दोनों की विशेषताएं इस प)ति में मिश्रित रूप में उपलब्èा होती हैं।
कुंतक ने इन रीतियों या प)तियों के दो प्रकार के गुण कलिपत किए हैं : सामान्य और विशेष। सर्वरचना-सामान्य गुणों को ''सामान्य तथा विशेष प)ति के विशिष्ट गुणों को ''विशेष कहा जाता है। सामान्य गुण दो होते हैं ''औचित्य और ''सौभाग्य। विशेष गुण चार होते हैं-प्रसाद, माèाुर्य, लावण्य और आभिजात्य।
गुण वामन की रीत्यात्मक पद-रचना के वैशिष्टय का निमित्त कारण है। वह काव्य के सहज सौंदर्य का साèान भी है। वामन के अनुसार शब्द और अर्थ का जो èार्म काव्य में शोभा उत्पन्न करता है, वह गुण कहलाता है। गुण के बिना काव्य में सौंदर्य उत्पन्न नहीं हो सकता, इस कारण गुण काव्य का नित्य एवं अपरिहार्य èार्म है। इसके विपरीत अलंकार के अभाव में भी काव्य-सौंदर्य संभव है, इस कारण वह काव्य का अनित्य एवं परिहार्य तत्व है। गुण शब्द के भी हैं और अर्थ के भी हैं किंतु दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। यहां हम पहले शब्द-निष्ठ गुणों का स्वरूप प्रस्तुत करते हैं-
ओज : पद-रचना की गाढ़ता को ''ओज कहते हैं। गाढ़ता से अभिप्राय अक्षर-विन्यास की संशिलष्टता से है।
प्रसाद : पद-रचना के शैथिल्य को ''प्रसाद कहते हैं। प्रसाद गुण में ओज एवं प्रसाद के समिमश्रण, साम्य एवं उत्कर्ष के कारण ''शैथिल्य को दोष नहीं माना जाता।
श्लेष : शब्दों और अक्षरों की मसृणता (कोमलता) को ''श्लेष कहते हैं। ''मसृणता का अर्थ है बहुत से पदों की एक पद-समान प्रतीति।
समानता : जिस प)ति से किसी रचना का प्रारंभ हुआ हो उसी से उसका निर्वाह कर देना ''समानता गुण कहलाता है।
समाèाि : जिस गुण में आरोह और अवरोह को क्रम से रखा जाए उसे ''समाèाि गुण कहते हैं। दीर्घ गुरु अक्षरों के प्राचुर्य को ''आरोह एवं लघु आदि शिथिल वर्णों के प्राचुर्य को ''अवरोह कहते हैं।
माèाुर्य या सौकुमार्य : पद-बंèा का अयारुष्य ''सौकुमार्य गुण कहलाता है।
उदारता : पद-निर्मित की विरलता को ''उदारता कहते हैं। उदारता गुण से युक्त रचना में पद नृत्य करते हुए से प्रतीत होते हैं।
अर्थव्यकित : इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग जिनसे अर्थ प्रतीत हो जाए, ''अर्थव्यकित गुण कहा जाता है।
कांति : रचना शैली की उज्ज्वलता या नवीनता को ''कांति गुण कहते हैं।
अर्थगुण
ओज : अर्थ की विशिष्टता ''ओज गुण कहलाती है। इस का अर्थ है-पूरे वाक्य के अर्थ को शब्द के द्वारा एक पद के अर्थ में अभिव्यकित करना।
प्रसाद : अर्थ की विमलता को ''प्रसाद गुण कहते हैं।
श्लेष : अर्थ के संघटन को ''श्लेष गुण कहते हैं।
समानता : अवैषम्य को ''समानता गुण कहते हैं। अवैषम्य का आशय है-सुगमता या अर्थ का भेद न होना।
समाèाि : अर्थ का दर्शन ही ''समाèाि गुण है। यह अर्थ सर्वजन-संवेध भी हो सकता है और सâदयजन संवेध भी।
माèाुर्य : उकित वैचित्रय को ''माèाुर्य गुण कहते हैं।
सौकुमार्य : कठोर अर्थ के कथन में भी कठोरता न आने देना-''सौकुमार्य गुण कहलाता है।
उदारता : ग्राम्यता के अभाव का नाम ''उदारता गुण है।
अर्थव्यकित : वण्र्य विषय-वस्तुओं के स्वभाव की स्वच्छता को 'अर्थव्यकित कहते हैं।
कांति : रसों की दीपित को ''कांति कहते हैं।
गुण और रीति का संबंèा
रीति-विवेचक आचार्यों में दंडी और वामन ये दो ही आचार्य ऐसे हैं जिनके यहां रीति और गुण अन्य काव्यांगों की अपेक्षा महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। दोनों ही आचार्य गुण और रीति का घनिष्ठ संबंèा मानते हैं, किंतु अंतर केवल इतना ही है कि दंडी के यहां गुण रीतियों का भेदक तत्व है जबकि वामन के यहां वह रीति की स्वरूपाèाायक अनिवार्य विशेषता है। दंडी ने दस गुणों को वैदर्भ रीति का प्राण कहा है। इन गुणों का विपर्यय प्राय: गौडीय रीति में देखा जाता है। इस प्रकार दंडी-सम्मत दस गुण विèोयात्मक रूप में वैदर्भी से तथा निषेधात्मक रूप में गौडीय से संबंèाित है।
आचार्य वामन ने विशिष्ट पद-संरचना को रीति माना है और पद-सर्जना की विशिष्टता गुणों के आèाार पर निशिचत की है। विशिष्ट पद-संरचना रूप रीति जिस विशेषता के आèाार पर काव्य का आत्मस्थानीय तत्व बनी हुर्इ है-वह विशेषता गुणात्मक ही है। इस प्रकार गुण-रूप-वैशिष्टय से विशेषित होने के कारण ''रीति काव्य की आत्मा कहलाती है। ये काव्य-गुण रीति के वैशिष्टय के रूप में शब्दार्थगत ही है।
वामन के अनुसार रीति तत्व ही गुणात्मक नहीं है अपितु रीति के विभिन्न भेदों का भी गुणात्मकता के आèाार पर स्वरूप-निèर्ाारण होता है। जैसे वैदर्भी की श्रेष्ठता का आèाायक èार्म गुण ही है। वैदर्भी रीति में समस्त शब्द एवं अर्थगुणों का सदभाव रहता है। अन्य दो रीतियों का स्वरूप भी गुणों के आèाार पर ही उत्पन्न होता है।
रीति के भेद:
दंडी ने वैदर्भी को उत्तम शैली एवं गौडीय को निÑष्ट शैली के रूप में प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार वैदर्भी में दस गुण विधमान रहते हैं तथा गौडीया में इनका विपर्यय मिलता है।
आनंदवर्èान ने रीति के स्थान पर ''संघटना शब्द का प्रयोग किया। उनके अनुसार यह संघटना तीन प्रकार की होती है-असमासा, मèयसमासा एवं दीर्घसमासा। संघटना के ये तीनों प्रकार वामन की वैदर्भी, पांचाली एवं गौडी रीतियों के समान ही हैं। यह संघटना माèाुर्य आदि गुणों का आश्रय लेकर रस की अभिव्यंजक होती है।
आचार्य कुंतक ने कवि-स्वभाव के आèाार पर सुकुमार, विचित्रा और मèयम, तीन रीतियों का निरुपण किया जो वैदर्भी, गौडी एवं पांचाली का ही पर्याय है।
मम्मट ने रीति का विवेचन ''वृत्ति के रूप में किया। उन्होंने ''वृत्ति की परिभाषा देते हुए कहा- रसानुकूल नियत वर्ण-व्यवहार, वृत्ति है। उन्होंने उपनागरिका- परुषा एवं कोमला नामक तीन वृत्तियां मानी तथा वैदर्भी, गौडी एवं पांचाली रीतियों का इनमें अंतर्भाव मानकर वर्ण-गुम्फ को प्रèाानता दी।
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रीति सिद्धान्त की स्थापनाएं
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रिती व शैली मे अन्तर
रीति सिद्धांत का मूल्यांकन
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