रीतिकाल Ki Pramukh Visheshtayein रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

GkExams on 12-05-2019

भक्ति और श्रृंगार की विभाजक रेखा सूक्ष्म है. भक्ति की अनुभूति को व्यक्त करने के लिए बहुत बार राधा-कृष्ण के चरित्र एवं दाम्पत्य जीवन के विविध प्रतीकों का सहारा लिया गया. कबीर जैसे बीहड़ कवि भी भाव-विभोर हो कह उठते हैं: “हरि मोरा पिउ मैं हरि की बहुरिया”. मर्यादावादी तुलसी भी निकटता को व्यक्त करने के लिए “कामिनि नारि पिआरि जिमि” जैसी उपमा देते हैं. कालांतर में राधा-कृष्ण के चरित्र अपने रूप से हट गए और वे महज दांपत्य जीवन के प्रतीक बन कर रह गए. प्रेम और भक्ति की संपृक्त अनुभूति में से भक्ति क्रमश: क्षीण पड़ती गई और प्रेम श्रृंगारिक रूप में केन्द्र में आ गया. भक्ति काल का रीतिकाल में रूपांतरण की यही प्रक्रिया है.

रीतिकालीन काव्य की मूल प्रेरणा ऐहिक है. भक्तिकाल की ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि के सामने इस मानव केन्द्रित दृष्टि की मौलिकता एवं साहसिकता समझ में आती है. आदिकालीन कवि अपने नायक को ईश्वर के जैसा महिमावान अंकित किया था. भक्त कवियों ने ईश्वर की नर लीला का चित्रण किया तो रीतिकालीन कवियों ने ईश्वर एवं मनुष्य दोनों का मनुष्य रूप में चित्रण किया. भक्त कवि तुलसीदास लिखते हैं:





कवि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ

मति अनुरूप राम गुन गाउँ.



परन्तु भिखारीदास का कहना है:



आगे की कवि रीझिहैं तौ कविताई, न तौ

राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो हैं.

एक के लिए भक्ति प्रधान है, इस प्रक्रिया में कविता भी बन जाए तो अच्छा है. कवि तो राम का गुण-गान करता है. वहीं दूसरे के लिए कविता की रचना महत्त्वपूर्ण है. यदि कविता न बन सके तो उसे राधा-कृष्ण का स्मरण मान लिया जाए.

सम्पूर्ण रीति साहित्य को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है. रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त. वास्तव में रीतिबद्ध कवि रीतिसिद्ध भी थे और रीतिसिद्ध कवि रीतिबद्ध भी. इस युग के राजाश्रित कवियों में से अधिकांश तथा जनकवियों में से कतिपय ऐसे थे जिन्होंने आत्मप्रदर्शन की भावना या काव्य-रसिक समुदाय को काव्यांगों का सामान्य ज्ञान कराने के लिए रीतिग्रंथों का प्रणयन किया. अत: इनकी सबसे प्रमुख विशेषता व प्रवृत्ति रीति-निरूपण की ही थी. इसके साथ ही आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए श्रृंगारिक रचनाएँ भी की. अत: श्रृंगारिकता भी इस युग की प्रमुख प्रवृत्ति थी. इधर आश्रयदाता राजाओं के दान, पराक्रम आदि को आलंकारिक करने से उन्हें धन-सम्मान मिलता था. वहीं धार्मिक संस्कारों के कारण भक्तिपरक रचनाएँ करने से आत्म लाभ होता था. इस प्रकार राज-प्रशस्ति एवं भक्ति भी इनकी इनकी प्रवृत्तियों के रूप में परिगणित होती है. दूसरी ओर इन कवियों ने अपने कटु-मधुर व्यक्तिगत अनुभवों को भी समय-समय पर नीतिपरक अभिव्यक्ति प्रदान किया. अत: नीति इनकी कविता का अंग कही जा सकती है.

डॉ. नगेन्द्र ने रीति-कवियों की प्रवृत्तियों को दो वर्गों में रखा है:



क. मुख्य प्रवृत्ति

ख. गौण प्रवृत्ति

मुख्य प्रवृत्तियों को दो वर्गों में विभाजित किया है:



1. रीति-निरूपण

2. श्रृंगारिकता

और गौण प्रवृत्तियों को तीन भागों में बांटा है:



1. राजप्रशस्ति या वीर काव्य

2. भक्ति

3. नीति



रीति-निरूपण:

रीतिकालीन कवियों के रीति-निरूपण की शैलियों का अध्ययन करने पर तीन दृष्टियाँ दृष्टिगोचर होती हैं.

प्रथम दृष्टि तो मात्र रीति-कर्म की है. इनमें वे ग्रंथ आते हैं जिनमें सामान्य रूप से काव्यांग-विशेष का परिचय कराना ही कवि का उद्देश्य है, अपने कवित्व का परिचय देना नहीं. ऐसे ग्रंथों में लक्षण के साथ उदाहरण या तो अन्य रचनाकारों के काव्य से दिया गया है या इतना संक्षिप्त है कि कवित्व जैसी कोई बात ही नहीं है. राजा जसवंत सिंह का ‘भाषाभूषण’, गोविंद का ‘कर्णाभरण’, रसिक सुमति का ‘अलंकार चंद्रोदय’, दूलह का ‘कविकुलकंठाभरण’ आदि इसी प्रवृत्ति के परिचायक ग्रंथ हैं.

द्वितीय प्रवृत्ति में रीति-कर्म और कवि-कर्म का समान महत्त्व रहा है. इसके अंतर्गत लक्षण एवं उदाहरण दोनों उनके रचयिताओं द्वारा रचित है तथा उदाहरण में सरसता का पुट मिला हुआ है. देव, मतिराम, केशव, पद्माकर, कुलपति, भूषण आदि के ग्रंथ इसी श्रेणी में आते हैं.

तीसरी प्रवृत्ति के अंतर्गत लक्षणों को महत्त्व नहीं दिया गया है. कवियों ने प्राय: सभी छंदों की रचना काव्यशास्त्र के नियमों से बद्ध होकर ही किया है लेकिन लक्षणों को त्याग दिया है. बिहारी, मतिराम आदि की सतसइयाँ, नख-सिख वर्णन संबंधी समस्त ग्रंथ इसी कोटि की रचनाएँ हैं.

काव्यांग-विवेचन के आधार पर इसकी दो अंत: प्रवृत्तियाँ ठहरती हैं.

1. सर्वांग विवेचन

2. विशिष्टांग विवेचन

सर्वांग विवेचन प्रवृत्ति के अंतर्गत आनेवाले ग्रंथों में कवियों ने सामान्यत: काव्य-हेतु, काव्य-लक्षण, काव्य-प्रयोजन, काव्य-भेद, काव्यशक्ति, काव्य-रीति, अलंकार, छंद आदि का निरूपण किया है. चिंतामणि का ‘कविकुलकल्पतरू’, देव का ‘शब्दरसायन’, कुलपति का ‘रसरहस्य’, भिखारीदास का ‘काव्य-निर्णय’ आदि इसी प्रवृत्ति के ग्रंथ हैं.

विशिष्टांग विवेचन की प्रवृत्ति के अंतर्गत वे ग्रंथ आते हैं जिनमें किसी एक या दो या तीन का विवेचन किया गया है. ये विषय हैं: रस, छंद और अलंकार. इनमें रस-निरूपण की प्रवृत्ति इन कवियों में सर्वाधिक देखने को मिलती है. श्रृंगार को रसराज के रूप में निरूपित करने का भाव सर्वाधिक है.

विवेचन-शैली के आधार पर इस काल में रीति-निरूपण की मुख्य तीन शैलियां प्रचलित हैं.

प्रथम ‘काव्यप्रकाश’-‘साहित्यदर्पण’ की शैली है. इसके अंतर्गत चिंतामणि के ‘कविकुलकल्पतरू’, देव का ‘शब्दरसायन’, भिखारीदास का ‘काव्य-निर्णय’ आदि को रखा जाता है. इसमें मम्मट-विश्वनाथ द्वारा दी गई संस्कृत-गद्य की वृत्ति के समान ब्रजभाषा गद्य की वृत्ति देकर विषय को समझाया गया है.

दूसरी शैली ‘चन्द्रालोक’-‘कुवलयानंद’ की संक्षिप्त शैली है. जसवंत सिंह की ‘भाषाभूषण’, गोविंद का ‘कर्णाभरण’, पद्माकर का ‘पद्माभरण’, दूलह का ‘कविकुलकंठाभरण’ आदि इस शैली के ग्रंथ हैं.

तीसरी शैली भानुदत्त की ‘रसमंजरी’ की है. इसमें लक्षण एवं सरस उदाहरण देकर विषय-निरूपण किया गया है.

श्रृंगारिकता:

श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति रीतिकवियों का प्राण है. एक ओर काव्यशास्त्रीय बंधनों का निर्वाह और दूसरी ओर नैतिक बंधनों की छूट तथा विलासी आश्रयदाताओं के प्रोत्साहन के कारण इस प्रवृत्ति ने जो स्वरूप ग्रहण किया, उसे दूसरे कवियों की श्रृंगारिकता से पृथक करके देखा जा सकता है.

शास्त्रीय बंधनों ने इतना रूढ़ बना दिया है कि श्रृंगार के विभाव पक्ष में नायक-नायिका के भेद तथा उद्दीपक सामग्री के प्रत्येक अंग, अनुभवों के विविध रूप, वियोग के भेदोपभेद-सहित विभिन्न कामदशाओं संबंधी रचनाओं के अलग-अलग वर्ग बनाये जा सकते हैं.

दूसरी ओर नैतिक बंधनों की छूट एवं आश्रयदाताओं के प्रोत्साहन के कारण ये कवि अपनी कल्पना के पंख इतने फैला सके हैं कि शास्त्रीय घेरे के भीतर निर्माताओं की अभिरूचि एंव दृष्टि की व्यंजना उनकी इस प्रवृत्ति की विशेषता प्रकट हो जाती है. इन कवियों की श्रृंगार भावना में दमन से उत्पन्न किसी प्रकार की कुंठा न होकर शरीर-सुख की वह साधना है जिसमें विलास के सभी उपकरणों के संग्रह की ओर व्यक्ति की दृष्टि केन्द्रित होती है. इनके प्रेम-भावना में एकोन्मुखता का स्थान अनेकोन्मुखता ने इस प्रकार ले लिया है कि कुंठारहित प्रेम की उन्मुक्तता व रसिकता का रूप धारण कर गई है. यही कारण है कि उनके पत्नियों के बीच अकेला नायक किसी मानसिक तनाव का शिकार नहीं होता बल्कि निर्द्वन्द्व होकर भोगने में ही जीवन की सार्थकता समझता है.

इस प्रकार कहा जा सकता है कि रीतिकवियों की श्रृंगारिकता में सामान्य रूप से कुंठाहीनता, शारीरिक सुख की साधना, अनेकोन्मुख प्रेमजन्य रूपलिप्सा, भोगेच्छा, नारी के प्रति सामंती दृष्टिकोण आदि शास्त्रीय बंधनों में बँधकर भी पाठकों को आत्मविभोर कर सकती हैं.

राजप्रशस्ति:

यह प्रवृत्ति आश्रयदाताओं की दान-वीरता और युद्धवीरता के वर्णन में दृष्टिगोचर होती है. इनकी अभिव्यक्ति में सामान्य रूप से दान की सामग्री की प्रचुरता और आश्रयदाताओं के आतंक के प्रभाव के वर्णनों के कारण वैसा रसात्मक प्रभाव नहीं डाल पाती. यह राजाओं की झूठी प्रशस्ति का ही प्रभाव छोड़ता है. इनमें उत्साह का अभाव ही रहा है.

भक्ति:

भक्ति की प्रवृत्ति ग्रंथों के मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, भक्ति एवं शांत रस के उदाहरणों में मिलती है. ये कवि राम-कृष्ण के साथ गणेश, शिव और शक्ति में समान श्रद्धा व्यक्त करते पाये जाते हैं. अत: यह माना जा सकता है कि किसी विशेष सम्प्रदाय के अनुयायी होते हुए भी धार्मिक कट्टरता नहीं थी. वास्तव में इय समय भक्ति धार्मिकता का परिचायक नहीं थी बल्कि विलास से जर्जर दरबारी वातावरण से बाहर आकुल मन की शरणभूमि थी.

नीति:

भक्ति इनके आकुल मन शरणस्थली थी तो नीति-निरूपण दरबारी जीवन के घात-प्रतिघात से उत्पन्न मानसिक द्वन्द्व के विरेचन के लिए शाँति का आधार. यही कारण है कि आत्मोपदेशों में इनके वैयक्तिक अनुभवों की छाप प्राय: देखने को मिल जाती है.

इस प्रकार कहा जा सकता है कि गौण-प्रवृत्तियों में राज प्रशस्ति की प्रवृत्ति, श्रृंगारी प्रवृत्ति के समान उस युग के दरबारी जीवन में ‘प्रवृत्ति’ की परिचायक है, जबकि भक्ति एंव नीति ने उससे निवृत्ति की.

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Comments Ritikal ki do visheshtaen on 13-02-2020

Ritikal ki do visheshtaen

SHIVAM on 05-02-2020

Ritikaal ki kinhi two visheshtao ka ullekh kijiye

Bankesh Kumar yadav on 16-01-2020

Ritikal ki two visheshtaon ko likhiye

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Saleem khan Chayavaad yug ki visheshta on 07-01-2020

Cahayavaad yug ki visheshta bataiye

Nitin mehra on 09-12-2019

Rit cal

Reeti kal ke doh pramukh vishastaye baataye on 02-12-2019

Reeti kaal ke doh parmukh vishast baataye

Ritikal ki do visheshta likhiye on 17-11-2019

Ritikal ki do Pramukh visheshtaen likhiye

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Wasim shaikh on 07-11-2019

Riti kaal ki do visheata bataye

Sachin dhruw on 30-09-2019

Riti call ki vishesta

Sachin dhruw on 30-09-2019

रीती काल की विशेषता लिखिए।

रीतिकाल की विशेषता on 24-09-2019

रीतिकाल की विशेषता

Mohd waseem on 14-08-2019

ShuKl uge kab sey prarambh hota hai

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Ritikal ki prmukh vishesta on 20-07-2019

Ritikal ki prmukh vishesta

deepakshi sharma on 02-07-2019

apne reetikal ki visesta to btai nhi h

Akhil bhinde on 30-05-2019

Ritekal ki vista

Harsh Panwar on 04-05-2019

ritikal ki Pramukh visheshta

Amit singh on 13-02-2019

Ritikal ki pramukh visheshata kya hai
Tv

Akashyadav on 12-02-2019

Reet Kaal ki Pramukh visheshtaye hey

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सलमान शाह on 10-02-2019

रीतिकाल की चार विशेषताए

Ritikalin ki kavy visesta on 10-02-2019

visesta

Sunil kumar on 10-02-2019

Riteekal ke veshesta bataiae

Bhavesh on 09-02-2019

Ritikal ke do bisheshta

Swati on 09-02-2019

Meri asafalta kis vidha ki Rachna hai

Swati on 09-02-2019

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Rajveer dharma on 06-02-2019

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Vishal prajapati on 05-02-2019

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Madhuri on 31-01-2019

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Rustam on 31-01-2019

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Nitish Rawat on 04-01-2019

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Shishu on 20-12-2018

रीती काल की दो विशेषताए लिखिए।

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रतनसिह on 22-09-2018

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reetesh lodhi on 10-08-2018

रीति काल की विशेषताएं


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