आदिकाल के नामकरण की समस्या
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य केआदिकाल को वीरगाथा काल नाम दिया है. इसके लिए तर्क देते हुए वो कहते हैं- “ राजाश्रितकवि और चारण जिस प्रकार नीति, श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओंमें सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओंका वर्णन भी किया करते थे। यही प्रबंध परंपरा 'रासो' केनाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने, 'वीरगाथाकाल'कहाहै। प्रवृत्ति के निर्धारण के लिए भीआचार्य शुक्ल ने दो कसौटियां निर्धारित की हैं:
(क) विशेष ढंग की रचना की प्रचुरता (ख) विशेष ढंग की रचना की लोक प्रसिद्धि आदिकाल की समयसीमा में शुक्लजी ने हिन्दी भाषा की 12 रचनाएँ ढूंढ कर सामनेरखी हैं- 1) खुमाण रासो 2) विजयपाल रासो 3) हम्मीर रासो 4) परमाल रासो (आल्हा) 5) बीसलदेव रासो 6) पृथ्वीराज रासो 7) जयचंद्र प्रकाश 8) जयमयङ्क जसचन्द्रिका 9) कीर्तिलता 10) कीर्तिपताका 11) विद्यापति की पदावली 12) अमीर खुसरो की पहेलियाँ शुक्लजी के अनुसार , बीसलदेव रासो, विद्यापति कीपदावली और अमीर खुसरो की पहेलियों को छोड़कर शेष सभी रचनाएँ वीरगाथात्मक हैं, जिससेएक विशेष ढंग की रचना की प्रचुरता सिद्ध होती है. दूसरी ओर, परमाल रासो जैसी रचनाओं की जनप्रियताके आधार पर शुक्लजी ने यह मान लिया कि निश्चित तौर पर तत्कालीन जनता में शौर्य कीप्रवृत्ति की प्रमुखता रही होगी. इसीलिए शुक्लजी ने आलोच्य कालखंड को वीरगाथा काल नाम दिया . अगर शुक्लजी केतर्कों और मान्यताओं को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने आदिकाल कीपुस्तकों के चयन में पूर्वग्रह से काम लिया है. उन्होंने सिद्धों – नाथों और जैनकवियों की रचनाओं को धार्मिक कह कर अपनी सूची में शामिल नहीं किया है. उनकेअनुसार, ये रचनाएँ इस जीवन-जगत की बात न कर पारलौकिक जगत की बात करती हैं. शुक्लजीके इस तर्क से सहमत होना थोड़ा कठिन है. जिन रचनाओं को वे धार्मिक ,पारलौकिक औररहस्यात्मक मान कर खारिज़ कर रहे हैं, वस्तुतः उन्हीं रचनाओं में इस जीवन जगत कासच्चा प्रतिनिधित्व हुआ है. दरबारी कवियों के विपरीत ,ये कवि आम जनता के बीच रहतेहैं और उनकी भावनाओं ,उनके दुःख दर्द को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करते हैं.दूसरी बात, इन रचनाओं को यदि साहित्य की सीमा से बाहर कर दिया गया तो भक्तिकालीनसंत काव्य की जड़ें खोजनी मुश्किल हो जायगी. रहस्यवाद को कारण बनाकर अगर इन रचनाओंको खारिज़ किया जाता है तो कबीर , छायावादी कवि तथा अज्ञेय जैसे आधुनिक कवियों कीरचनाओं को किस आधार पर साहित्य के रूप में स्वीकार किया जायगा? आचार्य शुक्ल ने जिन रचनाओं को अपनी सूची मेंशामिल किया है, वे भी विवाद से परे नहीं हैं. हम्मीर रासो अबतक संपूर्ण रूप सेउपलब्ध नहीं है. इसके कुछ छंद ही प्राकृत पैंगलम नामक ग्रन्थ में मिले हैं, जिसके आधारपर शुक्लजी ने इसमें वीरगाथात्मकता की प्रवृत्ति निर्धारित की है. कुछ छंदों केआधार पर पूरी पुस्तक का प्रवृत्ति निर्धारण तर्कसंगत नहीं माना जा सकता. इसकेरचनाकार को लेकर भी मतभेद हैं. शुक्लजी इसे सारंगधर की रचना मानते हैं तो राहुलसांकृत्यायन के अनुसार यह जज्जन की कृति है. इसी प्रकार विजयपाल रासो में तोप कावर्णन इसे 16वीं शताब्दी या इसके बाद की रचना सिद्ध करता है. खुमाण रासो का रचनाकारदलपतिविजय स्वयं को नवीं सदी के खुमाण का समकालीन कहता है , लेकिन इसी रचना मेंसत्रहवीं सदी के चितौड़ नरेश राजसिंह का वर्णन भी मिलता है. प्रामाणिकता को लेकर सबसेज्यादा विवाद पृथ्वीराजरासो के साथ जुड़े हैं. इसकी तिथियों और तथ्यों की इतिहास केसाथ संगति नहीं बैठती. तिथियों में प्रायः 90 से 100 सालों का अंतर मिलता है.पृथ्वीराज की माँ का नाम यहाँ कमला बताया गया है, जबकि पृथ्वीराज विजय (जयानक कवि )जैसे अन्य स्त्रोत कर्पूरी बताते हैं. पृथ्वीराज के हाथों मुहम्मद गोरी और गुजराज केराजा भीमसिंह का वध इतिहाससम्मत नहीं है. इस प्रकार स्पष्ट है कि शुक्ल जी द्वारा जिनरचनाओं के आधार पर इस कालखंड को वीरगाथा काल नाम दिया गया है, वे अप्रामाणिक औरसंदिग्ध हैं. जॉर्ज ग्रियर्सन और रामकुमार वर्मा इस काल को चारण काल कहते हैं. वस्तुतः रासोकाव्य को चारण काव्य कहना किसी भी दृष्टि से सही नहीं है. रासो काव्यों में सिर्फबढ़ा-चढ़ा कर की गई प्रशंसा ही नहीं है, बल्कि इसमें यथार्थपूर्ण साहसिकता का भीचित्रण मिलता है. इन रचनाओं में चारणत्व है , लेकिन उनकी प्रधानता नहीं. राहुल सांकृत्यायन इस कालखंड को ‘सिद्ध-सामंत काल’ कहते हैं. इस नाम से प्रवृत्तियोंका बोध नहीं होता. सिद्ध रचनाकार हैं और सामंत रचना के आलंबन. दूसरी बात, सामंतकहने से वीरता की अपेक्षा विलासिता का भाव ज्यादा दिखता है.
महावीर प्रसाद द्विवेदी इसे ‘बीज वपन काल’ कहतेहैं ,जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी इसके लिए आदिकाल नाम सुझाते हैं. इन दोनों नामोंमें अर्थ की दृष्टि से ज्यादा अंतर नहीं है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार इस कालकी रचनाओं में तीन तरह की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं- धार्मिकता, वीरगाथात्मकता औरश्रृंगार. इसी कारण द्विवेदी जी इस कालखंड को प्रवृत्ति के आधार पर अभिहित करने कीबजाय काल के आधार पर आदिकाल कहना पसंद करते हैं.
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