सल्तनत कालीन सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालिए
तुर्क-अफगान-शासन की तीन शताब्दियों के अन्दर भारत के बहुसंख्यक लोगों की आर्थिक अवस्था का ठीक-ठीक अनुमान करना आसान नहीं है। फिर भी इतिहास-ग्रंथों, अमीर खुसरो की पुस्तकों, जनविश्वासों एवं कहानियों, कविता एवं ग्रामगीतों, हिन्दू एवं मुस्लिम रहस्यवादियों की रचनाओं, व्यवहारिक कलाओं के ग्रन्थों, कानून एवं नीति-शास्त्र की किताबों, विदेशी यात्रियों के विवरणों तथा कुछ सरकारी एवं व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार के आकस्मिक उल्लेखों का संग्रह कर हाल में इस बात का पता लगाने के प्रयत्न किये गये हैं।
उस समय देश अपने अकथित धन के लिए प्रसिद्ध था। फरिशता हमें बतलाता है कि किस प्रकार महमूद गजनवी विशाल मात्रा में लूट का माल ले गया तथा यह ध्यान देने योग्य है कि मुहम्मद बिन तुगलक के अविवेकपूर्ण अपव्यय तथा उत्तर तुगलक-युग की बहुत समय तक रह गयी अव्यवस्था के बाद भी तैमूर ने दिल्ली में अपार धन लूटा। पर राज्य कोई ऐसी व्यापक आर्थिक-नीति विकसित नहीं कर सका। जिसका ध्येय लोगों की दशा में सुधार करना हो। खल्जियों अथवा तुगलकों ने जो थोडे प्रयोग किये भी, उनका कोई स्थायी परिणाम नहीं हुआ। एक आधुनिक मुसलमान लेखक लिखता है कि- सामान्य रूप से उत्पादन के तरीके में कोई बड़ा सुधार, आर्थिक सम्पत्ति का और भी समान वितरण अथवा विभिन्न सामाजिक वगों की आर्थिक स्थिति की अधिक उत्तम व्यवस्था राज्य की नीति के बाहर थी।
फिर भी भारत में व्यवसायिक संगठन तथा विस्तृत आन्तरिक एवं बाह्य व्यापार की परंपराएं थीं। व्यवसायिक संगठन ग्राम-समुदायों तथा नागरिक क्षेत्रों के संघों और शिल्पों द्वारा होता था। व्यापार, आलोच्य काल में राज्य के मार्ग-प्रदर्शन एवं समर्थन के अभाव के बावजूद, राजनैतिक क्रान्तियों के आघातों के बाद भी जीवित रहा। दिल्ली के सुल्तानों तथा आगे चलकर कुछ छोटे प्रान्तीय शासकों ने केवल अपनी राजनैतिक एवं प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिए व्यवसायों और व्यापार को प्रोत्साहन दिया। इस तरह दिल्ली के शाही कारखानों में सुल्तानों की मांगों की पूर्ति के लिए दूसरी चीजों के कारीगरों के अतिरिक्त कभी-कभी रेशम के चार हजार जुलाहे नियुक्त किये जाते थे। आज की तरह कारखाने (फैक्ट्रियाँ) अथवा बड़े पैमाने पर व्यवसायिक संगठन नहीं थे। अधिकतर कारीगरों का सम्बन्ध सीधे व्यापारियों से रहता था, यद्यपि कभी-कभी वे अपने माल मेलों में बेच लेते थे तथा उनमें से कुछ कतिपय दिलेर व्यापारियों द्वारा उनकी (व्यापारियों की) देखरेख मे माल तैयार करने को रख लिये जाते थे। यद्यपि कृषि अधिकतर लोगों की जीविका थी, पर देश के नागरिक एवं ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ महत्त्वपूर्ण व्यवसाय भी थे। ये थे-बुनाई का व्यवसाय, जिसमें सूती, ऊनी एवं रेशमी कपड़ों का व्यवसाय सम्मिलित था; रँगने का व्यवसाय तथा सूती कपड़े पर नक्शे की छपाई; चीनी का व्यवसाय; धातु का कार्य; पत्थर तथा ईंट का कार्य तथा कागज का व्यवसाय। छोटे व्यवसाय थे- प्याले बनाना; जूते बनाना; अस्त्र बनाना विशेषकर धनुष तथा बाण; इत्रों, आसवों तथा मादक द्रव्यों का व्यवसाय इत्यादि। बंगाल तथा गुजरात बुने हुए सामानों के व्यवसाय और निर्यात में विशेष रूप से प्रसिद्ध थे। बंगाल के माल की उत्तमता की प्रशंसा अमीर खुसरो तथा विदेशी यात्रियों ने मुक्त कंठ से की है। इन विदेशी यात्रियों के नाम इस प्रकार हैं- जो 1406 ई. में बंगाल आया था; बार्थेमा, जो सोलहवीं सदी के प्रारम्भिक भाग (1503-1508 ई.) में भारत आया था; तथा बारबोसा, जो यहाँ 1518 ई. के लगभग आया था।
इस युग में भारत के आंतरिक व्यापार का परिमाण बड़ा था। केवल राज्य के एकाधिकार अथवा कठोर प्रशासनिक नियंत्रण के कारण यह कभी-कभी निष्फल हो जाता था। उसका बाह्य जगत् के साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी ध्यान देने योग्य है, समुद्र-मार्ग से उसका व्यापारिक सम्बन्ध यूरोप के दूरस्थ क्षेत्रों, मलय द्वीप-पुंज तथा चीन एवं प्रशान्त महासागर के अन्य देशों के साथ था। स्थल-मार्गों से उसका संबंध मध्य एशिया, अफगानिस्तान, फारस, तिब्बत और भूटान के साथ था। मसालिकुल-अवसर का लेखक लिखता है, सभी देशों के व्यापारी भारत से शुद्ध सोना ले जाने से कभी नहीं चूकते तथा उसके साथ ही जडीबूटियों गोंद के सामान ले जाते हैं। मुख्य आयात थे धनी वर्ग के लिए विलास की वस्तुएँ, घोडे एवं खच्चर। मुख्य निर्यात थे कृषि-सम्बन्धी माल की किस्में गौर बुने हुए सामान। कम महत्त्वपूर्ण निर्यात थे सफेद मिलावटी धातु, अफीम, नील की टिकिया आदि। फारस की खाड़ी के चारों ओर के कुछ देश अपने भोजन की आपूर्ति के लिए भारत पर पूर्णतः निर्भर थे। उस समय भारत के निर्यात व्यापार के लिए मुख्यत: बंगाल तथा गुजरात के बन्दरगाह प्रयुक्त होते थे। बर्थोमा ने बंगाल को रुई, अदरक, चीनी अन्न तथा हर प्रकार के मांस के लिए संसार का सबसे अधिक समृद्ध देश समझा जाता था।
सम्पूर्ण युग में वस्तुओं के मूल्य एक से नहीं थे। दुर्भिक्ष तथा अभाव के समय में ये असाधारण रूप से बढ़ जाते थे, पर अत्याधिक उत्पादन के समय में बहुत घट जाते थे। इस प्रकार मुहम्मद बिन तुगलक के राज्यकाल में भीषण दुर्भिक्षों के कारण अनाज का मूल्य सोलह तथा सत्रह जीतल प्रति सेर हो गया तथा बहुत से लोग भूख से मर गये। सिंध पर फ़िरोज शाह के द्वितीय आक्रमण के बाद उस प्रान्त में इसके फलस्वरूप हुए अभाव के कारण अन्न का मूल्य प्रति पसेरी (पाँच सेर) आठ और दस जीतल तथा दलहन का चार और पाँच टंका प्रतिमन अथवा क्रमश: 6.4 और 8 जीतल प्रति सेर हो गया। फिर इब्राहिम लोदी के राज्य-काल में मूल्य बहुत ही कम थे। एक बहलोली से, जिसका मूल्य 1.6 जीतल के बराबर था, दस मन अनाज, पाँच सेर तेल तथा दस गज मोआ कपड़ा खरीदा जा सकता था। अलाउद्दीन के राज्य-काल के मूल्य स्वाभाविक समझे गये हैं। ये थे (प्रतिमन के हिसाब से)- गेहूँ-साढ़े सात जीतल, जौ-चार जीतल, धान अथवा चावल-पाँच जीतल, दहलन-पाँच जीतल, मसूर-तीन जीतल, चीनी (सफेद)-सौ जीतल, चीनी (मुलायम-साठ जीतल, भेड़ का मांस-दस जीतल तथा घी-सोलह जीत)। दिल्ली की मलमल सत्रह टके में एक टुकड़े के हिसाब से आती थी और अलीगढ़ की छ: टके में एक। प्रत्येक मोटे कम्बल का मूल्य छ: जीतल था तथा प्रत्येक महीन कम्बल का छत्तीस जीतल था। अलाउद्दीन, मुहम्मद बिन तुगलक तथा फीरोज शाह के राज्यकालों के सामनों के मूल्यों की तुलना करने पर हम पाते है कि साधारणत: द्वितीय सुल्तान के राज्य-काल में ये बढ़ गये थे पर फीरोज शाह के राज्य काल में ये फिर घटकर अलाउद्दीन के राज्य-काल की पुरानी सतह पर चले आये। सामान्यतः दोआब, प्रदेश तथा प्रान्तों में भोजन तथा वस्तुएँ सस्ती थीं। इब्नबतूता लिखता है कि ऐसा देश नहीं देखा था, जहाँ वस्तुएँ बंगाल से अधिक हों। तीन मनुष्यों के एक परिवार के वार्षिक खर्च के लिए यहाँ आठ दिरहम काफी थे। पर हम लोगों के पास उस जमाने के किसी भारतीय की औसत आय तथा जीवन-व्यय काटने का कोई साधन नहीं है। और भी, हमें इस पर ध्यान देना आवश्यक है कि देश-विशेष रूप से बंगाल-मुद्रा का असाधारण अभाव झेलता रहा। अत: यह निश्चित करना एक तौर से कठिन है कि उस समय में प्रचलित वस्तुओं के कम मूल्यों से लोग कहाँ तक लाभान्वित हुए।
समाज के विभिन्न-वगों के रहने के स्तर के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि धनी वर्गों तथा कृषकों की जीवन-शैली में लगभग धरती और पाताल का फर्क था। जबकि शासक-वर्ग तथा अधिकारी-वर्ग संपत्ति और विलास में हिलकोरे लेते थे, भूमि जीतने वालों की रहन-सहन का स्तर बहुत नीचा था। कर का बोझ उन पर बहुत अधिक रहा होगा तथा उनकी दशा दुर्भिक्ष के समय दयनीय हो जाती थी, जब उन तक पर्याप्त सहायता के साधन नहीं पहुँचाये जा सकते थे। अमीर खुसरो का यह कथन् मृहत्त्वपूर्ण है कि- राजमुकुट का प्रत्येक मोती दरिद्र किसान के अश्रुपूर्ण नेत्रों से गिरे हुए रक्तबिन्दु का ठोस रूप है। बाबर, जो भारतीय ग्रामीण जनों की अत्यल्प आवश्यकताओं से चकित हुआ था, लिखता है- लोग जहाँ वर्षों से रहते आये हैं, वहाँ से लगभग डेढ़ दिनों में बिलकुल गायब हो जाते हैं। इस प्रकार मध्यकालीन भारत के कृषक अपने आधुनिक काल के वंशजों से अधिक सम्पन्न नहीं मालूम पड़ते। पर आज के मापदंडों से विचार करने पर उनकी आवश्यकताएँ कम थीं। गाँव आर्थिक क्षेत्र में स्वत: पूर्ण थे, अत: ग्रामीण जनता की साधारण आवश्यकताएँ स्थानीय रूप से उनके संतोषानुकूल पूरी हो जाती थीं। और भी, राजधानी की राजनैतिक क्रान्तियों तथा षड्यंत्रों के बावजूद गाँववाले बिलकुल बेफिक्री के साथ अपने साधारण जीवन-व्यापार चलाते थे। दरबार की राजनीति ग्रामजीवन की सीधी गति में कभी बाधा नहीं देती थी।
इक्ता व्यवस्था
इक्ता एक अरबी शब्द है। निजामुलमुल्क तुसी के रियासतनामा में इक्ता को परिभाषित किया गया है। गोरी की विजय के बाद उत्तर भारत में इक्ता व्यवस्था स्थापित हुई। मोहम्मद गोरी ने 1191 ई. में ऐबक को हाँसी का इक्ता प्रदान किया। उसी ने मलिक नसीरुद्दीन को कच्छ का प्रदेश इक्ता के रूप में प्रदान किया। माना जाता है कि इल्तुतमिश ने मुल्तान से लेकर लखनौती तक का क्षेत्र इक्ता के रूप में विभाजित कर दिया। इक्ता की दो श्रेणियाँ होती थीं। पहला, खालसा के बाहर प्रांतीय स्तर की इक्ता तथा दूसरा, कुछ गाँवों के रूप में छोटी इक्ता। गाँव के रूप में छोटी इक्ता खालसा का ही एक अंग होती थी।
इक्तादार और सुल्तान के सम्बन्ध परिस्थिति पर निर्भर करते थे। अर्थात् इक्तादारों की स्थिति तीन प्रकार की हो सकती थी। प्रथम प्रकार के इक्तादार वे थे जिन्हें जीते हुये प्रदेश में सुल्तान के द्वारा नियुक्त किया जाता था। दूसरे प्रकार के इक्तादार वे थे जो अद्धविजित क्षेत्र में नियुक्त किये जाते थे और उन्हें उस क्षेत्र को पुन: जीतना होता था। ऐसे इक्तादारों पर सुल्तान की पकड़ अपेक्षाकृत कम होती थी और तीसरे प्रकार के इक्तादार वे होते थे जो ऐसी भूमि पर इक्तादार नियुक्त किये जाते थे जो अभी तक जीता नहीं गया होता था और वैसे इक्तादार व्यवहारिक रूप से स्वतंत्र होते थे।
इक्ता के प्रशासक मुक्ति या वलि कहलाते थे। ये सम्बन्धित क्षेत्र में भू-राजस्व का संग्रह करते थे और उस क्षेत्र का प्रशासन देखते थे। इनसे अपेक्षा की जाती थी कि प्रशासनिक खर्च और वेतन को पूरा करने के पश्चात् जो शेष रकम बचती है उसे वे केन्द्रीय खजाने में भेज दें और ऐसी रकम फवाजिल कहलाती थी। समय-समय पर कुछ के सुल्तानों द्वारा इक्तादारों पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की गयी। सुल्तान और मुक्ति का परस्पर सम्बन्ध परिस्थितियों पर निर्भर करता था। सैद्धांतिक रूप में मुक्ति या वाली का पद व्शानुगत नहीं होता था और साथ ही हस्तांतरणीय होता था। बलबन ने मुक्ति को नियंत्रित करने के लिए इक्ता में ख्वाजा नामक अधिकारी को नियुक्ति किया, वह इक्ता की आमदनी का आकलन करता था। अलाउद्दीन खिल्जी ने इक्तादारोंके स्थानांतरण पर बल दिया ताकि निहित स्वार्थ पैदा नहीं हो सके। उसने इक्ता में नौकरशाही के हस्तक्षेप को बढ़ा दिया। इसके अतिरिक्त दीवान-ए-बजारत को यह अधिकार दिया गया की वह प्रत्येक इक्ता की आमदनी का निश्चित अनुमान लगाए। इक्ता के राजस्व में से इक्तादार की व्यक्तिगत आय तथा उसके अधीन रखे गए सैनिकों के वेतन में स्पष्ट विभाजन किया गया और ऐसा गयासुद्दीन तुगलक ने किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने एक ऐसा कदम उठाया। उसने भू-राजस्व संग्रह और प्रशासन के कार्यों का विभाजन कर दिया। अब मुक्ति के अतिरिक्त एक और अमीर नियुक्त किया गया। वह प्रशासन का कार्य देखता था।
इक्ता के आय-व्यय के निरीक्षण के लिये एक आमील नामक अधिकारी भी नियुक्त होने लगा। मुहम्मद बिन तुगलक ने इक्ता के सैनिकों का वेतन भी केन्द्रीय खजाने से देने का प्रावधान किया ताकि भ्रष्टाचार को रोका जा सके। उसके इस कदम के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुयी और यही वजह है की उसके काल में इतने विद्रोह हुए। फिरोज तुगलक ने बिन मुहम्मद की नीति को उलट दिया और इक्तादार के पद को वंशानुगत बना दिया। फिरोज तुगलक सैनिकों के वेतन के बदले उन्हें गाँव प्रदान करने लगा और ऐसे गाँव वजह कहलाते थे और वजह को धारण करने वाले की वजहदार कहा जाता था। लोदियों के समय भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ। इस काल में इक्तादारों' का स्थानांतरण नहीं हो पाता था।
खालसा या महरुसा- खालसा भूमि वह भूमि होती थी जिसकी आय सुल्तान के लिए सुरक्षित रखी जाती थी। प्रारंभिक सुल्तानों के समय भटिण्डा और ग्वालियर खालसा भूमि थी। अलाउद्दीन खिल्जी के समय खालसा भूमि का विस्तार हुआ। किन्तु फिरोज तुगलक ने उसकी नीति को उलट दिया। उसके समय खालसा भूमि कम हो गयी।
कर व्यवस्था- प्रारम्भ में इस्लामी करारोपण पद्धति लागू नहीं हो पायी। सबसे पहले पंजाब में इस्लामी करारोपण पद्धति लागू हुयी थी। अलाउद्दीन खिल्जी से पूर्व दिल्ली एवं आसपास के क्षेत्रों में इस्लामी करारोपण पद्धति शुरू नहीं हुयी थी। आगे चलकर शरियत के मुताबिक चार प्रकार के कर स्थापित हुए-
धार्मिक कर- जकात, धर्म निरपेक्ष कर-खराज, जजिया और खम्स।
खराज और उस्र- खराज भूमि कर था। जो हिन्दुओं की भूमि पर लगाया जाता था। सामान्यतः यह उत्पादन के ⅓ से कम नहीं और ½ से अधिक नहीं होना चाहिए था। किन्तु फिरोज तुगलक ने फतुहाते-फिरोजशाही में इसका भाग ⅕ निर्धारित किया है।
उस्र- यह मुसलमानों की भूमि पर लगाया जाता था। जिस भूमि पर प्राकृतिक रूप से सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होती थी उस पर इसकी दर कुल उत्पादक का 1/10 भाग थी। जहाँ राज्य के द्वारा सिंचाई की सुविधा प्रदान की जाती थी, वहाँ इसकी दर कुल उत्पादक का ⅕ भाग होती थी। अगर कोई हिन्दू किसी मुसलमान की जमीन खरीद लेता था तो उसे उस भूमि पर उस्र के बदले खराज देना पड़ता था किन्तु अगर कोई मुसलमान किसी हिन्दू की जमीन खरीदता था तो खराज का परिवर्तन उस्र में नहीं होता था।
जकात (सदका)- यह धनवान मुसलमानों पर लगाया जाता था इसकी दर उसकी आय का अढ़ाई (2.5) प्रतिशत होती थी। इसका उपयोग धार्मिक कार्यों के लिए होता था।
जजिया- यह सैनिक सेवा के बदले गैर मुसलमानों पर लगाया जाता था। इसकी दर क्रमश: 48 दिरहम, 24 दिरहम और 12 दिरहम थी। यह प्राय: खराज के साथ लिया जाता था। फिरोज तुगलक ने इसे एक पृथक कर बनाया।
खम्स- यह युद्ध के लूट के माल पर लगता था। इसमें राज्य का हिस्सा ⅕ भाग और सैनिकों का हिस्सा ⅘ भाग होता था किन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने उसे उलट दिया। फिरोज तुगलक ने इसे पुन:व्यवस्थित किया।
भू-राजस्व व्यवस्था- वास्तव में सल्तनत कालीन भूमि व्यवस्था मुस्लिम विचार धारा और पूर्ण प्रचलित देशी परम्पराओं का मिश्रण थी।
सामान्यरूप से तुर्कों ने इस्लामी अर्थव्यवस्था संबंधी सिद्धांत को अपनाया। यह व्यवस्था बगदाद के मुख्य काजी अबू याकूब द्वारा लिखित किताब-उल-खराज में लिपिबद्ध है। सल्तनत काल में भूमि निम्नलिखित भागों में विभाजित थी।
सल्तनत काल में सुल्तान के अधिकार से मुक्त भूमि को मोरलैण्ड ने अनुदान कहा है। यह अनुदान मिल्क (राजा द्वारा प्रदत्त), वक्फ (धर्म सेवा के आधार पर प्राप्त भूमि) ईनाम (पेंशन) होता था।
सम्पूर्ण साम्राज्य को हम दो भागों में बांट सकते हैं- खराज भूमि और मवास भूमि। खराज भूमि वह थी जिससे नियमित भू-राजस्व प्राप्त होता था और मवास भूमि वह थी जहाँ से भू-राजस्व प्राप्त नहीं होता था। अत: उन क्षेत्रों में सल्तनत की सेना लूट मचाती थी।
भू-राजस्व (खराज) संग्रह की पद्धति-
1. खेत बटाई- जब खड़ी फसल में राज्य का हिस्सा निर्धारित कर दिया जाता था तो वह खेत बटाई कहलाता था।
2. लंक बटाई- लंक बटाई में फसल कटने के बाद किन्तु भूसा अलग करने के पहले ही राज्य का हिस्सा निर्धारित कर दिया जाता था।
3. रास बटाई- इसमें भूसा अलग करने के बाद तैयार अनाज का विभाजन किया जाता था।
उसने वफा-ए-विसवा को अपनाया जो माप की ईकाई था। अलाउद्दीन खिलजी ने किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित किया, उसने मध्यस्थ वर्ग का अंत कर दिया। राज्य द्वारा किसानों से सीधे सम्पर्क किये जाने से राजस्व अधिकारियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी। ये अधिकारी विभिन्न नामों से पुकारे जाते थे। उदाहरण के लिये- उस्माल, मुतसर्रिफ, मुशरिफ, मुहासिललान, नवीसिन्दगान आदि।
मोरलैण्ड के अनुसार मध्यस्थ वर्ग में खुत, मुक्कद्दम और चौधरी थे। अलाउद्दीन खिल्जी ने हक-ए-खूती और किस्मत-ए-खूती का अंत कर दिया। कुछ ही समय के बाद राजकीय अधिकारियों में भ्रष्टाचार अत्याधिक बढ़ गया। माना जाता है कि नायब-वजीर शरीफ केनी ने भ्रष्ट अधिकारियों को दण्डित किया।
हक-ए-खूती- अपने पारिश्रमिक के रूप में इस वसूली का एक अंश प्राप्त करने का हक किसानों से उनकी उपज का कुछ अंश प्राप्त करना।
ग्यासुद्दीन तुगलक द्वारा दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गये- मध्यस्थ वर्ग को उसने हक-ए-खूती का अधिकार तो दे दिया किन्तु किस्मत-ए-खूती का अधिकार नहीं दिया। साथ ही उन्हें गृहकर और चराई कर से मुक्त कर दिया गया। ग्यासुद्दीन तुगलक ने भूमि को मापने की व्यवस्था भी जारी रखी परन्तु साथ ही अवलोकन और वास्तविक उपज (बर-हुक्म हासिल) के अधार पर भी कर का निर्धारण जारी रखा। वस्तुत: अलाउद्दीन खिल्जी के काल में कर-प्रणाली का आधारभूत सिद्धांत यह था कि सबल वर्ग का बोझ निर्बल वर्ग पर नहीं पड़ना चाहिये।
मुहम्मद बिन तुगलक के समय भूमि मापने की प्रथा फिर अपना ली गयी। परन्तु स्थिति तब बिगड़ गयी जब अनाज के रूप में वसूली वास्तविक उत्पादन के आधार पर न कर के राज्य द्वारा निर्धारित पैदावार (वफा-ए-फरमानी) के आधार पर की गयी। उसी तरह नगद रूप में वसूली भी बाजार में प्रचलित मूल्य के आधार पर नहीं की गयी वरन् राज्य द्वारा घोषित मूल्य (निख-ए-फरमानी) के आधार पर की गयी। विशेषतः मुहम्मद बिन तुगलक के समय राजस्व वसूली का काम भी ठेकेदारी पर दिया जाने लगा। फसल खराब होने पर भूमि-राजस्व में छूट भी दी जाती थी। मुहम्मद बिन तुगलक के द्वारा किसानों को कृषि ऋण दिया गया जिसे सोनधर (तकाबी ऋण) कहा जाता है।
सिंचाई- कुएँ सिंचाई के मुख्य साधन थे। मुहम्मद बिन तुगलक ने कुओं की खुदाई के लिये ऋण प्रदान किये थे। कुओं से सिंचाई के लिए एक नयी तकनीकी इस काल में विकसित हुयी, जिसे गियर प्रणाली कहते हैं। यह साकिया के नाम से जाना जाता था।
14वीं सदी में नहर सिंचाई विकसित हुई। सम्भवत: मध्य एशिया के प्रभाव से इसका विकास हुआ। ग्यासुद्दीन तुगलक प्रथम सुल्तान था जिसने नहर का निर्माण कराया। फिरोज तुगलक ने कई नहरें निर्मित कराई। उसने यमुना नदी से राजवाह और उलूग खानी नामक नहर निकलवायी। उसने सतलज नदी से फिरोजशाही नामक नहर निकलवायी। उसने एक नहर घग्गर नदी से और दूसरी काली नदी से निकलवायी। फिरोज तुगलक प्रथम सुल्तान था जिसने सिंचाई कर प्रारंभ किया। उसके द्वारा लगाया गया सिंचाई कर हक-ए-शर्व के नाम से जाना जाता था और वह कुल उपज का 10 प्रतिशत होता था।
सल्तनत काल में रबी और खरीफ दोनों फसलें उगाई जाती थीं। इब्नबतूता ने दिल्ली के आसपास दोनों प्रकार की फसलों की चर्चा की है। ठक्करफेरू ने, जो अलाउद्दीन खिलजी के अधीन एक अधिकारी था, 25 प्रकार की फसलों के नाम गिनाये हैं। किन्तु आश्चर्य की बात है कि उसने नील और पोस्त की चर्चा नहीं की है।
14वीं और 15वीं सदी में पहली बार मलबरी रेशम कीट पालन प्रारंभ हुआ। इस काल में कलम लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं थी।
कृषि सम्बन्ध- उस समय किसानों को भूमि पर स्वामित्व नहीं था। भूमि की अधिकता थी इसलिये भूमि स्वामित्व के प्रति अधिक सजगता नहीं थी। सबसे छोटे किसान बलाहार कहलाते थे। धनी किसान के वर्ग में खुत, मुकद्दम और चौधरी आते थे। ग्रामीण क्षेत्र में सबसे ऊपर राजा, रणका और रावत होते थे। इन्होंने प्रारम्भिक दिल्ली सुल्तानों का कडा विरोध किया।
तुर्कों के द्वारा लाये गये कुछ महत्त्वपूर्ण तकनीक थीं-
वाणिज्य-व्यापार और नगर
इरफान हबीब दिल्ली सल्तनत काल को तृतीय नगरीकरण की शुरुआत का काल मानते हैं। वे मानते है कि इस काल में एक शहरी क्रांति हुयी। वस्तुत: मुसलमानों की जनसंख्या कम थी और वे मुख्यत: इक्ता के मुख्यालय और राजधानी में बसने लगे। राजा के महल के आसपास ही सैनिक शिविर भी स्थापित किये जाने लगे। दूसरे सल्तनत काल की भू-राजस्व नीति ने प्रेरित व्यापार को जन्म दिया। इस काल में विलासिता के क्षेत्र में रेशम के कपड़ों का उत्पादन शुरू हुआ। ईरान से कालीन बनाने की कला आयी। कागज और जिल्दसाजी की पद्धति भी विकसित हुयी। व्यापक पैमाने पर निर्माण कार्य हुआ जिससे कुछ लोगों को रोजगार मिला। बरनी के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी के अधीन 70000 कारीगर काम करते थे। इसके परिणाम स्वरूप कुछ नगरों का विकास हुआ। इब्नबतूता दिल्ली को पूर्वी इस्लामी दुनिया का सबसे बड़ा शहर मानता है। पूरब में कड़ा और लखनौती, उत्तर पश्चिम में लाहौर और मुल्तान, पश्चिम में अन्हिलवाड़ा और कैम्बे महत्त्वपूर्ण नगर के रूप में विकसित हुये।
बंगाल और गुजरात के नगर अच्छे किस्म के वस्त्रों के लिये प्रसिद्ध थे। गुजरात के कैम्बे सूती वस्त्र, सोना और चाँदी के काम के लिये प्रसिद्ध थे। बंगाल का सोनारगाँव कच्चे रेशम एवं महीन सूती वस्त्र (मलमल) के लिये प्रसिद्ध था। भारत उत्तम श्रेणी का वस्त्र (अतलस), शीशे का सामान और घोड़े पश्चिम एशिया से मंगवाता था। चीन से कच्चे रेशम एवं चीनी मिट्टी के बर्तन मंगवाये जाते थे।
सल्तनत कालीन ग्रंथों में कारवानी या नायक और मुल्तानी व्यापारियों की चर्चा मिलती है। कारवानी अनाज के व्यापारी थे और मुल्तानी व्यापारी दूरस्थ व्यापार से जुड़े हुये थे। व्यापार में दलालों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। बरनी ने दलालों को बाजार का स्वामी (हाकिमान बाजार) कहा है। फिरोज तुगलक ने दलालों पर लगाये जाने वाला कर दलालात-ए-बजाराहा समाप्त कर दिया। सर्राफ नामक व्यापारी मुद्रा विनिमय एवं हुण्डी से जुड़े हुये थे।
मुद्रा व्यवस्था- सल्तनत काल से पूर्व शुद्ध चाँदी की कमी श्री। गोरी शासकों ने चाँदीयुक्त ताँबे के सिक्के जारी किये। सिक्के पर देवी लक्ष्मी, बैल तथा घुड़सवारों की आकृति बनायी जाती थी। शासकों का नाम नागरीलिपी में लिखा जाता था। इन सिक्कों को देहलीवाला कहा जाता था। इल्तुतमिश ने पहली बार सिक्के का मानकीकरण किया। उसने सोने और चाँदी के टके और ताँबे के जीतल जारी किए। उस समय सोने और चाँदी का अनुपात 1:10 तथा सल्तनत के टकसालों द्वारा सामान्य तौर पर तीन धातुओं के सिक्के निर्मित किये जाते थे, सोना चाँदी और बिलन (चाँदी व ताँबे का मिश्रण)।
बरनी ने दो अन्य सिक्के दांग और दिरहम की चर्चा की है। एक चाँदी का टका-48 जीतल-192 दाँग-490 दिरम या दिरहम।
देवगिरी की विजय से पूर्व बंगाल द्वारा सोना और चाँदी प्रेषित किया जाता था। 13वीं शताब्दी के दौरान सिक्के की ढलायी का यही स्त्रोत था। अलाउद्दीन खिल्जी के समय चाँदी की मुद्रायें प्रमुख होती थीं। ग्यासुद्दीन तुगलक के काल में सोने एवं बिलन की तुलना में चाँदी के सिक्के कम मिलते है और फिरोज तुगलक के अधीन चाँदी के सिक्के लुप्त हो गये। 15वीं शताब्दी में बिलन सिक्के ही प्रभावी रहे क्योंकि लोदी शासकों के द्वारा अन्य सिक्के नहीं जारी किये गए।
सामाजिक जीवन
सुल्तानों तथा सरदारों के लिए दास-दासियाँ रखना आम बात थी। राजकीय दासों (बन्दगाने-खास) की संख्या प्राय: अधिक रहा करती थी। अलाउद्दीन के पचास हजार दास थे और इनकी संख्या फीरोजशाह के अधीन दो लाख तक पहुँच गयी। उनके स्वामी उनका बहुत ख्याल किया करते थे, क्योंकि वे सेवा तथा कभी-कभी आर्थिक लाभ के एक उपयोगी साधन थे। सुल्तान प्राय: कुछ समय के बाद अपने दासों को मुक्त कर देते थे। कुछ दास अपने गुण एवं योग्यता के कारण राजनैतिक तथा सामाजिक ख्याति को प्राप्त हुए। भारतीय दासो में आसाम के दास अपने मजबूत शारीरिक गठन के कारण सबसे अधिक पसन्द किये जाते थे। भारतीय दास तो बड़ी संख्या में थे ही, चीन, तुर्किस्तान तथा फारस-जैसे अन्य देशों से भी दास-दासियों का आयात होता था। युद्धों की गति तथा दुर्भिक्षों के अनुसार, दासों के मूल्य घटते-बढ़ते रहते थे। दासत्व की संस्था से शासकों तथा सरदारों के कुछ मतलब सिद्ध हुए होंगे। परन्तु साथ ही इसके कुछ विषम सामाजिक परिणाम भी हुए। वास्तव में यह संस्था अप्रगतिशीलता की छाप तथा सामाजिक जीवन की एक अस्वस्थ विशेषता थी।
स्त्रियों का अपने पतियों अथवा अन्य पुरुष सम्बन्धियों पर निर्भर रहना, हिन्दुओं तथा मुसलमानों के सामाजिक जीवन की एक प्रमुख विशेषता थी। पर उनका प्रतिष्ठापूर्ण स्थान था। तथा दाम्पत्य-जीवन में उनसे दृढ़ स्वामिभक्ति की आशा की जाती थी। वे साधारणत: अपने घरों में अलग होकर रहती थीं। गुजरात के कुछ तटवर्ती नगरों को छोड़कर सर्वत्र पर्दा-प्रथा हिन्दू तथा मुसलमान दोनों में बहुत बढ़ गयीं। इसका प्रमुख कारण यह था कि विदेशी आक्रमणकारियों- विशेषत: मंगोलों के हमलों से इस युग में साधरणतया असुरक्षा की भावना फैल गयी थी। स्त्रियों की संस्कृति उनके वर्गों के अनुसार भिन्न थी। जबकि साधारण ग्रामीण स्त्रियाँ अपने घरेलू कामों में व्यस्त थीं, उच्चतर वर्ग की कुछ स्त्रियाँ कलाएँ तथा विज्ञान सीखती थीं। रूपमती तथा पद्यावती शिक्षित स्त्रियों के अच्छे उदाहरण हैं। लड़का और लड़की दोनों का विवाह कम उम्र में हो जाता था। कुछ वर्गों में सती-प्रथा बहुत प्रचलित थी। इब्नबतूता के लेखानुसार विधवा के जलने से पहले दिल्ली के सुल्तान से एक प्रकार का अनुमति-पत्र प्राप्त कर लेना पड़ता था। यद्यपि सामाजिक जीवन का साधारण स्तर ऊंचा था, जिसमें दानशीलता तथा अन्य गुण विद्यमान थे, तथापि मदिरा तथा स्त्रियों की इच्छा से सम्बन्धित कुछ पाप कर्म भी प्रचलित थे
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।