अपसारी और अभिसारी चिंतन
भाषा व्यक्ति के भावों / विचारों को अभिव्यक्तकरने का माध्यम है .
भाषा की परिभाषा व्यक्तियों के बिच परंपरागत माध्यमो से विचार विनिमय की प्रणाली के रूप में की जा सकती है - बारेन
भाषा में सम्प्रेषण के (अथवा विचारों के आदान-प्रदान के ) वे सभी साधन आते है जिनमे विचारो एवं भावो को प्रतीकात्मक बना दिया जाता है जिससे की अपने विचारो और भावो को दुसरो से अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके -हरलोक
भाषा दूसरों के साथ विचारों को आदान -प्रदान करने की योग्यता है -हरलोक
सांकेतिक या शारीरिक भाषा ...भाषा एक संकेत प्रणाली है .भाषा एक विशेष संकेत प्रणाली है जो पारस्परिक ध्वनि संकेतो के से बनी होती है .
बच्चे का रोना उसका पहला संकेत है -एक प्रकार से उसकी भाषा है .
भाषा बौद्धिक क्षमता को प्रकट करती है .
भाषा का क्रम है ध्वनि , वर्ण , शब्द , वाक्य, अनुच्छेद , .......
भाषा व्यापक है -वाणी उसका एक स्वरुप .
भाषा मनोक्रियात्मक कौशल है .
भाषा /वाणी मांसपेशियों तथा वाचिक तंत्र में सहायक होती है .
भाषा में सम्प्रेषण के वे सभी साधन है जिसमे विचारो और भावों को प्रतीकात्मक बना दिया जाता है . जिससे की अपने विचारो और भावो को एक -दुसरे के अर्थपूर्ण डंग से कहा जा सके.
लिखना -पढना , बोलना , मुखात्मक अभिव्यक्ति , हाव -भाव ,संकेत तथा कलात्मक अभिव्यक्तियाँ भाषा में ही सम्मिलित है .
प्रत्येक बालक के विकास में उसका भाषा -विकास होना आवश्यक है .
भाषा से बालक का संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है.
भाषा मनुष्य के विचारों के उद्रेक का कारण भी होती है.
भाषा ज्ञानार्जन एवम चिंतन का उत्कृष्ट साधन है.
सामाजिक संरचना , संस्कृति और क्रियाकलापों का आधार भाषा है.
वातावरण का भाषा से गहरा सम्बन्ध होता है .
भाषा विकास का महत्त्व
शैक्षिक उपलब्धि : भाषा और उच्चारण , समस्या को रखना , प्रभावशीलता , लिखावट बालक की शैक्षिक उपलब्धि को निर्धारित करते है
सामाजिक मूल्यांकन: बालक की भाषा से उसकी प्रष्टभूमि का आकलन किया जाता है.
इच्छा /आवश्यकता : मनोभाव व्यक्त करने की क्षमता भाषा में है . इससे समाधान मिलता है.
प्रभाव /ध्यान /नेतृत्व: प्रिय,मधुर,ओजस्वी वक्ता बालक समूह , परिवार,समाज पर प्रभाव डालते है ध्यान खींचता है और समूह का नेतृत्व प्राप्त करता है .
आत्ममूल्यांकन : बालक समाज में बोलकर अपने प्रति प्रतिक्रिया प्राप्त कर स्वय का मूल्यांकन करता है
सामाजिक सम्बन्ध : भाषा से अभिव्यक्ति , अभिव्यक्ति से बहिर्मुखी प्रकृति, बहिर्मुखी प्रकृति से व्यक्तिक व सामाजिक समायोजन बढ़ता है . और समाजीकरण प्रबल होता है .
भाषा विकास और शिक्षा
विद्यालय का एक प्रमुख कार्य बालक को शुद्ध बोलना , शुद्ध लिखना और शुद्ध भाषा का प्रयोग करना सिखाना होना चाहिए .
शिक्षक को बालक के भाषा के विकास से परिचित होकर उसे समयानुकूल भाषा का प्रयोग करना सिखाना चाहिए.
बालक को शब्दों के सही अर्थ उनकी सार्थकता महत्त्व तथा सन्दर्भ का प्रयोग बताना चाहिए.
शिक्षक को स्वयं ऐसे शब्दों का इस तरह प्रयोग करना चाहिए जो भावो को सही अभिव्यक्त करते हो .
भाषा विकास के सिद्धांत :
परिपक्वता का सिद्धांत : भाषा अवयवो, स्वर-यंत्रो , जिह्वा, गला, तालू, ओंठ,दन्त, आदि के संचालन की परिपक्वता .
अनुबंधन साहचर्य: मूर्त वस्तु से जोड़कर शिशु शब्दज्ञान करता है . उपस्थित वस्तु और शब्द से सम्बन्ध या साहचर्य (जुडाव) . उद्दीपक और प्रतिक्रिया का सम्बन्ध . इस दिशा में स्किनर ने महत्वपूर्ण कार्य किया है . S-R सम्बन्ध -इसके द्वारा बालक शब्दों का अधिगम करता है . d इस सिद्धांत के अनुसार बालक द्वारा भाषा अर्जित करना ध्वनि और ध्वनि -समायोजन के चयनात्मक पुनर्बलन पर निर्भर करता है .
अनुकरण का सिद्धांत : भाषा सिखने के अनुकरण के सिद्धांत के क्षेत्र में चैपिनिज , शर्ली, कर्ती वैलेंटाइन आदि मनोवैज्ञानिक ने कार्य किया है . बालक परिवार जानो , मित्रो और साथियों से भाषा सीखते है. इसीलिए दोष ,अशिष्टता, अश्लीलता आदि शब्द भी अनुकरण से सिख लेते है . बालक भाषा प्रयोग के तौर -तरीके भी अनुकरण से सिख लेते है .
चामोत्सकी का सिद्धांत :
चाम्सकीय भाषाविज्ञान की शुरुआत उनकी पुस्तक सिंटैक्टिक स्ट्रक्चर्स से हुई मानी जा सकती है जो उनके पीएचडी के शोध, लाजिकल स्ट्रक्चर आफ लिंग्विस्टिक थीयरी (1955, 75) का परिमार्जित रूप था। इस पुस्तक के द्वारा चाम्सकी ने पूर्व स्थापित संरचनावादी भाषावैज्ञानिकों की मान्यताओं को चुनौती देकर ट्रांसफार्मेशनल ग्रामर की बुनियाद रखी। इस व्याकरण ने स्थापित किया कि शब्दों के समुच्य का अपना व्याकरण होता है, जिसे औपचारिक व्याकरण द्वारा निरुपित किया जा सकता है और खासकर सन्दर्भमुक्त व्याकरण द्वारा जिसे ट्रांसफार्मेशन के नियमों द्वारा व्याख्यित किया जा सकता है।
उन्होंने माना कि प्रत्येक मानव शिशु में व्याकरण की संरचनाओं का एक अंतर्निहित एवं जन्मजात (आनुवांशिक रूप से) खाका होता है जिसे सार्वभौम व्याकरण की संज्ञा दी गयी। ऐसा तर्क दिया जाता है कि भाषा के ज्ञान का औपचारिक व्याकरण के द्वारा माडलिंग करने पर भाषा उत्पादकता के बारें में काफी जानकारी इकट्ठा की जा सकती है, जिसके अनुसार व्याकरण के सीमित नियमों द्वारा कैसे असीमित वाक्य निर्माण कैसे संभव हो पाता है। चामस्की ने प्राचीन भारतीय वैय्याकरण पाणिनी के प्राचीन जेनेरेटिव ग्रामर के नियमों के महत्व भी स्वीकृत करते हैं।
चोमस्की का मानना है की अनुकरण और पुनर्बलन से शब्द सिखने की प्रक्रिया पर प्रकाश नहीं पड़ता . बालक जो भी सुनता है वह भाषाई आंकड़ा है . जो इनपुट होता है बालक इसे LADभाषा प्राप्ति उपकरण द्वारा समझता है यह प्रोसेसर की तरह होता है . इस प्रोसेसिंग के बाद बह शब्दों का पुनरुत्पादन करता है . नया शब्द -संयोजन कर सकता है . इस निर्माण की प्रक्रिया को उन्होंने जेनेटिक ग्रामर की संज्ञा प्रदान की है . LAD Processing ( Language Acquisition Device)
भाषा विकास की अवस्थाये
रोना - शिशु के जन्म से प्रारंभ होता है , भाषा का प्रारंभिक रूप है , यह आवश्यकता का संकेत है , तथा मांसपेशियों का अभ्यास है .
बबलाना - यह लगभग 2 से 13 माह तक होता है , इसमें बालक स्वरों को पहले और व्यंजनों को उनके साथ मिलकर सरल ध्वनियाँ बोलता है , फिर छींकते , जम्हाई लेते खांसते आदि में कुछ जटिल ध्वनिया निकलता है.
हाव-भाव : बब्लाने के साथ धीरे -धीरे हाव-भाव आने लगते है , मुस्कुराना , हाथ फैलाना , उंगली दिखाना आदि, बच्चो के लिए हाव-भाव विचारों की अभिव्यक्ति का एक सुगम साधन है जो शब्दों के स्थान पर प्रयोग किया जाता है .
भाषा विकास को प्रभावित करने वाले करक
अंगो की परिपक्वता
बुद्धि
स्वास्थ्य
लिंग
सामाजिक अधिगम / अनुकरण के अवसर
निर्देशन
प्रेरणा
सामाजिक-आर्थिक स्तर
बहुजन्म /एक साथ अधिक संताने
परिवार का आकार
द्विभाषावाद
उचित शिक्षण विधि आभाव
व्यक्तिव विकास आदि
वाणी -विकार
भ्रष्ट उच्चारण: संरचना ठीक नहीं होना या स्थायी दोष
अस्पस्ट उच्चारण: यह आयु बढ़ने के साथ ठीक होने लगती है .
तुतलाना : यह भाव दोष ढाई साल से प्रारम्भ होता है . फिर ठीक होने लगता है .
हकलाना : स्वर्यन्त्रो आदि के संतुलन के आभाव , घबराहट , श्रवण व् वाक् केन्द्रों का विकृत होना
तीव्र अस्पष्ट वाणी: तीव्र गति से कारण अस्पष्टता .
भाषा - सिखने के साधन
अनुकरण
खेल
कहानी सुनना
वार्तालाप
प्रश्नोत्तर
सांकेतिक सम्प्रेषण आदि
चिंतन /विचार
चिंतन मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलु है - रोस
जीव-शरीर द्वारा वातावरण के प्रति ड्रेवर चैतन्य समायोजन कोलिन्य व ड्रेवर
चिंतन प्रयत्न और भूल/प्रयास और त्रुटी पर आधारित इच्छा संतुष्टि की प्रक्रिया है -रायबर्न
चिंतन वह प्रक्रिया है जिसमे श्रंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य या उद्देश्य की ओर प्रवाहित होते है -वेलेंटाइन
भाषा सम्प्रेषण के माध्यम से बालक नए भाव , दृष्टिकोण ,सुचना , व्यव्हार तथा कौशल अर्जित करता है . सम्प्रेषण को समझने के बाद बालक अनुक्रिया के रूप में विचार व्यक्त करता है .
चिंतन एक उच्च ज्ञानात्मक प्रक्रिया है .
चिंतन में सामान्यत स्मृति,कल्पना,अनुमान आदि मानसिक क्रियाये सम्मिलित होती है .
वस्तुओं में प्रतीकात्मक संबंधो की व्यवस्था भी चिंतन है.
चिंतन और कल्पना दोनों ज्ञानात्मक व रचनात्मक मानसिक क्रियाये है.
चिन्तंन की दिशा अथवा लक्ष्य होता है .
इसमें बालक /व्यक्ति क्रियाशील रहता है.
यह आतंरिक संभाषण भी है . अतः कभी कभी चिन्तनरत बालक बोलता पाया जाता है.
बालक द्वरा चिंतन में सर्वप्रथम समस्या सामने होती है जिसे केंद्र में रखकर वह चिंतन करता है .
अनुभवों के आधार पर बालक समान संप्रत्यय रखकर समस्या-समाधान के विषय में अनुमान लगता है .
चिंतनकर्ता सार्थक चिंतन द्वारा निर्णय या समाधान उपस्थित करता है .
चिंतन में तर्क की प्रधानता होती है कल्पना की नहीं .
चिंतन प्रक्रिया प्रतिक और चिन्हों की सहायता से चलती है . और इन्ही प्रतिको और चिन्हों का आधार भाषा होती है . अतः चिंतन और भाषा सम्बंधित है.
भाषा -योग्यता के अनुपात में ही चिंतन -योग्यता भी प्रबल होती है.
ज्ञान -वृद्धि से चिंतन -शक्ति का भी विकास होता है.
भाषा के द्वारा बालक अपने चिंतन या विचार को अभिव्यक्त करता है.
भाषा से चिंतन का विकास होता है और चिंतन से भाषा का .
विचार दोनों प्रकार के होते है - प्रतिमा -सहित और प्रतिमा -रहित .
बाल चिंतन चार प्रकार का पाया जाता है -
प्रत्याक्क्षात्मक - वस्तुओ और परिस्थितियों को देखकर उनके बारे में चिंतन .
कल्पनात्मक - जब उद्दीपक वस्तु उपस्थित नहीं हो तब कल्पना या मानसिक प्रतिमा बनायीं जाती है .
प्रयायात्मक -उच्च चिंतन , इसमें बालक प्रत्यय निर्माण अर्थात वैचारिक अवधारणा विकसित करता है .स्थान , आकार , भार , समय , दुरी आदि के प्रत्यय बाल मस्तिस्क में बन जाते है.
तार्किक चिंतन -तर्क पर आधारित होता है यह भी उच्च चिंतन है.
चिंतन का विकास भाषा के कुछ समय बाद प्रारंभ होता है.
लगभग 1-2 वर्ष की अवस्था में प्रत्याक्षात्मक चिंतन प्रारंभ हो जाता है. इसका आधार मूर्त वस्तुए और उत्तेजनाए होती है .
3 से 7 वर्ष तक की अवस्था में चिंतन का स्तर निम्न होता है. दैनिक जीवन के विषय में ही होते है . इसमें तार्किकता और कार्य-कारण संगती का अभाव होता है . एक ही घटना के आधार पर निष्कर्ष की प्रवृति पायी जाती है . आत्मकेंद्रित चिंतन होता है . इसमें जीववाद भी पाया जाता है अर्थात चिंतन में निर्जीव और सजीव में भेद नहीं होता .
पियाजे के सिद्धांत के अनुसार लगभग 7 वर्ष तक बालक का चिंतन आत्मकेंद्रित ही अधिक होता है यहाँ तार्किकता अधिक नहीं होती है.
इस अवस्था के समापन के साथ ही बालक में 5 से 7 वर्ष की अवस्था से कल्पनात्मक व प्रत्ययात्मक चिंतन प्रारंभ हो जाता है .वुद्वर्थ ने इन दोनों को मिलाकर विचारात्मक चिंतन कहा है.
7 से 15 वर्ष तक चिंतन का विकास तीव्रता से होता है.
चिंतन की योग्यता का विकास करवाना शिक्षक का दियित्व है .
चिंतन और उसकी अभिव्यक्ति के अवसर बालक को दिए जाने चाहिए .
उत्तरदायित्व देने से भी निर्वहन के लिए चिंतन का विकास होता है.
समस्या समाधान के लिए भी चिंतन प्रेरित होता है.
नविन जानकारियां प्रदान करने पर भी चिंतन का विकास होता है.
तर्क और वाद-विवाद प्रतियोगिताए आदि इसमें सहायक होते है.
चिंतन के लिए उद्दीपक वातावरण होना चाहिए.
अभिसारी चिंतन - केवल एक ही बिंदु पर केन्द्रित होकर चिंतन करना अभिसारी चिंतन कहलाता है . इसमें अधिक विकल्पों और विचारों के फैलाव को स्थान नहीं होता है.
अपसारी चिंतन -जब किसी बालक को चिंतन के अनेक विकल्पं और विचरों को अलग -अलग दिशाओ में फ़ैलाने का अवसर दिया जाता है तो इसे अपसारी चिंतन कहते है . जैसे आउट ऑफ़ द बोक्स चिन्तन , चारदीवारी से बहार या बने बनाये सांचे से बाहर का चिंतन .
Its right answer
Abhisari Chintan kin balko Mein paya jata hai
Samvegik Chantan wa ahemwadi chantan Kya hai.
उल्लू बना दिया
अपसारी अभिसारी तो बताया ही नही
Pratibhashali balak m konsa chintan paya jata h..?
Pratibhashali balak me konsa chintan hota h
अपसारी और अभिसारी वास्तव मे है क्या
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