ग्लोबल वार्मिंग के कारण ऋतु परिवर्तन
ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएँ बढ़ेगी और मौसम का मिज़ाज पूरी तरह बदला हुआ दिखेगा।
क्या है ग्लोबल वार्मिंग?
आसान शब्दों में समझें तो ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ है ‘पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसके कारण मौसम में होने वाले परिवर्तन’ पृथ्वी के तापमान में हो रही इस वृद्धि (जिसे 100 सालों के औसत तापमान पर 10 फारेनहाईट आँका गया है) के परिणाम स्वरूप बारिश के तरीकों में बदलाव, हिमखण्डों और ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और वनस्पति तथा जन्तु जगत पर प्रभावों के रूप के सामने आ सकते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है, यह बात एक आम आदमी समझ नहीं पाता है। उसे ये शब्द थोड़ा टेक्निकल लगता है। इसलिये वह इसकी तह तक नहीं जाता है। लिहाजा इसे एक वैज्ञानिक परिभाषा मानकर छोड़ दिया जाता है। ज्यादातर लोगों को लगता है कि फिलहाल संसार को इससे कोई खतरा नहीं है।
भारत में भी ग्लोबल वार्मिंग एक प्रचलित शब्द नहीं है और भाग-दौड़ में लगे रहने वाले भारतीयों के लिये भी इसका अधिक कोई मतलब नहीं है। लेकिन विज्ञान की दुनिया की बात करें तो ग्लोबल वार्मिंग को लेकर भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। इसको 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। यह खतरा तृतीय विश्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह (एस्टेराॅइड) के पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है।
कारण
ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस हैं। ग्रीन हाउस गैसें, वे गैसें होती हैं जो बाहर से मिल रही गर्मी या ऊष्मा को अपने अंदर सोख लेती हैं। ग्रीन हाउस गैसों का इस्तेमाल सामान्यतः अत्यधिक सर्द इलाकों में उन पौधों को गर्म रखने के लिये किया जाता है जो अत्यधिक सर्द मौसम में खराब हो जाते हैं। ऐसे में इन पौधों को काँच के एक बंद घर में रखा जाता है और काँच के घर में ग्रीन हाउस गैस भर दी जाती है। यह गैस सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी सोख लेती है और पौधों को गर्म रखती है। ठीक यही प्रक्रिया पृथ्वी के साथ होती है। सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी की कुछ मात्रा को पृथ्वी द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण में फैली ग्रीन हाउस गैसों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
अगर इन गैसों का अस्तित्व हमारे में न होता तो पृथ्वी पर तापमान वर्तमान से काफी कम होता।
ग्रीन हाउस गैसों में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण गैस कार्बन डाइआॅक्साइड है, जिसे हम जीवित प्राणी अपने साँस के साथ उत्सर्जित करते हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन डाइआॅक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ी है। वैज्ञानिकों द्वारा कार्बन डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन और तापमान वृद्धि में गहरा सम्बन्ध बताया जाता है। सन 2006 में एक डाॅक्यूमेंट्री फिल्म आई - ‘द इन्कन्वीनियेंट ट्रुथ’। यह डाॅक्यूमेंट्री फिल्म तापमान वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन पर केन्द्रित थी। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे - अमेरिकी उपराष्ट्रपति ‘अल गोरे’ और इस फिल्म का निर्देशन ‘डेविड गुग्न्हेम’ ने किया था। इस फिल्म में ग्लोबल वार्मिंग को एक विभीषिका की तरह दर्शाया गया, जिसका प्रमुख कारण मानव गतिविधि जनित कार्बन डाइआॅक्साइड गैस माना गया। इस फिल्म को सम्पूर्ण विश्व में बहुत सराहा गया और फिल्म को सर्वश्रेष्ठ डाॅक्यूमेंट्री का आॅस्कर एवार्ड भी मिला। यद्यपि ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों द्वारा शोध कार्य जारी है, मगर मान्यता यह है कि पृथ्वी पर हो रहे तापमान वृद्धि के लिये जिम्मेदार कार्बन उत्सर्जन है जोकि मानव गतिविधि जनित है। इसका प्रभाव विश्व के राजनीतिक घटनाक्रम पर भी पड़ रहा है। सन 1988 में ‘जलवायु परिवर्तन पर अन्तरशासकीय दल’ (Inter Governmental Panel on Climate Change) का गठन किया गया था। सन 2007 में इस अन्तरशासकीय दल और तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति ‘अल गोरे’ को शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया।
आई.पी.सी.सी. वस्तुतः एक ऐसा अन्तरशासकीय वैज्ञानिक संगठन है जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी सभी सामाजिक, आर्थिक जानकारियों को इकट्ठा कर उनका विश्लेषण करता है। आई.पी.सी.सी का गठन सन 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली के दौरान हुआ था। यह दल खुद शोध कार्य नहीं करता और न ही जलवायु के विभिन्न कारकों पर नजर रखता है। यह दल सिर्फ प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित शोध पत्रों के आधार पर जलवायु को प्रभावित करने वाले मानव जनित कारकों से सम्बन्धित राय को अपनी रिपोटर्स के जरिए सरकारों और आम जनता तक पहुँचाता है। आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट के अनुसार मानवजनित ग्रीन हाउस गैसें वर्तमान में पर्यावरण में हो रहे तापमान वृद्धि के लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा सबसे ज्यादा है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90 प्रतिशत योगदान मानवजनित कार्बन उत्सर्जन का है। जबकि प्रो. यू.आर. राव अपने शोध के आधार पर कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग में 40 प्रतिशत योगदान तो सिर्फ काॅस्मिक विकिरण का है। इसके अलावा कई अन्य कारक भी हैं जिनका ग्लोबल वार्मिंग में योगदान है और उन पर शोध कार्य जारी है।
भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा ‘इसरो’ के पूर्व चेयरमैन और भौतिकविद प्रो. यू.आर. राव अपने शोध-पत्र में लिखते हैं कि अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आपतित हो रहे काॅस्मिक विकिरण का सीधा सम्बन्ध सौर-क्रियाशीलता से होता है। अगर सूरज की क्रियाशीलता बढ़ती है तो ब्रह्माण्ड से आने वाला काॅस्मिक विकिरण निचले स्तर के बादलों के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाता है। इस बात की पेशकश सबसे पहले स्वेन्समार्क और क्रिस्टेन्सन नामक वैज्ञानिकों ने की थी। निचले स्तर के बादल सूरज से आने वाले विकिरण को परावर्तित कर देते हैं, जिस कारण से पृथ्वी पर सूरज से आने वाले विकिरण के साथ आई गर्मी भी परावर्तित होकर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है।
वैज्ञानिकों ने पाया कि सन 1925 से सूरज की क्रियाशीलता में लगातार वृद्धि हुई। जिसके कारण पृथ्वी पर आपतित होने वाले काॅस्मिक विकिरण में लगभग 9 प्रतिशत कमी आई है। इस विकिरण में आई कमी से पृथ्वी पर बनने वाले खास तरह के निचले स्तर के बादलों के निर्माण में भी कमी आई है, जिससे सूरज से आने वाला विकिरण सोख लिया जाता है और इस कारण से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रो. राव के निष्कर्ष के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग में इस प्रक्रिया का 40 प्रतिशत योगदान है जबकि काॅस्मिक विकिरण सम्बन्धी जलवायु ताप की प्रक्रिया मानव गतिविधि जनित नहीं है और न ही मानव इसे संचालित कर सकता है। इस तरह यह शोध आई.पी.सी.सी के इस निष्कर्ष का खंडन करता है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90 प्रतिशत योगदान मानव का है। अगर ग्लोबल वार्मिंग के अन्य कारकों का अध्ययन किया जाए तो ग्लोबल वार्मिंग में मानव-गतिविधियों का योगदान आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट की अपेक्षा बहुत कम होगा।
प्रो. राव के इस शोध-पत्र के प्रकाशन के ठीक दो दिन बाद विश्व के प्रख्यात वैज्ञानिक जर्नल ‘नेचर’ में यूनिवर्सिटी आॅफ लीड्स के प्रो. ऐन्ड्रयू शेफर्ड का शोध-पत्र प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है कि ग्रीनलैंड की बर्फ को पिघलने में उस समय से कहीं अधिक समय लगेगा जितना की आई.पी.सी.सी. की चौथी रिपोर्ट में कहा गया है। ऐन्ड्रयू शेफर्ड अपने शोध-पत्र में लिखते हैं कि ग्रीनलैंड की बर्फ अपेक्षाकृत सुरक्षित है, उसे पिघलने में काफी वक्त लगेगा। सन 1999 में डाॅ. वी.के. रैना ने अपने शोध के दौरान पाया था कि हिमालय ग्लेशियर भी अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं।
हालाँकि, प्रो. राव के इस शोध के प्रमुख आधार काॅस्मिक विकिरण और निचले स्तर के बादलों की निर्माण प्रक्रिया के बीच के अन्तःसम्बन्धों पर कुछ वैज्ञानिकों ने इस दिशा में शोध भी किए, मगर अब तक अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आपतित हो रहे काॅस्मिक विकिरण और पृथ्वी पर निचले स्तर के बादलों के निर्माण के अन्तःसम्बन्धों पर विश्व के सभी वैज्ञानिकों में आम सहमति नहीं बन पाई है। यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि इस पूरे मुद्दे पर सही निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये ‘यूरोपीय नाभिकीय अनुसंधान संगठन’ (CERN) के ‘लार्ज हैड्रोन कोलाइडर’ की सहयता से वैज्ञानिकों ने प्रयोगों की एक श्रृंखला संपन्न करने का निर्णय लिया है। यह प्रयोग अभी हाल ही में प्रारम्भ हुआ है और ऐसी आशा है कि परिणाम आने जल्द शुरू हो जाएँगे। इस प्रोजेक्ट को ‘क्लाउड’, (Cosmic Leaving Outdoor)’ का नाम दिया गया है। इस प्रोजेक्ट में काॅस्मिक विकिरण का पृथ्वी पर बादलों के बनने की प्रक्रिया पर प्रभाव, जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव आदि सम्बन्धित विषयों पर अध्ययन और शोध किया जा रहा है। जलवायु विज्ञान के इतिहास में यह पहली बार होने जा रहा है कि जलवायु से जुड़े मुद्दों पर ‘उच्च-ऊर्जा कण त्वरक’ (High Energy Particle Accelerator) का इस्तेमाल किया जाएगा। उम्मीद है कि इस प्रयोग के संपन्न होने के बाद इस पूरे विषय पर हमारी समझ और विकसित हो सकेगी।
घातक परिणाम
ग्रीन हाउस गैस वो गैस होती है जो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश कर यहाँ का तापमान बढ़ाने में कारक बनती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 डिग्री से 8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जाएँगी, समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा। समुद्र के इस बर्ताव से दुनिया के कई हिस्से जलमग्न हो जाएँगे, भारी तबाही मचेगी। यह तबाही किसी विश्वयुद्ध या किसी ‘ऐस्टेराॅइड’ के पृथ्वी से टकराने के बाद होने वाली तबाही से भी बढ़कर होगी। हमारे ग्रह पृथ्वी के लिये भी यह स्थिति बहुत हानिकारक होगी।
जागरूकता
ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का कोई इलाज नहीं है। इसके बारे में सिर्फ जागरूकता फैलाकर ही इससे लड़ा जा सकता है। हमें अपनी पृथ्वी को सही मायनों में ‘ग्रीन’ बनाना होगा। अपने ‘कार्बन फुटप्रिंट्स’ (प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन को मापने का पैमाना) को कम करना होगा।
हम अपने आस-पास के वातावरण को प्रदूषण से जितना मुक्त रखेंगे, इस पृथ्वी को बचाने में उतनी ही बड़ी भूमिका निभाएंगे।
ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन
माना जा रहा है कि इसकी वजह से उष्णकटिबंधीय रेगिस्तानों में नमी बढ़ेगी। मैदानी इलाकों में भी इतनी गर्मी पड़ेगी जितनी कभी इतिहास में नहीं पड़ी। इस वजह से विभिन्न प्रकार की जानलेवा बीमारियाँ पैदा होंगी। हमें ध्यान में रखना होगा कि हम प्रकृति को इतना नाराज न कर दें कि वह हमारे अस्तित्व को खत्म करने पर ही आमादा हो जाए। हमें इन सब बातों का ख्याल रखना पड़ेगा।
आज हर व्यक्ति पर्यावरण की बात करता है। प्रदूषण से बचाव के उपाय सोचता है। व्यक्ति स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण में रहने के अधिकारों के प्रति सजग होने लगा है और अपने दायित्वों को समझने लगा है। वर्तमान में विश्व ग्लोबल वार्मिंग के सवालों से जूझ रहा है। इस सवाल का जवाब जानने के लिये विश्व के अनेक देशों में वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग और खोजें हुई हैं। उनके अनुसार अगर प्रदूषण फैलने की रफ्तार इसी तरह बढ़ती रही तो अगले दो दशकों में धरती का औसत तापमान 0.3 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक के दर से बढ़ेगा। जो चिंताजनक है।
तापमान की इस वृद्धि से विश्व के सारे जीव-जंतु बेहाल हो जाएँगे और उनका जीवन खतरे में पड़ जाएगा। पेड़-पौधों में भी इसी तरह का बदलाव आएगा। सागर के आस-पास रहने वाली आबादी पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। जल स्तर ऊपर उठने के कारण सागर तट पर बसे ज्यादातर शहर इन्हीं सागरों में समा जाएँगे। हाल ही में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि जलवायु में बिगाड़ का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो कुपोषण और विषाणु जनित रोगों से होने वाली मौतों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हो सकती है।
सारणी 1 में विभिन्न कारणों से एवं विभिन्न क्षेत्रों द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों का विवरण दिया गया है।
सारणी 1 - ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन
पॉवर स्टेशन से
21.3 प्रतिशत
इंडस्ट्री से
16.8 प्रतिशत
यातायात और गाड़ियों से
14 प्रतिशत
खेती-किसानी के उत्पादों से
12.5 प्रतिशत
जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से
11.3 प्रतिशत
रिहायशी क्षेत्रों से
10.33 प्रतिशत
बॉयोमास जलने से
10 प्रतिशत
कचरा जलाने से
3.4 प्रतिशत
इस पारिस्थितिक संकट से निपटने के लिये मानव को सचेत रहने की जरूरत है। दुनिया भर की राजनीतिक शक्तियाँ इस बहस में उलझी हैं कि गर्माती धरती के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाए। अधिकतर राष्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हो रही है। लेकिन सच यह है कि इसके लिये कोई भी जिम्मेदार हो, भुगतना सबको है। यह बहस जारी रहेगी लेकिन ऐसी कई छोटी पहल है जिनसे अगर हम शुरू करें तो धरती को बचाने में बूँद भर योगदान कर सकते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग पर यू.एन. वार्ता
संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने 2015 तक नई जलवायु संधि कराने के लिये पहला कदम उठाया है और इस पर बातचीत शुरू की है कि वे किस तरह इस लक्ष्य को पूरा करेंगे। यह संधि विकसित और विकासशील देशों पर लागू होगी।
संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) पर दस्तखत करने वाले 195 देशों ने बाॅन में इस बात पर बहस शुरू की है कि पिछले साल दिसंबर में डरबन सम्मेलन में तय लक्ष्य पाने के लिये वह किस तरह काम करेंगे। उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने वाली दक्षिण अफ्रीका की माइते एनकोआना मशाबाने ने सदस्य देशों से वार्ता के पुराने और नकारा तरीकों को छोड़ने की अपील की। उन्होंने समुद्र के बढ़ते जल स्तर की वजह से डूबने का संकट झेल रहे छोटे देशों का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘समय कम है और हमें अपने कुछ भाइयों, खासकर छोटे द्वीपों वाले देशों की अपील को गम्भीरता से लेना है।’’
जर्मनी की पुरानी राजधानी बाॅन में आयोजित सम्मेलन के अनुसार 2015 तक नई संधि पूरी हो जाएगी और उसे 2020 से लागू कर दिया जाएगा। इसमें गरीब और अमीर देशों को ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिये और जहरीली गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये एक ही कानूनी ढाँचे में रखा जाएगा। इस समय संयुक्त राष्ट्र के तहत विकसित और विकासशील देशों के लिये पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी अलग-अलग कानूनी नियम हैं।
आलोचकों का कहना है कि ये नियम अब समय के अनुसार नहीं हैं। ग्लोबल वार्मिंग के लिये ज्यादातर ऐतिहासिक जिम्मेदारी अमीर देशों की है, लेकिन उनका कहना है कि भविष्य में समस्या को सुलझाने का बोझ उन पर डालना अनुचित होगा। इस बीच सबसे ज्यादा जहरीली गैसों का उत्सर्जन करने वालों की सूची में चीन, भारत और ब्राजील जैसे देश शामिल होते जा रहे हैं जो अपनी आबादी को गरीबी से बाहर निकालने के लिये कोयला, तेल और गैस का व्यापक इस्तेमाल कर रहे हैं। हालाँकि, अभी भी प्रति व्यक्ति औसत खपत पश्चिमी देशों से कम है।
समुद्र में बसे छोटे देशों और अफ्रीकी देशों ने चेतावनी देते हुए कहा है कि गैसों के उत्सर्जन में कटौती के वायदों और ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिये उसकी जरूरत के बीच बड़ी खाई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि वर्तमान उत्सर्जन जारी रहता है तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा, जबकि यू.एन.एफ.सी.सी.सी. ने 2011 में 2 डिग्री सेल्सियस को सुरक्षित अधिकतम वृद्धि बताया है।
यू.एन.एफ.सी.सी.सी. ने सिर्फ इतना तय किया है कि उसे साझा, लेकिन अलग-अलग, जिम्मेदारी तय करनी है। इसका मतलब है कि गरीब और अमीर अर्थव्यवस्थाओं पर अलग-अलग बोझ डाला जाएगा। 2015 तक जिन मुद्दों पर फैसला लिया जाना है, वह यह है कि कौन देश कितनी कटौती करेगा, संधि को लागू करने की संरचना क्या होगी, उसका कानूनी दर्जा क्या होगा।
विकासशील देश विकसित औद्योगिक देशों से सद्भावना दिखाने की मांग कर रहे हैं। वे यूरोपीय संघ से क्योटो संधि के वायदों को फिर से दोहराने की अपील कर रहे हैं। वह अकेली संधि है जिसमें ग्रीन हाउस गैसों में कटौती तय की गई थी। इसके विपरीत क्योटो को पास करने वाला अमेरिका उभरते देशों से कटौती के अपने वायदों को बढ़ाने की मांग कर रहा है। आने वाले विवादों को संकेत देते हुए ग्रीन क्लाइमेट फंड की पहली बैठक स्थगित कर दी गई है। इसका गठन गरीब देशों की मदद के लिये 10 अरब डाॅलर जमा करना है।
ग्लोबल वार्मिंग रोकने के उपाय
वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिये मुख्य रूप से सी.एफ.सी. गैसों का उत्सर्जन रोकना होगा और इसके लिये फ्रिज़, एयर कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिससे सी.एफ.सी.गैसें कम निकलती हों।
औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ हानिकारक है और इनसे निकलने वाला कार्बन डाइआॅक्साइड गर्मी बढ़ाता है। इन इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे।
वाहनों में से निकलने वाले धुएँ का प्रभाव कम करने के लिये पर्यावरण मानकों का सख्ती से पालन करना होगा। उद्योगों और ख़ासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी और प्राथमिकता के आधार पर पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा।
अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानि अगर कोयले से बनने वाली बिजली के बदले पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाए तो वातावरण को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है तथा साथ ही जंगलों में आग लगने पर रोक लगानी होगी।
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।