सन् 1936 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संविधान सभा के गठन की मांग कहां पर हुए अधिवेशन में रखी गई -
सन् 1936 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संविधान सभा के गठन की मांग कहां पर हुए अधिवेशन में रखी गई - - In the year 1936, the demand for the formation of the Constituent Assembly by the Indian National Congress was placed in the meeting held at- - Year 1936 Me Indian Rashtriya Congress Dwara Samvidhan Sabha Ke Gathan Ki Mang Khan Par Hue Adhivesan Me Rakhi Gayi - Political Science in hindi, Mumbai question answers in hindi pdf Faijpur questions in hindi, Know About Kanpur Political Science online test Political Science notes in hindi quiz book Lahore
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आधुनिक युग अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों मं राष्ट्रों की पारस्परिक अन्तनिर्भरता वह सच्चाई है जिससे कोई देश बच नहीं सकता। आज विश्व के सभी देश अपने-अपने राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति व उनमें सम्वर्द्धन के लिये प्रयासरत् हैं। प्रत्येक देश अपने राष्ट्रीय हित के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विदेशी सम्बन्धों में स्वतन्त्र विदेश नीति का प्रयोग करता है। विश्व के अधिकांश देश यह प्रयास करते हुए देखे जाते हैं कि उनकी विदेश नीति का अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। इसलिए सभी देश अपने-अपने राष्ट्रीय हितों का अन्तर्राष्ट्रीय हितों से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं। वे अपनी विदेश नीति में राष्ट्रीय हित के उन लक्ष्यों को गौण स्थान पर रख देते हैं, जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में खड्टास पैदा करते हैं। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। भारत की अपने स्वतन्त्र व राष्ट्रीय हितों का अन्तर्राष्ट्रीय हितों से सामंजस्य स्थापित करने वाली विदेश नीति है। भारत की विदेश नीति को समझने से पहले हमे यह समझना चाहिए कि विदेश नीति क्या है ?
विदेश नीति क्या है ?
किसी भी र्वतन्त्र व प्रभुसत्तासग्पन्न देश की विदेश नीति मूल रूप में उन सिद्धान्तों, हितों तथा लक्ष्यों का समूह होती है जिनके माध्यम से वह देश दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने , उन सिद्धान्तों, हितों व लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत् रहता है। किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति उसकी आन्तरिक नीति का ही एक भाग होती है जिसे उस देश की सरकार ने बनाया है। वास्तव में विदेश नीति शासक-वर्ग की इच्छा का परिणाम होती है जिसे क्रियान्वित करना सरकारी व गैर-सरकारी अभिकरणों का प्रमुख कर्तव्य है। विदेश नीति को कई विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :-
(1) मॉडेल्स्की के अनुसार-“कोई राष्ट्र अन्य राष्ट्रों के व्यवहार में परिवर्तन करवाने के लिए और गतिविधियों को अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए जो उपाय करता है, विदेश नीति कहलाती है।”
(2) हार्टमेन के अनुसार-“विदेश नीति जानबूझ कर चयन किए गए राष्ट्रीय हितों का एक क्रमबद्ध वक्तव्य है।”
(3) फैलिकस ग्रास के अनुसार-“अपने क्रियात्मक रूप में विदेश नीति एक सरकार के प्रति एक देश द्वारा दूसरे देश के प्रति अथवा एक सरकार द्वारा एक अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के प्रति अपनायी गई एक विशेष क्रिया पद्धति है।”
(4) पी०ए० रेनाल्डज के अनुसार-“विदेश नीति का अर्थ एक राष्ट्र के विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा निर्धारित उन गतिविधियों की सीमाओं से है जिनके माध्यम से वे अपने सम्भावित राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े अन्य राष्ट्रों के साथ कार्यरत् रहते हैं।”
(5) ग्लाइचर के अनुसार-“अपने व्यापक अर्थ में विदेश नीति उन उद्देश्यों, योजनाओं तथा क्रियाओं का सामूहिक रूप है जो एक राज्य अपने बाह्य सम्बन्धों का संचालित करने के लिए करता है।”
(6) ह्यूज गिब्सन के अनुसार-“विदेश नीति, ज्ञान और अनुभव पर आधारित एक ऐसी सुनिश्चित और व हत योजना होती है, जिसके द्वारा किसी सरकार के शेष संसार के साथ सम्बन्धों का संचालन किया जाता है। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय हितों को प्रोत्साहित और सुरक्षित करना होता है।”
उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि विदेश नीति राष्ट्रीय हित को प्राप्त करने का वह साधन है जो अन्तर्राष्ट्रीय हितों को कोई हानि पहुँचाए बिना ही ऐसा करता है। मूल रूप से विदेश नीति के दो प्रमुख तत्व होते हैं। वे हैं ऐसे राष्ट्रीय उद्देश्य जिन्हें कोई राज्य प्राप्त करना चाहता है और उन्हें प्राप्त करने के साधन। विदेश नीति के निर्माता सबसे पहले राष्ट्रीय उद्देश्यों की पहचान करते हैं और फिर उनकी प्राप्ति के साधन सुनिश्चित करते हैं। सारांश तौर पर विदेश नीति राज्यों के ऐसे व्यवहार को कहा जा सकता है जिससे वे अपने कार्यों को नियन्त्रित करते हैं और अपने राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए अन्य राज्यों के व्यवहार में परिवर्तन या उस पर नियन्त्रण करने के प्रयास भी करते हैं।
विदेश नीति व राष्ट्रीय हित
विदेश नीति और राष्ट्रीय हित में गहरा सम्बन्ध होता है। विदेश नीति को राष्ट्रीय हित के सन्दर्भ में ही परिभाषित किया जा सकता है। विदेशनीति के अन्तर्गत राष्ट्रीय हित की रक्षा करने और उसको आगे बढ़ाने के लिए तर्कसंगत निर्णय लिए जाते हैं। किसी भी देश की विदेश नीति के उद्देश्य - सुरक्षा और एकता को बनाये रखना, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरों को दूर करना, आर्थिक हितों को आगे बढ़ाना, राष्ट्रीय शक्ति का विकास करना जिससे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वद्धि हो, राजनीतिक व्यवस्था को सुद ढ़ करना और अन्य देशों में उसके निर्यात की इच्छा करना, एक नयी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के उदय और उसे सुदढ़ करने के प्रयास करना आदि हैं। इन समस्त उद्देश्यों का समूह देश का राष्ट्रीय हित होता है अर्थात् राष्ट्रीय हित विदेश नीति के सभी उद्देश्यों को समेट लेता है। राष्ट्रीय हित की रक्षा व सम्वर्द्धन के सभी प्रयास विदेश नीति के अन्तर्गत शामिल होते हैं। किसी भी देश की विदेश नीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह राष्ट्रीय हित को कहां तक प्राप्त कर पाती है। वास्तव में राष्ट्रीय हित ही विदेश नीति का मूल उद्देश्य या साध्य होता है। किसी भी देश की विदेश नीति का निर्धारण राष्ट्रीय हित के सन्दर्भ में ही किया जाता है। भारत ने अपने राष्ट्रीय हित की प्राप्ति व सम्वर्द्धन के लिए ही विश्व के सभी राष्ट्रों के साथ शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व व गुटनिरपेक्षता की नीति ही अपनाई है। आवश्यकता पड़ने पर भारत देश विशेष के प्रति अपनी विशेष नीति भी अपनाई है।
विदेश नीति और राष्ट्रीय हित के सन्दर्भ में एक बात जो ध्यान रखने योग्य है, वह यह है कि कोई भी देश राष्ट्र-हित को छोड़कर अन्य किसी आधार पर आनी विदेश नीति का निर्माण नहीं कर सकता और न ही उस देश की सरकार राष्ट्र-हित के विरुद्ध कार्य कर सकती। मार्गेन्थों ने कहा है-“जब तक विश्व राजनीतिक रूप से राष्ट्रों में संगठित है, तब तक राष्ट्रीय हित ही विश्व सम्बन्धों की प्राथमिकता है।” अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में कोई किसी का स्थायी मित्र या स्थायी शत्रु नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं। इसलिए राष्ट्रीय हित में भी कुछ बदलाव अवश्य आते हैं जो विदेश नीति को भी बदल देता है। उदाहरण के लिये भारत की पाकिस्तान के प्रति नीति में 3 सितम्बर 2002 के बाद बदलाव आया। उसने संसद पर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान से अपने राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लिए थे। लेकिन इस वर्ष (2004) भारत ने फिर से अपनी क्रिकेट टीक को पाकिस्तान में खेलने की अनुमति दे दी और लाहौर बस सेवा फिर से शुरू की गई तथा सीमा पर से सेनाएं पीछे हटाकर युद्ध-विराम जैसी स्थिति कायम की। ऐसा राष्ट्रीय हित के द ष्टिगत ही किया गया। ऐसा ही बदलाव सभी देशों की विदेश नीतियों में देखने को मिलता है। जब कोई विदेश नीति राष्ट्र-हित के लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहती है तो उसे बदल दिया जाता है।
विदेश नीति के संचालन में राष्ट्रीय हित रूपी साध्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। राष्ट्रीय हित तथा विदेश नीति के आपसी सम्बन्धों को जानने कि लिए राष्ट्रीय हित द्वारा विदेश नीति को प्रभावित करने वाली भूमिका का अध्ययन करना जरूरी है। राष्ट्र-हित की प्रभावकारी भूमिका को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है :-
(1) राष्ट्रीय हित विदेश नीति को अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश में प्रतिस्थापित करता है।
(2) राष्ट्रीय हित विदेश नीति को नियन्त्रित करने वाले मापदण्डों का विकल्प प्रदान करता है।
(3) राष्ट्रीय हित विदेश नीति को निरन्तरता प्रदान करता है और उसे गतिशील बनाता है।
(4) विदेश नीति स्वयं को राष्ट्रीय हित के सन्दर्भ में परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश में समायोजित करती है, अर्थात स्वयं को बदली अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार ढालती है।
(5) राष्ट्रीय हित विदेश नीति को मजबूत आधार प्रदान करते हैं क्योंकि ये समाज के समन्वित एवं सर्वसम्मति पर आधारित मूल्यों की अभिव्यक्ति होते हैं।
(6) राष्ट्रीय हित विदेश नीति का दिशा-निर्देशन करते हैं।
जिस तरह राष्ट्रीय हित विदेश नीति का आधार होता है, उसी तरह विदेश नीति राष्ट्रीय हित का निर्देशन करती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि विदेश नीति को हमेशा राष्ट्र हित पर आधारित करना सम्भव नहीं होता। कई बार राष्ट्रीय हित इतने अस्पष्ट होते हैं कि उन्हें विदेश नीति द्वारा ही स्पष्ट किया जाता है। उदाहरण के लिए सुरक्षा का हित इतना अधिक अस्पष्ट होता है कि उसे स्पष्ट होने के लिए विदेश नीति से सम्बन्धित होना पड़ता है। इसलिए आज यह मान्यता प्रबल हो चुकी है कि जिस तरह राष्ट्रीय हित विदेश नीति का आधार है, उसी तरह राष्ट्रीय हित को आकार व अर्थ देने में विदेश नीति की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता।
भारत में विदेश नीति के प्रमुख उद्देश्य
किसी भी देश की विदेश नीति का निर्माण कुछ निश्चित उद्देश्यों को मध्येनजर रखकर ही किया जाता है। एक देश की विदेश नीति के उद्देश्य दूसरे देशों की विदेश नीतियों से कुछ साम्य व असाम्य अवश्य रहते हैं। आज सुरक्षा, सम द्धि व शान्ति का लक्ष्य किसी भी देश की विदेश नीति की आधारभूत विशेषता होता है। भारत भी इसी ध्येय को प्राथमिकता देता है। राष्ट्रीय सुरक्षा व आर्थिक विकास भारत की विदेश नीति के आधारभूत उद्देश्य हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा वर्णित ये उद्देश्य आज भी विदेश नीति के महत्वपूर्ण भाग हैं। भारत में आज भी विदेश नीति के वही उद्देश्य हैं जो 57 वर्ष पहले थे। भारत की विदेश नीति के उद्देश्यों का संविधान में ही उल्लेख किया गया है। संविधान में सभी उद्देश्यों पर राष्ट्रीय हित के उद्देश्य को ही प्राथमिकता दी गई है। स्वतन्त्रता से पहले भी भारत की विदेश नीति के उद्देश्यों के लक्षण प्रकट होने लगे थे। उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद का विरोध भारतीय स्वतन्त्रता आन्दीन की महत्वपूर्ण विरासत व वर्तमान विदेश नीति का महत्वपूर्ण उद्देश्य है जो नवीन उपनिवेशवाद व डालर साम्राज्यवाद का विरोध करती है। भारत की विदेश नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं :-
(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा बनाये रखना व उसे प्रोत्साहित करना :- स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार द्वारा निर्धारित विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा कायम रखना बताया गया। उस समय रूस और अमेरिका में शीत युद्ध का जन्म हो चुका था। भारत अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को लेकर काफी चिन्तित था, क्योंकि भारत उपनिवेशवाद व दो विश्वयुद्धों का दंश अकेला झेल चुका था। भारत का यह भय था कि यदि विश्व में अशान्ति कायम हो गई तो उसका आगे बढ़ने का स्वप्न टूट कर बिखर जायेगा। ऐसे वातावरण में भारत अपने पड़ोसी देशों से भी सुरक्षित नहीं रह सकता था। इसी कारण नेहरु जी ने पंचशील-सिद्धान्त (1954) में भी इस ध्येय की सुरक्षा पर बल दिया ताकि भारत के पड़ोसी देशों तथा अन्य विश्व के देशों के साथ सम्बन्ध खराब न हों। भारत ने खाड़ी संकट, शीत युद्ध, लेबनान समस्या, अफगानिस्तान समस्या, वियतनाम समस्या आदि के प्रति चिन्ता व्यक्त करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वह विश्व शान्ति व अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर सदैव चिन्तित रहा है। भारत ने ईराक संकट तथा अफगानिस्तान समस्या की समसामयिक प्रवत्ति के प्रति अमेरिका की नीति को सही ठहराया है और साथ में ही विश्व में आतंकवाद पर सार्वभौमिक मापदण्ड अपनाए जाने का आग्रह भी किया है। भारत आज भी विश्व शान्ति को अपना आदर्श श्मानकर अपनी विदेश नीति का संचालन करता है और साथ में ही राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत बनाए रखने की कोशिश भी करता है।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करना :- भारत का मानना है कि यदि अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान शांतिपूर्ण ढंग से न किया गया तो विश्व में कभी शान्ति नहीं हो सकती तथा शान्ति के अभाव में न तो देश का आर्थिक विकास हो सकता है और न ही राष्ट्रीय सीमाएं सुरक्षित रह सकती हैं। इसी कारण भारत ने जम्मू और कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में रखा ताकि इसका शान्तिपूर्ण ढंग से हल हो सके। पाकिस्तान की तरफ से की गई आतंकवादी कार्यवाहियों के बावजूद भी भारत ने धैर्य व संयम से ही काम लिया है। अरब-इजराइल समस्या, अफगानिस्तान संकट, क्यूबा संकट, खाड़ी संकट आदि के दौरान भारत ने इन संकटों के निवारण के लिए शान्तिपूर्ण उपायों का अवलम्बन लेने का ही समर्थन किया है। वर्तमान में ईराक व अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों की भारत ने प्रसंशा की है। भारत ने हमेशा ही शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व व अहिंसा के सिद्धान्त को ही प्रमुखता दी है। इसके पीछे मूल ध्येय विश्वशान्ति कायम रखना ही रहा है। इसी कारण उसने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं के माध्यम से ही हल करने पर जोर दिया है।
(3) जातीय भेदभाव और साम्राज्यवाद का प्रबल विरोध :- भारत स्वयं भी रंगमेद की नीति और साम्राज्यवाद दोनों विश्व मानवता व विश्व शान्ति दोनों के लिए भयंकर खतरा है। इसलिए वह स्वतन्त्रता से पहले ही जातीय भेदभाव और साम्राज्यवाद के किसी भी रूप का विरोधी है। भारत ने शुरु से ही पराधीन राष्ट्रों की स्वतंत्रता का समर्थन किया है ताकि विश्व से उपनिवेशवाद स साम्राज्यवाद के जहर को नष्ट किया जा सके। भारत की आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ में पूरी आस्था है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर मानवाधिकारों की सुरक्षा का समर्थक है और वह विश्व से रंगभेद की नीति और साम्राज्यवाद को नष्ट करने के लिए वचनबद्ध है। भारत आज भी अमेरिका व कई यूरोपीय देशों में एशियाई व अफ्रीकी मूल के लोगों के प्रति अपनाई जाने वाली जातीय भेदभाव की नीति का विरोध करता है।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग करना :- भारत की विदेश नीति प्रारम्भ से ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रति सकारात्मक रही है। भारत चाहता है कि विश्व से भूखमरी, बीमारी, निर्धनता, निरक्षरता, अकाल, आतंकवाद जैसी समस्याएं अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के बिना हल नहीं हो सकती। इसी कारण वह विश्व स्वास्थ्य संगठन, कृषि संगठन, संयुक्त राष्ट्र बाल कोष आदि के साथ सहयोग करता रहता है। अत: संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रति सहयोग की नीति अपनाना भारत की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य है।
(5) निःशस्त्रीकरण का समर्थन :- भारत हमेशा से ही शस्त्र-दौड़ के प्रति चिन्तित रहा है। परमाणु शस्त्रों के विकास ने तो भारत की चिन्ता को और बढ़ा दिया। यद्यपि भारत स्वयं भी परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है, लेकिन फिर भी विश्व शान्ति के लिए वह निःशस्त्रीकरण को आवश्यक मानता है। भारत का मानना है कि निःशस्त्रीकरण का सीधा सम्बन्ध आर्थिक विकास से होता है। यदि विश्व में पूर्ण नि:शस्त्रीकरण हो जाए तो सम्पूर्ण विश्व से आर्थिक पिछड़ापन खत्म होने के कगार पर पहुंच सकता है। भारत हमेशा ही शान्ति का पुजारी रहा है। इसी कारण उसने निःशस्त्रीकरण के सभी प्रयासों का समर्थन किया है। यद्यपि भारत ने C.T.B (1993) तथा NPT दोनों सन्धियों पर अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया, परन्तु भारत आज भी समान सार्वभौमिक निःशस्त्रीकरण सम्बन्धी किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय कार्यक्रम का समर्थन करता है।
(6) सैनिक सन्धियों से दूर रहना :- भारत की विदेश नीति किसी भी सैनिक गुट या सन्धि का विरोध करने की रही है। भारत का मानना है कि विश्व में उभरने वाले सैनिक संगठन विश्व शान्ति के लिए भयानक खतरा हैं। इसलिए नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों को इनसे दूर रहना चाहिए। इसी कारण भारत ने SEATO, NATO तथा WARSA संधियों का हमेशा विरोध किया और वह किसी सैनिक संगठन का सदस्य नहीं बना। आज भी भारत किसी भी सैनिक संगठन के प्रयास का विरोध करता है।
(7) भारत की विदेश नीति और गुटनिरपेक्षता पर्यायवाची शब्द माने जाते हैं। आज अधिकतर विद्वान गुटनिरपेक्षता को ही भारत की विदेश नीति कहते हैं। इसके पीछे मूल कारण यह है कि भारत शुरु से ही गुट निरपेक्षता की नीति का समर्थन करता रहा है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो उस समय विश्व का विभाजन पूंजीवादी तथा साम्यवादी गुट में हो चुका था। इनमें से प्रथम का नेत त्व अमेरिका और दूसरे का नेत त्व सोवियत संघ कर रहा था। भारत ने विश्व के नवोदित राष्ट्रों के सामने गुटनिरपेक्षता का विकल्प रखा ताकि विश्व में चल रहे शीत युद्ध को गर्म युद्ध में बदलने से रोका जा सके। इसी कारण 2004 में भी भारत ने इराक में अपनी सेना भेजने से मना किया। अत: भारत आज भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में गुट-निरपेक्षता की नीति का ही निर्वहन करता है।
(8) अफ्रो-एशियाई एकता में विश्वास:- भारत एशियाई तथा अफ्रीकी देशों की एकता बढ़ाने में विश्वास करता है। भारत आज सार्क (SAARC) का सदस्य होने के नाते दक्षिणी एशिया को मुक्त व्यापार क्षेत्र बनानें के विचार का समर्थन करता है। इसी तरह वह “हिमतेक्ष “हिन्द महासागर रिम क्षेत्रीय संगठन के द्वारा हिन्द महासागर में स्थित देशों के बीच क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने की नीति का समर्थक है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन द्वारा भी वह एशियाई व अफ्रीकी देशों में एकता बढ़ाने की नीति का समर्थन करता है।
(9) पंचशील के सिद्धान्त का समर्थन:- भारत की विदेश नीति का निर्माण नेहरु युग में ही हुआ है। इसी कारण भारत की विदेश नीति को आलोचक आज भी नेहरु की नीति कहते हैं। नेहरु जी ने 1954 में विश्व के सामने अपने पांच सिद्धान्त पेश किए जो आज पंचशील सिद्धान्त के नाम से जाने जाते हैं। ये पांच सिद्धान्त हैं :- (i) एक दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता व स्वतन्त्रता का सम्मान करना, (ii) किसी के घरेलु मामलों में हस्तक्षेप न करना, (iii) किसी दूसरे पर आक्रमण न करना, (iv) मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का विकास तथा (v४) शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति में विश्वास। ये सभी सिद्धान्त आज भी भारत की विदेश नीति के महत्वपूर्ण ध्येय हैं।
(10) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति :- भारत की विदेश नीति अहिंसा के विचार का समर्थन करती है। वह जीओ और जीने दो के सिद्धान्त का पालन करती है। इसी कारण वह सभी देशों से मै्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने की नीति है।
(11) राष्ट्रमण्डल का समर्थन:- भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य है। ब्रिटिश सम्राट या रानी राष्ट्रमण्डल का अध्यक्ष है। इसमें स्वतन्त्र व प्रभुसत्तासम्पन्न देश शामिल है। भारत का मानना है कि राष्ट्रमण्डल की सदस्यता बनाए रखना राष्ट्रीय हित में है। इसी कारण वह आज भी राष्ट्रमण्डल का समर्थक है।
(12) नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था का समर्थन :- भारत की विदेश नीति नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था (NIEO) की प्रबल समर्थक है। भारत चाहता है कि विश्व में आर्थिक सम्बन्धों की स्थापना की नए सिरे से की जानी चाहिए ताकि विश्व से आर्थिक भेदभाव खत्म हो सकें। इसी कारण वह WTO द्वारा किए जाने वाले भेदभावों का विरोध करता है। भारत का मानना है कि भेदभावपूर्ण आर्थिक सम्बन्धों को समाष्त किए बिना विश्व से गरीबी व भूखमरी को नष्ट करना असम्भव है। इसी कारण आज नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का समर्थन करता है और विश्व से नव साम्राज्यवाद को नष्ट करना चाहता है। इसके लिए वह ASEAN देशों के साथ सहयोग में व द्धि करके अपने इस ध्येय को क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग के द्वारा भी प्राप्त करने की द ढ़ इच्छा रखता है।
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति का प्रमुख ध्येय शुरु से ही रंगभेद की नीति व साम्राज्यवाद का विरोध करना रहा है। भारत ने हमेशा ही शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की नीति अपनाई है ओर विश्व शान्ति के विचार का प्रबल समर्थन किया है। पंचशील के सिद्धान्त के ध्येय के रूप में भारत की विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की प्रबल पोषक रही है। गुटनिरपेक्षता, सैनिक संगठनों का विरोध तथा पंचशील के सिद्धान्त भारत की विदेश नीति के महत्वपूर्ण ध्येय रहे हैं। भारत की विदेश नीति पड़ोसी देशों तथा विश्व के अन्य देशों के प्रति सहयोग व त्याग की रही है। भारत ने हमेशा ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का सम्मान किया है और मानव अधिकारों के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है। भारत आज भी नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का समर्थन करके विश्व से आर्थिक असमानता कम करके मानव अधिकारों की रक्षा करना चाहता है। भारत मानव की भलाई के लिए आज निःशस्त्रीकरण के विचार का प्रबल समर्थक है। भारत की विदेश नीति आज भी लगभग वही है जो 1947 में थी। यद्यपि समयानुसार इसका कुछ विकास भी हुआ है, लेकिन विदेश नीति के मूल उद्देश्य आज भी वही हैं जो हमारे संविधान निर्माताओं ने निर्धारित किए थे। सरकारें बदलती रही हैं, लेकिन विदेश नीति का प्रवाह निरन्तर विकास की दिशा में रहा है। सारांश रूप में कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रादेशिक अखण्डता की रक्षा करना ही भारत की विदेश नीति का ध्येय है।
भारत की विदेश नीति के सिद्धान्त
गुट निरपेक्षता का सिद्धान्त:- गुटनिरपेक्षता का सिद्धान्त भारत की विदेश नीति का केन्द्र बिन्दु है। विश्व शान्ति, मैत्रीपूर्ण सहयोग तथा एकता के सिद्धान्तों की पूर्ति इसी सिद्धान्त से की जाती है। भारत की विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धान्त होने के नाते कई बार राजनीतिक विश्लेषक भारत की विदेश नीति को गुटनिरपेक्षता की नीति लक कह देते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के वातारवण से उत्पन्न यह गुटनिरपेक्षता का सिद्धान्त समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की एक महत्वपूर्ण सच्चाई तथा भारतीय विदेश नीति की महत्वपूर्ण विशेषता है। सिद्धान्त का सार यह है कि यह सिद्धान्त हमेशा ही सैनिक गुटबन्दियों से दूर रहकर जागरुक मानसिकता के रूप में विश्वशान्ति को चुनौती देने वाली ताकतों का प्रबल विरोध करता रहा है। इस सिद्धान्त का सीधा अर्थ है-अमेरिकी तथा रूसी गुटों से अलग रहकर विश्व शान्ति के लिए प्रयास करना। भारत के प्रधानमन्त्री नेहरु ने 1947 में ही अपने देश की विदेश नीति के बारे में यह बात स्पष्ट कर दी थी कि भारत न तो पूंजीवादी गुट में शामिल होगा और न ही साम्यवादी गुट में, बल्कि इनसे दूर रहकर विश्वशान्ति के लिए ही प्रयास करता रहेगा। भारत ने सदैव अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति कायम रखने की दिशा में काम किया है चाहे उसे अमेरिका या रूस की आलोचना ही क्यों न सहन करनी पड़ी हो। भारत द्वारा मुटनिरपेक्षता को अपनी विदेश नीति का सिद्धान्त बनाने के पीछे अपना आर्थिक विकास, राजनीतिक स्वतन्त्रता व अक्षुण्ण सम्प्रमुता, विश्व शान्ति कायम रखना आदि उद्देश्य हो सकते हैं। गुटनिरपेक्षता की नीति के रूप में भारत की विदेश नीति को अवसरवादी, अलगाववाद, तटस्थता आदि कहकर भी आलोचना की गई, लेकिन भारत अपने आदर्श घर अड़िग रहा है। शीलयुद्ध के भयावह वातावरण, महाशक्तियों के दबाव जैसी रिस्थितियों में भी भारत ने इस नीति का त्याग नहीं किया है। एक सिद्धान्त के रूप में गुटनिरपेक्षता ने सदैव आंख मूंदकर कार्य नहीं किया है, बल्कि सही और गलत में भी अन्तर किया है। यद्यपि शीत युद्ध के अन्त के साथ ही भारतीय गुटनिरपेक्षता को अप्रांसांगिक माना जाने लगा है, लेकिन एक सिद्धान्त के रूप में यह आज भी भारत की विदेश नीति का महत्वपूर्ण अंग है।
(2) पंचशील व शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का सिद्धान्त :- भारत की राजनीतिक संस्कृति सभी बाहरी राष्ट्रीयताओं को आत्मसात् करने की प्रतीति रखती है। भारत की राजनीतिक संस्कृति में अहिंसावाद का गुण पाया जाता है। भारत जीओ और जीने दो के सिद्धान्त में विश्वास करता है। इसका स्पष्ट प्रभाव भारत की विदेश नीति पर देखा जा सकता है। भारत ने अहिंसा के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए अपने विदेश नीति में पंचशील और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को प्रमुखता दी है। नेहरु जी ने 1954 में पंचशील सिद्धान्त को भारत की विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धान्त घोषित किया था। भारत आज भी उसी सिद्धान्त का पालन करता है। ये पांच सिद्धान्त हैं : - (i) एक दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता व स्वतन्त्रता का सम्मान करना, (ii) एक-दूसरे पर आक्रमण न करना, (iii) एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, (iv) समानता के आधार पर एक-दूसरे को लाभ पहुंचाना तथा (v) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व। इस पंचशील के आवश्यक पहलु के रूप में भारत शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त में विश्वास रखता है। इसके पीछे अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को शान्तिमय बनाए रखने का मूल कारण ही निहित है। भारत ने अपनी सुरक्षा, आर्थिक विकास, उपनिवेशवाद व रंगभेद के विरोध, संयुक्त राष्ट्र संघ में आस्था, मैत्रीपूर्ण विदेशी सम्बन्ध आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पंचशील सिद्धान्त को ही अपनी विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धान्त अपनाया है।
(3) उपनिवेशवाद तथा रंगभेद की नीति के विरोध का सिद्धान्त:- भारत स्वयं भी उपनिवेशवाद और रंगमेद की नीति का दंश झेल चुका है। इसी कारण उसने अपनी विदेश नीति के सिद्धान्त के रूप में उपनिवेशवाद व रंगभेद की नीति के विरोध को प्रमुखता दी है। 1947 के बाद स्वतन्त्रता प्राप्त करने वाले सभी एशियाई व अफ्रीकी देशों की स्वतन्त्रता का भारत ने जोरदार समर्थन किया है। भारत ने लीबिया, इन्डोनेशिया, मलाया, चीन, धाना आदि देशों की स्वतन्त्रता की जोरदार अपील UNO में की थी। भारत आज भी यूरोपीय व अमेरिकी देशों द्वारा फैलाए जा रहे नव-साम्राज्यवाद का विरोध करता है। भारत ने समय-समय पर विदेशों में भारतीय व एशियाई-अफ्रीकी मूल की जनता पर हो रहे जातीय अत्याचारों का प्रबल विरोध किया है। भारत आज भी आर्थिक साम्राज्यवाद और रंगभेद की नीति के विरोध के रूप में अपनी विदेश नीति में इस सिद्धान्त को महत्व देता है।
(4) विश्व शान्ति का सिद्धान्त :- भारत की विदेश नीति विश्व-शान्ति के सिद्धान्त की प्रबल समर्थक रही है। भारत हमेशा ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति कायम रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का समर्थन करता रहा है। भारत के संविधान में भी नीति निर्देशक सिद्धान्तों में स्पष्ट तौर पर कहा गया है-“भारत अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और क्षेत्र की उन्नति, राष्ट्रों के बीच न्याय और न्यायपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखने तथा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता व पंच-निर्णय द्वारा निपटाने के लिए प्रयत्न करेगा।” भारत ने विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न होने की हर हालत में सराहनीय कार्य किया है। कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपना, राष्ट्रमण्डल की सदस्यता ग्रहण करना, कच्छ के मामले को पंच निर्णय के लिए छोड़ना और पंचाट को मानना इस दिशा में महत्वपूर्ण माना जा सकता है। भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को भी हल करवाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। स्वेज नहर संकट, कोरिया संकट, कश्मीर समस्या, अफगानिस्तान संकट, खाड़ी संकट आदि के समय भारत ने विश्व के सामने मध्यस्थता व पंच निर्णय जैसे शान्तिपूर्ण विकल्प पेश किए। अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति कायम रखने के लिए भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाही के प्रति ही अपनी निष्ठा व्यक्त की है। इसके लिए भारत ने निःशस्त्रीकरण तथा मानव अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा किए गए प्रयासों को विश्व शान्ति की दिशा में महत्वपूर्ण माना है। विश्व शान्ति का आदर्श आज भी भारत की विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।
(5) आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद का सिद्धान्त :- भारत की विदेश नीति शान्ति, अहिंसा जैसे आदर्शों से युक्त रही है। आज भी भारत की विदेश नीति पर नेहरु, गांधी, महात्मा बुद्ध जैसे अहिंसावादी व शान्ति के पुजारी विचारकों का स्पष्ट प्रभाव है। नेहरु का पंचशील सिद्धान्त आज भारत की विदेश नीति को आदर्शवाद के सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित करता है। भारत का विश्वशान्ति के प्रति अपनाया गया द ष्टिकोण भारत की विदेश नीति को आदर्शवाद की नीति घोषित करता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत की विदेश नीति कोरी आदर्शवादी है। सत्य तो यह है कि आवश्यकता पड़ने पर भारत ने आदर्शवाद का रास्ता छोड़कर यथार्थवाद का मार्ग भी ग्रहण किया है। इन्दिरा गांधी के शासन काल में भारत की विदेश नीति यथार्थवादी रही है। इसी तरह वाजपेयी युग में भारत की विदेश नीति आदर्शवाद तथा यथार्थवाद दोनों का सुन्दर मिश्रण रही है। 1962 में अमेरिका से सैनिक सहायता लेना भारत की गुटनिरपेक्षता तथा विश्व शान्ति के आदर्श के प्रतिकूल थी। इसी तरह बाद में रूस से सैनिक समझौता करना भारत के आदर्शवाद के विरुद्ध रहा है। इससे स्पष्ट है कि आवश्यकतानुसार भारत की विदेश नीति आदर्शवाद और यथार्थवाद दोनों को बराबर महत्व देती रही है।
(6) ग्रुजराल सिद्धान्त :- 1996 में केन्द्र में 13 राजनीतिक दलों की सरकार बनने के बाद 997 में भारत के प्रधानमन्त्री के रूप में इन्द्रकुमार गुजराल ने शपथ ली। गुजराल जी ने पड़ोसी देशों के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो प्रयास किए उन्हें गुजराल सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धान्त के तहत 1997 में भारत ने बंगला देश के साथ गंगा जल बंटवारे पर समझौता किया। इसी तरह भारत ने चीन के साथ भी शान्तिपूर्ण सम्बन्ध कायम करने के प्रयास किए। इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुजराल सरकार ने अपने पड़ोसी देशों की जनता को वीजा सम्बन्धी रियायतें प्रदान की। इस सिद्धान्त के तहत भारत ने अमेरिका के साथ भी सम्बन्धों का मधुर बनाने के प्रयास किए। भारत ने अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ मधुर सम्बन्ध कायम करने की दिशा में कई एकतरफा घोषणाएं भी की। इसी सिद्धान्त को आगे वाजपेयी जी ने भी अपनाया।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति विश्व शान्ति, गुटनिरपेक्षता, पंचशील व शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व आदि सिद्धान्तों पर आधारित रही है। विदेश नीति के सिद्धान्त के रूप में 1997 में गुजराल सिद्धान्त के रूप में जो महत्वपूर्ण अध्याय जुड़ा, वह आज भी भारत की विदेश-नीति का महत्वपूर्ण भाग है। वस्तुतः भारत की विदेश नीति आदर्शवाद व यथार्थवाद दोनों का सुन्दर मिश्रण रही है। भारत की विदेश नीति के सिद्धान्तों के रूप में आज भी वे सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं जो हमारे संविधान में वर्णित हैं और बाद में समयानुसार हमारे प्रबुद्ध विदेश नीति निर्माताओं व राजनेताओं द्वारा अपनाए जाते रहे हैं। सरकारें बदलती रही हैं, लेकिन भारत की विदेश नीति के सिद्धान्त स्थिर रहे हैं। भारत की विदेश नीति के आदशों के रूप में अपनाए गए सिद्धान्त आज भी भारत की विदेश नीति की महान विरासत है।
भारत की विदेश नीति के निहितार्थ
भारत की विदेश नीति के प्रमुख निहितार्थ या बातें निम्नलिखित हैं :-
(1) भारत की विदेश नीति असंलग्नता या गुटनिरपेक्षता की नीति है।
(2) भारत की विदेश नीति राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देती है।
(3) भारत की विदेश नीति सोवियत संघ तथा अरब राष्ट्रों की समर्थक है।
(4) यह अमेरिका व ब्रिटेन के साथ-साथ अन्य यूरोपीय राष्ट्रों से भी मधुर सम्बन्ध बनाए रखने की पक्षघर है।
(5) भारत की विदेश नीति सैनिक गुटबन्दी की विरोधी है।
(6) यह साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा रंगमेद के किसी भी रूप का प्रबल विरोध करती है।
(0) यह निःशस्त्रीकरण के सार्वभौमिक व पक्षपातपूर्ण कार्यक्रमों की समर्थक है।
(8) यह उत्तर-दक्षिण संवाद तथा उत्तर-उत्तर सहयोग की समर्थक है।
(9) यह संयुक्त राष्ट्र संघ तथा मानवाधिकारों की रक्षा करने वाली अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का पक्ष लेती है।
(10) यह एफ्रो-एशियाई एकता की समर्थक है।
(11) यह पड़ोसी देशों के साथ गधुर व सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों पर जोर देती है। गुजराल सिद्धान्त इसका प्रमुख आधार है।
(12) यह विश्व शान्ति के किसी भी प्रयास का प्रबल समर्थन करती है।
(13) यह नेहरु जी के पंचशील और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त में विश्वास करती है और उसे ही आधार रूप में अपनाए हुए है। इसी कारण कुछ आलोचक भारत की विदेश नीति को नेहरु की नीति कहते हैं।
(14) यह विश्व में मानवाधिकारों को ईमानदारी के साथ लागू करने की बात का समर्थन लेती है।
(15) यह नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की समर्थक है और अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों की भेदभावपूर्ण व्यवस्था को समाप्त करना चाहती है। इसीलिए यह विश्व व्यापार संगठन के भेदभावपूर्ण ढांचे व कार्यप्रणाली की निन्दा करती है। (16) यह क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग को बढ़ाने की इच्छुक है और ASEAN के माध्यम से इस कार्य को पूरा करना चाहती है।
भारत की विदेश नीति के उपकरण
किसी भी देश की विदेश नीति का क्रियान्वयन करने के लिए कुछ उपकरणों या साधनों की आवश्यकता होती है। विदेश नीति के उपकरण ही अमुक देश की विदेश नीति के उद्देयों को प्राप्त करने में मदद करते हैं। ये उपकरण ही अमुक देश की विदेश नीति के निर्माण या निर्धारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत की विदेश नीति का निर्धारण व क्रियान्वयन जिन उपकरणों के द्वारा होता है, वे निम्नलिखित हैं :-
(1) सन्धिवार्ता व सन्धि :- भारत अपने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने के लिए सन्धि वार्ताएं करता है। 1965, 197। तथा 1999 में पाकिस्तान के साथ किए गए युद्ध-समझौते भारत की विदेश नीति का ही एक भाग हैं। पाकिस्तान के साथ भारत के सम्बन्धों का संचालन आज भी शिमला समझौते तथा लाहौर घोषणापत्र के रूप में होता है। भारत विश्व के अन्य देशों से भी सन्धिवार्ताएं जारी रखे हुए है और कई मामलों पर उसने विदेशी राष्ट्रों से सन्धियां व समझौते किए हैं।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन :- भारत की विदेश नीति जिस अन्तर्राष्ट्रीय संगठन से संचालित व प्रभावित होती है, उनमें UNO प्रमुख है। इसके अतिरिक्त वह विश्व स्वास्थ्य संगठन, WTO, IMF, UNESCO, UNICEF आदि से भी प्रभावित होती है। भारत विश्व शान्ति व सम द्धि के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का पूरा सम्मान करता है।
(03) क्षेत्रीय सहयोग संगठन :- भारत की विदेश नीति का निर्धारण व क्रियान्वयन उसकी सदस्यता वाले क्षेत्रीय सहयोग संगठनों से भी होता है। इसमें SAARC (दक्षिणी एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) आशियन तथा हिन्द महासागर रिम क्षेत्रीय संगठन प्रमुख हैं।
(4) युद्ध :- भारत ने आवश्यकता पड़ने पर पाकिस्तान तथा चीन के साथ युद्ध भी करने पड़े हैं ताकि उसकी स्वतन्त्र विदेश नीति पर कोई आंच न आए। कारगिल की लड़ाई व 13 सितम्बर 2002 को भारत की संसद पर हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत द्वारा सीमाओं पर फौज की तैनाती व युद्ध के लिए तैयार रहना उसकी विदेश नीति के आदर्शों की रक्षा करने के लिए ही एक प्रयास था।
(5) भारत अपनी विदेश नीति का संचालन कूटनीतिक अधिकारियों के माध्यम से करता है। विदेशों में भारत के दूत हैं जो उसकी विदेश नीति का क्रियान्वयन करते हैं और इसी आधार पर भारत की विदेश नीति में बदलाव भी आते रहते हैं। कूटनीतिक सम्बन्धों के आधार पर ही यह फैसला किया जाता है कि किस देश के साथ कैसी नीति अपनानी है।
(6) गुप्तचर विभाग :- भारत में उसकी विदेश नीति के उपकरण के रूप में एक गुप्तचर विभाग भी कार्य करता है। यह विभाग विदेशों में भारत के प्रति अपनाई जा रही नीतियों व राजनयिक व्यवहार की पूर्ण जानकारी सरकार को देता है जिसके आधार पर ही भारत अपनी विदेश नीति में परिवर्तन लाता है और उसे नए ढंग से क्रियान्वित करता है। हाल ही में पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को मधुर बनाने की कवायद इसी के द ष्टिगत की गई है कि अब पाकिस्तान का द ष्टिकोण भारत के प्रति कुछ उदार है।
अत: निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय हित की रक्षा व उसकी प्राप्ति करना है। इसके लिए वह विदेशों में राजनीतिक अधिकारी नियुक्त करती है, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रीय संगठनों का सम्मान करती है और अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर कूटनीतिक वार्ताएं जारी रखकर अपने निहित उद्देश्यों को प्राप्त करती है।
Ans.C- fejpur
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