वैश्विक तापन क्या है
हमारी पृथ्वी को आज सबसे बड़ा खतरा ग्लोबल वार्मिंग से है। हमारा वातावरण (वायुमंडल) कर्इ गैसों का मिश्रण है, जिसमें 78 प्रतिशत नाइट्रोजन और 21 प्रतिशत ऑक्सीजन है। शेष एक प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसें हैं, जो संख्या में 61 हैं, जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड, ओजोन, मोनो नाइट्रस ऑक्साइड और जलवाष्प प्रमुख हैं। यद्यपि ये गैसें मात्र 1 प्रतिशत हैं, परन्तु मौसम की स्थिति और परिवर्तन में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। ये गैसें पृथ्वी के ऊपर कंबल या छतरी जैसा कार्य करती हैं तथा धरती के तापमान को नियंत्रित करती हैं। ठीक उसी तरह जैसे धूप में रखी कार अंदर से काफी गरम होती है। विश्व में मौसम में बदलाव वायुमंडल एवं पृथ्वी की सतह द्वारा सौर ऊर्जा के अवशोषण तथा परिवर्तन की मात्रा पर निर्भर करता है। पृथ्वी सूर्य की किरणों से गर्म होती है। पृथ्वी और चंद्रमा सूर्य से लगभग समान दूरी पर हैं अत: दोनों की सतहों पर समान ऊष्मा गिरती है, परन्तु पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है, जबकि चंद्रमा का 18 डिग्री सेंटीग्रेड है। तापमान में यह अंतर पृथ्वी के वायुमंडल की वजह से है, जो ऊष्मा सोख लेता है।
पृथ्वी का वायुमण्डल सुर्य ताप ऊर्जा प्रति मिनट 184x10x10x10x10 जूल प्रति वर्ग मीटर ग्रहण करता है। सूर्य से आने वाले विकिरण का लगभग 40 प्रतिशत धरती के वातावरण तक पहुंचने से पहले अंतरिक्ष में लौट जाता है। इसके अतिरिक्त 15 प्रतिशत वातावरण में अवशोषित हो जाता है तथा शेष 45 प्रतिशत विकिरण ही पृथ्वी के धरातल तक पहुंच पाता है। धरती की सतह तक पहुंचने के बाद यह विकिरण गर्मी (दीर्घ तरंगों) के रूप में पृथ्वी से परावर्तित होता है। वायुमंडल में उपस्थित कुछ प्रमुख गैसें लघु तरंगीय सौर विकिरण को पृथ्वी के धरातल तक आने तो देती हैं, लेकिन पृथ्वी से परावर्तित होने वाले दीर्घ तरंगी विकिरण को बाहर नहीं जानें देती और इसे अवशोषित कर लेती हैं। इस वजह से पृथ्वी का औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस के लगभग बना रहता है। वास्तव में इस प्रक्रिया के अंतर्गत गैसें वायुमंडल में एक ऐसी परत बना लेती हैं जिसका असर किसी नर्सरी में पौधों को बाहर सर्दी गर्मी से बचाने के लिए बनाए गए हरित गृह (Green House) की कांच की छत की तरह होता है। इस प्रक्रिया को इसीलिए ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं।
यदि ग्रीन हाउस गैसें न हों तो पृथ्वी का तापमान गिरकर लगभग 20 डिग्री सेंटीग्रेड हो जाएगा। पृथ्वी का एक निश्चित जीवन योग्य तापमान रखने के लिए वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की एक निश्चित मात्रा अनुपात में उपस्थिति अत्यंत आवश्यक है।
यदि इन ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाए तो ये पराबैंगनी किरणों को अत्यधिक मात्रा में अवशोषित कर लेगी। परिणामस्वरूप ग्रीन हाउस प्रभाव बढ़ जाएगा, जिससे वैश्विक तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी। तापमान में वृद्धि की यह स्थिति ही ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक ऊष्णता) कहलाती है। वैश्विक तापमान की इसी वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग की संज्ञा सर्वप्रथम ब्रिटिश पर्यावरणविद वालिस बोयकर ने 1970 के दशक में प्रदान की थी।
1903 में स्वात एरिनस नामक वैज्ञानिक ने ग्रीन हाउस गैसों के कारण धरती के बढ़ते तापमान का सिद्धांत पेश किया था। इसके बाद 1938 में इंग्लैंड के जी.एस. कैलेंडर और फिर 1955 में हंगरी के वैज्ञानिक वेन न्यूमेन ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और उसके प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया था। लेकिन 1958 में पहली बार अमेरिकी वैज्ञानिक प्लास ने कार्बन डाइऑक्साइड तथा क्लोरो फलोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) गैसों के कारण पर्यावरण के विषाक्त होने का सिद्धांत पेश किया। 1974 में जब कार्बन डाइऑक्साइड के दुष्प्रभाव और तापमान बढ़ोतरी में उसकी भूमिका को कम्प्यूटर माडलों तथा संबंधित अनुसंधानों के जरिए समझाया गया तब कहीं जाकर दुनिया इस बारे में कुछ सचेत हुर्इ।
क्या है जलवायु परिवर्तन
ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणाम से ही जुड़ी हुई जलवायु परिवर्तन की समस्या है। जलवायु परिवर्तन से आशय मौसम परिवर्तन से है।
जलवायु परिवर्तन के कारण -
जलवायु परिवर्तन के कर्इ कारण हैं। जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित है।
प्लेट विवर्तनिकी-
लाखों साल के अंतराल में विवर्तनिकी प्लेट की गति पूरी धरती की भूमि और महासागरों की रूपरेखा को बदल देती है। इससे स्थानीय व वैश्विक जलवायु में और वायुमंडल-महासागर संचरण में परिवर्तन पैदा हो जाता है। महाद्वीपों की स्थिति महासागरों की ज्यामिती का निर्धारण करती है और इस तरह से महानगरीय संचरण के पैटर्न को प्रभावित करती है। पूरी पृथ्वी के आर-पार ऊष्मा और नमी के हस्तांतरण में समुद्रों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इससे वैश्विक जलवायु का निर्धारण भी होता है।
स्थानीय स्तर पर स्थलाकृति जलवायु को प्रभावित कर सकती है। इसमें वैश्विक जलवायु का निर्धारण में योगदान रहता है।
सोलर आऊटपुट -
सूर्य पृथ्वी पर ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है। तीव्रता में दीर्घकालीन व अल्पकालीन परिवर्तनों से वैश्विक जलवायु में परिवर्तन पैदा होता है। आने वाले समय में सूर्य की चमक और बढ़ती जाएगी और अंत में सूर्य के रक्तदानव में परिवर्तन के साथ ही धरती पर भी जीवन समाप्त हो जाएगा। पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन में 11 वर्षीय सौर चक्र का भी खासा योगदान रहता है जिसे अभी तक पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। वैज्ञानिकों के अनुसार चक्रीय संचार गतिविधि के दौरान पृथ्वी पर आने वाले सौर विकिरण की मात्रा बढ़ जाती है जिसका ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पर प्रभाव पड़ता है।
कक्षीय परिवर्तन -
पृथ्वी की कक्षा में थोड़े से भी परिवर्तन का प्रभाव पृथ्वी की सतह पर पहुंचने वाली सूर्य की किरणों पर पड़ता है। इससे भी जलवायु परिवर्तन हो सकता है।
ज्वालामुखी विस्फोट -
ज्वालामुखी के विस्फोट से पृथ्वी के गर्भ से लावा निकलता है जिसका प्रभाव मौसम पर पड़ता है।
महासागरीय प्रभाव -
महासागर जलवायु प्रणाली का अविभाज्य हिस्सा है। अलनिनो जैसी प्रक्रियाओं का कोर्इ दीर्घकालीन प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन महासागरों की धाराएं एक लंबे समय के दौरान धरती के एक स्थान से दूसरे स्थान पर ऊष्मा के पुनर्वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
मानवीय गतिविधियाँ -
वैज्ञानिक समुदाय इस मामले में लगभग एकमत है कि वर्तमान में मानवीय गतिविधियों के कारण से ही वैश्विक तापमान (Global Temperature) में तेजी से वृद्धि हो रही है। इसमें भी सबसे बड़ा कारण जीवाश्म र्इंधनों (Fossil Fuels I.E.Coal, Natural Gas, Petrol, Diesel etc.) के उपयोग से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा का वायुमंडल में तेजी से जमा होना है। इसके बाद मुख्य दोषी एयरोसोल है जो पार्टिकुलेट पदार्थ के रूप में वायुमंडल में पाया जाता है। इसके बाद जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कारण है- भूमि प्रयोग, ओजोन परत का क्षरण पशुपालन व कृषि निर्वनीकरण (Deforestation)। जलवायु परिवर्तन संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा समर्थित अंतर सरकारी पैनल (आर्इ.पी.सी.सी.) जिसके अध्यक्ष भारत के डॉ. आर.के. पचौरी हैं और जिसमें विभिन्न देशों के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद सम्मिलित थे, ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस सदी में पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से 2.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा।
आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं।
1- यदि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन की यही हालत रही तो 2100 तक धरती के तापमान में 1.1 से 6.4 सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है।
2- दुनिया की बहुत बड़ी आबादी पीने के पानी के लिए ग्लेशियरों पर पूरी तरह से निर्भर हैं 21वीं शताब्दी के अंत तक दुनिया भर में लगभग एक अरब लोगों के सामने पीने के पानी की समस्या पैदा हो जाएगी। धरती का तापमान बढ़ने से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।
3- ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पशु-पक्षियों की 20-30 प्रतिशत तक प्रजातियाँ विलुप्त हो सकतीं हैं।
4- उच्च अक्षांश पर जंगल और खाद्य उत्पादन शुरूआत में थोड़ा बढ़ने के बाद घट जाएगा मध्य व दक्षिण एशिया में अन्न उत्पादन पर काफी बुरा प्रभाव पड़ेगा।
5- ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव भारत पर काफी बुरा पड़ेगा पैनल के अनुसार देश की जीवनदायिनी नदी गंगा के विलुप्त हो जाने की आशंका है।
6- वर्ष 2030 तक हिमालय के अधिकांश ग्लेशियर पिघल जाएंगे उनका क्षेत्रफल 5 लाख वर्ग किमी. से सिकुड़कर मात्र एक लाख वर्ग किमी. रह जाएगा। एक ताजा अध्ययन के अनुसार ग्लेशियर लगभग 1.5 किमी. तक सिकुड़ चुके हैं।
बंगाल की खाड़ी में समुद्रीय जल स्तर बढ़ने की रफ्तार 3.14 मिमी. सालाना है जबकि विश्व में इसका औसत 2.2 मिमी. है।
आई.पी.सी.सी. को वर्ष 1907 में नोबल शांति पुरस्कार सेे सम्मानित किया गया।
जलवायु परिवर्तन का सामना करने हेतु वैश्विक प्रयास
स्टाकहोम समझौता (मानव पर्यावरण सम्मेलन) 5 जून से 16 जून 1972 में पर्यावरण सुरक्षा हेतु विश्व स्तर पर प्रथम प्रयास किया गया था। मानव की सुख शांति, स्वास्थ्य सुरक्षा और देशों के आर्थिक विकास के लिए स्थानीय, प्रादेशिक एवं देशीय स्तरों पर पर्यावरण-सुरक्षा की महत्ता 5 जून 1972 के ऐतिहासिक स्टाकहोम सम्मेलन में आंकी गई। इस सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधित्व मंडल का नेतृत्व तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी ने किया था। यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में हुआ था और 114 देशों ने इसमें भाग लिया इस सम्मेलन में ही 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित किया गया तथा केवल एक धरा इसको अंगीकृत किया गया इस सम्मेलन में घोषित समझौते को Magna Carta of Environment कहा जाता है।
सम्मेलन में मानवीय पर्यावरण घोषणा को अंगीकार किया गया जिसे प्रस्तावना के अतिरिक्त दो भागों में बांटा गया है। प्रथम भाग पर्यावरण के संबंध में मनुष्य के बारे में घोषणा करता है, जबकि दूसरा भाग 26 सिद्धांतों को प्रतिपादित करता है जिनमें से महत्वपूर्ण सिद्धांत निम्नलिखित है-
1- सिद्धांत - 1 प्रावधान करता है कि मनुष्य को अच्छे वातावरण में जीने का अधिकार है।
2- सिद्धांत-2 के अनुसार पृथ्वी के सभी संसाधनों, जिनमें वायु, जल, स्थल, वनस्पति तथा जनसमूह और विशेषकर पारिस्थितिकी तंत्र शामिल हैं का संरक्षण, सुविचारित योजना तथा प्रबंध, जो उचित हो, के माध्यम से वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के हित में किया जाना चाहिए।
3- सिद्धांत -7 यह प्राविधानिक करता है कि राज्य उन पदार्थों द्वारा समुद्र के प्रदूषण को रोकने के कदम उठाएंगे, जो मानव स्वास्थ्य के प्रति खतरा उत्पन्न करने, जीवन संसाधनों तथा सामुद्रिक जीवन को क्षति पहुंचाने या समुद्र के अन्य वैध प्रयोगों में हस्तक्षेप करने के लिए उत्तरदायी है।
4- सिद्धांत -21 प्रावधान करता है कि राज्यों (राष्ट्रों) को अपनी पर्यावरण संबंधी नीतियों को तैयार करने का प्रभुत्व सम्पन्न अधिकार है और यह सुनिश्चित करने का दायित्व है कि उनकी अधिकारिता या नियंत्रण के अधीन क्रियाकलाप अन्य राज्यों के या उनकी राष्ट्रीय अधिकारिता की सीमा के बाहर के क्षेत्रों के पर्यावरण को क्षति नहीं पहुंचाएंगे।
5- सिद्धांत-22 यह प्रावधान करता है कि राज्य प्रदूषण संबंधी अन्य क्षति जो राज्यों द्वारा अपनी अधिकारिता या नियंत्रण के अधीन अथवा अपनी अधिकारिता क बाहर के क्षेत्रों में किया जाता है वे पीड़ितों के लिए उत्तरदायित्व तथा प्रतिकर (Compensation) के संबंध में अन्तरराष्ट्रीय विधि के आगे विकास के लिए सहयोग करेंगे।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम- (U.N.E.P.) (United Nations Environment Programme)
इसकी स्थापना 1972 र्इ. में की गई थी। इसका मुख्यालय नैरोबी (कीनिया) में है। यह एजेंसी संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्वपूर्ण एजेंसी है जो पर्यावरण परिरक्षण के अंतर सरकारी उपायों के समन्वय के लिए उत्तरदायी है। ज्ञातव्य है कि “ग्लोबल -500 पुरस्कार” इसी संस्था द्वारा ही प्रदान किया जाता है।
वियना सभा (Vienna Convention)
ओजोन परत के संरक्षण हेतु 1985 में आस्ट्रिया की राजधानी वियना में “वियना कन्वेंशन” हुई थी, जो ओजोन क्षरण पदार्थों (Ozone Depleting Substances) पर संपन्न प्रथम सार्थक प्रयास था पुन: दिसम्बर 1995 में संपन्न में वियना सभा में ओजोन रिक्त कारक पदार्थों पर एक समझौता हुआ। इस सभा में ओजोन परत के बढ़ते रिक्तिकरण को कम करने के लिए तीन “ओ.डी.एस.” पदार्थों सी.एफ.सी.,एच.सी.एफ.सी. और मिथाइल ब्रोमाइड की कटौती पर शर्तें की गईं हैं।
मांट्रियल समझौता 1987 -
संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देशन में ओजोन छिद्र से उत्पन्न चिंता निवारण हेतु 16 दिसम्बर 1987 को कनाडा के मांट्रियल शहर में 33 देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। ओजोन संरक्षण का यह प्रथम अंतरराष्ट्रीय समझौता था इसी सम्मेलन में तय किया गया कि प्रतिवर्ष 16 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय ओजोन संरक्षण दिवस मनाया जाए इस सम्मेलन में यह तय किया गया कि ओजोन परत का विनाश करने वाले पदार्थ क्लोरो फलोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) के उत्पादन एवं उपयोग को सीमित किया जाए।
पुन: 1998 में आयोजित मांट्रियल प्रोटोकाल के तहत निम्न व्यवस्थाएं की गईं।
1- विकासशील देशों को ओजोन परत की क्षति पहुंचाने वाले सी.एफ.सी. रसायनों का विकल्प तथा ओजोन संगत तकनीक विकसित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई।
2- विकसित देशों को सी.एफ.सी. का उत्पादन एवं प्रयोग 2000 तक बंद करने का निर्देश किया गया तथा विकासशील देशों के लिए 2010 तक की समय सीमा निर्धारित की गई।
3- आगामी 15 वर्षों के अंदर सी.एफ.सी. के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध का लक्ष्य रखा गया।
पृथ्वी शिखर सम्मेलन ,1992 (Earth Summit)
स्टाकहोम सम्मेलन की बीसवीं वर्षगांठ मनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने ब्राजील की राजधानी रियो-डि-जेनरो में 1992 में पर्यावरण और विकास सम्मेलन आयोजित किया इसे अर्थ समिट या पृथ्वी शिखर सम्मेलन भी कहा जाता है। इसमें सम्मिलित देशों ने टिकाऊ विकास के लिए व्यापक कार्यवाही योजना “एजेंडा-21” स्वीकृत किया। “एजेंडा-21” पारिस्थितिकी विनाश तथा आर्थिक असमानता को समाप्त करने पर बल देता है इसके प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं।
(क) गरीबी।
(ख) उपभोक्ता प्रतिमान स्वास्थ्य
(ग) व्यवस्थापन।
(घ) औद्योगिकीय अन्तरण।
रियो घोषणा राज्यों समितियों के प्रमुख क्षेत्रों तथा लोगों के मध्य सहयोग के नए स्तरों के सृजन पर बल देता है घोषणा में पृथ्वी तथा हमारे ग्रह के अखण्ड तथा अंतर आधारित प्रकृति को मान्यता दी गर्इ है। इसमें निम्नलिखित प्रमुख सिद्धांतों की घोषणा की गर्इ
1. मानव जाति निरंतर विकास के लिए चिंता का केन्द्र है यह प्रकृति के सामंजस्य में स्वास्थ्यपूर्ण उत्पादक जीवन के हकदार हैं।
2. संयुक्त राष्ट्र चार्टर तथा अन्तरराष्ट्रीय विधि के सिद्धांतों के अनुसार संसाधनों का विदोहन उसी सीमा तक किया जाए जिस सीमा तक यह पर्यावरण के लिए हानिकारक न हों।
3. भावी पीढ़ी के विकास को ध्यान में रखा जाए।
4. निरंतर विकास करने के लिए पर्यावरण संबंधी संरक्षण विकास प्रक्रिया का अभिन्न अंग होगा और विकास को पर्यावरण से पृथक नहीें किया जा सकता।
5. सभी राज्य तथा सभी लोग विश्व के लाेगों के बहुमत की आवश्यकताओं को उचित ढंग से पूरा करने के लिए जीवनस्तर की विषमताओं को कम करने के लिए तथा निरंतर विकास के लिए अनिवार्य अपेक्षाओं के अनुरूप में गरीबी उन्मूलन के आवश्यक कार्य में सहयोग करेंगे।
6. पर्यावरण की विशुद्धता का सदैव ध्यान रखेंगे।
7. पर्यावरण संबंधी प्रश्नों को सभी सुंसंगत स्तरों पर सभी संबंध नागरिकों के सहयोग से निपटाया जाएगा। राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति की समुचित पहुंच पर्यावरण से संबंधित सूचना तक होगी । जो लोक प्राधिकारियों द्वारा कारित होता था जिसमें परिसंकटमय पदार्थों तथा उनके समुदायों में क्रियाकलापों की सूचना सम्मिलित होगी। सभी राज्यों को निर्णयकारी प्रक्रिया में भाग लेने का समुचित अवसर होगा। राज्य व्यापक रूप से सूचना को उपलब्ध कराकर सार्वजनिक जानकारी तथा भागीदारी को सुविधापूर्ण बनाएंगे तथा प्रोत्साहित करेंगे न्यायिक तथा प्रशासनिक कार्यवाही तक प्रभावी पहुंच प्रदान की जाएगी, जिसमें प्रतितोष तथा उपचार भी शामिल होगा।
8. राज्य प्रदूषण तथा पर्यावरण संबंधी अन्य क्षति के पीड़ितों के लिए उत्तरदायित्व तथा प्रतिकर के संबंध में राष्ट्रीय विधि का विकास करेंगे। राज्य अपनी या नियंत्रण के अंतर्गत तथा अपनी अधिकारिता के बाहर के क्षेत्रों में अपने कार्यों द्वारा कारित पर्यावरण संबंधी क्षति के लिए शीघ्र तथा अधिक ढंग से सहयोग करेंगे।
क्योटो-प्रोटोकाल : ग्रीन हाउस गैसों की कटौती का प्रयास -
1997 में जापान के क्योटो शहर में पृथ्वी को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए एक वैश्विक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें विश्व के 159 देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में संयुक्त राज्य अमेरिका ने ग्रीन हाउस प्रभाव के लिए जिम्मेदार छह गैसों में कटौती का प्रस्ताव रखा जिसे विश्व समुदाय द्वारा मान लिया गया। ये 6 गैसें है- कार्बनडाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोक्लोरो-फ्लोरो कार्बन, परफ्लेरोकार्बन तथा सल्फर हैक्सा फ्लोराइड। इस प्रस्ताव के अंतर्गत औधोगिक देशों को 2008-2012 तक 1990 के अपने स्तर से 5.2 प्रतिशत कटौती ग्रीन हाउस के गैसों के उत्सर्जन में करनी है। विकासशील देशों पर किसी तरह की कटौती शर्त नहीं लगाई गई है। अलग-अलग देशों पर कटौती का प्रतिशत अलग-अलग है। जनवरी 2009 तक 183 देशों ने क्योटो संधि पर हस्ताक्षर किए हैं।
विकसित देशों पर डाली गई अधिक ज़िम्मेदारी -
जलवायु परिवर्तन पर “यूनाइटेड नेशंस के फ्रेमवर्क कन्वेंशन” (यू.एन.एफ.सी.) के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग से धरती को बचाने की जिम्मेदारी हालांकि पूरी दुनिया की है, लेकिन इसमें मुख्य जिम्मेदारी विकसित देशों की है। वैश्विक समुदाय के मध्य निम्न बिन्दुओं पर सहमति बनी है-
1- ऐतिहासिक व वर्तमान दृष्टिकोण से औद्योगिक देश ही मुख्य रूप से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
2- विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन आज भी तुलनात्मक रूप से कम है।
3- विकासशील देशों के विकास के लिए उत्सर्जन में कटौती करना संभव नहीं है। 1997 में चीन, भारत व अन्य विकासशील देशों के उत्सर्जन में इसलिए कटौती नहीं की गई क्योंकि उस समय इन देशों की उत्सर्जन दर काफी कम थी लेकिन अब चीन दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जन करने वाला देश बन गया है।
क्योटो-प्रोटोकाल के तीन सिद्धांत -
1- प्रतिबद्धताएं -
प्रोटोकाल का सार सिद्धांत यह है कि एनेक्स-1 (Annex-1) के देशों को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करना होगा। साथ ही अन्य देशों को भी सामान्य प्रतिबद्धताओं को पूरा करना होगा।
2- क्रियान्वयन-
प्रोटोकाल के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए एनेक्स-1 के देशों को ऐसी नीतियों व पैमाने (मापदण्ड) तैयार करने होंगे, जिससे ग्रीनहाउस गैसों में कटौती हो सके। इसके अलावा इन गैसों के अवशोषण के लिए क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (सी.डी.एम.) व कार्बन ट्रेडिंग जैसी विधाओं का प्रयोग करना होगा जिसके बदले में उन्हें कार्बन क्रेडिट प्रदान की जाएगी। इससे एनेक्स-1 के देशों को अपने यहां ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कुछ छूट प्राप्त हो जाएगी।
3- एडेप्टेशन फंड -
विकासशील देशों पर ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव कम करने के लिए जलवायु परिवर्तन के लिए एडेप्टेशन फंड (Adeptation Fund) की स्थापना करना।
बाली सम्मेलन
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर कटौती के मामले में विश्वव्यापी सहमति कायम के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में वैश्विक सम्मेलन (United Nations Climate Change Confernce) इंडोनेशिया के बालीद्वीप में नूसा दुआ में 3 से 12 दिसम्बर 2007 को संपन्न हुआ। 192 देशों के प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया।
1997 र्इ. में हुर्इ “क्योटो संधि” से आगे की रणनीति बनाने के लिए इस सम्मेलन का आयोजन संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किया गया। विश्व के प्रमुख 27 औद्योगिक देशों पर लागू “क्योटो संधि” की अवधि 2012 में समाप्त हो रही है इस संधि के तहत इन 37 औद्योगिक देशों को 2008 से 2012 तक की अवधि में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन (Emission) स्तर घटाते हुए 1990 के स्तर तक लाने का दायित्व था दो सप्ताह तक चले इस सम्मेलन में नर्इ संधि तैयार करने को विकसित और विकासशील देशों में सहमति अंतिम समय में हुर्इ। इस संबंध में अगली बैठक डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में वर्ष 2009 में हुर्इ।
कोपेनहेगन सम्मेलन - (COP 15 - COPEN HEGEN ON CLIMATE CHANGE CONFERENC 2009)
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर 7 से 12 दिसंबर 2009 तक डेनमार्क की राजधानी में आयोजित इस सम्मेलन का नाम “कॉप 15” था। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अब तक का सबसे बड़ा सम्मेलन था इसमें विश्व भर के लगभग 15000 अधिकारी, पर्यावरणविद और पत्रकारों ने भाग लिया। 192 देशों ने इस सम्मेलन में भाग लिया। बड़ी आशा थी कि कोपेन हेगन जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन में समझौते के बादल बरसेंगे, लेकिन यह सम्मेलन जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया बादलों के बरसने की उम्मीदों पर पानी फिरता गया आखिर में लगभग दो हफ्ते की माथापच्ची के बाद बदरा बिन बरसे ही चले गए। दुनिया भर के चोटी के नेता किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाए वस्तुत: यह सम्मेलन कॉप 15 न होकर “फ्लाप 15” साबित हुआ फिर भी कुछ बिंदुओं पर सहमति हुई, जो इस प्रकार हैं-
उत्सर्जन -
• विकसित देश व्यक्तिगत या संयुक्त रूप से उत्सर्जन में कटौती करें। सम्मेलन से पूर्व कटौती की सूची पर प्रतिबद्धता दिखाएं।
• विकासशील देश शमन के उपायों पर कदम उठाएं।
निगरानी -
अंतरराष्ट्रीय सलाह और विश्लेषणों के प्रावधान के साथ विकासशील देश घरेलू स्तर पर उत्सर्जन की निगरानी करें।
गरीब देशों को वित्तीय सहायता -
1. जलवायु परिवर्तन से लड़ने में गरीब देशों की मदद के लिए विकसित देश वर्ष 2020 तक 100 अरब डालर एकत्र करने का लक्ष्य तय करें।
2. अगले तीन सालों के लिए 30 अरब डालर।
वानिकी -
जंगलों की अंधाधुंध कटार्इ तथा बढ़ते उत्सर्जन पर रोक लगाना बहुत जरूरी है जंगलों और पेड़ पौधों को संरक्षित रखने वाले देशों के लिए और धन उपलब्ध कराया जाएगा।
तापमान -
वैश्विक तापमान में वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से कम रहनी चाहिए।
कानूनी स्थिति -
यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है।
इस सम्मेलन के संदर्भ में विभिन्न राजनेताओं के बयान कुछ इस प्रकार हैं-
फ्रांस और ब्रिटेन के नेताओं का हमारे प्रति रवैया दुर्भाग्यपूर्ण है ऐसा लगता है कि उन्हें सही जानकारी नहीं दी गई या वे जानबूझकर हमारे प्रति लापरवाही बरत रहे हैं।
-जयराम रमेश, पर्यावरण मंत्री, भारत
जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में प्रगति इतनी आसान नहीं है हम यह भी जानते हैं कि अकेले यह सहमति ही काफी नहीं है हमें लंबा रास्ता जरूर तय किया लेकिन अभी काफी आगे जाना है।
- बराक ओबामा, राष्ट्रपति, अमेरिका
यदि अमेरिका कोर्इ कार्यवाही नहीं करता तो इससे हमारी क्षमता भी गंभीर रूप से प्रभावित होती है। अमेरिका अगर कोर्इ कदम उठाता है जो यह जरूरी हो जाता है कि हम उसका साथ दें।
- स्टीफन हार्पर, प्रधानमंत्री कनाडा
सम्मेलन में हुई सहमति को मानना हमारे लिए काफी कठिन है। अभी हमने एक कदम ही तय किया है जबकि कर्इ कदम चलना बाकी है।
-एंजेला मर्केल चांसलर, जर्मनी
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर दुनिया के अमीर और गरीब देशों के बीच हुआ यह पहला वैश्विक समझौता है।
- केविनरड प्रधानमंत्री आस्ट्रेलिया
मैं कोपेनहेगन में एक महत्वाकांक्षी समझौते की उम्मीद लेकर आया था हमने एक शुरूआत की है मेरा मानना है कि निर्णयों को लागू करने के लिए उन्हें कानूनी रूप से बाध्य करना होगा।
-गार्डेन ब्राउन ,प्रधानमंत्री ब्रिटेन
इस समझौते से तो कहीं अच्छा था कि किसी तरह का समझौता न होना जिन चीजों पर सहमति बनी है वह हमारी उम्मीदों से कहीं कम है लेकिन हमारा लक्ष्य और उम्मीदें अभी भी कायम हैं।
- यूरोपीय संघ
हमारे पास जो मसौदा है वह पूर्ण नहीं है। यदि हम कोर्इ समझौता नहीं कर पाते तो इसका मतलब होगा कि दो महत्वपूर्ण देश भारत और चीन किसी भी प्रकार के मसौदे से बाहर रहेंगे। क्योटो-प्रोटोकाल से बाहर रहने वाला अमेरिका किसी भी समझौते से मुक्त है। ऐसे में कोई भी समझौते कहां तक अपना प्रभाव कायम रख सकता है?
-निकोलस सरकोजी ,राष्ट्रपति फ्रांस
हम दुनिया भर के देशों को यह बताना चाहते हैं कि तुवालू जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते के दस्तावेज को स्वीकार नहीं करता। - इयान फ्रार्इ तुवालू (दुनिया का सबसे छोटा द्वीपीय देश) के प्रतिनिधि
कानकुन सम्मेलन -
कोपेनहेगन के बाद मैक्सिको के कानकुन में वैश्विक जलवायु परिवर्तन संकट से बचने का रास्ता निकालने के लिए एक 194 सदस्य देशों का 29 नवंबर 2010 से 10 दिसम्बर 2010 तक सम्मेलन सम्पन्न हुआ। वर्ष 2009 में कोपेनहेगन (डेनमार्क) सम्मेलन समापन के अंतिम क्षणों में अमेरिका ने दुनिया की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था।
जलवायु परिवर्तन पर कानकुन में आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के आखिरी दिन कार्बन कटौती में विकासशील देशों की मदद के लिए ‘ग्रीन फंड’ की स्थापना पर सहमति बन गई। 100 अरब डालर लगभग 4600 अरब रुपए यह विशेष कोष जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए गरीब देशों को ग्रीन तकनीक अपनाने में मदद करेगा।
बीते तीन सालों में यह पहली बार है जब जलवायु परिवर्तन को लेकर 193 देशों के इस सम्मेलन में कोर्इ समझौता हुआ है। हालांकि इस दौरान उत्सर्जन में कटौती को लेकर बाध्यकारी कानून बनाने पर सदस्य देशों के बीच मतभेद बरकरार रहे सम्मेलन में क्योटो-प्रोटोकाल के उत्सर्जन कटौती संबंधी दायित्वों को 2010 से आगे बढ़ाने पर कोर्इ समझौता नहीं हो सका। दिसम्बर 1910 में कोपेनहेगन मेे आयोजित जलवायु सम्मेलन की नाकामी के बाद कानकुन में ‘ग्रीन फंड’ पर हुए इस समझौते को काफी अहम माना जा रहा है घंटों चली लंबी बहस के बाद वोलिविया को छोड़ सम्मेलन में हिस्सा ले रहे सभी सदस्य देशों ने इसे बनाने की मंजूरी दे दी हालांकि यह साफ नहीं हो सका कि फंड के लिए धन कैसे जुटाया जाएगा।
“क्योटो-प्रोटोकाल” की उपेक्षा -
कानकुन सम्मेलन में भी अमेरिका “क्योटो-प्रोटोकाल” को गौण करते हुए नर्इ रचना करने का प्रयास करता दिखा चार प्रमुख विकासशील राष्ट्र (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, चीन, भारत) मजबूती से खड़े दिखाई नहीं दिए उल्टा, इस बार भारत अपने पक्ष को और अधिक नरम करते हुए अमरीका के साथ जाता हुआ दिखार्इ दिया। भारत विकसित राष्ट्रों की एजेंसियों के माध्यम से अपने यहां निरीक्षण करवाने को तैयार हो रहा है। सुविचारित नीति से पलटते हुए भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि भारत अंतरराष्ट्रीय जलवायु संधि के हिस्से के तौर पर कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताने का इच्छुक है। विशेषज्ञ रमेश के इस वक्तव्य से हैरान हैं यह न केवल भारत की जलवायु परिवर्तन संबंधी नीति को हमेशा के लिए पलट देगा बल्कि अर्थ व्यवस्था पर भी इसका गहरा असर पड़ेगा भारत की संप्रग सरकार ने संसद के सामने यह वायदा किया था कि भारत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने संबंधी कानूनी रूप से बाध्यकारी किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता से नहीं जुड़ेगा लेकिन केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की पिछली बैठक में रमेश द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव को स्वीकारते हुए अपने मत को बदल लिया जिस पर कोर्इ समझौता नहीं किया जा सकता था।
यू.एन.एफ.सी.सी. और “क्योटो-प्रोटोकाल” में साफ है कि न तो भारत को और न ही किसी अन्य विकाससील देश को अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए कानूनी तौर बाध्यकारी किसी प्रतिबद्धता को स्वीकारना आवश्यक है। रमेश के वक्तव्य ने भारत की स्थिति को एक प्रकार से कमजोर करने का संकेत दिया है यह हमारे भविष्य के लिए कतर्इ ठीक नहीं है जो काफी समय बाद पर्यावरण असंतुलन से पैदा होती है इसके लिए कर्इ कारण जिम्मेदार हैं जैसे- सौर विकिरण में परिवर्तन, पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन, महाद्वीपीय विस्थापन और ग्रीन हाउस गैसों का भारी जमाव।
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Visav Tapan kya h
Pay jal ke ashudh hone se kya kya pareshania ho sakti hai
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