केंद्र-राज्यों के बीच विवादास्पद मुद्दे
अनुच्छेद 356 एवं 355 का दुरुपयोग
केंद्र द्वारा संविधान के अनुच्छेद-356 का दुरुपयोग राज्य विधानसभा को भंग करने के लिए बार-बार किया जाता है, जो संघीय सिद्धांत एवं राज्यों के अधिकारों के लिए घातक बनता जा रहा है। अंतरराज्यीय परिषद् की लगातार बैठकों में विभिन्न वर्गों से अनुच्छेद- 356 के प्रयोग को ऐसे मामलों तक सीमित करने की मांग उठती रही है, जहां देश की राष्ट्रीय एकता या धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को गंभीर खतरा पैदा हो गया हो। अनुच्छेद-355 को स्पष्ट करने की आवश्यकता है।
राज्यपाल की नियुक्ति एवं भूमिका
केंद्र द्वारा राज्यों के लिए नियुक्त राज्यपाल का प्रावधान अराजकतापूर्ण रहा है, जो संघीय लोकतांत्रिक राजव्यवस्था के अनुरूप नहीं है। विश्व में कहीं भी किसी बड़े देश में राज्यों के लिए केंद्र द्वारा राज्यपाल नियुक्त करने का प्रावधान नहीं है। राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की मंजूरी की समय सीमा भी निश्चित होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त राज्यपाल पर राज्य सरकार से खुले तौर पर असहमति एवं मतभेद व्यक्त करने को रोकने हेतु मापदंड होना चाहिए।
राज्य सूची पर केंद्र का दखल: इस बात की त्वरित समीक्षा करने की आवश्यकता है कि राज्य सूची से विधायी मामलों की संघ/समवर्ती सूची को स्थानांतरित करने के क्या प्रभाव होंगे। न केवल शिक्षा जैसे विषय को राज्य सूची से समवर्ती सूची में डालने से, अपितु तथाकथित केंद्र प्रायोजित योजनाओं में तीव्र वृद्धि द्वारा भी केंद्र सरकार ने राज्य सूची में घुसपैठ की है। राज्य विषयों पर ये केंद्रीय योजनाएं, जिनमें केंद्र द्वारा लगाए गये कठोर निर्देश होते हैं, वित्तीय निहितार्थों के अतिरिक्त राज्य की स्वायत्तता एवं उनके विकास अधिमानताओं को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त, समवर्ती सूची के तहत् विषयों के क्षेत्रों पर संघ-राज्य के बीच परामर्श करने का कोई औपचारिक संस्थागत ढांचा नहीं है।
संधि करने की शक्ति: संधि करने की शक्ति के संबंध में वर्तमान संविधानिक योजना, जो विशिष्ट रूप से संघीय कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में है, पर तुरंत समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय संधि के लिए विधायी प्रतिबंध लगाने पर संविधान में संशोधन किए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त, विश्व व्यापार संगठन समझौते जैसी कई अंतर्राष्ट्रीय संधियां राज्यों के लिए गंभीर निहितार्थों वाली होती हैं, विशेष रूप से कृषि जैसे राज्य सूची के विषय के संदर्भ में।
अखिल भारतीय सेवाएं: अखिल भारतीय सेवाएं केंद्र के विशिष्ट अधिकार क्षेत्र में हैं। कुछ शक्तियां राज्यों के साथ बांटी जा सकती हैं। राज्य सरकारों की अखिल भारतीय सेवाओं के नियमों एवम विनियमों के प्रशासन में विशिष्ट रूप से एक बड़ी भूमिका होनी चाहिए।
वित्तीय मुद्दे
भारत में राजस्व संघवाद हमेशा से बेहद समस्यात्मक रहा है। लम्बवत् एवं क्षैतिज असंतुलन ने केवल अभी तक बने हुए हैं, अपितु कई मामलों में अधिक जटिल भी हो गए हैं।
लम्बवत् असंतुलन: संघ-राज्य संबंधों के संदर्भ में भारतीय संविधान में आधारभूत असंतुलन इस तथ्य से पैदा होता है कि, जबकि विकास व्यय (सिंचाई, सड़क, ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि) और प्रशासनिक व्यय (कानून व्यवस्था, सामान्य प्रशासन इत्यादि) क्षेत्रों में बड़ी जिम्मेदारियां राज्यों को दी गई हैं, राजस्व संग्रहण की बेहद महत्वपूर्ण शक्ति केंद्र को दी गई है।
अपर्याप्त राजस्व वितरण: केन्द्रीय करों के राज्यों को आवंटन के एक निष्पक्ष सिद्धांत पर कार्य करने की बेहद आवश्यकता है।
करारोपण की अवशिष्ट शक्तियां: राज्य करारोपण की अवशिष्ट शक्तियों को, विशिष्ट रूप से सेवाओं पर कर, राज्य को हस्तांतरित करने की न्यायसंगत मांग करते रहे हैं। इस मांग को दरकिनार करते हुए, केंद्र ने संविधान संशोधन द्वारा सेवाओं पर कर लगाने की समस्त शक्तियां प्राप्त कर लीं।
वित्त आयोग के माध्यम से शर्तों का आरोपण: 11वां वित्त आयोग केंद्रीय राजस्व में राज्यों के हिस्से को 29.5 प्रतिशत से अधिक अनुशंसित करने या ऋण राहत देने में विफल हो गया। 12वें वित्त आयोग ने भी राज्यों पर विभिन्न शर्तों को थोपा, उनमें से एक थी कि, राज्यों को ऋण राहत और केंद्र से कर पुनर्संरचना प्राप्त करने के लिए राजस्व उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम को लागू करना होगा।
राज्य लघु बचत कोष ऋण: केंद्र के ऋण लघु बचत संग्रहण (राष्ट्रीय बचत योजना कोष) से सम्बद्ध होते हैं जिसमें विशेष भार पड़ता है क्योंकि राज्यों से संघ सरकार द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज दर बेहद ऊंची होती है अपेक्षाकृत जमाकर्ता को दी जाने वाली ब्याज दर के बराबर। राज्यों ने बारहवें वित्त आयोग को इस बारे में समाधानपरक उपाय सुझाने के लिए गुहार लगाई। हालांकि, राज्यों की किसी भी बड़ी समस्या को तवज्जो नहीं दी गई।
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