निजीकरण पर निबंध
किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था मुख्यतः दो क्षेत्रों से संचालित होती है – सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र । स्वतंत्रता के तुरन्त बाद तत्कालीन परिस्थितियों में निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में ज्यादा मजबूत नहीं था, इसलिए अर्थव्यवस्था के सर्वांगीण विकास के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को ही आधार बनाया गया ।
परन्तु बाद में 1956 में बनी औद्योगिक नीति से प्रेरणा लेकर निजी क्षेत्र की उपलब्धियों में काफी सुधार आया और यह क्षेत्र विकास के पथ पर निरन्तर बढ़ता रहा । सातवीं पंचवर्षीय योजना की समाप्ति तक सार्वजनिक उपक्रमों में पूंजी निवेश की मात्रा लगातार बढ़ाने के बावजूद उनके कार्य किए जाने तथा लगातार हो रहे घाटे ने इनकी सार्थकता पर ही प्रश्न चिह्न खड़े कर दिए । सार्वजनिक इकाइयों की इन समस्याओं तथा परिसीमनों ने ही निजीकरण की जरूरत पैदा की ।
निजीकरण का अभिप्राय यह है कि आर्थिक क्रियाओं में सरकारी हस्तक्षेप को उत्तरोत्तर कम किया जाय, प्रेरणा और प्रतिस्पर्धा पर आधारित निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाय, सरकारी खजाने पर बोझ बन चुक अलाभकारी सरकारी प्रतिष्ठानों को विक्रय अथवा विनिवेश के माध्यम से निजी स्वामित्व एवं नियंत्रण को सौंप दिया जाय, प्रबन्धन की कुशलता को सुनिश्चित करने के लिए सरकारी प्रतिष्ठानों में निजी निवेशकों की सहभागिता बढ़ायी जाए और नये व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना करते समय निजी क्षेत्र को प्राथमिकता दी जाए । दूसरे शब्दों में निजीकरण राष्ट्रीयकरण का प्रतिलोम भी है ।
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वैश्वीकरण के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था को सक्रिय रूप से शेष विश्व से जोड़ा जाता है. इसके लिए आयतों पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटाए जाते हैं तथा सीमा शुल्कों की दरों को वैश्विक स्तर पर लाकर घरेलू अर्थव्यवस्था को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने पर बल दिया जाता है । विदेशी तकनीकी सहयोग, विदेशी प्रपत्र निवेश एवं पोर्टफोलियो निवेश के अन्तर्प्रवाह को काफी कड़ी सीमा तक मुक्त किया जाता है ।
सामान्यतया निजीकरण को ऐसी आर्थिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है जिसके द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के किसी उपक्रम को पूर्णतया या अंशतया निजी स्वामित्व और नियंत्रण में लाया जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में नये उपक्रमों को सार्वजनिक क्षेत्र की बजाय निजी क्षेत्र में स्थापित करना तथा विनियमन और उदारीकरण के माध्यम से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक-से-अधिक निवेश करने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना भी निजीकरण है ।
जो क्षेत्र और जिन वस्तुओं के उत्पादन पहले केवल सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, उन क्षेत्रों और उन वस्तुओं के उत्पादन से सार्वजनिक क्षेत्र को वंचित कर देना या उन्हें वंचित किये बिना ही उन विधाओं में निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति प्रदान कर देना भी निजीकरण है ।
निजीकरण की परिधि में आर्थिक सुधारों के अनेक कार्यक्रम आते हैं, जैसे- सार्वजनिक क्षेत्र के किसी उपक्रम का समापन, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आवश्यक वस्तुओं की अपूर्ति हेतु निजी क्षेत्र के साथ अनुबन्ध करना, सार्वजनिक प्रतिष्ठान पडे पर निजी क्षेत्र को देना, बुनियादी क्षेत्र की किसी परियोजना का निर्माण एवं परिचालन किसी निजी अभिकरण से कराना, निजी क्षेत्र की कम्पनियो के कुशल एवं अनुभवी प्रबन्धकों को सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी के संचालक मंडल में शामिल करना ।
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व्यापार, वित्त एवं प्रौद्योगिकी के स्वतंत्र प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए उदारीकरण और भूमडलीकरण की दिशा में अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के प्रति अनुकूल रवैया अपनाना तथा जनोपयोगी सेवाओं के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति देना भी निजीकरण के अतर्गत आते हैं ।
प्रत्येक देश की अपनी अलग समस्याएँ होती है और उन समस्याओं के निराकरण के लिए वह देश निजीकरण की अपनी अलग कार्य योजना तैयार करता है । ऐसी स्थिति में विभिन्न देशों के लिए निजीकरण का अलग-अलग उद्देश्य होना स्वाभाविक है ।
फिर भी निजीकरण के कुछ उद्देश्य ऐसे हैं जी सभी देशों के लिए एक समान होते हैं, जैसे-अधिक कार्यकुशलता और उत्पादकता, शिक्षित एवं उद्यमशील युवाओं को अवसर प्रदान करके रोजगार में वृद्धि, राजकोषीय सन्तुलन को बिगाड़ने वाले घाटे वाले सरकारी उपक्रमों को समाप्त करके राजकोषीय घाटे में कमी, आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाकर कर एवं कर-इतर राजस्व में वृद्धि, निर्यात प्रोत्साहन के माध्यम से विदेशी मुद्रा की आय में वृद्धि विदेशी ऋणों पर निर्भरता में कमी, प्रौद्योगिकी का उन्नयन विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकजुटता, विशाल औद्योगिक परियोजनाओं में निवेश करने की बजाय सामाजिक क्षेत्रों के लिए साधनों की बचत तथा देश के स्वल्प साधनों का सर्वोत्तम एवं कुशल उपयोग ।
अल्पकालीन राजस्व की उगाही अथवा राजकोषीय घाटे को पूरा करने के उद्देश्य से निजकरण का प्रमुख उद्देश्य तो अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में कुशलता और प्रतिस्पर्धा का संचार करना है । विनिवेश के माध्यम से प्राप्त धन का उपयोग बीमार सार्वजनिक उपक्रमों के पुनर्गठन, ऋणों की अदायगी तथा बुनियादी एवं सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए किया जाता है ।
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लेकिन अच्छा तो यह होगा कि इस धन का उपयोग प्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा अथवा निजी क्षेत्र के माध्यम से केवल घाटे वाले सार्वजनिक उपक्रमों को लाभकारी बनाने के लिए किया जाये । बुनियादी क्षेत्र के लिए निजी निवेशकों को आमंत्रित किया जा सकता है और ऋण की अदायगी तथा सामाजिक क्षेत्र के लिए अन्य स्रोतों का उपयोग किया जा सकता है ।
सामाजिक क्षेत्र में गैर सरकारी संगठनों तथा स्वयं सेवी संस्थाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो सकती है । यह चिन्ता का विषय है कि लघु उद्योगों के लिए आरक्षित कई क्षेत्रों को अनारक्षित कर दिया गया है । सकल घरेलू उत्पाद, निर्यात और रोजगार में लघु एवं कुटीर उद्योग के योगदान को देखते हुए इन्हें पूर्ण संरक्षण देना आवश्यक है, यह नहीं भूलना चाहिए कि सार्वजनिक क्षेत्र केवल लाभ के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक हितों के संवर्धन के लिए भी काम करता है ।
जहाँ तक विनिवेशों का प्रश्न है, तो इसे निजीकरण का एकमात्र अस्त्र नहीं समझना चाहिए । भारत में विनिवेश के अतिरिक्त निजीकरण के उन अस्त्री को भी आजमाने की जरूरत है जो अभी तक नहीं आजमाये गये हैं । जहाँ तक निजीकरण के औचित्य का प्रश्न है, तो वास्तविकता यह है कि आज निजीकरण प्रत्येक देश की अर्थनीति का एक अभिन्न अंग बन चुका है ।
कुछ वर्षा पूर्व तक जो दश पूर्ण राजकीय स्वामित्व वाली केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था चला रहे थे उन देशों में भी निजीकरण की प्रक्रिया जोर पकड़ने लगी है क्योंकि राजकीय स्वामित्व और केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था असफल साबित हुई और उन देशी को आर्थिक बदहाली के कारण के रूप में इन्हें देखा जाने लगा ।
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सरकारी स्वामित्व और नियंत्रण वाले व्यवसाय और उद्योग के सम्बन्ध में भारत जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश का अनुभव भी अच्छा नहीं रहा । स्वतंत्र बाजार वाली अर्थव्यवस्था में विश्वास करने वाले देशों में पहले से ही निजी क्षेत्र की प्रमुखता थी, फिर भी कृषि, उद्योग एवं सेवा-क्षेत्र का जो हिस्सा सरकारी नियंत्रण में था उनसे अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हुए और उन्हें निजी क्षेत्र के हवाले करना पड़ा ।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की उपर्युक्त कमियों और कमजोरियों के कारण इस क्षेत्र के अधिकतर उपक्रम घाटे में चल रहे हैं अथवा अच्छी स्थिति में नहीं है । फलतः ये सरकारी खजाने और वस्तुतः देश के करदाता पर बोझ बन गये हैं और अनिश्चितकाल तक राजकोषीय सहायता पर इनका सम्पोषण नहीं किया जा सकता है ।
अलाभकारी प्रतिष्ठानों के सरकारी सम्पोषण के फलस्वरूप राजकोषीय घाटे में वृद्धि होती है और देश की अर्थव्यवस्था को स्वभावतः प्रतिकूल परिणाम भुगतना पड़ता है । निजीकरण के माध्यम से इस स्थिति से निजात् मिल सकती है, अलाभकारी सरकारी उपक्रमों से वे सामाजिक और कल्याणकारी उद्देश्य पूरे नहीं हो सके जिनके लिए इनकी स्थापना हुई थी ।
राष्ट्रीयकरण का अस्त्र समय की कसौटी पर खरा नहीं उतरा । सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार के लिए अब तक जो भी प्रयत्न किये गये वे सफल नहीं हो पाये और अब यह महसूस किया जा रहा है कि इन्हें पटरी पर लाने के प्रयास के बजाय इनका स्वामित्व और संचालन निजी क्षेत्र के सुपुर्द कर देने में ही देश का हित है ।
सरकार के संसाधन सीमित हैं और उसे अनेक ऐसे दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता है, जिन्हें निजी क्षेत्र द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता, केवल सार्वजनिक क्षेत्र के दुर्गुणों के कारण ही निजीकरण आवश्यक नहीं है, बल्कि इसलिए भी आवश्यक है कि इसमें अभिप्रेरण, प्रतिस्पर्धा, आधुनिकतम प्रौद्योगिकी, पर्याप्त पूंजी और कुशल प्रबन्धन जैसे गुण निहित हैं ।
इन सभी तत्वों एवं गुणों का सार्वजनिक क्षेत्र में सर्वथा अभाव होता है । इसके अतिरिक्त उदारीकरण और निजीकरण की वर्तमान विश्वव्यापी दौड़ में भारत मुख्य धारा से अलग रहने का दुःसाहस नहीं कर सकता है क्योंकि ऐसा करना आत्मघाती होगा और इससे मुंह मोड़ने का अर्थ होगा खुद को दुनिया से अलग-अलग कर देना ।
निजीकरण का उद्देश्य केवल उत्पादकता और लाभदायकता में सुधार करने तक ही सीमित नहीं है । इन उद्देश्यों की पूर्ति से तो केवल अंशधारी या निवेशक लाभन्वित होंगे । निजीकरण का लाभ उपभोक्ताओं को भी प्राप्त होना चाहिए । यह तभी संभव है जब उन्हें उच्च स्तर की वस्तु और सेवा कम कीमत पर उपलब्ध हो ।
अपेक्षाकृत गरीब उपभोक्ताओं के लिए विभेदात्मक न्यून कीमत की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उपभोक्तावाद की वर्तमान संस्कृति में वे भी अपने रहन-सहन के स्तर को यथासंभव नया आयाम दे सकें । निजीकरण के कार्यक्रम न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप, विनियमन और उदारीकरण के वातावरण में चलाये जाते हैं ।
अर्थव्यवस्था बाजारोन्मुखी और अति प्रतिस्पर्धात्मक हो जाती है और इसका स्वाभाविक लाभ उपभेक्ताओं को प्राप्त होता है । फिर भी बाजार तक अल्प आय वर्ग के उपभोक्ताओं की पहुँच कठिन होती है । माँग के आधार को विस्तृत करने के लिए भी यह आवश्यक है कि उच्च एवं मध्य आय-वर्ग के उपभोक्ताओं के साथ-साथ निम्न आय वर्ग के उपभोक्ताओं के लिए भी अधिक-से-अधिक वस्तुएँ एवं सेवाएँ सुलभ हों ।
निजीकरण की दौड़ में विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी का आगमन होता है और उत्पादन प्रणाली में श्रमिकों का महत्व क्रमशः घटने लगता है क्योंकि पूँजी-प्रधान तकनीकों से उत्पादन में वृद्धि करने की लागत का खर्च अपेक्षाकृत कम होता है । उन्नत उपकरणों के प्रयोग के कारण नियोजित श्रमिकों की उत्पादन-क्षमता बढ़ जाती है, लेकिन रोजगार के नए अवसरों का सृजन नहीं हो पाता है ।
अर्थात् जिस अनुपात से उत्पाद में वृद्धि होती है, उस अनुपात से रोजगार में वृद्धि नहीं होती है । लेकिन यह ध्यान देने की बात है कि संगठित क्षेत्रों और बड़े पैमाने के उद्योगों में भले ही रोजगार के कम अवसर उत्पन्न हों, निजीकरण के वातावरण में उद्यमशील प्रशिक्षित युवाओं के लिए स्वरोजगार की अपार सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं ।
जो भी हो निजीकरण के फलस्वरूप विस्थापित कामगारों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराने अथवा पर्याप्त क्षतिपूर्ति उपलब्ध कराने के लिए सरकार को कारगर कदम उठाना चाहिए । उपर्युक्त उद्देश्यों के अतिरिक्त निजीकरण का एक प्रमुख उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की कार्यक्षमता में सुधार करना भी है । जब सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है तो उसे अपनी कार्यक्षमता में सुधार करने के लिए विवश होना पडता है ।
साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार समाप्त हो जाता है और उपभोक्ताओं को इसका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ प्राप्त होता है । आज निजीकरण आर्थिक सुधार का एक विश्वव्यापी कार्यक्रम बन गया है । यह कार्यक्रम यूरोप, अमेरिका और जापान तक ही सीमित नहीं है, बल्कि साम्यवाद का परित्याग कर प्रजातांत्रिक पद्धति अपनाने वाले देशों और विकासशील देशों में भी अपनाया जा रहा है ।
विलम्ब से ही सही, किन्तु भारत ने भी निजीकरण के सिद्धान्त को अपनाया है । हालांकि राजनीतिक विरोध और वैचारिक मतभेदों के कारण निजीकरण की गति धीमी है, लेकिन इस कार्यक्रम को तेजी से लागू करने के प्रयास लगातार चल रहे हैं ।
यह प्रयास 1991 में प्रारम्भ हुआ जब परम्परागत औद्योगिक एवं आर्थिक नीति को छोड्कर उदारीकरण और निजकरण पर आधारित नई आर्थिक नीति को अपनाया गया । 1991 की नई आर्थिक नीति के साथ ही भारत में उदारीकदण और निजीकरण का शंखनाद हुआ ।
अब भारत में इस बात पर सर्वानुमति है कि सरकार को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से दूर रहना चाहिए । इसके दो प्रमुख कारण है । एक तो यह कि सरकार के पास संसाधनों की कमी है और दूसरा यह कि सार्वजनिक क्षेत्र के कई प्रतिष्ठान अकुशल हैं ओर घाटे पर चल रहे हैं ।
यदि भारत में नजीकरण के तरीके पर दृष्टिपात किया जाए तो स्पष्ट होता है कि यहाँ विनिवेश ही निजीकरण का मुख्य आधार रहा है। विनिवेश के माध्यम से सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर स्वदेशी या विदेशी निजी निवेशकों के हाथ बेचे जाते हैं ।
वर्ष 1991-92 से 2001-2002 तक कुल मिलाकर, 65,300 करोड रूपये विनिवेश के माध्यम से अर्जित करने का लक्ष्य रखा गया, जबकि सिर्फ 191435 करोड़ रूपये (अक्टूबर 2001 तक) वास्तव में प्राप्त किये जा सके । कई कमजोर सार्वजनिक उपक्रमों के शेयरों को खरीदने के लिए निजी निवेशक तैयार नहीं हुए ।
मूल्यांकन के आधार के सम्बन्ध में कई विवाद उत्पन्न हुए तथा लाभ पर चलने वाले सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश का तीव्र विरोध हुआ । विनिवेश का उद्देश्य केवल सार्वजनिक उपक्रमों की प्रबन्ध क्षमता और लाभार्जन क्षमता में वृद्धि करना ही नहीं हैं, बल्कि इसका उद्देश्य आवश्यक कार्यों के लिए वित्तीय साधन उपलब्ध कराना भी है ।
लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत में निजीकरण का कार्यक्रम विनिवेश तक ही सीमित है । औद्योगिक एवं व्यावसायिक लाईसेन्स की नीति, विदेशी विनिमय की नीति, आयात-निर्यात की नीति तथा कर-नीति को उदार बनाकर निजी क्षेत्र के निवेशकों को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है । अब निजी क्षेत्र के किसी प्रतिष्ठान के राष्ट्रीयकरण की बात नहीं हो रही है ।
रेल और सुरक्षा क्षेत्र को छोड्कर अन्य सरकारी प्रतिष्ठानों के शेयर निजी निवेशकों के हाथ बेचे जा रहे हैं या उन पर विचार किया जा रहा है । कई क्षेत्र शत-प्रतिशत निवेश के साथ विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिए गए हैं, अन्य क्षेत्रों में विदेशी निवेशकों की भागीदारी में उत्तरोत्तर वृद्धि की जा रही है ।
भारतीय निवेशकों के साथ मिलकर विदेशी निवेशक काफी संख्या में संयुक्त उपक्रम स्थापित कर रहे हैं । सरकारी क्षेत्र में कोई नया औद्योगिक या व्यावसायिक उपक्रम स्थापित नहीं किया जा रहा है और जो उद्योग एवं व्यवसाय सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे ।
उनमें से कई अब अनारक्षित कर दिये गये हैं और निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति प्रदान कर दी गई है । बीमा और बैंकिंग व्यवसाय के द्वार भी निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए है । विगत कई वर्षा से ऐसा लगने लगा है कि केन्द्र सरकार अपने राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए निजीकरण की प्रक्रिया को तेजी प्रदान करने के प्रयास कर रही है ।
लेकिन जब सरकार ने लगातार लाभ अर्जित करने वाले अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित सार्वजनिक उपक्रमों-बाल्को सी.एम.सी. विदेश संचार निगम लि., आईबीपी का निजीकरण किया, उससे अब सरकार की नीयत पर सन्देह होने लगा है । इसी के चलते सरकार द्वारा लाभ अर्जित करने वाले अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण का देश में भारी विरोध हो रहा है ।
निजीकरण के संबंध में एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि निजीकरण की प्रक्रिया की तेज करते समय स्वदेशी उद्योग के हितों पर ध्यान देना बेहद आवश्यक है । पूंजी और प्रौद्योगिकी के मामले मैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करना स्वदेशी उद्योगपतियों के लिए अभी भी कठिन है ।
यह सही है कि प्रतिस्पर्धा की चुनौतियों के कारण स्वदेशी उपक्रमी की कार्यकुशलता में निखार आता है और उपभोक्ता इससे लाभन्वित होते है । फिर भी जिन क्षेत्रों में स्वदेशी प्रतिष्ठानों का निष्पादन संतोषप्रद है, उन क्षेत्रों में विदेशी प्रतिस्पर्धा के सामने उन्हें खडा नहीं करना चाहिए । विनिवेश करते समय स्वदेशी निवेशकों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए ।
निजीकरण के संदर्भ में भारत में दो प्रमुख मुद्दों पर विवाद उत्पन्न होते रहते हैं । एक तो यह कि बेचे जाने वाले हितों का सही मूल्यांकन नहीं होता है, और अपेक्षा से कम मूल्य पर सरकारी शेयर बेच दिये जाते हैं, विवाद का दूसरा मुद्दा यह होता है कि जो सरकारी उपक्रम काफी अच्छे परिणाम प्रदर्शित कर रहे हैं, उनका निजीकरण होना चाहिए अथवा नहीं ।
चूंकि हानि पर चलने वाले उपक्रमों के शेयरों में निजी निवेशक रुचि नहीं रखते हैं और विनिवेश के माध्यम से धन जुटाना आवश्यक होता है, इसलिए अच्छे उपक्रमों के विनिवेश से अधिक मात्रा में धन प्राप्त होने की सम्भावना रहती है, लेकिन रूपण सरकारी उपक्रमों को नव-जीवन प्रदान करना भी आवश्यक है और इसके लिए निजी क्षेत्र के निवेशक तभी आगे आ सकते है जब विक्रय योग्य सम्पत्ति के मूल्य में उन्हें पर्याप्त रियायत दी जाये और उपक्रम को स्वस्थ बनाने की योजना को मूर्त रूप देने में उन्हें अपेक्षित वित्तीय एवं अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाए ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यदि निजीकरण के प्रति सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाया जाये तो इसके औचित्य पर शायद ही कोई प्रश्नचिन्ह खड़ा करेगा । सरकार के संसाधन सीमित हैं और उसे गैर-योजना मंदी पर भारी खर्च करने पड़ते हैं ।
साथ ही, रक्षा सामग्रियों के उत्पादन और आयात, बुनयादी एवं सामाजिक क्षेत्रों के विकास एवं अनुसंधान एवं विकास कार्यों में निवेश के लिए सरकार को विपुल संसाधनों की आवश्यकता होती है । इन्हीं क्षेत्रों पर सरकार को अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और व्यापार, उद्योग तथा सेवा-क्षेत्र में निवेश की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को सौंप देनी चाहिए । निजीकरण अथवा सार्वजनिक क्षेत्र में से किसी के भी प्रति आग्रही दृष्टिकोण रखना ठीक नहीं होगा, बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ यदि चलना है तो दोनों के बीच समन्वय बेहद जरूरी है ।
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