नेत्र दोष
वर्णों के प्रत्यक्ष ज्ञान का परीक्षण कई विधियों से किया जाता है, जिनमें लैंटर्न परीक्षण, हॉल्मग्रेन (Holmgren) का ऊन और इशिहारा (Ishihara) चार्ट पद्धति लोकप्रिय हैं।
अनेक प्रकार के दृष्टिदोषों का विवेचन करने से पहले सामान्य दृष्टि की सीमाओं को समझ लेना आवश्यक है। दृष्टि को तभी सामान्य कहा जाता है, जब दृष्टि के सभी पहलू सामान्य हों। यदि स्नेलेन (Snellen) परीक्षण टाइप पर छह मीटर पंक्ति को छह मीटर की दूरी से व्यक्ति पढ़ ले तो दूरदृष्टि सामान्य होती है। निकट दृष्टि की सामान्य सीमा जे1 (J1), जेगर (Jaiger) परीक्षण टाइप को पढ़ने की दूरी है। इन दो महत्वपूर्ण पहलुओं के अतिरिक्त वर्णदृष्टि, दृष्टि के परिधिस्थ और केंद्रीय क्षेत्र तथा अंधेरा अभ्यनुकूलन में कोई असामान्यता नहीं होनी चाहिए।
दृष्टिदोष के कारण अनेक हो सकते हैं, लेकिन कुछ कारण व्यापक हैं, अत: उनका विवेचन आवश्यक है। मोटे तौर पर दृष्टिदोष के कारणों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : (1) क्रमिक उद्भव (gradual onset) के दृष्टिदोष और (2) अचानक उद्भव (sudden onset) के दृष्टिदोष।
इस वर्ग में ऐसी स्थितियाँ समाविष्ट हैं, जिनका उद्भव यहाँ तक क्रमिक होता है कि व्यक्ति का ध्यान उसकी ओर जाता ही नहीं और महीनों, या कभी कभी बरसों, बाद दृष्टि का ह्रास होना स्पष्ट होता है। इसके प्रकारों का वर्णन निम्नलिखित है :
आँखों की वह स्थिति है, जिसमें प्रकाश की समांतर किरणें दृष्टिपटल की संवेदनशील परत पर तब फोकस होती हैं जब आँखे विश्राम की स्थिति में रहती हैं। अधोलिखित स्थितियाँ विशेष महत्वपूर्ण हैं :
(Myopia) या निकट दृष्टि वह है, जिसमें आँखों के विश्राम की स्थिति में प्रकाश की समांतर किरणें दृष्टिपटल की संवेदनशील परत के सामने फोकस होती हैं। निकट दृष्टि प्राय: अक्षीय होती है, अर्थात् इसका कारण आँख के अग्रपश्च (anteroposterior) व्यास में वृद्धि होती है। स्वच्छमंडल (cornea) की वक्रता, या लेंस के अग्र या पश्च पृष्ठ में वृद्धि के कारण भी यह दोष उत्पन्न हो सकता है। माध्यम का वर्तनांक (refractive index) भी वर्तन को प्रभावित कर सकता है। लेंस के वर्तनांक का व्यावहारिक महत्व सर्वाधिक है। लेंस के वल्क (cortex) के वर्तनांक में ह्रास या केंद्रक (nucleus) के वर्तनांक में वृद्धि होने से भी निकट दृष्टि हो सकती है। कुल मिलाकर निकट दृष्टि दो प्रकार की होती है - कायिक और रोगविज्ञान संबंधी।
कायिक दोष छह डायॉप्टर से कम और स्वभावत: अप्रगामी (nonprogressive) होता है। लेंसों से दोष में पूरा पूरा सुधार होता है। रोगविज्ञानात्मक निकट दृष्टि अपकर्षी (degenerative), प्रगामी और बहुत कुछ आनुवंशिक होती है। वर्तनदोष अंततोगत्वा 15 और 25 डायॉप्टर के मध्य रहता है। इसके बाद बुध्न में अपकर्षी परिवर्तन होने लगता है, जिससे दृष्टि का स्थायी ह्रास इस सीमा तक हो सकता है कि दृष्टिपटल के बिलगाव के कारण दृष्टि संपूर्ण रूप से नष्ट हो जाए।
दूरदृष्टि या (Hypermetropia) में आँख के विश्राम की स्थिति में, प्रकाश की समांतर किरणें दृष्टिपटल की संवेदनशील परत से कुछ पीछे फोकस होती हैं।
दूरदृष्टि प्राय: अक्षीय होती है, अर्थात् आँख के अग्रपश्च अक्ष का छोटा होना इसका निर्णायक कारण होता है। यह स्थिति व्यापक है और सामान्य विकास की एक अवस्था भी है। जन्म के समय सभी की आँख दूरदृष्टिक (hypermetreopic) होती है। शरीर के विकास के साथ साथ किशोरावस्था व्यतीत होते होते सिद्धांतत: आँखों को निर्दोषदृष्टिक हो जाना चाहिए, लेकिन कुछ व्यक्तियों की दूरदृष्टि बनी रह जाती है।
जब वर्तक पृष्ठों की वक्रता अनुचित रूप से कम होती है (वक्रतादूरदृष्टि), या केंद्रक का वर्तनांक निम्न होता है, तब सूचक दूरदृष्टि उत्पन्न होती है। इसमें बुध्न विशेष परिवर्तित नहीं होता और व्यक्ति की दूरदृष्टि और निकटदृष्टि, दोनों में विकर हो सकता है। यह स्थिति उपयुक्त उत्तल लेंसों से संपूर्ण रूप में सुधर जाती है।
अबिंदुकता या (Astigmatism) वर्तन की ऐसी अवस्था है, जिसमें दृष्टिपटल पर प्रकाश का बिंदु-फोकस नहीं बन पाता। सिद्धांतत: कोई आँख बिंदवीय (stigmatic) नहीं होती। वक्रता की त्रुटि, संकेंद्रण (centering) या वर्तनांक की त्रुटि के कारण अबिंदुकता हो सकती है। यह स्थिति बिंबों को विकृत करके आँखों के तनाव के अनेक लक्षण उत्पन्न करती है। यह दोष नियमित या अनियमित दोनों हो सकता है। नियमित दोष को बेलन लेंस से और अनियमित को संस्पर्शी लेंस से ठीक किया जा सकता है।
जराकालीन मोतियाबिंद या (Senile Cataract) नेत्र के लेंस या उसके संपुट (capsule) में विकास की अवस्था में उत्पन्न या अर्जित हर प्रकार की पारांधता है, जो निर्मित लेंस के रेशों के अपकर्षण (degeneration) से होती है। अपकर्षण का कारण अभी तक अस्पष्ट बना हुआ है। संभवत: भिन्न भिन्न व्यक्तियों को भिन्न भिन्न कारणों से अपकर्षण होता है। पानी और विद्युद्विश्लेष्य के अंत:कोशिक या बाह्यकोशिक संतुलन में बाधक, या रेशों के कलिल तंत्र को अव्यवस्थित करनेवाला कोई रासायनिक या भौतिक कारक, अपारदर्शिता उत्पन्न करता है।
जीवरसायन के अनुसार दो कारक इस प्रक्रिया में स्पष्ट हैं। पहला कारक, प्रारंभिक अवस्था में जलयोजन (hydration) है और दूसरा बाद की अवस्था में रेशों के अंदर स्थित कलिल तंत्र में परिवर्तन है। पहले प्रोटीनों का तत्वविकिरण (denaturization) होता है और बाद में ये घनीभूत (coagulated) हो जाते हैं।
मोतियाबिंद की तीन अवस्थाएँ होती हैं : अपरिपक्वता, परिपक्वता और अतिपक्वता। इन अवस्थाओं को व्यतीत होने में दो तीन वर्ष या अधिक समय लग सकता है। व्यक्ति दिन दिन दृष्टि के अधिकाधिक ह्रास की शिकायत करता है। व्यक्ति में एकनेत्री (uniocular), द्विदृष्टि (diplopia) या बहुभासी दृष्टि भी उत्पन्न हो सकती है और वह कृत्रिम प्रकाश के चतुर्दिक् रंगीन प्रभामंडल (halo) देखने लगता है।
मोतियाबिंद के निकाल देने और उपयुक्त लेंस के उपयोग से दृष्टि को इस स्थिति से मुक्त किया जा सकता है।
दीर्घकालिक साधारण ग्लॉकोमा या (Chronic Simple Glaucoma) ग्लॉकोमा लक्षणात्मक अवस्था है। यह कोई स्वतंत्र बीमारी नहीं है। इसका प्रमुख लक्षण अंतरक्षि (intraocular) दाब की वृद्धि है। नेत्रगोलक का सामान्य तनाव पारे के 18 मिमी. से 25 मिमी. तक हो सकता है और यह नेत्रगोलक के शरीर और शरीरक्रियात्मक (physiological) कर्मों को प्रभावित नहीं करता। अंतरक्षितनाव का कारण ठीक ठाक ज्ञात नहीं है, लेकिन संभवत: यह स्किलरोसिस (Sclerosis) तथा रंगद्रव्य (pigment) के परिवर्तनों से होता है, जो जलीय (aqueous) द्रव का प्रवाह कम कर देते हैं। तनाव बढ़ते रहने से ग्लॉकोमेटस कपिंग (glaucomatus cupping) और बाद में प्रकाश-अपक्षय (optic atrophy) होता है, जिससे रोगी की दृष्टि क्रमश: अधिकाधिक घटती जाती है। दृष्ट्ह्रािस को रोकने का एकमात्र उपाय यह है कि प्रारंभ में ही रोग का निदान करके शल्यचिकित्सा कर दी जाए।
प्रकाशतंत्र दृष्टि आवेगों को पश्चकपाल खंड (occipital lobe) को, जो दृष्टि के लिए मस्तिष्क का उत्तरदायी भाग है, पारेषित करता है। चलन गतिभंग (Tabes dorsalis) और उन्मादियों के सिफिलिसमूलक साधारण पक्षाघात जैसी अवस्थाओं से उत्पन्न मृदुतानिका (pial) संक्रमण के फलस्वरूप परितंत्रिकार्ति (perineuritis) होती है, जिससे तंत्रिका के रेशों का अपकर्षण होता है। रोग का निदान प्रारंभ में ही हो जाना चाहिए, यद्यपि उपचार से पूर्व लक्षणों में सुधार संतोषजनक नहीं होता।
इसे विषजन्य मंददृष्टि (Amblyopia) भी कहते हैं। इसके अंतर्गत अनेक अवस्थाएँ हैं। बहिर्जात (exogenous) विषों से, जिनमें तंबाकू, एथिल ऐलकोहल, मेथाइल ऐलकोहल, सीसा, संखिया, थैलियम, क्विनीन, अर्गट (ergot) पुं-पर्णांग (filix mas), कार्बन डाइ-सल्फाइड, स्ट्रैमोनियम (strammonium) तथा भाँग प्रमुख हैं, दृष्टितंत्रिका के रेशे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। इनमें से कुछ विष प्रारंभ में दृष्टिपटलीय रोग उत्पन्न करते हैं, जिससे बाद में दृष्टिपटल की गुच्छिकाकोशिकाएँ (ganglion cells) विषाक्त होती हैं और तंत्रिका रेशों का अपकर्षण होता है, जिनका निरूपण सुषिरफलक (lamina cribrosa) के पीछे मंदावरण (medullary sheath) के बन जाने पर ही संभव है।
यह एक द्विपार्श्वीय स्थिति है, जो अंततोगत्वा प्रारंभिक अपक्षय का रूप धारण करती है। प्रारंभ में ही निदान कर लेना और विषैले अभिकर्ता की रोक ही इसका उपचार है।
पहले इसका नाम रेटिनाइटिस पिगमेंटोज़ा था। यह दृष्टिपटल के मंद अपकर्षण का रोग है, जो प्राय: दोनों आँखों में होता है। इसका प्रारंभ शैशव में और समाप्ति प्रौढ़ या वृद्धावस्था में अंधेपन में होती है। यह रोग स्त्रियों से संप्रेषित होकर पुरुषों में फैलता है और प्रधानत: पुरुषों में ही पाया जाता है। अपकर्षण का प्रभाव प्रारंभ में दंडों और शंकुओं पर पड़ता है, खास कर दंडों पर। आँख के विषुव क्षेत्र के आस पास से प्रारंभ होकर यह क्रमश: अग्रत: और पश्चत: फैलता है। जब तक उपलक्षक केंद्रीय स्थिति में न हो जाए तब तक मैक्यूला प्रदेश बहुत समय तक प्रभावित नहीं होता है। ऐसी स्थिति में वाहिनियों में अस्थिकण जैसे पदार्थ फैल जाते हैं और बुध्न में वाहिका-स्क्लिरोसिस होता है। अंत में, स्थिति लगातार प्रकाश अपक्षय तक पहुँचती है।
प्रारंभिक अवस्था में व्यक्ति में दंडों के अपकर्षण से रतौंधी हो जाती है और बाद में पराकेंद्र या वलय अंधक्षेत्र (scotoma) बन जाता है। व्यक्ति अपनी दृष्टि दिन दिन अधिकाधिक दुर्बल पाता है और अंत में अंधा हो जाता है। इसका उपचार अत्यंत असंतोषजनक होता है।
रेटिनाइटिस पिंगमेंटोज़ा, साइन पिगमेंटो और रेटिनाटिस पंक्टेटा ऐलबिसीन्स (Retinitis Punctata Albiscenes) अन्य ऐसी स्थितियाँ हैं जिनका रोगेतिहास और लक्षण ऐसा ही होता है।
इन मुख्य अवस्थाओं के अतिरिक्त ट्रैकोमेटस कॉर्निआ अपारदृश्यता, जराकालीन मैक्यूला अपकर्षण आदि से भी दृष्टि का क्रमिक ह्रास हो सकता है।
इसके अंतर्गत उन अवस्थाओं का अध्ययन होता है, जिनका उद्भव तीव्रता से या आकस्मिक रूप से होता है। कुछ अवस्थाओं में समुचित उपचार से सफलता मिलती है, लेकिन अन्य अवस्थाओं में दृष्टि की स्थायी हानि होती है। कुछ सामान्य अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं :
यह दोष 50-60 वर्ष की वय की स्त्रियों को ही प्रधानत: होता है। इससे कम वय में भी यह हो सकता है। यह खासकर उन व्यक्तियों को होता है जो स्वभाव से उद्वेगी और सिंपैथिटिकोटोनिक (sympatheticotonic) होते हैं और बाहिकाप्रेरक (vasomotor) अभिक्रिया में अस्थिरता तथा अनुकंपी और परानुकंपी (parasympathetic) तंत्रों में संतुलन का अभाव प्रदर्शित करते हैं। यह अवस्था अंत में प्राय: दीर्घदृष्टि संकीर्ण कोण आँख में हो जाती है, अत: इसे संकीर्ण कोण ग्लॉकोमा या संवृत कोण (closed angle) ग्लॉकोमा भी कहते है। आँख संकुलित हो जाती है और बड़ी पीड़ा देती है। इसमें दोनों आँखें प्रभावित हो सकती हैं। प्रतिकार्बोनिक निर्जलीय औषधियाँ तथा शल्यचिकित्सा इसका उपचार है।
दृष्टितंत्रिकाशीर्ष (Papillitis), दृष्टितंत्रिका का अंत:करोटि (intracranial), या आंतरकक्षीय (intraorbital), भाग या स्वस्तिका (chiasma) को प्रभावित करनेवाली अवस्थाएँ अकस्मात् दृष्टि को नष्ट कर देती है। प्राय: ये अवस्थाएँ अकस्मात् दृष्टि को नष्ट कर देती है। प्राय: ये अवस्थाएँ एक पार्श्वीय होती हैं और युवावस्था में होती हैं। इसका प्रारंभ केंद्रीय या पराकेंद्रीय अंधबिंदु (scotoma) से होता है। पैपिलाइटिस में बुध्न अक्षिबिंब पर मल (ordure) के चिन्ह प्रदर्शित करते हैं। इसके अतिरिक्त कोई और खास परिवर्तन नहीं होता। मधुमेह परानासविवर (paranasal sinusites), विकीर्णित स्क्लिरोसिस (disseminated sclerosis) तथा क्षतज संक्रमण (focal infections) जैसे रोग इसके ज्ञात कारण हैं। ऐसी परिस्थिति में पूर्वलक्षण अच्छे समझे जाते हैं।
यह वह अवस्था है, जिसमें नेत्रगोलक के पश्च खंड में रक्त भर जाने से अचानक दृष्टिह्रास होता है। इसके अनेक कारण हैं, जैसे ईलिस, हीमोफीलिस (haemophilis), रक्त दुरवस्था (blood dyscrasia), केद्रिय शिरा थ्राम्बोसिस (central veinous thrombosis), प्रवृद्ध अवस्था का रेटिनोपैथिक्स (Retinopathics), तीव्र रक्तक्षीणता तथा अन्य स्त्रवण (bleeding) की अवस्थाएँ। आघात संघट्टन (concussion) या वेधन (perforating) से भी तीव्र काचाभ रक्तस्त्राव संभव है। इन सभी अवस्थाओं में ईलिस रोग की स्थिति में विशेष सावधानी अपेक्षित है। अपेक्षित यह व्यापक रोग है, जो प्राय: 30 वर्ष के हृष्ट पुष्ट युवकों को हुआ करता है। इसकी हैतुकी (aetiology) अस्पष्ट है, लेकिन अनुमानत: क्षय और पूतिदूषण से होनेवाला पेरीफ्लेबिटिस (periphlebitis) इसका कारण समझा जाता है।
इसके प्रारंभिक दो तीन हमले खप जाते हैं, लेकिन इससे अधिक होने पर दृष्टि का स्थायी अभाव हो सकता है। उपचार के लिए क्षयावरोधी अथवा धनीभूत करनेवाली (coaguiant) दवाओं का प्राय: उपयोग किया जाता है।
दोनों दृष्टिपटलीय परतें (वास्तविक दृष्टिपटल और रंगद्रव्य उपकला) सामान्य अवस्था में परस्पर संनिधान (apposition) स्थिति में होती हैं और इनके बीच का सशक्त स्थान (potential space) प्रधान मौलिक स्फोटिका (original primary vesicle) को निरूपित करता है। इन परतों के अलग होने की घटना को दृष्टिपटल विलगन कहते हैं, जिसका कारण भी सरल है। मोटे तौर पर सरल और गौण विलगन ये दो प्रकार हैं। चाहे जिस कारण से क्यों न हो, रोगी को दृष्टि क्षेत्र के संगत भागों में दृष्टि के अचानक लोप का अनुभव हेता है। यदि इसका उपचार समय से न हो तो दृष्टि सदा के लिए नष्ट हो सकती है। दृष्टि की यह हानि अपक्षयमूलक परिवर्तनों की अपेक्षा कम होती है। औषधियों से उपचार कम लाभप्रद है, शल्यक्रिया से दृष्टि लौट सकती है।
दृष्टिपटल तथा रंजित पटल (choroid) की रक्तवाहिकाओं से दृष्टिपटल की विभिन्न शिराओं का पोषण होता है। यदि किसी कारण से इन वाहिकाओं में रक्त का संचार रुक जाए तो दृष्टि का अचानक ह्रास हो जाता है। ऐंठन के शीघ्र शमित होते ही दृष्टि सामान्य स्थिति में लौट आती है। लेकिन दृष्टिपटलीय धमनियों के रक्तस्त्रोतरोधन (embolism) की अवस्था में समूची या किसी अंश की दृष्टि का स्थायी लोप संभव है। केंद्रीय शिरा थ्राम्बोसिस में दृष्टि का ह्रास वैसा अचानक नहीं होता जैसा ऐंठन (spasm) या रक्तस्त्रोतरोधन में होता है, लेकिन इसका भी अंतिम रूप उतना ही अवांछनीय होता है। इन अवस्थाओं से हृद्वाहिका तंत्र की सामान्य अवस्थाओं का पता लगता है।
यह युवा स्त्रियों को प्रभावित करनेवाली क्रियात्मक अव्यवस्था है। यह प्राय: द्विपार्श्वीय होती है, लेकिन एकपार्श्वीय भी हो सकती है। इसमें प्राय: क्षेत्र का एककेंद्रीय संकुचन होता है, जिसमें सर्पिल आकुंचन विशिष्ट है। इसमें उपचार न करने से भी रोग हो सकता है, किंतु उसकी मानसिक स्थिति के प्रति सहानुभूति आवश्यक है।
इन विशेष अवस्थाओं के अतिरिक्त आघात (trauma), तीव्र रंग्यग्रकोप (Iridocyclitis), या रंजितपटल शोथ (choroiditis) भी दृष्टिह्रास की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं।
इसे धूसरदृष्टि (Achromatopia) भी कहते हैं, यह जन्मजात या अर्जित दोनों प्रकार की हो सकती है।
जन्मजात वर्णाधता के दो प्रधान रूप हैं, संपूर्ण एवं आंशिक। संपूर्ण विरल है और प्राय: अक्षिदोलन (nystagmus) तथा केंद्रीय अंधक्षेत्र (scotoma) से सहचरित होता है। इसमें सभी रंग अलग अलग दीप्ति के धूसर जान पड़ते हैं। वर्णक्रम सामान्य अंधक्षेत्रीय वर्णक्रम के समान धूसर पट्टा जान पड़ता है। यह संभव है कि संपूर्ण वर्णांधता शंकुओं के दोषपूर्ण विकास या उनके संपूर्ण अभाव से हो।
आंशिक रूप का पता तभी लगता है जब इसका विशेष परीक्षण किया जाए, क्योंकि व्यक्ति छाया और बनावट पर गौर करके तथा अनुभव से कुछ हानिपूर्ति कर लेता है। घोर आंशिक रूप चार प्रतिशत पुरुषों और 0.4 प्रतिशत स्त्रियों में पाया जाता है, लेकिन हल्के रूप में यह केवल पुरुषों में व्यापक रूप से होता है। इस अवस्था को पुरुष स्त्रियों से अर्जित करते हैं। बहुतों को लाल और हरे रंग में भ्रम होता है। ऐसे लोग रेलवे में, वायु सेना में, या नौसेना में हों तो उनसे गंभीर खतरा होने की आशंका रहती है। लाल हरे के रोगी दो प्रकार के होते हैं : रक्तवर्णांध (protanopia) तथा हरितवर्णांध (Denteranopia)। रक्तवर्णाधता में लाल रंग का और हरित वर्णांधता में हरे रंग का बोध नहीं होता।
वर्णांधता परीक्षा के दो उद्देश्य हैं : (1) विकृतियों का सही स्वरूप जानना तथा (2) यह पता लगाना कि क्या रोग सचमुच समाज के लिए खतरनाक है? दोनों उद्देश्यों में किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले अनेक परीक्षण कर लेने चाहिए।
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