क्षेत्रीय राजनीतिक दल
भारत में समय-समय पर अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों का गठन होता रहा है और ये देश के संसदीय लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाती रही हैं। शिरोमणि अकाली दल और जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस जैसी कुछ पार्टियां तो 1947 में देश के आजाद होने से भी पहले गठित हो गई थीं। लेकिन ज्यादातर दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां देश के आजाद होने के बाद ही गठित हुई हैं।
क्षेत्रीय दलों की श्रेणी में रखी जाने वाली पार्टियों का विकास खास तौर पर 1967 के बाद तेज हुआ, जब देश के स्वतंत्रता संग्राम में खास भूमिका निभाने वाली इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी की देश के मतदाताओं पर पकड़ ढीली होने लगी।
इस समय लगभग चार दर्जन राज्य स्तरीय पार्टियों को चुनाव आयोग की मान्यता हासिल है और लगभग दो दर्जन ऐसी हैं जिन्हें अब तक मान्यता नहीं मिली है। इनमें से कई अपने राज्य में सत्ता में हैं तो कुछ अपनी बारी का इंतजार कर रही हैं। क्षेत्रीय पार्टियों ने लोकप्रियता हासिल कर राष्ट्रीय पार्टियों के सामने चुनौती पेश कर दी है। इन्होंने राष्ट्रीय पार्टियों की ओर से क्षेत्र या राज्य विशेष की राजनीतिक और आर्थिक उपेक्षा को अपना आधार बनाया और आगे बढ़ीं।
सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टियों में शामिल शिरोमणि अकाली दल की स्थापना 1920 में धार्मिक संगठन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक सिमिति (एसजीपीसी) ने की ताकि ब्रिटिश हुकूमत के दौरान अविभाजित पंजाब में सिखों की मुख्य प्रतिनिधि बन सके।
इस समय क्षेत्रीय पार्टियां आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में अपने अकेले दम पर या राष्ट्रीय पार्टी अथवा किसी और पार्टी के साथ मिल कर शासन कर रही हैं।
इन सभी क्षेत्रीय पार्टियों की एक खासियत यह है कि ये सभी एक ऐसे नेता के इशारे पर चलती हैं जिसकी सत्ता को पार्टी के अंदर कोई चुनौती नहीं दे सकता। संक्षेप में कहें तो इन्हें कोई एक नेता और उसके विश्वासपात्र चला रहे हैं। उनके परिवार के सदस्य और रिश्तेदारों का भी पार्टी के काम-काज में खासा दखल रहता है।
जो पार्टियां किसी वैचारिक आधार पर गठित हुई हैं, उन्हें भी समय के साथ व्यक्तिगत जागीर और व्यक्तिगत हितों की रक्षा का साधन बना दिया गया है।
इसलिए सामान्य तौर पर ऐसी पार्टियों का अस्तित्व भी उनका संचालन करने वाले नेता के जीवन काल से काफी नजदीक से जुड़ा है।
क्षेत्रीय संगठनों की एक और खास बात यह है कि परिवार के सदस्य, नजदीकी रिश्तेदार और मित्र पार्टी के काम का संचालन करते हैं और उनमें से ही एक उसके नेता की विरासत को उसके जीवन काल के दौरान या उसके बाद संभाल लेता है।
हाल के दिनों में समाजवादी पार्टी (सपा) के सबसे ताकतवर नेता और उनके बेटे के बीच लंबे समय से चल रहे संघर्ष के खुल कर सामने आ जाने की वजह से यह पार्टी चर्चा में है। इसलिए क्षेत्रीय दलों की विडंबना और इनके भविष्य को समझने के लिए सपा को नजदीक से समझना दिलचस्प होगा।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर सपा का 2012 से शासन है और 1992 में इसके गठन के बाद से यह लगभग एक दशक तक सत्ता में रही है। इसने केंद्र में भी सत्ता में साझेदारी की है।
पार्टी का गठन उत्तर प्रदेश के तीन बार के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री रह चुके मुलायम सिंह यादव ने जनता दल से अलग हो कर किया था। 1990 के दशक की शुरुआत में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद मुलायम का प्रभाव काफी बढ़ा। इससे पहचान की राजनीति को भी खास कर उत्तर भारत में काफी बढ़ावा मिला था।
मुलायम 1989 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और इस पद पर पूरे एक साल और 201 दिन तक रहे। 1991 के आम चुनाव में जनता दल की हार के बाद उन्हें यह कुर्सी छोड़नी पड़ी। उसके बाद उन्होंने सपा की स्थापना की और दो बार मुख्यमंत्री बने।
इस साल 22 नवंबर को वे 78 वर्ष के हो जाएंगे और कहा जा रहा है कि अब वे उतने स्वस्थ नहीं रहते। पार्टी के अंदर पिछले कुछ समय से वर्चस्व की लड़ाई कभी खुल कर, तो कभी दबे-छुपे चल ही रही है लेकिन जितना खुल कर यह अब सामने आई है, इतनी कभी नहीं आई थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव के गुट मुलायम सिंह के बाद के युग के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। अखिलेश जहां मुलायम के सबसे बड़े बेटे हैं, वहीं शिवपाल उनके छोटे भाई हैं।
पार्टी में खुद अपनी सत्ता को चुनौती मिलती देख कर और पार्टी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए मुलायम सिंह ने दखल दिया और एक ऐसा रास्ता दिया जो उनकी नजर में राजनीतिक रूप से उनको प्रासंगिक भी बनाए रखता और अगले चुनाव में सत्ता बनाए रखने की पार्टी की उम्मीद को भी जिंदा रखता।
मुलायम की ओर से पेश किए गए एकजुटता के प्रदर्शन को अखिलेश और सपा के नव नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल ने जारी रखने से इंकार कर दिया है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि 25 साल पुरानी पार्टी के सामने इसके अस्तित्व को ले कर गंभीर संकट आ खड़ा हुआ है। इसमें बहुत सी दरारें आ गई हैं, जिनको मुलायम ढंक रहे हैं।
यह समझते हुए कि उनके बेटे के कदम अगले चुनाव में पार्टी की जीत की संभावना को काफी नुकसान पहुंचा सकते हैं, मुलायम ने दखल दिया और शिवपाल का गुस्सा ठंडा करने के लिए अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर उन्हें इस पर बिठा दिया। मुख्यमंत्री के लिए यह स्पष्ट संकेत होना चाहिए था, लेकिन अखिलेश माने नहीं और उन्होंने भी शिवपाल और अपने पिता के पसंदीदा मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
शिवपाल को न सिर्फ राज्य में पार्टी का प्रमुख बना दिया गया, बल्कि मुलायम ने यह भी सुनिश्चित किया कि अखिलेश की ओर से उठाए गए सभी कदम वापस ले लिए जाएं। सपा के शीर्ष पुरुष एक कदम और आगे बढ़े और उन्होंने मुख्यमंत्री को झटका देते हुए अमर सिंह को पार्टी का महासचिव बना दिया, जिसे मुख्यमंत्री ने ‘बाहरी’ व्यक्ति बताया था।
पार्टी से 2010 में निष्कासित कर दिए गए अमर सिंह को इस वर्ष मई में दुबारा पार्टी में शामिल किया गया था और पार्टी की ओर से राज्य सभा भी भेज दिया गया।
यहां यह बताना जरूरी है कि भले ही मुख्य संघर्ष अखिलेश और शिवपाल के बीच चल रहा हो, लेकिन पार्टी में और भी कई ताकतवर गुट हैं जो फिलहाल इनमें से किसी एक पक्ष के साथ खड़े हैं, मगर आने वाले समय में यह देख कर पाला बदल सकते हैं कि किसका पलड़ा भारी पड़ रहा है।
फिर बारी आती है हाल में पार्टी के महासचिव नियुक्त किए गए अमर सिंह की। इसी तरह राज्य सभा में पार्टी के नेता रामगोपाल यादव हैं, जो पार्टी सुप्रीमो के चचेरे भाई होने के साथ ही पार्टी के ऐसे विचारक भी हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि हर अहम मुद्दे पर मुलायम उनसे जरूर संपर्क करते हैं। दूसरी तरफ मुलायम की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता और उनके महत्वाकांक्षी बेटे प्रतीक यादव हैं, जो बड़े स्तर पर जमीन-जायदाद का कारोबार करते हैं। यादव परिवार की आतंरिक लड़ाई में इन सभी के हित दांव पर लगे हैं।
जिम्मेवारी संभालने के तुरंत बाद शिवपाल ने तत्तपरता दिखाते हुए अखिलेश से करीबी रखने वाले सात युवा नेताओं को निकाल दिया। इससे पहले उन्होंने एक विधान पार्षद के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी थी जो मुलायम के चचेरे भाई रामगोपाल यादव के नजदीकी रिश्तेदार हैं।
बड़ा सवाल यह है कि जो समझौता लादा गया है, वह लंबे समय तक चलेगा या फिर कुछ हफ्तों या महीनों में ही बिखर जाएगा। समझौता लंबा खिचने की संभावना बहुत कम है, क्योंकि सपा के अंदर कई लड़ाइयां चल रही हैं।
हालांकि सपा में लड़ाइयां कई महीनों से चल रही हैं, लेकिन अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव की वजह से यह लड़ाई खुल कर सामने आ गई है। हो सकता है कि चुनाव फरवरी में ही हो जाएं और इस चुनाव ने ही दोनों खेमों में बेचैनी ला दी है क्योंकि चुनाव से पहले 403 टिकट दाव पर हैं। दोनों गुट को पता है कि मजबूत वही होगा जिसके साथ विधायकों की संख्या और उनकी प्रतिबद्धता होगी।
इसलिए अखिलेश और शिवपाल दोनों ही चाहेंगे कि उनके समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा टिकट मिल सकें और उनकी खेमेबंदी मजबूत हो सके। दोनों ही चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने की होड़ में हैं।
2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को पूर्ण बहुमत मिला और अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी गई। वे साढ़े चार साल से इस पद पर तो हैं, लेकिन उनकी शक्तियां बहुत सीमित हैं और हाथ बंधे हुए हैं।
उनके पिता के अलावा भी पार्टी में कम से कम दो और सत्ता केंद्र हैं जो राज्य सरकार में अपनी चलाते हैं। अखिलेश की हालत को देख कर राज्य में यह कहावत चल पड़ी है कि यहां साढ़े तीन मुख्यमंत्री काम कर रहे हैं। मुलायम, शिवपाल और पिछले विधानसभा चुनाव से ऐन पहले पार्टी में वापस लिए गए आजम खान ये तीन मुख्यमंत्री हैं और आधे मुख्यमंत्री खुद अखिलेश हैं।
चुनाव को नजदीक देख कर अखिलेश खास तौर पर इस दाग को छुड़ाना चाहते थे कि वे सिर्फ कठपुतली मुख्यमंत्री हैं। उन्होंने अपनी छवि एक ईमानदार और बेहतर नेता के तौर पर पेश की है। वे इस वर्चस्व की लड़ाई में आगे निकलना चाहते थे। वे अब यह संदेश देना चाह रहे थे कि अगर उन्हें खुली छूट दी गई होती तो वे राज्य का और बेहतर विकास कर सकते थे।
सीधे-सीधे मुठभेड़ मोल लेते हुए उन्होंने अपने मंत्रिमंडल से अपने पिता के विश्वस्त माने जाने वाले दो मंत्रियों गायत्री प्रजापित और राजकिशोर सिंह को भ्रष्टाचार के आरोप में हटा दिया। इसी तरह उन्होंने तीन महीने पहले बनाए गए शिवपाल के करीबी मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटा दिया और उनकी जगह अपनी पसंद के राहुल प्रसाद भटनागर को यह पद दे दिया। इसके बाद उन्होंने सीधे शिवपाल पर हमला बोल दिया और उनके भी अहम मंत्रालय उनसे छीन लिए।
इससे पहले अखिलेश ने कौमी एकता दल के सपा में विलय को यह कह कर रोक दिया था कि इससे पार्टी की छवि खराब होगी। कौमी एकता दल के मुख्य संरक्षक और वित्तपोषण करने वाले कोई और नहीं बल्कि कुख्ताय अपराधी मुख्तार अंसारी हैं। यह विलय शिवपाल के नेतृत्व में हो रहा था और इसे मुलायम की भी सहमति थी।
राज्य में कानून-व्यवस्था की बदहाली के मुद्दे पर विपक्ष के हमले को देखते हुए हाल ही में अखिलेश ने राज्य पुलिस के शीर्ष अधिकारियों को कह दिया है कि अब अपराध को ले कर 'जीरो टोलरेंस' की नीति अपनाई जाए।
मुलायम ने शिवपाल को उत्तर प्रदेश पार्टी का प्रमुख यह सोच कर ही बनाया है कि वे पार्टी कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत तौर पर अच्छी तरह जानते हैं और उनके व अखिलेश के बीच बेहतर कड़ी का काम करेंगे। इसलिए अखिलेश नहीं बल्कि शिवपाल ही टिकट वितरण में मुख्य भूमिका निभाएंगे क्योंकि राजनीतिक जमीनी समझ उन्हीं को है और हर विधानसभा सीट पर जातीय गणित का ध्यान रखने में वे ज्यादा सक्षम हैं।
टिकट बंटवारे में अहम भूमिका नहीं मिलने के बाद अखिलेश ने कुछ समय के लिए चुप्पी भले साध ली हो, लेकिन वे ज्यादा समय तक अपमान सहन करने वाले नहीं हैं और सही मौका देख कर पलटवार कर सकते हैं। अखिलेश ही पार्टी का मुख्य चेहरा थे और अब उन्हें ही किनारे किया जा रहा है, ऐसे में पार्टी को सबसे अहम पहचान ही खतरे में है।
सपा को वोटरों के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है और मुमकिन है कि मुलायम की ओर से अंतिम समय में की गई कोशिशें सत्ता में वापसी के लिए नाकाफी साबित हों।
उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतना जातीय गणित को साधना तो है ही लेकिन साथ ही यह भी उतना ही महत्वपूर्ण हो गया है कि आपके बारे में जनता की राय क्या है।
सपा जिन चुनौतियों का सामना कर रही है वह कोई अपवाद नहीं है और लगभग यही खतरे उन सभी क्षेत्रीय पार्टियों के ढांचे में ही निहित हैं जो या तो सत्ता में हैं या सत्ता पाने के लिए संघर्षरत हैं।
उदाहरण के तौर पर बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में चार बार सत्ता में रही और हर बार इसकी एकमात्र सर्व शक्तिमान नेता मायावती मुख्यमंत्री बनीं। पार्टी की स्थापना 1984 में कांशी राम ने इस उद्देश्य के साथ की थी कि बहुजन समाज यानी दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़ी जातियां(ओबीसी) और अल्प संख्यकों को सत्ता में बेहतर प्रतिनिधित्व मिल सके।
स्वर्गीय कांशी राम ने पूर्व स्कूल अध्यापिका मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया। उनकी मौत के बाद बसपा का वजूद पूरी तरह मायावती के ऊपर ही टिक गया। उनके नेतृत्व को पार्टी में किसी और नेता की ओर से न तो चुनौती दी जा सकती है न ही कोई सवाल पूछा जा सकता है। उत्तर प्रदेश ही नहीं देश भर के बहुत से दलित उन्हें अपना नेता मानते हैं।
हालांकि पार्टी ने अपने सिद्धांतों की प्रेरणा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फूले, पेरियार ईवी रामासामी और छत्रपति शाहूजी महराज से हासिल की है, लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव जीतने के बाद मायवती ने अपना लक्ष्य और दर्शन किसी भी तरह सत्ता हासिल करना बना लिया है। वर्षों से अब बसपा को एकजुट रखने वाली ताकत वही हैं। इसलिए अब तो उनके बिना बसपा की कल्पना भी करना नामुमकिन लगता है। जब तक कि वे अपने उत्तराधिकारी को तैयार करना शुरू नहीं कर दें ऐसा लगता है कि उनके सामने नहीं रहने पर पार्टी के तितर-बितर हो जाने में देर नहीं लगेगी। आज के समय में पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो उनकी अनुपस्थिति में इसे चला सके।
इसी तरह मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश की ही एक और पार्टी राष्ट्रीय लोक दल की बात करें, जिसकी स्थापना पूर्व केंद्रीय मंत्री अजीत सिंह ने 1996 में की थी। राज्य के जाट बहुल जिलों में इसका प्रभाव है। अजीत सिंह को राजनीति की विरासत अपने पिता स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह से मिली, मगर वे सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों सहित विभिन्न पार्टियों से गठबंधन करते रहे हैं ताकि सत्ता में प्रासंगिक बने रहें। अब माना जा रहा है कि उनकी कमान जयंत चौधरी संभालेंगे जो मथुरा से एक बार सांसद भी रहे हैं।
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल कई बार सत्ता में रही है लेकिन 1970 में जब प्रकाश सिंह बादल चौथे मुख्यमंत्री बने, उसके बाद से पार्टी में पूरी सत्ता उनके परिवार के ही पास केंद्रित हो गई है। भाजपा और अकाली का गठबंधन 2007 से सत्ता में है। प्रकाश सिहं बादल के बेटे राज्य के उप मुख्यमंत्री हैं और पार्टी के अध्यक्ष भी हैं। सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर बादल केंद्र की भाजपा नेतृत्व वाली नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री भी हैं।
पड़ोस के राज्य हरियाणा में इंडियन नेशनल लोक दल (इनेलोद) की स्थापना पूर्व उप प्रधान मंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रहे चौधरी देवी लाल ने अक्तूबर, 1996 में हरियाणा लोक दल के रूप में की जिसका नाम बदल कर 1998 में इनेलोद कर दिया गया। देवी लाल के बेटे ओमप्रकाश चौटाला पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष हैं और चार बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं। ओमप्रकाश चौटाला के बेटे अजय सिंह चौटाला पार्टी के महासचिव है।
तमिलनाडु में द्रविड़ मु्न्नेत्र कड़गम (डीमके) की स्थापना पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री अन्नादुरै ने 1949 में की और इसने पहला विधानसभा चुनाव 1967 में जीता। तब से डीएमके में बहुत से बदलाव आए हैं, जिनमें 1972 में हुआ इसका विभाजन भी शामिल है। तब इसके कोषाध्यक्ष और लोकप्रिय फिल्म कलाकार एमजी रामाचंद्रन ने एक नई पार्टी गठित कर ली जिसका नाम था ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मु्न्नेत्र कड़गम (एआइएडीएमके)। इसके बाद से राज्य में यही दो पार्टियां बारी-बारी से सत्ता संभाल रही हैं।
ये पार्टियां काफी हद तक अपने एकमात्र नेता की व्यक्तिगत जागीर में बदल गई हैं। डीएमके का नियंत्रण पांच बार मुख्यमंत्री रहे करुणानिधि के हाथ में है, जबकि एआईएडीएमके का ये पार्टियां काफी हद तक अपने एकमात्र नेता की व्यक्तिगत जागीर में बदल गई हैं। डीएमके का नियंत्रण पांच बार मुख्यमंत्री रहे करुणानिधि के हाथ में है, जबकि एआईएडीएमके का नियंत्रण पहले एमजी रामाचंद्रन के हाथ में था और अब उनकी सहकर्मी रहीं जे. जयललिता के हाथ में है। 1987 में एमजी रामाचंद्रन की मृत्यु के बाद से उनकी पार्टी की जिम्मेवारी जयललिता के हाथ में आ गई थी। वे भी पांच बार मुख्यमंत्री रही हैं।
हालांकि डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने अनौपचारिक तौर पर अपने छोटे पुत्र एमके स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है, लेकिन आने वाले समय में परिवार में इस बात को ले कर झगड़े की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। खास कर जब इसके सर्वमान्य नेता नहीं रहेंगे।
इसी तरह एआइएडीएमके में भी इस पार्टी की सर्वोपरि नेता और मौजूदा मुख्यमंत्री ज़े. जयललिता के बाद यही समस्या आने वाली है। उन्होंने किसी नेता को अपने उत्तराधिकारी के रूप में भी विकसित नहीं किया है और पार्टी को बहुत कड़े अनुशासन के साथ चलाया है।
पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस अन्य क्षेत्रीय दलों से अलग नहीं हैं। यह भी एक व्यक्ति द्वारा संचालित होने वाली पार्टी है। ममता का आदेश ही आखिरी फैसला होता है जिस पर पार्टी में कोई मशविरा होने का सवाल तक नहीं है। इस साल की शुरुआत में ममता के प्रभाव की वजह से ही पार्टी राज्य में तीन दशक तक राज करने वाली वामपंथी पार्टियों और भाजपा को पछाड़ कर दुबारा सत्ता में आ सकी है।
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी दो क्षेत्रीय दलों तेलगू देशम पार्टी (टीडीपी) और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का शासन है। आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य बनाने की मांग को ले कर चले आंदोलन से ही 2001 में टीआरएस का जन्म हुआ था। 2014 में हुए राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में यह पार्टी सत्ता में आई और इसके प्रमुख के चंद्रशेखर राव राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। राव पार्टी के अध्यक्ष भी हैं और राज्य के मुख्यमंत्री भी। उनके पुत्र के.टी. रामाराव राज्य सरकार में मंत्री हैं और बेटी के कविता लोकसभा सांसद हैं।
इसी तरह टीडीपी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं। अपने ससुर एन.टी. रामराव के निधन के बाद से उन्होंने ही पार्टी की कमान संभाली है और इस दौरान वे 1995 से 2004 तक मुख्यमंत्री रहे और अब वर्ष 2014 से दुबारा राज्य की कमान संभाल रहे हैं।
ओडिशा में बीजू जनता दल (बीजद) की स्थापना 1997 में हुई और इसके तीन साल बाद यह पार्टी सत्ता में आ गई, जिसके बाद से यह लगातार सत्ता में है। पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक ने लगातार चार विधानसभा चुनाव जीते हैं। पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उन्होंने तब की भाजपा नेतृत्व वाली अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार में केंद्रीय खनन मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। वर्ष 2000 का यह चुनाव उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन में ही लड़ा था। 2009 के विधानसभा चुनाव में बीजद ने भाजपा से चुनाव गठजोड़ तोड़ लिया। दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की तरह यहां भी नवीन पटनायक ही सभी फैसले लेते हैं। बीजद भी कई मामलों में दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों से मेल खाती है।
जहां ये सभी क्षेत्रीय पार्टियां व्यक्ति आधारित और एक व्यक्ति या उसके परिवार से संचालित हो रही हैं, इनका भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ता का हस्तांतरण नए उत्तराधिकारी को कितनी आसानी से होता है। सत्ता परिवार के जितने ज्यादा सदस्यों के बीच बंटी होगी, पार्टी के बिखरने का खतरा उतना ही ज्यादा होगा। जैसा कि हम उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मामले में देख रहे हैं।
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।