वैदिक काल नोट्स
सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य(Aryan) अथवा वैदिक सभ्यता(Vedic Civilization) के नाम से जाना जाता है। इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक काल को ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 ई.पु.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पु.) में बांटा गया है।
जानकारी के स्रोत: भारत में आर्यो(Aryans) के आरम्भिक इतिहास के संबंध में जानकारी का प्रमुख स्रोत वैदिक साहित्य है। इस साहित्य के आलावा, वैदिक युग(Vedic Age) के बारे में जानकारी का एक अन्य स्रोत पुराताविवक साक्ष्य(Archaeological Evidances) है, लेकिन ये अपनी कतिपय त्रुटियों के कारण किसी स्वतंत्र अथवा निर्विवाद जानकारी का स्रोत न होकर साहितियक श्रोतो के आधार पर किये गए विश्लेषण की पुष्टि मात्र करते है।
साहितियक स्रोत (Literary Sources): ऋग्वेद संहिता(Rigveda-Samhita) ऋग्वैदिक काल की एकमात्र रचना है। इसमें 10 मंडल (Division) तथा 1028 सूक्त (Hymns) है। इसकी रचना 1500 ई,पु. से 1000 ई.पु. के मध्य हुई। इसके कुल 10 मंडलो में से दूसरे से सातवें तक के मंडल सबसे प्राचीन माने जाते है, जबकि प्रथम तथा दसवां मंडल परवर्ती काल के माने गए है। ऋग्वेद के दूसरे से सातवें मंडल को गोत्र मंडल (Clan Divison) के नाम से भी जाना जाता है क्योकि इन मंडलो की रचना किसी गोत्र (Clan) विशेष से संबंधित एक ही ऋषि (Saga) के परिवार ने की थी। ऋग्वेद की अनेक बातें फ़ारसी भाषा के प्राचीनतम ग्रन्थ अवेस्ता (Avesha) से भी मिलती है। गौरतलब है कि इन दोनों धर्म में ग्रंथो में बहुत से देवी-देवताओ और सामजिक वर्गो के नाम भी मिलते-जुलते है।
पुरातात्विक स्रोत (Literary Sources)
1. कस्सी अभिलेख (1600 ई.पु.): इन अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि ईरानी आर्यो (Iranian Aryans) की एक शाखा का भारत आगमन हुआ।
2. बोगजकोई (मितन्नी) अभिलेख (1400 ई.पु.): इन अभिलेखों में हित्ती राजा सुबिवलिम और मितन्नी राजा मतिउअजा के मध्य हुई संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवताओं - इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य आदि का उल्लेख है।
3. चित्रित घूसर मृदभांड (Painted Grey Wares – P.G.W.)
4. उत्तर भारत में हरियाणा के पास भगवानपुरा में हुई खुदाई में एक 13 कमरों का मकान तथा पंजाब में तीन ऐसे स्थान मिले है जिनका संबंध त्रिग्वेदकाल से माना जाता है।
ऋग्वैदिक काल के भौगोलिक विस्तार तथा बस्तियों की स्थापना के संबंध में जानकारी के लिए मूल रूप से ऋग्वेद (Rigveda) पर ही निर्भर रहना पड़ता है, क्योकि पुरातात्विक साक्ष्यों में प्रमाणिकता का नितांत अभाव है। त्रिग्वेद में आर्य निवास-स्थल के लिए सप्तसैंधव क्षेत्र का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है-सात नदियों का क्षेत्र। इन सात नदियों की पहचान के संदर्भ में विद्वानों में मतभेद है, फिर भी यह माना जा सकता है कि आधुनिक पंजाब के विस्तृत भूखंड को 'सप्तसैंधव' कहा गया है। त्रिग्वेद से प्राप्त जानकारी के अनुसार आर्यो का विस्तार अफगानिस्तान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था। सतलुज से यमुना नदी तक का क्षेत्र 'ब्रहावर्त' कहलाता था जिसे ऋग्वैदिक सभ्यता का केंद्र (Centre of Rigvedic Civilization) माना जाता था। ऋग्वैदिक आर्यो की पूर्वी सीमा हिमालय और तिब्बत, उत्तर में वर्तमान तुर्कमेनिस्तान, पश्चिम में अफगानिस्तान तथा दक्षिण में अरावली तक विस्तृत थी।
ऋग्वैदिक काल का समाज एक जनजातीय या कबायली समाज (Tribal Society) था जहाँ सामाजिक संरचना का आधार जनमूलक सिद्धांत (Kinship) था। इस सिद्धांत के तहत कुटुम्बों की शब्दावली साधारण होती थी । पुत्र और पुत्री के लिए अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया जाता था, परन्तु अन्य रिश्ते, जैसे भाई, भतीजे, चचेरे भाई आदि के लिए एक ही शब्द का प्रयोग किया जाता था, जिसके लिए त्रिग्वेद में 'नृप्त' शब्द का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेदिककालीन समाज कई इकाइयों (Units) में बँटा हुआ था। इनके समाज की लघुतम इकाई कुल अर्थात परिवार (Family) होता था। इसके अलावा इसमें अन्य इकाइयों के रूप में ग्राम (Village), विश एवं जन का उल्लेख भी हुआ है। विश में अधिक इकाइयाँ सम्मिलित होती थी। जिसका अर्थ एक वंश या संपूर्ण जाति से लगाया जाता था। इसके महत्व का पता इस बात से चलता है कि ऋग्वेद में विश (Clan) का 171 बार और जन (Commonage) का 275 बार उल्लेख हुआ है। संभवत: यह शब्द संपूर्ण जनजाति को संबोधित करता था, परंतु विश और जन के परस्पर संबंधो के बारे में कहीं स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता।
ऋग्वैदिक काल में भूमि पर 'जन' का सामुदायिक नियंत्रण स्थापित था क्योकि भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार का कोई साक्ष्य नहीं प्राप्त हुआ है। ऋग्वेद में शिल्प (Craft) विशेषज्ञों का अपेकक्षाकृत कम वर्णन मिलता है। वर्णित शिल्पी समूहों में मुख्य रूप से चर्मकार, बढ़ाई, धातुकर्मी. कुम्हार आदि के नाम का उल्लेख है। इस काल की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इन शिल्पी समूहों में से किसी को भी निम्न स्तर का नहीं माना जाता था। ऐसा संभवत: इस कारण था कि कुछ शिल्पकार, जैसे बढ़ाई (Carpenter) आदि की समसामयिक शिल्पों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, जो कि युद्ध एवं दैनिक जीवन की आवश्यकताओ के लिए बेहद महत्वपूर्ण माने जाते थे। ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, चर्मकार आदि शिल्पियों का उल्लेख मिलता है। तथा अर्थात बढ़ई संभवत: शिल्पियों का मुखिया होता था।
'अयस' नामक शब्द का भी ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है, जिसकी पहचान संभवतः ताँबे (Copper) और काँसे (Bronze) के रूप में की गयी है , किन्तु इस काल के लोग लोहे (Iron) से परिचित नहीं थे। इन शिल्पों के अतिरिक्त, बुनाई (Weaving) एक घरेलू शिल्प था जो कि घर के कामकाज में लगी महिलाओं के द्वारा संपादित किया जाता था। इस कार्य हेतु संभवत: भेड़ो से प्राप्त ऊन का प्रयोग किया जाता है।
यधपि 'समुंद्र' शब्द का प्रयोग हो ऋग्वेद में हुआ है, परंतु यह इस बात की ओर संकेत नहीं करता कि इस काल के आर्य जन व्यापार ओर वाणिज्य से परिचित थे। इस शब्द का प्रयोग संभवत: जल के जमाव, अगाध जलराशि के लिए हुआ है, न कि समुद्र के लिए। ऋग्वैदिककालीन अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वस्तु- विनिमय प्रणाली (Barter System) पर आधारित थी क्योकि व्यापार का सर्वथा अभाव था।
नदी | प्राचीननाम |
---|---|
सिन्ध | सिन्धु |
व्यास | विपाशा |
झेलम | वितस्ता |
चेनाब | आस्किनी |
घग्गर | दृशदती |
रावी | परुष्णी |
सतलज | शतुद्री |
गोमल | गोमती |
काबुल | कुम्भ |
गंडक | सदानीरा |
कुर्रम | क्रुमु |
ऋग्वेदिककालीन आर्यो की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पशुचारण (Herding) था। इसका प्रमाण त्रिग्वेद में पशुओं के नामो के बहुतायत में प्रयोग तथा उनसे संबंधित विभिन्न प्रकार की वस्तुओं एवं पदनामों के उल्लेख से प्राप्त होता है। इसमें यह भी वर्णित है कि पशुओं की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाएँ एवं अनुष्ठान किये जाते थे। स्पष्ट है कि इस काल में पशु आय के प्रमुख साधन के रूप में थे। गाय का इन पशुओं में सबसे महत्वपूर्ण स्थान था और संपत्ति की प्रमुख स्रोत (Source) तथा माप (Measure) थी। इसे अघन्या अर्थात न मारे जाने योग्य (Not Eligible to be Killed) भी कहा गया है। इसका प्रमाण गाय से संबंधित विभिन्न शब्दों के उल्लेख से मिलता है, यथा - गोमत (धनी व्यक्ति), गविष्ट (गाय की खोज), गोपति (गाय का रक्षक) आदि।
त्रिग्वेद में कृषि से संबंधित प्रक्रिया चतुर्थ मंडल में मिलता है। त्रिग्वेद संहिता के मूल भाग में कृषि के महत्व के केवल तीन शब्द ही प्राप्त होते है- ऊरदर (Granary), धान्य(Cereals) एवं सम्पत्ति (Riches)। कृषि-योग्य भूमि को 'उर्वरा' एवं 'क्षेत्र ' कहा जाता था। ऋग्वेदिककालीन अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान गौण (Secondary) था, जैसे कि त्रिग्वेद से फसल के रूप में सिर्फ 'यव' का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ सामान्य अनाज (Grain) से लिया जा सकता है और विशेष रूप से यह जौ (Barely) का घोतक है। कृषि कार्य में संभवतः लकड़ी के बने हलों (Ploughs) का उपयोग होता था। संभवतः इस काल में कृषि वर्षा (Rainfall) पर निर्भर थी, मगर कृषक सिंचाई (Irrigation) से परिचित नहीं थे। वैसे वे ऋतुओ (Seasons) से भलीभाँति परिचित थे।
ऋग्वेदिक काल में राज्य का मूल आधार परिवार था। परिवार का मुखिया 'कुलप' कहलाता था, जो कि गोत्र संबंधो से बंधा रहता था। गोत्र ही संबंधो का मूल आधार होता था। गोत्रों के आधार पर ही ग्राम (Village) का निर्माण होता था, जिसका प्रमुख 'ग्रामणी' होता था। अनेक ग्राम मिलकर विश (clan) बनाते थे, जिसका प्रधान 'विशपति' होता था। विश से जन (Commonage) बनता था, जो कि तत्कालीन समाज की सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई थी जिसका प्रधान राजा (King) होता था।
इस काल में द्रुहू, यदु, तुर्वस, अनु एवं एक संगठित जन थे, जो 'पंचजन' कहलाते थे। वंशानुगत राजतंत्र शासन का सामान्य स्वरूप था, किन्तु कहीं-कहीं राजा के निर्वाचन (Election) का उल्लेख भी मिलता है।
शुरुआत में राजा सामान्यतः सैनिक नेता (Military Leader) होता था, जिसे बलि अर्थात एक प्रकार का कर (Tax) प्राप्त करने का अधिकार होता था। इसके अलावा, वह युद्ध में लूटे गए माल में से भी बड़ा भाग (Lion 's Share) प्राप्त करने का अधिकारी होता था।
कबीलों के आधार पर बने बहुत से संगठनों का ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है, जैसे - सभा, विदथ, समिति एवं गण। ये संगठन विचारात्मक, सैनिक और धार्मिक कार्य देखते थे एवं राजा के ऊपर नियंत्रण रखने में योगदान करते थे। इनमे सभा और समिति का महत्वपूर्ण स्थान था। उत्तर-वैदिक काल (Post - Vedic Age) की रचना अथर्ववेद (Atharvaveda) में इन्हें 'प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि सभा (Sabha) जन (Jana) के वृद्ध लोगों की परिषद रही होगी, जबकि समिति (Samiti) साधारण जन (Commonage) की सामान्य परिषद (Council) होती थी। ऋग्वेद में विदथ (Vidath) नामक संगठन का भी उल्लेख है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह इन सभी संस्थाओ में सर्वाधिक प्राचीन थी और इसमें महिलाएँ भी भाग लिया करती थी।
ऋग्वैदिककालीन लोगों अर्थात आर्यो का धर्म बड़ा सरल था। वे लोग पूर्णत: ईशवरवादी (Deist) थे। उन्होंने प्रकृति -संबंधी विचारों का आध्यात्मिक (Spiritual) आधार पर प्रतिपादन किया, न कि वैज्ञानिक (Scientific) आधार पर। ऋग्वैदिक आर्य सांसारिक समृद्धि और सन्मार्ग प्रदर्शन के लिए देवों (Gods) की आराधना मूर्तियों के माध्यम से नहीं होती थी, बल्कि स्तुति-पाठ (Panegyric) अथवा यज्ञ (Oblation) के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में दूध, घी, सोम, मधु और अन्न की मंत्र सहित आहुति (offering) द्वारा होती थी।
ऋग्वेद : यह सबसे प्राचीन वेद है। इसमें अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुतियाँ संग्रहित है।
सामवेद : ऋग्वैदिक श्लोकों को गाने के लिए चुनकर घुनों में बांटा गया और इसी पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम 'सामवेद' पड़ा। इसमें दी गई ऋचाएँ उपासना एवं धार्मिक अनुष्ठानो के अवसर पर स्पष्ट तथा लयबद्ध रूप से गाई जाती थी।
यजुर्वेद : इसमें ऋचाओं के साथ- साथ गाते समय किये जाने वाले अनुष्ठानो का भी पघ एवं गघ दोनों में वर्णन है। यह वेद यज्ञ-संबंधी अनुष्ठानों पर प्रकाश डालता है।
अथर्ववेद : यह वेद जन सामान्य की सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियो को जानने के लिए इस काल का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें लोक परंपराओं , धार्मिक विचार, विपत्तियों और व्याधियों के निवारण संबंधी तंत्र- मंत्र संग्रहित है।
वेदत्रयी : ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद
संहिता : चारों वेदों का सम्मिलित रूप
उपनिषद : 108 (प्रमाणित 12)
वेदांग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, (भाषा विगत), छंद और ज्योतिष
ऋग्वैदिक देवताओं (Gods) में इंद्र, अग्नि, वरुण, सोम, सविता, सूर्य, मरुत, विष्णु, पर्जन्य, ऊष्मा आदि 11 देवता प्रमुख है। ऋग्वेद के सूक्तो (Hymms) में प्रायः इन्हीं देवताओं की स्तुति प्रमुख रूप से की गई है। ऋग्वेद में सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र को 'पुरुन्दर' भी कहा गया है। उन्हें वर्षा का देवता (Rain God) भी माना गया है। ऋग्वेद में इंद्र की स्तुति में 250 सूक्त है। इंद्र को रथेष्ट, विजयेन्द्र, सोमपाल, शतक्रतु, वृत्रहन एवं मधवा भी कहा जाता है। ऋग्वेद के दूसरे महत्वपूर्ण देवता अग्नि (Fire) है। वे देवताओं और मनुष्य के बीच मध्यस्थ (Mediator) थे। उनकी स्तुति में 200 सूक्त मिलते है। तीसरे प्रमुख देवता वरुण थे, जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करते थे। वरुण को ऋतस्य गोपा' अर्थात प्रकृतिक घटनाक्रम का संयोजक तथा 'असुर' कहा गया है। इन्द्र और अग्नि समस्त जन द्वारा दी गई बलि अर्थात शाक, जौ आदि वस्तुएँ ग्रहण करने के लिए आहूत होते थे। 'गायत्री मंत्र' ऋग्वेद में उलिलखित है। यह सवितृ (सूर्य) देवता को समर्पित है तथा इसके रचनाकार विश्वामित्र है।
How can we download it please tell us
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।