प्राचीन भारत इतिहास pdf
पाषाण युग से तात्पर्य ऐसे काल से है जब लोग पत्थरों पर आश्रित थे। पत्थर के औज़ार, पत्थर की गुफा ही उनके जीवन के प्रमुख आधार थे। यह मानव सभ्यता के आरंभिक काल में से है जब मानव आज की तरह विकसित नहीं था। इस काल में मानव प्राकृतिक आपदाओं से जूझता रहता था और शिकार तथा कन्द-मूल फल खाकर अपना जीवन बसर करता था।
हिमयुग का अधिकांश भाग पुरापाषाण काल में बीता है। भारतीय पुरापाषाण युग को औजारों, जलवायु परिवर्तनों के आधार पर तीन भागों में बांटा जाता है -
आदिम मानव के जीवाश्म भारत में नहीं मिले हैं। महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान पर मिले तथ्यों से अंदेशा होता है कि मानव की उत्पत्ति 14 लाख वर्ष पूर्व हुई होगी। यह बात लगभग सर्वमान्य है कि अफ़्रीका की अपेक्षा भारत में मानव बाद में बसे। यद्दपि यहां के लोगों का पाषाण कौशल लगभग उसी तरह विकसित हुआ जिस तरह अफ़्रीका में। इस समय का मानव अपना भोजन कठिनाई से ही बटोर पाता था। वह ना तो खेती करना जानता था और ना ही घर बनाना। यह अवस्था 9000 ई.पू. तक रही होगी।
पुरापाषाण काल के औजार छोटानागपुर के पठार में मिले हैं जो 1,00,000 ई.पू. तक हो सकते हैं। आंध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में 20,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. के मध्य के औजार मिले हैं। इनके साथ हड्डी के उपकरण और पशुओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले की बेलन घाटी में जो पशुओं के अवशेष मिले हैं उनसे ज्ञात होता है कि बकरी, भेड़, गाय, भैंस इत्यादि पाले जाते थे। फिर भी पुरापाषाण युग की आदिम अवस्था का मानव शिकार और खाद्य संग्रह पर जीता था। पुराणों में केवल फल और कन्द मूल खाकर जीने वालों का जिक्र है। इस तरह के कुछ लोग तो आधुनिक काल तक पर्वतों और गुफाओं में रहते आए हैं।
भारत मे नवपाषाण युग के अवशेष सम्भवतः 6000 ई0पू0 से 1000 ई0पू के है।विकास कि यह अवधि भारतीय उपमहाद्वीप मे कुछ देर से आयी क्योकि ऐसा माना जाता है कि विश्व के बडे भूभाग( south west Asia) मे यह युग 8000-7000 ई0पू0 के आसपास पनपा, यहाँ से नील घाटी (Egypt) होते हुए यूरोप पहुंचा। इस युग मे मानव पत्थर कि बनी हाथ कि कुल्हाड़ियां आदि औजार पत्थर को छिल घीस और चमकाकर तैयार करता था, उत्तरी भारत मे नवपाषाण युग का स्थल बुर्जहोम (कश्मीर) मे पाया गया है। भारत मे नव पाषाण काल के प्रमुख चार स्थल है
नवपाषाण युग का अन्त होते होते धातुओं का प्रयोग शुरू हो गया था। ताम्र पाषाणिक युग में तांबा तथा प्रस्तर के हथियार ही प्रयुक्त होते थे। इस समय तक लोहा या कांसे का प्रयोग आरम्भ नहीं हुआ था। भारत में ताम्र पाषाण युग की बस्तियां दक्षिण पूर्वीराजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण पूर्वी भारत में पाई गई है।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक इतिहासकारों की यह मान्यता थी कि वैदिक सभ्यता भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है। परन्तु सर दयाराम साहनी के नेतृत्व में 1921 में जब हड़प्पा (पंजाब के माँन्टगोमरी जिले में स्थित) की खुदाई हुई तब इस बात का पता चला कि भारत की सबसे पुरानी सभ्यता वैदिक नहीं वरन सिन्धु घाटी की सभ्यता है। अगले साल अर्थात 1922 में राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो (सिन्ध के लरकाना जिले में स्थित) की खुदाई हुई। हड़प्पा टीले के बारे में सबसे पहले चार्ल्स मैसन ने 1926 में उल्लेख किया था। मोहनजोदड़ो को सिन्धी भाषा में मृतकों का टीला कहा जाता है। 1922 में राखालदास बनर्जी ने और इसके बाद 1922 से 1930 तक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में यहां उत्खनन कार्य करवाया गया।
सिंधु घाटी सभ्यता (2500 ईसापूर्व से 1750 ईसापूर्व तक) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है। सम्मानित पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। यह हड़प्पासभ्यता और 'सिंधु-सरस्वती सभ्यता' के नाम से भी जानी जाती है। इसका विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ।मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर 2014 में भिर्दाना को अबतक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया सिंधु घाटी सभ्यता का। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान् थे।
मोहनजोदड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है।
इतनी विस्तृत सभ्यता होने के बावजूद भी इसकी उत्पत्ति को लेकर आज भी विद्वानों में मतैक्य का अभाव है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हड़प्पा संस्कृति के जितने भी स्थलों की अब तक खुदाई हुई है वहां सभ्यता के विकास अनुक्रम का चिन्ह स्पष्ट नही मिलता है अर्थात इस सभ्यता के अवशेष जहां कहीं भी मिले हैं अपनी पूर्ण विकसित अवस्था में ही मिले हैं।
सर जॉन मार्शल, गार्डन चाईल्ड, मार्टीमर व्हीलर आदि इतिहासकारों की मान्यता है कि हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्ति में विदेशी तत्व का हाथ रहा है। इन इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की शाखा सुमेरिया की सभ्यता की प्रेरणा से हुई है। इन दोनो सभ्यताओं में कुछ समानताएं भी देखने को मिलती है जो इस प्रकार है -
इन्ही समानताओं के आधार पर व्हीलर ने सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन सभ्यता का एक उपनिवेश बताय़ा था। लेकिन इन समानताओं के बावजूद कुछ ऐसी असमानताएं भी हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना सुमेरिया की सभ्यता से अधिक सुव्यवस्थित है। दोनो ही सभ्यताओं में आम उपयोग की चीजें काफी भिन्न हैं जैसे बर्तन, उपकरण, मूर्तियां, मुहरें आदि। फिर दोनों ही सभ्यताओं के लिपि में भी अंतर है। जहां सुमेरियाई लिपि में 900 अक्षर हैं वहीं सिन्धु लिपि में केवल 400 अक्षर हैं। इन विभिन्नताओं के होते हुए दोनो सभ्यताओं को समान मानना समुचित नहीं लगता।
भारत में आर्यों का आगमन हुआ, वे युरोपीय थे। ऐसा कुछ पश्चिमी विद्वानों का मत है तथा पश्चिम में यह सिद्धांत अब भी प्रचलित है। बाद में मुइर जैसे विद्वानों ने यह मान लिया कि यह अप्रमाणिक है क्योंकि इसके प्रमाण नहीं मिले। अतः वेदों का लेखनकाल 5000 वर्ष पूर्व के आसपास का माना जाने लगा जो हिन्दू तर्कसंगत भी है। ऋग्वैदिक काल के बाद भारत में धीरे धीरे सभ्यता का स्वरूप बदलता गया। परवर्ती सभ्यता को उत्तरवैदिक सभ्यता कहा जाता है। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था और कठोर रूप से पारिभाषित तथा व्यावहारिक हो गई। ईसी पूर्व छठी सदी में, इस कारण, बौद्ध और जैन धर्मों का उदय हुआ। अशोक जैसे सम्राट ने बौद्ध धर्म के प्रचार में बहुत योगदान दिया। इसके कारण बौद्ध धर्म भारत से बाहर अफ़ग़ानिस्तान तथा बाद में चीन और जापान पहुंच गया।अशोक के पुत्र ने श्रीलंका में भी बौद्ध धर्म का प्रचार किया। गुप्त वंश के दौरान भारत की वैदिक सभ्यता अपने स्वर्णयुग में पहुंच गई। कालिदास जैसे लेखकों ने संस्कृत की श्रेष्ठतम रचनाएं की।
ईसा पूर्व छठी सदी तक वैदिक कर्मकांडों की परंपरा का अनुपालन कम हो गया था। उपनिषद ने जीवन की आधारभूत समस्या के बारे में स्वाधीनता प्रदान कर दिया था। इसके फलस्वरूप कई धार्मिक पंथों तथा संप्रदायों की स्थापना हुई। उस समय ऐसे किसी 62 सम्प्रदायों के बार में जानकारी मिलती है। लेकिन इनमें से केवल 2 ने भारतीय जनमानस को लम्बे समय तक प्रभावित किया - जैन और बौद्ध।
जैन धर्म पहले से ही विद्यमान था। दोनो श्रमण संस्कृति पर आधारित है। वैदिको ने श्रमण संस्कृति को बाद मे उपनिषदो मे अपनाया।
जैन धर्म के दो तीर्थकरों - ऋषभनाथ तथा अरिष्टनेमि- का उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि हड़प्पा की खुदाई में जो नग्न धड़ की मूर्ति मिली है वो किसी तीर्थकर की है। पार्श्वनाथ तेइसवें तीर्थकर तथा भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थकर थे। वर्धमान महावीर जो कि जैनों के सबसे प्रमुख तथा अन्तिम तीर्थकर थे, का जन्म 540 ईसापूर्व के आसपास वैशाली के पास कुंडग्राम में हुआ था। 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य (परम ज्ञान) प्राप्त हुआ।
महावीर ने पार्श्वनाथ के चार सिद्धांतों को स्वीकार किया -
इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना पांचवा सिद्धांत भी अपने उपदेशों में जोड़ा -
इस सम्प्रदाय के दो अंग हैं - श्वेताबर तथा दिगंबर
जैन धर्म की तरह इसका मूल भी एक उच्चवर्गीय क्षत्रिय परिवार से था। गौतम नाम से जन्में महात्मा बुद्ध का जन्म 566 ईसापूर्व में शाक्यकुल के राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। इन्होने भी सांसारिक जीवन जीने के बाद एक दिन (या रात) अचानक से अपना गार्हस्थ छोड़कर सत्य की खोज में चल पड़े।
बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य समाहित हैं -
उन्होंने अष्टांगिक मार्ग का सुझाव दिया जिसका पालन करके मनुष्य पुनर्जन्म के बंधन से दूर हो सकता है -
बौद्ध धर्म का प्रभाव भारत के बाहर भी हुआ। अफ़ग़ानिस्तान (उस समय फ़ारसी शासकों के अधीन), चीन, जापान तथा श्रीलंका के अतिरिक्त इसने दक्षिण पूर्व एशिया में भी अपनी पहचान बनाई।
उस समय उत्तर पश्चिमी भारत में कोई खास संगठित राज्य नहीं था। लगातार शक्तिशाली हो रहे फ़ारसी साम्राज्य की नज़र इधर की ओर भी गई। हंलांकि अब तक फ़ारस पर राज कर रहे चन्द्र राजा यूनान, पश्चिमी एशिया तथा मध्य एशिया की ओर बढ़ रहे थे, उन्होंने भारत की अनदेखी नहीं की थी। शक्तिशाली अजमीड/हखामनी (Achaemenid) शासकों की निगाह इस क्षेत्र पर थी और Kuru-s कुरुस साईरस (558ईसापूर्व - 530 ईसापूर्व) ने हिंदूकुश के दक्षिण के रजवाड़ो को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद दारयवाहु (डेरियस, 522-486 ईसापूर्व) के शासनकाल में फ़ारसी शासन के विस्तार के साक्ष्य मिलते हैं। इसके उत्कीर्ण लेखों में दो ज़ग़ह हिन्दू को इसके राज्य का हिस्सा बताया गया है। इस संदर्भ में हिन्दू शब्द का सही अर्थ बता पाना कठिन है पर इसका तात्पर्य किसा ऐसे प्रदेश से अवश्य है जो सिंधु नदी के पूर्व में हो।
ईसापूर्व चौथी सदी में जब यूनानी और फ़ारसी शासक पश्चिम एशिया (आधुनिक तुर्की का क्षेत्र) पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। मकदूनिया के राजा सिकंदर के हाथों हखामनी शासक डेरियस तृतीय के हारने के पश्चात स्थिति में परिवर्तन आ गया। सिकंदर पश्चिम एशिया जीतने के बाद अरब, मिस्र तथा उसके बाद फ़ारस के केन्द्र (ईरान) तक पहुंच गया। इतने से भी जब उसको संतोष नहीं हुआ तो वो अफ़गानिस्तान होते हुए 326 ईसा पूर्व में पश्चिमोत्तर भारत पहुँच गया।
सिकंदर के भारत आने के बारे में कोई भारतीय स्रोत उपलब्ध नहीं है। सिकंदर के विजय अभियान की बात केवल यूनानी तथा रोमन स्रोतों में उपलब्ध है तथा उन्हें सत्य के करीब मान कर ये सब लिखा गया है। यूनानी ग्रंथ तो सिकंदर के भारत अभियान का विस्तार से वर्णन करते हैं पर वे कौटिल्य के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखते हैं।
सिकंदर जब भारत पहुंचा तो पंजाब (अविभाजित पंजाब) में रावलपिंडी के पास का राजा उसकी सहायता के लिए पहँच गया। अन्य लगभग सभी राजाओं ने सिन्दर का डटकर मुकाबला किया पर वे सिकन्दर की अनुभवी सेनाओं से हार गए। यूनानी लेखकों ने इन राजाओं के वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसके बाद झेलम और चिनाब के बीच स्थित प्रदेश का राजा पोरस (जो कि पौरव का यूनानी नाम लगता है) ने सिकंदर का वीरता पूर्वक सामना किया। 326 ईस्वी पूर््व का यह झेलम नदी के तट पर हुआ पोरस व सिकंदर के मध्य का युद्ध हाइडेस्पीच का युद्ध कहलाता है ।कहा जाता है कि युद्ध हारने के बाद जब पोरस बन्दी बनकर सिकन्दर के सामने पेश हुआ तो उससे पूछा गया - तुम्हारे साथ कैसा सुलूक (वर्ताव) किया जाय। तो उसने साहसी उत्तर दिया -" जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है "। उसके उत्तर पर मुग्ध होकर सिकन्दर ने उसका हारा हुआ प्रदेश लौटा दिया। इसके बाद जब उसे भारत के वीर योद्धा चन्द्रगुप्त मोर्य(मगध का नंद राजा-चंद्रगुप्त नही) की विशाल सेना का सामना करना था तब भय से ग्रसित सेना को लेकर सिकन्दर आगे नहीं बढ़ सका और वापस लौट गया।
बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय के अनुसार कुल सोलह (16) महाजनपद थे - अवन्ति,अश्मक या अस्सक, अंग, कम्बोज, काशी, कुरु, कोशल, गांधार, चेदि, वज्जि या वृजि, वत्स या वंश, पांचाल, मगध, मत्स्य या मच्छ, मल्ल, सुरसेन।
इनमें सत्ता के लिए संघर्ष चलता रहता था।
ईसापूर्व छठी सदी के प्रमुख राज्य थे - मगध, कोसल, वत्स के पौरव और अवंति के प्रद्योत। चौथी सदी में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पष्चिमोत्तर भारत को यूनानी शासकों से मुक्ति दिला दी। इसके बाद उसने मगध की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया जो उस समय नंदों के शासन में था। जैन ग्रंथ परिशिष्ठ पर्वन में कहा गया है कि चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त ने नंद राजा को पराजित करके बंदी बना लिया। इसके बाद चन्द्रगुप्त ने दक्षिण की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के क्षत्रप सेल्यूकस को हाराया था जिसके फलस्वरूप उसने हेरात, कंदहार, काबुल तथा बलूचिस्तान के प्रांत चंद्रगुप्त को सौंप दिए थे।
चन्द्रगुप्त के बाद बिंदुसार के पुत्र अशोक ने मौर्य साम्राज्य को अपने चरम पर पहुँचा दिया। कर्नाटक के चित्तलदुर्ग तथा मास्की में अशोक के शिलालेख पाए गए हैं। चुंकि उसके पड़ोसी राज्य चोल, पांड्य या केरलपुत्रों के साथ अशोक या बिंदुसार के किसा लड़ाई का वर्णन नहीं मिलता है इसलिए ऐसा माना जाता है कि ये प्रदेश चन्द्रगुप्त के द्वारा ही जीता गया था। अशोक के जीवन का निर्णायक युद्ध कलिंग का युद्ध था। इसमें उत्कलों से लड़ते हुए अशोक को अपनी सेना द्वारा किए गए नरसंहार के प्रति ग्लानि हुई और उसने बौद्ध धर्म को अपना लिया। फिर उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भी करवाया।
चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में यूनानी राजदूत मेगास्थनीज़ , सेल्यूकस के द्वारा उनके दरबार में भेजा गया। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य तथा उसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) का वर्णन किया है। इस दौरान कला का भी विकास हुआ
मौर्यों के पतन के बाद शुंग राजवंश ने सत्ता सम्हाली। ऐसा माना जाता है कि मौर्य राजा वृहदृथ के सेनापति पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या कर दी थी जिसके बाद शुंग वंश की स्थापना हुई। शुंगों ने 187 ईसापूर्व से 75 ईसापूर्व तक शासन किया। इसी काल में महाराष्ट्र में सातवाहनों का और दक्षिण में चेर, चोल और पांड्यों का उदय हुआ। सातवाहनों के साम्राज्य को आंध्र भी कहते हैं जो अत्यन्त शक्तिशाली था।
पुष्यमुत्र के शासनकाल में पश्चिम से यवनों का आक्रमण हुआ। इसी काल के माने जाने वाले वैयाकरण पतंजलि ने इस आक्रमण का उल्लेख किया है। कालिदास ने भी अपने मालविकाग्निमित्रम् में वसुमित्र के साथ यवनों के युद्ध का जिक्र किया है। इन आक्रमणकारियों ने भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया। कुछ प्रमुख भारतीय-यूनानी शासक थे - यूथीडेमस, डेमेट्रियस तथा मिनांडर। मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था तथा उसका प्रदेश अफगानिस्तान से पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था।
इसके बाद पह्लवों का शासन आया जिनके बारे में अधिक जानकारी उपल्ब्ध नहीं है। तत्पश्चात शकों का शासन आया। शक लोग मध्य एशिया के निवासी थे जिन्हें यू-ची नामक कबीले ने उनके मूल निवास से खदेड़ दिया गया था। इसके बाद वे भारत आए। इसके बाद यू-ची जनजाति के लोग भी भारत आ गए क्योंकि चीन की महान दीवार के बनने के बाद मध्य एशिया की परिस्थिति उनके अनूकूल नहीं थी। ये कुषाण कहलाए। कनिष्क इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। कनिष्क ने 78 ईसवी से 101 ईस्वी तक राज किया।
दक्षिण में चेर, पांड्य तथा चोल के बीच सत्ता संघर्ष चलता रहा था। संगम साहित्य इस समय की सबसे अमूल्य धरोहर थी। तिरूवल्लुवर द्वारा रचित तिरुक्कुरल तमिल भाषा का प्राचीनतम ग्रंघ माना जाता है। धार्मिक सम्प्रदायों का प्रचलन था और मुख्यतः वैष्णव, शैव, बौद्ध तथा जैन सम्प्रदायों के अनुयायी थे।
सन् 320 ईस्वी में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना जिसने गुप्त वंश की नींव डाली। इसके बाद समुद्रगुप्त (340 इस्वी), चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (413-455 इस्वी) और स्कंदगुप्त शासक बने। इसके करीब 100 वर्षों तक गुप्त वंश का अस्तित्व बना रहा। 606 इस्वी में हर्ष के उदय तक किसी एक प्रमुख सत्ता की कमी रही। इस काल में कला और साहित्य का उत्तर तथा दक्षिण दोनों में विकास हुआ। इस काल का सबसे प्रतापी शासक "समुद्रगुप्त" था जिसके शासनकाल में भारत को "सोने की चिड़िया" कहा जाने लगा।
ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी में भारतीय कला, भाषा तथा धर्म का प्रचार दक्षिणपूर्व एशिया में भी हुआ।
वंश | राजधनी | संस्थापक |
---|---|---|
गुहिल(सिसौदिया) | मेवाड(चितौड) | बप्पा रावल (कालभोज) |
हर्यक वंश | राजगृह, पाटलिपुत्र | बिम्बिसार |
शिशुनाग वंश | पाटलिपुत्र, वैशाली | शिशुनाग |
नन्द वंश | पाटलिपुत्र | महापद्मनन्द |
मौर्य वंश | पाटलिपुत्र | चंद्रगुप्त मौर्य |
शुंग वंश | विदिशा | पुष्यमित्र शुंग |
कण्व वंश | पाटलिपुत्र | वसुदेव |
सातवाहन वंश | पैठन | सिमुक |
चेदि वंश | सोत्थवती | महामोघवाहन |
हिंद-यवन | शाकल ( सियालकेट ) | डेमेट्रियस |
कुषाण वंश | कुजुल कडफिसेस | पुरूषपुर पेशावर |
कदम्ब वंश | बनवासी | मयूरशर्मन |
गंग वंश | तलकाड | कोंकणिवर्मा |
गुप्त वंश | पाटलिपुत्र | श्रीगुप्त |
मौखरी वंश | कन्नौज | ईशानवर्मा |
हूण वंश | स्यालकोट | तोरमाण |
मैत्रक वंश | वल्लभी | भट्टारक |
उत्तरगुप्त वंश | पाटलिपुत्र | कृष्णगुप्त |
गौड़ वंश | कर्णसुवर्ण, मुर्शिदाबाद | शशांक |
पुष्यभूति वंश | थानेश्वर | प्रभाकरवर्धन |
पाल वंश | मुंगेर | गोपाल |
सेन वंश | राढ़ | सामन्तसेन |
राष्ट्रकूट वंश | मान्यखेत | दन्तिवर्मन |
गुर्जर प्रतिहार वंश | कन्नौज | नागभट्ट प्रथम |
कलचुरीचेदि वंश | त्रिपुरी | कोक्कल प्रथम |
परमार वंश | धारा | कृष्णराज/ उपेन्द्र |
सोलंकी वंश | अन्हिलवाड़ | मूलराज प्रथम |
चन्देल वंश | खजुराहो | नन्नुक |
गहड़वाल वंश | कन्नौज | चन्द्रदेव |
चौहान वंश | अजमेर | वासुदेव |
तोमर वंश | ढिल्लिका | अनंगपाल |
चालुक्य वंश (बादामी) | बादामी | पुलकेशिन प्रथम |
चालुक्य वंश (कल्याणी) | मान्यखेत | तैलप द्वितीय |
चालुक्य वंश (वेंगि) | वेंगि | विष्णुवर्धन |
पल्लव वंश | कांची | सिंहवर्मा |
चोल वंश | तंजौर, तंजावुर | विजयालय |
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