केन्द्रीकरण क्या है
केन्द्रीकरण बनाम विकेन्द्रीकरण: आजादी की कई दहाइयाँ बीतने के बाद भी हमारे देश में गरीबी, बीमारी, अज्ञानता और अवसरों की असमानता खत्म नहीं हुई है। आंकड़ेवार तरक्की के तमाम दावों के बाद भी हालात ये हैं कि मानव विकास के कई सूचकांकों में हमारी हालत उपसहारा अफ्रीका के गरीबतम देशों के बराबर है। दुनिया भर के गरीबों की एक भारी संख्या और कुपोषण से बदहाल बच्चों की बड़ी संख्या हमारे देश में रहती है। आजादी के आन्दोलन से निकला तपा तपाया नेतृत्व, एक पर्याप्त रूप से विकसित और विस्तृत संविधान और तमाम झटकों के बाद भी एक स्थाई लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद आज हम स्वराज और सुराज के लक्ष्य से बहुत दूर पहुँच गये हैं तो क्या इस पर बात करना जरूरी नहीं कि चूक कहां हुई। क्यों आज हम बेलगाम शहरीकरण, बरबाद होती खेती, नष्ट होते पर्यावरण, विस्थापन, गरीबी, भ्रष्टाचार और सामाजिक हिंसा के उस गर्त की ओर बढ़ते जा रहे हैं जहां से वापसी सम्भव नहीं होती। आज इन बीमारियों के मूल कारण को पहचानने और उसका फौरी इलाज करने का वक्त आ गया है। हमारी समझ से यह बीमारी है सत्ता और संसाधन का केन्द्रीकरण।
आजादी के बाद हुआ विकास केन्द्रीकरण के रास्ते पर चला है। भारी उद्योग आधारित केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था तथा कार्यपालिका और विराट नौकरशाही के हाथ में ताकत को सिमटते जाने ने हमारे लोकतंत्र को एक औपचारिक लोकतंत्र में तब्दील कर दिया। जनता की लोकतांत्रिक प्रयिा में शिरकत बस पांच साला चुनावी अनुष्ठान में मतदान तक सीमित हो गई है। नई-नई मिली आजादी के जोश और आजादी की लड़ाई के नायकों के सत्ता में रहने से पर्दा पड़ा हुआ था। लेकिन जैसे ही ये लोग राजनीति के मंच से विदा हुये केन्द्रीकरण की प्रवृतियाँ बेकाबू हो गई। 1971 में संसद और विधानसभा के चुनावों के एक दूसरे से अलग किये जाने से यह प्रयिा शुरू हुई। यह सिलसिला बहुत तेजी से वहाँ पहुँच गया जहाँ कि संसद और न्यायपालिका उपेक्षित हो गये और सारी ताकत कैबिनेट के हाथों में सिमट गई। दो-चार वर्ष में ही देश का सारा काम-काज प्रधानमंत्री कार्यालय से संचालित होने लगा। इस केन्द्रीकरण ने हमें आर्थिक भ्रष्टाचार, राजनीतिक पतन और सामाजिक विद्वेष के उस मोड़ पर पहुंचा दिया जहां से जनता की सम्प्रभुता के पूर्ण हनन के रास्ते खुलते हैं।
इस प्रक्रिया का एक नतीजा यह हुआ कि केन्द्रीकरण राष्ट्रीय चौहद्दियाँ लांघ गया। सत्ता सिर्फ प्रभावशाली राजनीतिक वर्ग और नौकरशाही तक ही नहीं बल्कि विश्व बैंक और आई.एम.एफ. जैसे अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के हाथ में भी कैद हो गई। भारत का विशाल बहुमत प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र के प्रतीक में ही फंसा रहा गया और कभी भी भागीदारी आधारित लोकतंत्र का विकास नहीं हुआ। सत्ता के विकेन्द्रीकरण का सवाल भुला दिया गया।
जनता ही सम्प्रभु है: सारे भौतिक संसाधनों का स्वामित्व समुदाय का है: आज का विकास मानव केन्द्रित विकास नहीं है बल्कि मानव को बेदखल करने वाला विकास है। भारी उद्योग, वैश्विक बाजार और अनियन्त्रित शहरीकरण इस विकास की चालक शक्तियाँ हैं। ऐसे हालात में जल, जंगल, जमीन और खनिज पर मालिकाने का सवाल महत्वपूर्ण हो गया है। आज के विकास के मॉडल को पूरी तरह से लागू करने के लिये राय ने खुद को प्रकृति का एक छत्र स्वामी घोषित कर दिया है। यह इसलिये ताकि सारे प्राकृतिक संसाधन को वैश्विक कारपोरेट ताकतों को सौंपा जा सके। पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण कानून पर होने वाली बहसों में यह मुद्दा खुलकर सामने आया। तमाम जनान्दोलनों एवं जनपक्षधर बुद्विजीवियों ने भूमि अधिग्रहण के राय के एकाधिकार को चुनौती दी। यह पूरी बहस सम्प्रभु सत्ता (एमीनेन्ट डोमेन) की अवधारणा से जुड़ी है। मुद्दा यह है कि सम्प्रभु सत्ता किसमें निवास करती है राय में या जनता में। जल-जंगल और जमीन के बारे में चल रही बहसों में सम्प्रभु सत्ता का यह सवाल निर्णायक महत्व रखता है।
आजादी के बाद के कई दशक बीतने के बाद भी कई मायनों में हमारी नौकरशाही एवं न्यायापलिका औपनिवेशिक मानसिकता से ही काम करते आये हैं। इस मानसिकता का एक अभूतपूर्व उदाहरण है- सम्प्रभु सत्ता (एमीनेन्ट डोमेन) का सिद्वान्त। 1950-1970 के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई फैसलों के मार्फत सम्प्रभु सत्ता का सिद्वान्त विकसित किया। स्टेट ऑफ बिहार बनाम महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह (1952) मामले में सम्प्रभुता सत्ता के सिद्वान्त पर टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान को उध्दृत करने की जगह राजनीतिक विचारक हयूगो ग्रोशस की बात को महत्व दिया। हयूगो ग्रोशस ने 1525 में अपनी किताब में लिखा था- प्रजा की सम्पत्ति राय की सम्प्रभु सत्ता (एमीनेन्ट डोमेन) के अधीन है। राय स्वयं या वह जो राय की तरफ से निर्णय करता है वह प्रजा को उसकी सम्पत्ति से वंचित कर सकता और सम्पत्ति को नष्ट भी कर सकता है। इसी सिलसिले में दार्शनिक कांट को उध्दृत करते हुए न्यायाधीश महोदय आगे कहते हैं कि राय में स्वाभाविक रूप से सम्प्रभु सत्ता का निवास है और वह प्रजा को उसकी सम्पत्ति से वंचित कर सकता और सम्पत्ति को नष्ट भी कर सकता है। इसी सिलसिले में दार्शनिक कांट को उध्दृत करते हुए न्यायाधीश महोदय आगे कहते हैं कि राय में स्वाभाविक रूप से सम्प्रभु सत्ता का निवास है और वह प्रजा की सम्पत्ति ले सकता है बशर्ते उन्हें उचित मुआवजा दिया जाये।
यहाँ विडम्बना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय सम्प्रभु सत्ता के सिद्वान्त के विकास के लिये ग्रोशस और कांट को उध्दृत करता है लेकिन उसकी नजर आजाद भारत की नई प्रेरणा से बने अपने संविधान पर नहीं गई। उल्लेखनीय है कि ग्रोशस और कांट उस दौर के यूरोपीय चिंतक हैं जब पूंजीवाद का विकास शुरू हुआ था और राय को इस विकास में अपनी भूमिका निभाने के लिए असीम शक्तियों की जरूरत थी। राय को यह शक्ति इसीलिये चाहिये थी ताकि वह पूंजीवाद की राह में आने वाली सभी बाधाओं को आसानी से दूर कर सके। साथ ही भूमि या कच्चे माल के रूप में प्रकृति के बेलगाम दोहन की राह आसान कर सके। इस तरह के सिद्वान्तों में हमें नवजात पूंजीवाद की वही आहटें सुनाई देती हैं।
लेकिन हमारा संविधान राजनीतिक-सामाजिक क्रांति की बहुत सारी सुगबुगाहटों से भरा है। इसके निर्माताओं में से अनेक ऐसे थे जिनके लिये संविधान का निर्माण सिर्फ राय सत्ता के संचालन का यन्त्र नहीं था बल्कि नये समाज के निर्माण का भी एक रास्ता था। हमारे संविधान की एक मूल भावना है हम भारत के लोग यानी संविधान यह मानता है कि सम्प्रभु सत्ता जनता में निहित है न कि राय में। संविधान में राय के नीति निर्देशक तत्व में अनुच्छेद 39 बी में कहा गया है कि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बांटा गया हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो। यहां ध्यान देने की बात है समुदाय के भौतिक संसाधन यानी सारे संसाधन समुदाय के हैं। जबकि सम्प्रभु सत्ता (एमीनेन्ट डोमेन) का सिद्वान्त प्रजा की सम्पत्ति को राय की सम्प्रभुता सत्ता के अधीन मानता है। संविधान सारे प्राकृतिक संसाधन को समुदाय के मालिकाने में मानता है। कैसी विडम्बना है कि सर्वोच्च न्यायालय अपनी समझ विकसित करने के लिये संविधान के इस प्रासंगिक अनुच्छेद 39-बी को संज्ञान में लेने की जगह यूरोपीय विद्वानों का हवाला देता है। अगर इस नजरिये से देखें तो जल-जंगल-ज़मीन पर समुदाय के मालिकाने की मांग एक संवैधानिक मांग है। राय जनता के लिये है जनता राय के लिये नहीं है।
पंचायतें और नगर निकाय स्वराज की संस्थाएँ हैं: आज विकास का जो मॉडल है वह अपने कारण, प्रक्रिया और परिणाम हर नजरिये से केन्द्रीकरण को बढ़ावा देने वाला है। यह कुछ लोगों के निर्देशन में कुछ लोगों के हित में चलाया जा रहा मॉडल है, अधिकांश जनता इसमें सिर्फ मूक दर्शक है या भुक्तभोगी है। इस विकास से सत्ता और संसाधन का बड़े पैमाने पर केन्द्रीकरण हो रहा है। समाज के वंचित तबकों की बड़े पैमाने पर संसाधनों से बेदखली हो रही है और प्रकृति का ऐसा संहार हो रहा है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकेगी। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा हो कैसे रहा है? क्या पूरे देश की जनता ने इस बात को कुबूल कर लिया है कि ताकत कुछ लोगों के हाथ में रहेगी और वे केवल आदेश का पालन करेंगे क्या हमारे देश और संविधान ने ऐसे मंचों का निर्माण किया है जहां खड़े होकर जनता शासन के फैसलों में भागीदारी कर सके? हमें इन सवालों के जवाब ढूंढने होंगे।
दुनिया में हर जगह जहां राष्ट्रीय आन्दोलन चले हैं,क्रांतियां हुईं हैं या सामाजिक आन्दोलन चले हैं, जनता की सीधी भागीदारी पर आधारित वास्तविक लोकतांत्रिक संस्थाओं की रचना हुई है या उनके बारे में चिन्तन हुआ है। भारत में भागीदारी आधारित इन लोकतांत्रिक संस्थाओं को हम पंचायत और नगर निकाय के रूप में जानते हैं। लेकिन पंचायत या नगर निकाय से आशय यह नहीं है कि राष्ट्रीय संस्थाएं योजना बनाये और पंचायते उन्हें स्थानीय स्तर पर लागू करने की मशीन मात्र भी न हों। योजना बनाने से लेकर लागू करने तक के हर चरण पर जनता की सीधी भागीदारी की संस्थाएं है पंचायत। विकास के वैकल्पिक मॉडल की अवधारणा सत्ता के विकेन्द्रीकरण से जुड़ी हैं। वैकल्पिक मॉडल का मतलब है जनता की सीधी भागीदारी द्वारा बनाया गया टिकाऊ विकास। टिकाऊ विकास का मतलब है लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, पर्यावरण और संस्कृति के प्रति संवेदनशील विकास यानी एक ऐसा विकास जो आने वाली पीढ़ियों के भी काम आये। जाहिर है कि ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तक उन संस्थाओं का विकास न हो जो शासन-प्रशासन में जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित करें। भारत में संवैधानिक रूप से ग्राम और नगर स्तर पर पंचायतों के निर्माण की व्यवस्था है। लेकिन आज भी इन पंचायतों को योजनाओं को लागू करने की मशीन मात्र समझने की प्रवृत्ति है। सत्ता के केन्द्रीकृत चरित्र, राजनीतिक, भ्रष्टाचार और नौकरशाही की जकड़बन्दी ने संवैधानिक व्यवस्था के बाद भी पंचायतों को वास्तविक ताकत हासिल नहीं करने दी है। इसलिये जरूरी है कि हम यह जाने कि हमारा संविधान पंचायतों के अधिकारों के बारे में क्या कहता है
संविधान संशोधन 73 एवं 74 द्वारा गांवों और शहरी इलाकों में पंचायतों की व्यवस्था की गई है। लोगों द्वारा विकास की अवधारणा का मतलब है शासन की विकेन्द्रीकृत प्रणाली और इसका सीधा रिश्ता 73 एवं 74 संविधान संशोधन से है। इन संशोधनों के हिसाब से शहर और गांव के सबसे निचले स्तरों पर स्थानीय रूप से चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा शासन चलाये जाने की व्यवस्था है। संविधान के भाग 9 और 9ए के अनुसार पंचायतों का गठन प्रत्येक राय के ग्रामीण इलाके में ग्राम, ब्लॉक एवं जिला स्तरों पर होगा तथा शहरी इलाकों में नगरपालिकाओं का गठन होगा। अनुच्छेद 243वी और 243 क्यू के अन्तर्गत ये स्वशासी निकाय अब संवैधानिक संस्थाएं बन गई हैं। ऐसा नहीं कि इन्हें किसी सरकारी आदेश या कानून द्वारा बनाया गया हो। ये संस्थाएं राष्ट्रीय स्तर पर संसद की तरह और उपराष्ट्रीय स्तर पर विधानसभाओं की तरह राय नीति के निर्देशक सिद्वान्तों को साकार कर सकती हैं। अनुच्छेद 243 जी ग्रामीण क्षेत्र में पंचायतों को तथा अनुच्छेद 243 डब्ल्यू शहरी क्षेत्र में नगरपालिकाओं को शक्ति प्रदान करता है कि वे स्वशासी निकायों की तरह काम करें। इन निकायों को ये हक है कि वे आर्थिक विकास तथा सामाजिक न्याय की योजनाएं बनाएं तथा उनको लागू भी करें। आर्थिक विकास के साथ सामाजिक न्याय को जोड़ने का बहुत व्यापक अर्थ है। संविधान को सिर्फ इस बात की चिन्ता नहीं है कि आर्थिक विकास हो बल्कि उसकी चिन्ता है कि यह विकास वितरणमूलक हो और विकास का लाभ सभी तक पहुँचे। यानी संविधान का लक्ष्य भागीदारी पर आधारित समग्र मानवीय विकास है। इसी के साथ इन निकायों को वित्तीय संसाधन दिये जाने के संदर्भ में भी व्यापक व्यवस्था है। रायों की विधायिकाओं को यह निर्देश दिया गया है कि पंचायतों एवं नगरपालिकाओं को स्वशासी निकाय बनाने के लिये उनके काम तथा जिम्मेदारियां निर्धारित करें और उन्हें शक्तियां प्रदान करें। इस नज़रिये से पंचायतों के लिये 29 विषयों तथा नगरपालिकाओं के लिये 18 विषयों की सूची दी गई है।
अनुच्छेद 243 जेड डी में कहा गया है कि हर राय में जिला स्तर पर जिला योजना समिति बनेगी जो पंचायतों तथा नगरपालिकाओं द्वारा तैयार योजनाओं को इकट्ठा कर पूरे जिले के लिये समेकित विकास का प्रारूप तैयार करेगी। यानी ग्रामीण और शहरी विकास की सीमाएं तय करने का काम ज़िला स्तर पर स्वशासी निकाय जनता की भागीदारी के साथ करेंगे जबकि आज यह काम विकास प्राधिकरणों के मार्फत हो रहा है। अलोकतांत्रिक रवैये और बड़ी पूंजी के हित में बेलगाम शहरीकरण के हामी ये विकास प्राधिकरण नौकरशाही की जकड़ के प्रतीक हैं। जबकि 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन के बाद ये विकास प्राधिकरण न केवल अप्रासंगिक बल्कि असंवैधानिक हो गये है। क्योंकि शहरी विकास, इसकी सीमा और तरीके सभी स्वशायी निकायों के विषय हैं न कि विकास प्राधिकरणों के। आज संविधान संशोधन के 20 साल बाद भी अधिकांश रायों में जिला योजना समितियां नहीं बनी और विकास प्राधिकरण बेरोकटोक कार्य कर रहे है। जिसका नतीजा है बेकाबू शहरीकरण, कृषि का विनाश और विस्थापन।
इन संविधान संशोधनों के बाद न केवल यह जरूरी है कि विकास प्राधिकरणों को समाप्त किया जाये, जिला योजना समितियां गठित की जाएं बल्कि यह भी जरूरी है कि जिले को ही पुनर्गठित किया जाये। संविधान में भाग 9 और 9ए के शामिल होने से पहले जिला शब्द को परिभाषित नहीं किया गया था लेकिन अब यह परिभाषित है। इस परिभाषा के बाद जिला अब एक संवैधानिक इकाई हो गई है। प्रशासनिक जरूरत के हिसाब से कार्यपालिका के आदेश से राजस्व जिलों को बनाया जा सकता है लेकिन अब संवैधानिक माँग के अनुसार जिलों को पुनर्गठित करना होगा। संविधान के इस बिन्दु को रेखांकित करने के पीछे हमारी मंशा यह है कि लगान टैक्स वसूली पर आधारित कलेक्टर शासित जिला इकाइयों की जगह ऐसे जिलों के निर्माण की बात शुरू होनी चाहिये जिसमें सत्ता विकेन्द्रित हो, जो जन भागीदारी पर आधारित हो, जिसमें विकास की सारी योजनाओं और प्रकल्पों का प्रस्ताव जनता की छोटी इकाइयों से ऊपर जाये और जिसमें नौकरशाही की दख़लंदाजी न हो।
योजना नीचे से ऊपर की ओर:- 73वें और 74वें संविधान संशोधन की आत्मा है सत्ता का विकेन्द्रीकरण यानी लोकतंत्र में जनता की सीधी भागीदारी। लेकिन हालात इसके ठीक उलट है- विकास प्राधिकरण नौकरशाहाना तरीके से विकास सम्बन्धी निर्णय ले रहे हैं और जिला योजना समितियों का गठन नहीं हो रहा है। हालांकि आज के विश्व बैंक निर्देशित केन्द्रीकृत विकास के मॉडल के समय में यह कहना पागलपन दिख सकता है लेकिन हमें साहस के साथ यह कहना ही पड़ेगा कि न केवल विकास प्राधिकरण बल्कि भारत का योजना आयोग (प्लानिंग कमीशन ऑफ इण्डिया) भी असंवैधानिक हैं। हमें इस बात को कहने की ताकत स्वयं संविधान से हासिल होती है। कैसे आइये देखें -
संविधान ग्रहण करने के सात हफ्तों के भीतर ही एक प्रस्ताव द्वारा 15मार्च 1950 को जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने योजना आयोग का गठन किया। योजना आयोग की भूमिका घोषित की गई थी देश के भौतिक, पूंजीगत एवं मानवीय संसाधनों का आकलन, उनकी बढ़ोत्तरी की योजनाएं एवं योजना के लिये मशीनरी का निर्धारण। विडम्बना यह है कि सरकार दर सरकार, टिकाऊ विकास एवं सामाजिक न्याय के बराबरी से वितरण का दावा करती रही हैं लेकिन हालात इसके विपरीत हैं। खेती, पर्यावरण और संस्कृति को नष्ट करने की कीमत पर किये जा रहे जबरन शहरीकरण की हिमायती सभी सरकारें हैं चाहे वे केन्द्र में हों या प्रदेशों में। इस जबरन शहरीकरण का सीधा रिश्ता केन्द्रीकृत योजना से है जिसका झण्डाबरदार योजना आयोग है। खुद योजना आयोग ने अपनी विभिन्न रपटों में यह बात कुबूल की है कि भारत में विकास के जिन प्रतिमानों को अपनाया गया है उन्होंने सामाजिक गैरबराबरी और रायों के बीच असमानता को बढ़ावा दिया है।
यह बात ज़ाहिर है कि संविधान में कहीं भी योजना आयोग के निर्माण का उल्लेख नहीं है और इस रूप में यह असंवैधानिक संस्था है। योजना आयोग नौकरशाही कार्यप्रणाली का एक नमूना है और इसकी कार्यपद्वति में पारदर्शिता का अभाव है। साल दर साल इसने भारत में केन्द्रीकृत कार्य प्रणाली को बढ़ावा दिया है और वित्त आयोग जैसी संस्थाओं के रहते हुए भी अपनी मर्जी से काम किया है। विशेषज्ञों द्वारा ऊपर से योजनाओं को थोपने का बदतरीन नमूना योजना आयोग पेश करता है।
ज़ाहिर है हमारी मांग है कि योजना का रुख नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिये न कि ऊपर से नीचे की ओर। 73वें और 74वें संशोधन के विभिन्न प्रावधान इस प्रयिा के उपयुक्त ढांचा भी सुझाते हैं। पंचायतों, नगरपालिका जिला योजना समिति के साथ ही हम इन संशोधनों के मार्फत राय वित्त आयोग भी पाते हैं। इन संशोधनों के पहले से भारत में एक वित्त आयोग (फाइनेन्स कमीशन ऑफ इण्डिया) है। जिसकी जिम्मेदारी है कुल राजस्व में से केन्द्र और रायों के बीच ठीक से बंटवारा हो और संचित निधि से रायों की मदद की जा सके। अब इन संविधान संशोधनों के बाद से प्रत्येक राय में एक ऐसा ही राय वित्त आयोग बनने का प्रावधान है। जो इसी प्रकार राय, पंचायत और नगर निगमों के बीच राजस्व के बंटवारे और संचित निधि से पंचायत एवं नगरपालिकाओं की मदद सम्बन्धी अनुशंसाएं रायपाल को दे। लेकिन केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति की वजह से राय वित्त आयोग बनने के बाद भी अपनी जड़ नहीं जमा पा रहे हैं। उन्हें अपनी संवैधानिक भूमिका से वंचित रखा गया है। इस विवरण से हम सिर्फ यह तस्वीर उभारना चाहते हैं कि पंचायत, नगरपालिकाओं, जिला योजना कमेटी तथा राय वित्त आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं के रूप में नीचे से योजना और वित्त प्रबन्धन का पूरा ढांचा मौजूद है। हम क्यों विकास प्राधिकरणों और योजना आयोग जैसी असंवैधानिक संस्थाओं को ढो रहे हैं जिन्होंने सिर्फ केन्द्रीकरण, अलोकतांत्रिक निर्णय प्रयिा और अनिष्टकारी विकास का ही रास्ता चुना है।
हम क्या करें ? : अनुच्छेद 243 डी और 243 पी (ई) पर ध्यान दे तो एक मार्के की परिभाषा हमारे हाथ लगती है जो स्वशासी निकायों के बारे में हमारी समझ का विस्तार करती है। यहां कहा गया है कि ये संस्थाएं (पंचायत एवं नगरपालिका) स्वशासन की संस्थाएं हैं न कि स्थानीय स्वशासन की। हमें ठहर कर इस फर्क पर गौर होना होगा। स्थानीय स्वशासन का मतलब हुआ स्थानीय स्तर पर स्थानीय मुद्दों को निपटाने की संस्थाएं। लेकिन स्वशासन का मतलब हुआ स्वराज यानी जनता स्वयं अपने लिये निर्णय ले और उन्हें लागू करे। इसका अर्थ है कि ये केन्द्रीय संस्थाओं की ताबेदार नहीं होगी बल्कि इन्हें लोकतंत्र में बराबर की जगह हासिल है। ये योजना बनाने, लागू करने और वित्त प्रबन्ध तक में स्वायत्त हैं। इस रूप में संविधान ने हमें ऐसी संस्थाओं का ढांचा दिया गया जिसे मजबूती प्रदान कर हम भागीदारी आधारित लोकतंत्र का विकास कर सकते हैं। यह भागीदारी आधारित लोकतंत्र ही टिकाऊ विकास का रास्ता अख्तियार कर सकता है। अगर हम प्राकृतिक संसाधन पर समुदाय के मालिकाने से सम्बन्धित अनुच्छेद 39बी को अनुच्छेद 243 जेड डी के साथ रखकर पढ़े तो हमें यह बात साफ हो जाएगी कि संविधान ने जनता के मालिकाने और प्रबन्धन में उसकी भूमिका के मसले पर अपना निर्णय साफ शब्दों में सुनाया है। अनुच्छेद 243 जेड डी कहता है- प्रत्येक जिला योजना समिति विकास योजना प्रारूप तैयार करने में (क) निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेगी, अथात्:- पध्दपंचायतों और नगरपालिकाओं के सामान्य हित के विषय जिनके अन्तर्गत उस क्षेत्र की समन्वित स्थानिक योजना, जल तथा अन्य भौतिक और प्राकृतिक संसाधनों में हिस्सा बंटाना, अवसंरचना का एकीकृत विकास और पर्यावरण संरक्षण है। उपलब्ध वित्तीय या अन्य संसाधनों की मात्रा और प्रकार
आज हमारे वक्त में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब पंचायतों ने गैर ज़रूरी और विनाशकारी भूमि अधिग्रहण का विरोध किया है और सफलता भी हासिल की है। अगर पंचायत और नगरपालिकाएं जीवन्त और ताकतवर हो उठें तो जनता की भागीदारी से विकास का ऐसा मॉडल विकसित हो सकता है जिसमें लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं को शामिल किया जा सके। लोग खुद तय करेंगे कि वे कैसा देश और समाज चाहते है। बड़ी पूंजी और नौकरशाहाना तरीकों की कदमताल पर चलता हुआ वर्तमान विकास न केवल प्रकृति को बल्कि मानव और संस्कृति को रौंदता चला जा रहा है। ऐसे में भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र का विकास जनता की आवाज को मुखर कर सकता है। यह लोकतंत्र कॉरपोरेट विकास की अवधारणा को ध्वस्त करता हुआ जल-जंगल-जमीन पर लोगों को मिल्कियत स्थापित करेगा। जहां लोग व्यापक भागीदारी और विचार-विमर्श के बाद विकास का रास्ता तय करेंगे न किसी विशेषज्ञ या नौकरशाह के आदेश से। भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र की इस लड़ाई में संविधान हमारे साथ है बशर्ते हम उसकी आवाज सुनें।
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