साम्राज्यवाद क्या है
साम्राज्यवाद (Imperialism) वह दृष्टिकोण है जिसके अनुसार कोई महत्त्वाकांक्षी अपनी शक्ति और गौरव को बढ़ाने के लिए अन्य देशों के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है।
यह हस्तक्षेप राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या अन्य किसी भी प्रकार का हो
सकता है। इसका सबसे प्रत्यक्ष रूप किसी क्षेत्र को अपने राजनीतिक अधिकार
में ले लेना एवं उस क्षेत्र के निवासियों को विविध अधिकारों से वंचित करना
है। देश के नियंत्रित क्षेत्रों को कहा जाता है। साम्राज्यवादी नीति के अन्तर्गत एक (Nation State) अपनी सीमाओं के बाहर जाकर दूसरे देशों और राज्यों में हस्तक्षेप करता है।
साम्राज्यवाद का विज्ञानसम्मत सिद्धांत ने विकसित किया था। ने 1916 में अपनी पुस्तक "साम्राज्यवाद पूंजीवाद का अंतिम चरण" में लिखा कि साम्राज्यवाद एक निश्चित आर्थिक अवस्था है जो
के चरम विकास के समय उत्पन्न होती है। जिन राष्ट्रों में पूंजीवाद का
चरमविकास नहीं हुआ वहाँ साम्राज्यवाद को ही लेनिन ने समाजवादी क्रांति की
पूर्ववेला माना है। के अनुसार "सभ्य राष्ट्रों की कमजोर एवं पिछड़े लोगों पर शासन करने की इच्छा व नीति ही साम्राज्यवाद कहलाती है।"
15वीं16वीं शताब्दी में के फलस्वरूप
का युग आया। इस साम्राज्यवादी युग को दो भागों में बांट कर अध्ययन किया जा
सकता है- पुराना साम्राज्यवाद और नवीन साम्राज्यवाद। पुराने साम्राज्यवाद
का आरम्भ लगभग 15वीं शताब्दी से माना जा सकता है जब और
ने इस क्षेत्र में कदम बढ़ाया। साम्राज्यवाद का यह दौर 18वीं शताब्दी के
अन्त तक चला। स्पेन और पुर्तगाल ने तमाम देशों की खोज कर वहां अपनी
व्यापारिक चौकियाँ स्थापित की। धीरे-धीरे और ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाया। इंग्लैण्ड का औपनिवेशिक साम्राज्य सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो गया।
19वीं शताब्दी में इस साम्राज्यवाद ने नवीन रूप धारणा किया। 1890 ईस्वी
के बाद यूरोप के देशों में साम्राज्यवादी भावना नये रूप में सामने आई। यह
नव साम्राज्यवाद पहले के उपनिवेशवाद से आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भिन्न
था। पुराना साम्राज्यवाद वाणिज्यवादी था, यह हो या अथवा ।
यूरोपीय व्यापारी स्थानीय सौदागरों से उनका माल खरीदते थे। मार्गों की
सुरक्षा के लिए कुछेक स्थाानों पर कार्यालयों तथा व्यापारिक केन्द्रों की
रक्षा के अतिरिक्त यूरोपीय राष्ट्रों को राज्य या भूमि की भूख नहीं थी। नव
साम्राज्यवाद के दौर में अब सुनियोजित ढंग से यूरोपीय देश पिछड़े इलाकों
में प्रवेश कर उन पर प्रभुत्व जमाने लगे। इन क्षेत्रों में उन्होंने पूंजी
लगाई, बड़े पैमाने पर खेती आरम्भ की, खनिज तथा अन्य उद्योग स्थापित किये,
संचार और आवागमन के साधनों का विकास किया तथा सांस्कृतिक जीवन में भी
हस्तक्षेप किया। अपने प्रशासित इलाकाें की परम्परागत अर्थव्यवस्था और
उत्पादन अर्थव्यवस्था को विनष्ट करके बहुसंख्यक स्थानीय लोगों की विदेशी
मालिकों पर आश्रित बना दिया।
उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में स्वरूपगत भिन्नता दिखाई पड़ती है।
उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद से अधिक जटिल है क्योंकि यह उपनिवेशवाद के अधीन
रह रहे मूल निवासियों के जीवन पर गहरा तथा व्यापक प्रभाव डालता है। इसमें
एक तरफ उपनिवेशी शक्ति के लोगों का, उपनिवेश के लोगों पर सामाजिक, आर्थिक,
राजनैतिक और सांस्कृतिक नियंत्रण होता है तो दूसरी तरफ साम्राज्यिक राज्यों
पर राजनीतिक शासन की व्यवस्था शामिल होती है। इस तरह साम्राज्यवाद में मूल
रूप से राजनैतिक नियंत्रण की व्यवस्था है वहीं उपनिवेशवाद औपनिवेशिक राज्य
के लोगोें द्वारा विजित लोगों के जीवन तथा संस्कृति पर अपना प्रभुत्व
स्थापित करने की व्यवस्था है। साम्राज्यवाद के प्रसार हेतु जहां सैनिक
शक्ति का प्रयोग और युद्ध प्रायः निश्चित होता है वहीं उपनिवेशवाद में
शक्ति का प्रयोग अनिवार्य नहीं होता।
में भौगोलिक अन्वेष्ज्ञण के दौर में मुख्यतः और
सरकारों के सहयोग से साहसी नाविकों ने नई दुनिया की खोज की। यूरोप की
विकसित वाणिज्यिक संस्थाओं ने जैसे बैंक, मुद्रा प्रणाली, संयुक्त उद्यम,
साख सुविधा आदि ने पूंजीवादी उद्यमियों को नई दुनिया के शोषण हेतु विशेष
सुविधाएं प्रदान की। स्पेन ने नई दुनिया पर अपने प्रभुत्व को अक्षुण्ण रखने
के लिए गैर स्पेनी व्यापारियों के लिए वहां लाईसेंस जारी किये और उनसे
अत्यधिक दर पर चुंगी वसूली। पुर्तगाल ने
में अपना उपनिवेश स्थापित कर संसाधनों का दोहन प्रारम्भ किया। ब्राजील में
ऊष्ण जलवायु के कारण पुर्तगालियोें के लिए काम करना कठिन था अतः उन्होंने
अफ्रीकियों को दास बनाकर लाना आरम्भ किया। स्पेन पुर्तगाल सहित अन्य
यूरोपीय देशों ने , ,
की खानों का बहुमूल्य धातुओं हेतु खनन कर सोना चांदी प्राप्त किया। खनन के
अतिरिक्त अमेरिका के मूल निवासियों की भूमि छीन कर वहां गेहूं, चावल,
गन्ना, कपास की खेती आरम्भ की गई और कृषि उत्पादों का यूरोप में निर्यात
किया जाने लगा। इस निर्यात से होने वाले लाभ में मूल निवासियों का हिस्सा
नगण्य था। नई दुनिया के लोगों से जबरन श्रम करवाया गया और विरोध करने पर
क्रूरतापूर्वक उत्पीड़न किया गया।
, , एवं
की खेती ने नई दुनिया में स्थापित हो चुके यूरोपीय व्यापारियों और
निवासियों के लिए लाभ के तमाम अवसर उपलब्ध कराये। उत्पादन की जरूरतों को
पूरा करने के लिए
का विकास हुआ। यह दास व्यापार नई दुनिया की शोषण शृंखला को अफ्रीकी
महाद्वीप संबंद्ध करता था। इस तरह से नई दुनिया के शोषण से यूरोप की
समृद्धि में वृद्धि हुई और नई दुनिया में उत्तरोत्तर गिरावट।
भौगोलिक
अन्वेषण के फलस्वरूप यूरोपीय राज्यों का यूरोप के बाहर नियंत्रण स्थापित
हुआ। एशिया, अफ्रीका के तमाम देशों में इनके औपनिवेशिक राज्य स्थापित हुए।
इन राज्यों में बागानी, कृषि तथा खनन इत्यादि जैसी गतिविधियों में कार्य
करने के लिए बड़ी संख्या में दासों को लगाया गया। आरम्भ में दास व्यापार की
शुरूआत व्यक्तिगत नाविक सौदागरों के द्वारा किया गया लेकिन 16वीं सदी के
अंत तक दास व्यापार संचालित करने वाली संस्थागत अस्तित्व में आ चुकी थी। इन
कंपनियों को यूरोपीय देशों की सरकारों का अनुमोदन प्राप्त था।
अमेरिका में खेती और खनन कार्य पूर्णतः दास श्रम पर आधारित था। अटलांटिक
पार होने वाला यह दास व्यापार सैकड़ों वर्षों तक चलता रहा। दास व्यापारी
और उनके गुमाश्ते अफ्रीकी लोगों को गुलाम बनाकर अटलांटिक महासागर पार ले
जाकर बेच देते थे। इस दास व्यापार में फ्रांसीसी, पुर्तगाली, स्पेनिश, डच,
अंग्रेज सभी शामिल थे। यह दास व्यापार त्रिकोणात्मक स्वरूप लिये हुए था। से अंग्रेज
प्राप्त करते थे और उस रम को अफ्रीका ले जाकर बेच दिया जाता था, बदले में
दास की प्राप्ति हो जाती थी। अफ्रीका के पश्चिमी तट से दक्षिण अटलांटिक को
पार करके या पहुंच कर दासों के बदले प्राप्त किया जाता था और यह शीरा अंत में पहुँचाया जाता था। का एक अन्य उल्लेखनीय उदाहरण है कि या में निर्मित सामान अफ्रीका ले जाया जाता था जहां दासों का विनिमय होता था। इन दासों के बदले में से
प्राप्त कर इसे इंग्लैण्ड ले जाकर महाद्वीपीय बाजारों में बेचा जाता था।
एक अनुमान के अनुसार 18वीं शताब्दी में दास व्यापार के तहत 85 से 90 हजार
अफ्रीकी लोगों को प्रतिवर्ष अटलांटिक पार ले जाकर बेचा जाता था। इस दास
व्यापार के तहत कुल 95 लाख दासों को बेचा गया जिसमें 65 लाख केवल 18वीं सदी
के दौरान ही बेचे गये थे।
16वीं-17वीं सदी के आरंभ में दास व्यापार का संचालन विभिन्न राज्यों की
सरकाराें के अंतर्गत होता रहा किन्तु आगे चलकर इसे निजी व्यापारियों के लिए
खोल दिया गया। ये व्यापारी पश्चिमी अफ्रीकी तट पर सस्ते कपड़ों, धातु
सामानों, रम तथा अन्य वस्तुओं के बदले अफ्रीकी दास सौदागरोंसे मानव संसाधन
हासिल करते थे। अफ्रीकी समाज में प्रायः कबीलाई संघर्षों के कारण बंदी
बनाये गए पुरूषों, महिलाओं एवं बच्चों को दास सौदागर बेचे देते थे। जिन
जहाजों का इन दासों को लाया और ले जाया जाता था उनमें साफ-सफाई और सुविधाओं
को अभाव था। नरकीय स्थिति में रखकर इन्हें यात्रा कराई जाती थी। फलतः
समुद्री यात्रा के अंत तक 10 से 15 प्रतिशत दासों की मृत्यु हो जाती थी।
दास व्यापार में होने वाला लाभ लगभग 300 प्रतिशत से ज्यादा होता था।
18 वीं सदी के अंत तक यूरोपीय देशों में इस दास व्यापार के विरोध स्वरूप
कोई प्रतिक्रिया उभर कर नहीं आई। 18वीं सदी के दौरान फ्रांस, ब्रिटेन व
अमेरिका की तीव्र वाणिज्यिक विकास दर में दास व्यापार का महत्वपूर्ण योगदान
था इस कारण यूरोपीय देशों की सरकारें दास व्यापार की समाप्ति के प्रति
अनिच्छा रखती थी। अमेरिका में तो दास प्रथा का मुद्दा वहां की जीवन शैली का
अंग बन गया था। यही वजह है कि इस मुद्दे को लेकर उत्तरी और दक्षिणी
अमेरिका में संघर्ष भी हुआ।
19वीं शताब्दी के मानवतावादी और सुधारवादी दबावों के चलते इंग्लैण्ड में
1807 में दास व्यापार को समाप्त करने की घोषणा की गई तथा 1835 में सभी
ब्रिटिश उपनिवेशों में दास प्रथा को समाप्त कर दिया गया। इसी तरह अमेरिका
में भी के पश्चात् दास प्रथा के समाप्ति की घोषणा की गई।
औपनिवेशिक विस्तार के तहत में मुख्यतः तीन यूरोपीय शक्तियों ने अपने उपनिवेश बनाए।
भारत में ने (1757) और
(1764) के युद्ध के पश्चात् राजस्व वसूल करने का अधिकार प्राप्त किया।
1767 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक कानून के अनुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी
को 4 लाख पौण्ड वार्षिक शाही खजाने में जमा कराना अनिवार्य कर दिया गया।
ब्रिटिश साम्राज्य की लगातार बढ़ती मांग तथा कम्पनी कर्मचारियों की
महत्वकांक्षाओं को पूरो करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था एवं किसानों का
अत्यधिक शोषण किया गया। कम्पनी के द्वारा करों की वसूली का कार्य ठेकेदारों
को सौंपने से शोषण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिला। भारतीय क्षेत्र पर
नियंत्रण स्थापित करने के पश्चात् राजस्व संग्रह हेतु विभिन्न क्षेत्रों
में अलग-अलग भू-राजस्व व्यवस्था लागू की गई जैसे , और ।
स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत 1793 में भूमि कर की कुल राशि 2 करोड़ 68 लाख
रूपये निर्धारित की गई तो दूसरी तरफ रैय्यवाड़ी और महालवाड़ी व्यवस्था में
कुल उपज का 80 प्रतिशत तक राजस्व वसूला गया इसके अतिरिक्त व्यापारिक चुंगी,
आयात शुल्क, नमक कर को लगाकर भारी धनराशि जुटाकर इंग्लैण्ड भेजा गया।
में डच शासन के अधीन ईस्टइंडीज में “कल्चर सिस्टम” के तहत एक नई आर्थिक
पद्धति को शुरू किया गया। इसके तहत डच सरकार ने किसानों से वसूल होने वाली
मालगुजारी के संबंध में यह व्यवस्था की कि सब किसान अपनी भूमि के एक हिस्से
मेंं ऐसी फसल बोया करें जिसे यूरोप के बाजारों में आसानी से बेचा जा सके।
ये फसलें मुख्यतः चाय, तम्बाकू, कपास, गन्ना, काफी, मसाले आदि थी। इन फसलों
को बोने तथा देखीभाल करने में किसानों का जो समय मेहनत तथा धन खर्च होता
था उसका उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता था। इससे किसानों की स्थिति दयनीय हो गई
वस्तुतः “कल्चर सिस्टम” डच सरकार के लिए जीवनदायिनी बन गया तो दूसरी तरफ
इंडोनेशिया के किसानों की स्थिति अर्द्धदासों के समान हो गई। इसी प्रकार के क्षेत्र में फ्रांसीसियों ने राजस्व की वसूली प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत की।
17वीं-18वीं
शताब्दी में यूरोप में वाणिज्यवादी नीति प्रचलन में थी। इस नीति के तहत
व्यवसाय और व्यापार पर कठोर सरकारी नियंत्रण कायम था। ज्यों-ज्यों का विकास हुआ तो फिर की अवधारणा सामने आई। प्रोफेसर ने सर्वप्रथम अपनी पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशन्स (Wealth of Nations) में
की नीति की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि बाजार का अपना अनुशासन
होता है अतः मांग और पूर्ति के नियम के तहत बाजार को कार्य करने देना
चाहिए। स्वतंत्र व्यापार से आशय व्यापारिक नीति की उस प्रणाली से जो घरेलू
एवं विदेशी वस्तुओं में कोई अंतर नहीं करती और न तो विदेशी पर अतिरिक्त कर
लगाया जाता है और न घेरलू वस्तुओं को विशेष रियासत दी जाती है।
मुक्त व्यापार की नीति के समर्थक इसके पक्ष में अनेक तर्क प्रस्तुत करते हैं-
स्वतंत्र
व्यापार के उपरोक्त लाभ होते हुए भी कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि
कुछ परिस्थितियों में मुक्त व्यापार के परिणामस्वरूप कुछ उद्योगों को हानि
पहुंच सकती है। स्वतंत्र व्यापार के विपक्ष में अग्रलिखित तर्क प्रस्तुत
किये जा सकते हैं-
साम्राज्यवाद
अपने परम्परागत स्वरूप में तो अब लगभग समाप्त हो चुका है परन्तु यह अपने
एक आधुनिक परिवेश में अथवा परिधान के साथ अभी भी जीवित है। परम्परागत
साम्राज्यवादी राज्य, विशेषकर पश्चिमी विकसित राज्य तथा ,
अभी भी अपनी नीतियों के द्वारा नये देशों (अर्थात् 1945 के बाद स्वतंत्र
हुए देशों या फिर विकसित देशाें) की नीतियों को मनचाहे ढंग से चलाने के लिए
कार्य कर रहे हैं। शस्त्र दौड़ को बढ़ावा देकर, शस्त्र आपूर्ति के द्वारा
विदेशी सहायता के माध्यम से, विश्व आर्थिक संस्थाओं पर अपने नियंत्रण
द्वारा, परोक्ष युद्ध नीति, अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में कूटनीति द्वारा
तथा कई प्रकार के अन्य दबाव साधनों द्वारा, के रक्षा के नाम पर, के नाम पर, और के नाम पर, कम शक्तिशाली या फिर विकासशील देशों पर अपना प्रभुत्व तथा दबदबा बनाये रखने की नीति का अनुसरण कर रहे हैं। इसे नव-साम्राज्यवाद कहा जाता है। यह साम्राज्यवाद का आधुनिक स्वरूप है। इस स्वरूप की समाप्ति अब की का प्रमुख उद्देश्य है।
मार्गेन्थो
के अनुसार, जिस प्रकार विशेष परिस्थितियों में तीन प्रकार के साम्राज्यवाद
हैं तथा अपने लक्ष्य के अनुसार भी तीन प्रकार के साम्राज्यवाद होते हैं,
उसी प्रकार साम्राज्यवादी नीतियों के साधनों में भी तीन प्रकार की
विभिन्नताएं स्थापित करनी चाहिए। इन साधनों को मुख्यतया सैनिक, आर्थिक तथा
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के नाम से पुकारा जाता है। वास्तव में तो सैनिक
साम्राज्यवाद सैनिक विजय लक्षित करता है, आर्थिक साम्राज्यवाद अन्य लोगों
का आर्थिक शोषण तथा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद एक प्रकार की संस्कृति का
दूसरी संस्कृति द्वारा हटाया जाना लक्षित करता है परन्तु ये सब सदा एक ही
साम्राज्यवाद लक्ष्य के साधन के रूप में काम करते है।
सैनिक
साम्राज्यवाद साम्राज्य निर्माण का सबसे स्पष्ट, प्राचीन तथा दमनकारी
तरीका है। सैनिक साम्राज्यवाद प्रत्यक्ष सैनिक आक्रमण के द्वारा अपने
लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। आधुनिक युग में हिटलर,
मुसोलिनी, नेपोलियन, लुई चौदहवें तथा कई दूसरे शासकों ने सैनिक विजय के इस
साधन का प्रयोग किया था। एक साम्राज्यवादी राष्ट्र के दृष्टिकोण से इस
पद्धति का लाभ यह है कि सैनिक विजय के फलस्वरूप जो नये शक्ति संबंध स्थापित
होते हैं, उन्हें पराजित राष्ट्र द्वारा भड़काते हुए अन्य युद्ध द्वारा ही
बदला जा सकता है और इस युद्ध में सफलता की संभावना प्रायः उस पराजित
राष्ट्र की उतनी नहीं होती, जितनी साम्राज्यवादी राष्ट्र की होती है।
साधारणतः इस भांति के साम्राज्य निर्माण में युद्ध का अत्यधिक महत्व है।
सिकन्दर, नेपोलियन एवं हिटलर सभी ने साम्राज्य निर्माण में युद्ध का सहारा
लिया। यह ठीक है कि जहाँ युद्ध से साम्राज्य का निर्माण होता है, तो युद्ध
में पराजय से साम्राज्य का विघटन भी हो जाता है, जैसे-
ने अपने साम्राज्यवादी लक्ष्यों के लिए युद्ध आरम्भ किया था परन्तु इस
प्रक्रिया में उसने अपनी शक्ति खो दी तथा यहां तक कि वह दूसरी
साम्राज्यवादी शक्तियों का स्वयं शिकार भी बन गया।
कमजोर तथा निर्धन राष्ट्रों पर साम्राज्य स्थापित करने के लिए श्रेष्ठ
आर्थिक शक्ति का प्रयोग करना, साम्राज्यवाद का सबसे तर्कसंगत साधन है।
मार्गेन्थो के शब्दों में, "आर्थिक साम्राज्यवाद कम क्रूरतापूर्ण और
सामान्यतः सैनिक प्रणाली से कम प्रभावकारी है तथा एक तर्कसंगत साधन के रूप
में शक्ति प्राप्त करने का आधुनिक युग का उत्पादन है।" आर्थिक साम्राज्यवाद
की नीति की आम विशेषताएँ दूसरे राष्ट्रों पर आर्थिक नियंत्रण प्राप्त करना
है। आर्थिक साधनों द्वारा साम्राज्यवादी शक्ति दूसरे राष्ट्रों की वित्त
व्यवस्था पर नियंत्रण करती है, जिसके परिणामस्वरूप नीतियों पर नियंत्रण हो
जाता है। उदाहरण के लिए मध्य अमरीकी गणतंत्र सभी प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य
हैंं परन्तु बहुत सीमा तक उनका आर्थिक जीवन संयुक्त राज्य अमेरिका से आयात
पर निर्भर होता है। इससे संयुत राज्य अमरीका द्वारा इन देशों पर नियंत्रण
संभव हो जाता है। ये राष्ट्र कोई भी ऐसी नीति, चाहे घरेलू नीति हो या विदेश
नीति, लम्बे समय तक लागू नहीं रख सकते, जिस पर संयुक्त राज्य अमेरिका को
आपत्ति हो।
आर्थिक साम्राज्य आज के इस मशीनी तथा पूंजीवादी विस्तार के युग के अनुरूप ही है। इसका आधुनिक विलक्षण उदाहरण " " (Dollar Colonialism)है। " "
भी आर्थिक साम्राज्यवाद का ही एक प्रकार है। विदेशी निवेश, आर्थिक सहायता,
ऋण, बहुराष्ट्रीय निगम, व्यापार तथा तकनीकी एकाधिकार और दूसरे ऐसे साधनों
द्वारा धनी तथा शक्तिशाली राष्ट्र एशिया, अफ्रीका तथा लैटिनप अमरीका,
जिन्हें आम भाषा में “
कहा जाता है, के निर्धन राष्ट्रों पर आर्थिक साम्राज्यवाद ही लागू कर रहे
हैं। ये राष्ट्र जो आर्थिक सहायता तथा ऋण, अविकसित राष्ट्रों को दे रहे
हैं, उनके पीछे उनका वास्तविक उद्देश्य, उनकी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित
करना तथा परिणामस्वरूप उनकी आंतरिक तथा विदेश नीतियों पर नियंत्रण करना है।
अविकसित राष्ट्र राजनीतिक रूप में स्वतंत्र और कानूनी तौर पर पूर्ण
प्रभुसत्त सम्पन्न राज्य हैं परन्तु आर्थिक रूप में ये राज्य आज भी धनी
विकसित राज्यों पर, जो परम्परागत साम्राज्यवादी शक्तियां थीं, निर्भर करते
हैं। इस राजनीतिक रूप से स्वतंत्र तथा आर्थिक रूप में निर्भरता को
नव-साम्राज्यवाद तथा नव उपनिवेशवाद का नाम दिया जाता है। आर्थिक
साम्राज्यवाद नव-साम्राज्यवाद का मुख्य उपकरण है।
सैनिक साम्राज्यवाद, शक्ति संबंधों को सैनिक विजय द्वारा उलट-पुलट कर रख
देता है तथा आर्थिक साम्राज्यवाद इसकी प्राप्ति आर्थिक नियंत्रण द्वारा
करता है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, यथापूर्व स्थिति को बदलने का प्रयत्न
करता है तथा शक्ति संबंधों को मानव के मस्तिष्क पर नियंत्रण के द्वारा
उलटने का प्रयत्न करता है। इसका उद्देश्य अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता,
विचारधारा तथा साम्राज्यवादी शक्ति की जीवन शैली से दूसरे राष्ट्रों के
व्यक्तियों के मस्तिष्क पर नियंत्रण है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद,
साम्राज्यवादी शक्ति की संस्कृति तथा विचारधारा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
तथा प्रचार द्वारा दूसरों को प्रभावित करके, राज्य की शक्ति को
मनोवैज्ञानिक साधन द्वारा विस्तृत करने का एक विलक्षण तथा सूक्ष्म साधन है।
साम्राज्यवाद के इस साधन में न तो सैनिक शक्ति का प्रयोग होता है, न
आर्थिक दबाव का परन्तु साम्राज्यवाद के लक्ष्यों की प्राप्ति का यह सबसे
अधिक प्रभावशाली तथा स्थायी सफल साधन है।
सांस्कृतिक नियंत्रण समाज के उस वर्ग पर होता है, जो उस देश का शासन एवं
नीति-निर्माता नेतृत्व वर्ग होता है। साधारणतः सांस्कृतिक साम्राज्यवाद
सैनिक अथवा आर्थिक साम्राज्यवाद के सहायक के रूप में आता है। इसका एक
प्रमुख आधुनिक उदाहरण है, जिसका प्रयोग के पूर्व
में किया गया, जबकि वहां नाजीवादी सरकार ने जर्मन फौजों को देश पर कब्जा
करने के लिए आमंत्रित किया। नाजियों की पांचवीं पंक्ति ने फ्रांस और नॉर्वे
में भी काफी सफलता प्राप्त की क्योंकि वहां की सरकार के भीतर और बाहर अनेक
प्रभावशाली नागरिक देशद्रोही बन गये। वे नाजी दर्शन और उसके
अन्तर्राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुयायी हो गये। मार्गेन्थो ने 1917 के बाद
संसार के विभिन्न देशों में साम्यवादी विचारधारा के प्रसार को सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद की अभिव्यक्ति माना है। संयुक्त राज्य अमेरिका जब एशिया और
अफ्रीका के देशों में अपने साहित्य का विशाल मात्रा में प्रचार करता है, तो
उसका मुख्य लक्ष्य सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रसार होता है। सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद उपनिवेशवादी नीतियों में अभिवृद्धि के लिये ही अपनाया गया
था। इसका उद्देश्य दूसरे देशों की जनता के आत्म सम्मान को नष्ट करना तथा
हमेशा के लिए उनमें गुलामी की भावना को भरना है।
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