हिन्दी पढ़ाने का तरीका
ऐसे में पहली कक्षा के जो बच्चे अभी अपनी समझ पुख्ता करने की कोशिश में हैं उनको कम प्रयास करने का मौका मिलता है। साथ ही साथ शिक्षक पहली कक्षा के हर बच्चे तक नहीं पहुंच पाते, जो इस स्तर के बच्चों के लिए बेहद जरूरी है। इसी मसले पर मैंने बात की पहली-दूसरी कक्षा के बच्चों को हिंदी भाषा में पढ़ना-लिखना कैसे सिखाया जाए इस मुद्दे पर अच्छी पकड़ रखने वाले जितेंद्र कुमार शर्मा से।
तो पढ़िए इस बातचीत के प्रमुख अंश जो आपको कक्षा कक्ष में आने वाली व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में निश्चित तौर पर सहायक होंगे।
पहली-दूसरी कक्षा को एक साथ में बैठाकर पढ़ाया जाता है। मगर दोनों कक्षाओं के सीखने के स्तर में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। ऐसे में दोनों कक्षाओं को कैसे मैनेज किया जाये? इस सवाल के जवाब में जितेंद्र कहते हैं, “सबसे पहली प्राथमिकता तो पहली कक्षा को अलग पढ़ाने की होनी चाहिए। ताकि पहली बार स्कूल आने वाले बच्चों के ऊपर ध्यान दिया जा सके। हर बच्चे के सीखने की स्थिति की सटीक जानकारी हमारे पास रहे। उनको कहां सपोर्ट देना है, इसकी भी जानकारी बच्चों के करीबी आब्जर्वेशन से मिलेगी।”
वे आगे कहते हैं, “रही बात दूसरी कक्षा और पहली कक्षा के सीखने के स्तर में बहुत ज्यादा अंतर न होने वाली स्थिति में क्या किया जा सकता है। तो इसका जवाब है कि पहली कक्षा के बच्चों को मात्राए सिखाते समय दूसरी कक्षा के बच्चों को भी शामिल किया जा सकता है। क्योंकि बड़े बच्चे तो वर्ण आसानी से सीख जाते हैं। उनको मात्राओं को पहचानने और वर्णों के साथ मात्रा लगाकर पढ़ने में विशेष दिक्कत होती है। इस तरीके से पहली-दूसरी कक्षाओं को एक साथ मैनेज किया जा सकता है।”
साथ ही साथ आगाह भी करते हैं कि किसी भी स्थिति में बच्चों की संख्या 25-30 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में शिक्षक क्लास को मैनेज नहीं कर पाएगा और बच्चों का ध्यान पढ़ाई के अतिरिक्त बाकी सारी बातों की तरफ जाएगा।
मात्रा सिखाते समय क्या-क्या सावधानी बरतनी चाहिए? इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, “सबसे पहले हमें प्रतीक बताना चाहिए, फिर उसकी आवाज़ (साउण्ड) बताना चाहिए, इसके बाद वर्णों के साथ मात्राओं का उपयोग कैसे करना है बच्चों को इसके बारे में बताना चाहिए। और उसके अभ्यास का पर्याप्त अवसर बच्चों को देना चाहिए। ताकि वे अपनी समझ को पुख्ता बना सकें।” इसके बाद वर्णों के क्रम से किसी वर्ण विशेष में बाकी वर्णों को जोड़कर नए शब्द बनाकर वर्णों की पुनरावृत्ति का और उन शब्दों में मात्राओं का उपयोग करके मात्राओं के अभ्यास का मौका बच्चों को देना चाहिए।
इस तरह का अभ्यास लगातार होना चाहिए ताकि बच्चों का इतना अभ्यास हो जाए कि वर्ण के साथ मात्रा के प्रतीक को देखते ही वे झट से अनुमान लगा लें कि इसको कैसे बोला जाएगा। वे कहते हैं कि यहां तक आने में बच्चों को समय लगता है, जो बच्चे रटकर यहां तक पहुंचते हैं वे थोड़ी देर ठहरते तो हैं मगर समझकर पढ़ने वाले बच्चों की तुलना में उनके पढ़ने की रफ़्तार (रीडिंग स्पीड) कम होती है।
ऐसे बच्चे डिकोडिंग में अपनी काफी सारी ऊर्जा लगा देते हैं, इसलिए उनके किसी टेक्सट को समझकर पढ़ने की दिशा में होने वाली प्रगति धीमी होती है। इसके विपरीत सहज प्रवाह से किसी वाक्य या गद्यांश को पढ़ने वाले बच्चे उसे सहजता से समझते हैं, अगर उको थोड़ी सी सहायता मिले। धीरे-धीरे वे खुद से बिना किसी सहायता के ऐसा करने लगते हैं यानी समझकर पढ़ने लगते हैं।
आख़िर में एक सवाल था कि कुछ मात्राओं और वर्णों पर होने वाला काम बच्चों को आगे सीखने में मदद करता है क्या? तो उनका जवाब था कि हाँ। दो-तीन वर्णों व मात्राओं पर होने वाले काम के दौरान बच्चे जो सीखते हैं वह उनको आगे सीखने (लर्निंग) में मदद करता है।
शुरुआती दिनों में पहली कक्षा में प्रवेश लेने वाला बच्चा हाथों का संतुलन स्थापित करना, वर्णों-मात्राओं का पैटर्न बनाना सीखता है, वर्णों व मात्राओं के प्रतीकों व उनकी आवाज़ों के बीच संबंध स्थापित करना व उसे समझना सीखता है। इसी पैटर्न वाली लर्निंग आगे भी होती है। इसलिए कह सकते हैं कि पीछे सीखी हुई तमाम बातें बच्चों को आगे सीखने में भी मदद करती हैं।
इसलिए कह सकते हैं कि शिक्षक की हर कोशिश बच्चों को आगे बढ़ने में मदद करती है। इसलिए उनको तात्कालिक परिणामों की परवाह किये बग़ैर पूरे मन से बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाने का काम जारी रखना चाहिए। कभी-कभी परिणाम आने में समय लगता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारी कोशिशों की कोई उपयोगिता नहीं है।
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