पशु पक्षियों के बारे मे जानकारी
भारत विशाल देश है। इसमें पशु-पक्षी भी नाना प्रकार, रंग रूप तथा गुणों के पाए जाते हैं। कुछ बृहदाकार हैं तो कुछ सूक्ष्माकार। भारत के प्राचीन ग्रथों में पशुपक्षियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। उस समय उनका अधिक महत्व उनके मांस के कारण था। अत: आयुर्वेदिक ग्रंथों में उनका विशेष उल्लेख मिलता है।
बया या वाय गौरैया के आकार की होती है। बया के नर और मादा, संगम ऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में, मादा घरेलू गौरैया के रंग रूप के होते है, किंतु बया की चोंच अधिक स्थूल होती है तथा दुम कुछ छोटी होती है।
दो दर्जन, या दो सौ तक भी, बया एक स्थान पर उपनिवेश के रूप में अपने सुंदर लटकते घोंसलों का निर्माण करती है। घोंसले बाँस के किसी कुंज, या ताड़ के झुंड, या अन्य उपयुक्त वृक्षों से लटके रहते हैं।
बया का भोजन धान, ज्वार या अन्य अन्नों के दाने हैं। ये गौरैया की भाँति चिट चिट कर कलरव करते रहते हैं। संगम ऋतु में इनकी ध्वनि ची-ई-ई की तरह लंबी तथा आनंदायक होती है।
मुनिया का आकार गौरैया से कुछ छोटा होता है। यह छोटे छोटे झुंडों में घास के बीच खाने निकलती है। खेतों में भूमि पर गिरे बीजों को खाती है। मंद मंद कलरव करती है। यह छोटी झाड़ियों या वृक्षों में 5-10 फुट की उँचाई पर घोसला बनाती है।
इसकी चार पाँच उपजातियाँ हैं: श्वेतपृष्ठ मुनिया, श्वेतकंठ मुनिया, कृष्णसिर मुनिया, बिंदुकित (spotted), मुनिया तथा लाल मुनिया।
लाल तूती का आकार साधारण गौरैया से कुछ छोटा होता है। हिमालय में 10.000 फुट की ऊँचाई तक, कुमायूँ, गढ़वाल और नेपाल से लेकर पूर्वी तिब्बत तक तथा उससे आगे युनान, शान राज्यों और पश्चिम तथा मध्य चीन की पर्वतमालाओं तक यह पाई जाती हैं। यह शरत् ऋतु में सारे भारत में फैल जाती है।
इसका आकार घरेलू गौरैया के बराबर होता है। यह जल के निकटवाले स्थानों में झुंडों में रहती है। यूरोप तथा भारत में समान रूप से ही यह मिट्टी के लोंदों से अपना घोंसला बनाती है तथा उसमें परों का नरम स्तर भली भाँति देती है। यह किसी सुविघाजनक, आगे निकले हुए चट्टानी खंड, बरामदों के बाहर निकले भाग, या मकानों के अंदर ही अपने घोंसले बना लेती है। इसका घोंसला छिछले प्याले की तरह ऊपर से खुले मुख का होता है। यह शीत ऋतु में मैदानी भागों में श्रीलंका तक फैल जाती है। इसका रंग काला तथा गरदन के नीचे सफेद रहता है। यह प्राय: गोलाई में, तेजी से मँडराया करती है। सामान्य मांडीक (अबाबील), भारतीय रज्जुपुच्छ मांडीक, चीनी रेखित मांडीक तथा भारतीय रेखित मांडीक, इसकी उपजातियाँ हैं।
प्राय: जाड़े के दिनों में झुंड बाँधकर आती हैं। तथा संपूर्ण भारत में मिलती हैं। ये जमीन पर गिरे दाने और कीड़ों का चारा चुगती हैं। जमीन से भरत आकाश की ओर बिल्कुल सीधी उड़ती है और उड़ती जाती है और अंत में एक धब्बे जैसा दिखाई पड़ने लगती है वहाँ अपने पंखों को बड़ी तेजी से फड़फड़ाती एक बिंदु पर स्थित मालूम होती है और प्प्राय: 10 मिनट से भी अधिक मधुर गीत गाती है तत्पश्चात् यह नीचे उतरती है और पुन: ऊपर उड़ती है। फरवरी से जुलाई के मध्य नीड़निर्माण करती हैं और दो से चार अंडे देती हैं।
यह नगर के बाहरी मैदानों में पाई जाती है। इसकी आवाज मधुर और प्रिय होती है।
थोड़ी हरियालीवाले मैदान में इस पक्षी के जोड़े पाए जाते हैं इस वंश के पक्षियों के दोनो चंचुओं के अगले आधे या तिहाई भाग के किनारे बारीक दाँतेदार होते हैं। ऐसी चोंचवाले अन्य पक्षी बिरले ही होते हैं। शकखोरा वंश की 17 जातियाँ भारत में पाई जाती हैं। यह बहुत ऊँचाई पर रहनेवाला पक्षी है। प्राय: 2,000 फुट ऊँचाई पर प्रजनन करता है। यह जंगल का पक्षी है, किंतु शीत ऋतु में वाटिकाओं में भी आ जाता है।
यह छोटी दुमवाली चिड़िया है। इसकी चोंच भारी और नुकीली होती है। यह अकेले या जोड़े में पेड़ के तनों पर, या बाग बगीचों में रहती है।
स्वर्णपृष्ट, काष्ठकूट या कठफोड़वा भारत का बारहमासी पक्षी है। यह बाग बगीचों का पक्षी है। पेड़ के नीचे तक उतरकर फिर धीरे धीरे तने के ऊपर सीधे, या परिक्रमा सा करते, चढ़ता है और बीच बीच में कीड़ो का लार्वा, या वृक्ष की छाल में छेद कर रहने वाले कीड़ों को ढूँढ़कर खाता है। यह पेड़ के किसी सूखे भाग में कोटर बनाकर अंडे देता है।
इसका आकार मैना के बराबर होता है। इसकी चोंच भारी होती है, वक्षस्थल लाल भूरा, उदर, तथा पुच्छ क अधोतल नीला होता है। पंख पर गहरे और धूमिल नीले रंग के भाग उडान के समय चमकीली पट्टियों के रूप में दिखाई पड़ते हैं। त्रावणकोर के दक्षिण भाग को छोड़कर शेष भारत में यह पक्षी पाया जाता है। इसकी दूसरी जाति कश्मीरी चाष है। श् यह पवित्र पक्षी माना जाता है। दशहरा पर लोग इसका दर्शन करने के लिये बहुत ललायित रहते हैं। इसलिये यह अन्योक्ति कही गई है:
इसका आकार, गौरैया से थोड़ा बड़ा होता है। इसका रंग घास सा हरा होता है। यह सारे भारत के मैदानी भागों तथा हिमालय में 2,500 फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। यह पक्षी ठठेरे की तरह ठुक ठुक का शब्द दिन भर करता रहता है।
इसका आकार काले कौए (वनकाक) के बराबर होता है और रंग चमकीला काला होता है। यह पक्षी सारे भारत में पाया जाता है। हिमालय में भी यह 6,000 फुट की ऊँचाई पर पाया जाता है। यह खुले भाग के मैदान तथा पहाड़ी भागों का पक्षी है और ‘ऊक’ शब्द थोड़े-थोड़े समय पर उच्चारित करता है। यह एक दूसरा शब्द कूप-कूप-कूप आदि जल्दी जल्दी उच्चारित करता है, जो प्रति सेकंड दो या तीन कूप के हिसाब से 6 से 20 बार तक सुनाई पड़ता है। इसका आहार टिड्डे, भुजंगे, लार्वा, जंगली चूहे, बिच्छू, गिरगिट, साँप आदि हैं।
इसका आकार गौरैया के बराबर होता है। यह चटक हरे रंग का दुर्बलकाय पक्षी है। इसका मुख्य आहार कीट है। यह आकाश में मँडराते रहकर, या किसी वृक्ष की छाल से तीव्र गति से सीधे उड़कर, कीटों को पकड़ता है। इसकी बोली मीठी होती है, जो उड़ान के समय सतत उच्चारित होती है। यह वनों, बागों, बस्तियों तथा ऊजड़ मैदानों में भी पाया जाता है।
इसका आकार मैना के बराबर होता है। यह अकेले या जोड़े में, घिरे वृक्षों के मैदान में प्राय: भूमि पर दिखाई पड़ता है। हुदहुद की पाँच उपजातियाँ होती हैं।
1. पश्चात्य या यूरोपीय, 2. मोर, 3. भारत, 4. सिंह तथा 5. ब्राह्म। हुदहुद मैदानों तथा 5,000 फुट ऊँचाई तक के पहाड़ों का पक्षी है। चोंच से मिट्टी, सड़ी गली पत्ती अदि हटाकर चारा प्राप्त करता है। हू-पौ-पौ, हू-पौ-पौ के समान ध्वनि उत्पन्न करता है।
इसका आकार कबूतर के बराबर होता है। इसका शरीर पुष्ट, पीले, हलके भूरे, भस्मीय धूसर रंग का होता है तथा स्कंध पर दूधिया धब्बा होता है। इसके कलछौंह पंख पर पीले रंग की खड़े रूप की प्रमुख पट्टियाँ होती हैं। यह बाग बगीचों में झुंड में रहता है। और विशेषतया पीपल तथा बरगद के गोदे (फल) खाता है।
यह पीलापन युक्त बालू के रंग का कबूतर समान पक्षी है। इसके छोटे पैर पत्र (पर) युक्त होते हैं। अर्द्ध मरुभूमि तथा पूर्ण मरुभूमि में रहता है। यह प्राय: सूर्योदय के दो घंटे पश्चात् तथा संध्या को सूर्यास्त के पहले जल पीता है। इसका आहार दाने, बीज, अंकुर आदि हैं।
यह पंडुक के बराबर होता है और स्थूलकाय, धूमिल भूरे रंग का पक्षी है। तीतर के समान इसका रूप होता है। खेतों या घास के मैदान में जोड़े या झुंड के रूप में तथा भारत में पश्चिमी सीमा से मनीपुर तक उत्तरी तथा मध्यवर्ती प्रदेश में मिलता है।
चित्र तितिर का आकार गौर तितिर सदृश अर्द्धविकसित मुर्गी के बराबर, लगभग 13 इंच का होता है। तितिर की दो उपजातियाँ हैं: दक्षिणी चित्र तितिर तथा उत्तरी चित्र तितिर।
श्वेत उलूक अपने क्षेत्र में स्थायी निवास करने वाला पक्षी है। यह केवल क्षेत्र में ही घूमता है। इसकी निवास भूमि सारी पृथ्वी है। दीवार या वृक्षों के कोटर में अंडे देता है, किंतु निर्जन भवनों को यह अधिक पसंद करता है। यह निशाजीवी पक्षी है। और रात को उड़कर शिकार ढूँढता है। चूहे, चुहियों, मछलियों, मेंढकों तथा कीड़े मकोड़ों या कुछ स्तनधारी जुतुओं का भी शिकार कर लेता है। उलूक की अन्य किस्में भी हैं, जैसे शशलूक, लघूकर्ण उलूक, हिम उलूक।
बिल्ली के आधे आकार का एक छोटा जानवर है। इसके कान और दुम छोटे होते हैं तथा आँखों के चारों ओर एक भूरा वलय (ring) जैसा होता है। यह निशाचर तथा सर्वभक्षी है और घने जंगलों में निवास करता है। इसकी चाल मंद होती है, किंतु पेड़ों पर बड़ी तेजी से चढ़ जाता है। यह बंगाल से बोर्नियो तक पाया जाता है। लोरिस की दूसरी जाति छोटी होती है। वह दक्षिणी भारत और लंका के जंगलों में पाई जाती है। इसकी आँखे बड़ी सुंदर होती है।
यह एक प्रकार का दुम विहीन बहुत बड़ा चमगादड़ है, जिसका सिर लोमड़ी जैसा प्रतीत होता है। डैनों का फैलाव लगभग एक या सवा मीटर होता है और शरीर की लंबाई 20-25 सेंमी0 है तथा बाल काले होते हैं। यह लगभग सारे भारत में पाया जाता है।
यह कीट भक्षी वर्ग का प्राणी है। देखने में चूहे की तरह और दुर्गंध देनेवाला जंतु है। इसकीश् आँखें और कान बहुत ही छोटे होते है। सिर और धड़ की लंबाई लगभग 15 सेंमी0 और दुम लगभग 10 सेंमी होती है। इसका थूथन लंबा होता है। इसकी दष्टि कमजोर होती है, अतएव ्घ्रााण से ही भोजन की तलाश करता है। यह दिन में अपने बिल में छिपा रहता है और रात में भोजन की खोज में निकलता है। रात में छूछंदर नालियों से होकर घरों में घुसता है। यह तनिक भी भय होने पर चों चों, चिट चिट की आवाज कर भाग निकलता है।
यह एक प्रकार का छछूंदर है, जो पूर्वी हिमालय और असम में मिलता है।
यह भी कीटभक्षी वर्ग का प्राणी है जो निशिचर होता है। यह मैदानों में रहता है। इसके आँख और कान छोटे होते हैं। पूँछ बहुत ही छोटी होती है, जो अस्पष्ट होती है। शरीर पर छोटे छोटे घने काँटे होते हैं। यह दिन में बिलों में छिपा रहता है और रात में आहार की खोज में निकलता है। यह जंतु साँप को खूब खाता है। किसी दुश्मन का भय होने पर अपने को लपेटकर गेंद की भाँति हो जाता है। भारत में इसकी पाँच जातियाँ मिलती हैं।कहीं कहीं इसे लोग झामूषा भी कहतें है
यह मांसाहारी वर्ग का प्राणी है। बड़ा पंडा काले भालू के आकार का और भालू सदृश होता है, किंतु मुँह चौड़ा होता है। सिर का रंग सिर धूसर और शेष काला होता है। दाँत बिलकुल सूअर की तरह और पैर बिल्ली जैसे होते हैं। शरीर के रंग के कारण इसे चितकबरा भालू कहा जा सकता है। बृहद पंडा (Giant Panda) का वजन 67 किलो से अधिक लंबाई 4 फुट और ऊँचाई 28 इंच होती है। समूर लंबे और घने होते हैं, जिनसे इसका रंग सुंदर और आकर्षक होता है। पैर, कंधे तथा कान काले होते हैं और आँखों के पास काले छल्ले होते हैं। शेष शरीर सित धूसर और पूँछ छोटी होती है। इसके स्वभाव के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं है, किंतु इतना पता है कि यह शाकाहारी है और बाँस की जड़ और पत्तियों पर अपना निर्वाह करता है।
भारत में बिज्जू सर्वत्र मिलता है। उत्तरी भारत के तालाबों और नदियों के कगारों में 25-30 फुट लंबी माँद बनाकर रहता है। इसके शरीर का ऊपरी भाग भूरा, बगल और पेट काला तथा माथे पर चौड़ी सफेद धारी होती है। पैर में पाँच पाँच मजबूत नख होते हैं जो माँद खोदने के काम आते हैं। यह अगले पैर से माँद खोदता जाता है और पिछले पैरों से मिट्टी दूर फेंकता जाता है। यह अपने पुष्ट नखों से कब्र खोदकर मुर्दा खा लेता है। बिज्जू आलसी होता है और मंद गति से चलता है। यह सर्वभक्षी है। फल मूल से लेकर कीट पतंग तक इसके भक्ष्य है।
यह बाघ से छोटा होता है और भारत और अफ्रीका में पाया जाता है। भिकनाठोरी (चंपारन) तथा हजारी बाग के जंगलों में बघेरों की संख्या अधिक है। वहाँ के लोग इन्हें भी बाघ कहते हैं।
लिंक्स ढाई फुट लंबा और डेढ़ फुट ऊँचा तथा क्रूर स्वभाव का, बहुधा अकेले रहने वाला प्राणी है। यह खरगोश तथा अन्य छोटे छोटे पशुओं के शिकार पर जीवननिर्वाह करता है। पेड़ पर भी बड़ी सरलता से चढ़कर, उसपर के जीवों को चुपके से पकड़ लेता है। हमारे देश में लिंक्स गुजरात, कच्छ और खानदेश में निवास करते हैं।ये रूप भी बदल सकते हैं।ये बिल्ली प्रजाति के जंगली चतुर चालाक और इच्छाधारी पशु हैं|
यह कुत्ते की तरह ही दीखता है। मृत जानवर और सड़ा हुआ मांस यह बड़े प्रेम से खाता है। लकड़बग्घों का जबड़ा बड़ा मजबूत होता है। जिस हड्डी को सिंह, बाघ, जैसे जंतु छोड़ देते हैं, उसे वे बड़े प्रेम से चबा जाते हैं। ये बड़े भीरु होते हैं। लकड़बग्घे की बोली आदमी के हँसने जैसी होती है।
यह कुत्ता वंश का सबसे बड़ा जंतु है। यह बड़े बड़े घास के मैदानों में माँद खोदकर या झाड़ियों में, रहता है। यह स्वभाव का बड़ा नीच, भीरु और कायर, किंतु चालाक, होता है। बहुधा रात में ही निकलता है। निर्बल जंतु के सामने यह भयानक बन जाता है, पर बलवान के सामने दुम दबाकर भागता है। मनुष्यभक्षी हो जाने पर, यह रात में सोते हुए बच्चों को उठाकर ले जाता है।
इस जानवर को प्राय: अनेक लोगों ने देखा होगा, पर इसकी बोली से परिचित होनेवालों से परिचित होनेवालों की संख्या देखनेवालों से अधिक होगी। शीत ऋतु में प्रतिदिन अँधेरा होते ही इसकी बोली सुनाई देती है। आरंभ में एक गीदड़ हुआ हुआ बोलते है, फिर अन्य सब उसे दुहराते हैं और अंत में चिल्लाना चीखने में बदल जाता है।
गीदड़ की लंबाई दो ढ़ाई फुट और ऊँचाई सवा फुट के लगभग, पूँछ झबरी, थूथन लंबा और रंग भूरा होता। यह सर्वभक्षी है तथा सड़े गले मांस के अतिरिक्त छोटे मोटे जीवों का शिकार करता है। यह गन्ना, ईख, कंदमूल, भुट्टा आदि खाकर कृषकों को क्षति पहुँचाता है।
गीदड़ झुंडो में रहते हैं। ये दिन में झाड़ियों और काँटों में छिपे रहते हैं और संध्या होते ही आहार की खोज में निकल पड़ते हैं। कभी कभी दिन में भी दिखाई पड़ते हैं।
कभी कभी गीदड़ अकेला रहने लगता है। इस समय वह गाँव के पास छिपकर रहता है और अवसर पाते ही गाँव के पालतू कुत्ते, बकरी, भेड़ के बच्चे, मुर्गियों और कभी कभी आदमी के बच्चे को भी उठा ले जाता है। यह कायर और मक्कार, किंतु चालाक जानवर है। मादा एक बार में तीन से पाँच बच्चे जनती है।
श्वान वंश में लोमड़ी सबसे छोटी होती है। लोमड़ी माँद में रहती है, पर यह माँद खोदने का कष्ट कभी नहीं उठाती। यह प्राय: बिज्जू या खरगोश की माँद छीनकर रहने लगती है।
छल, कपट, चतुराई, धूर्तता, जितने भी दूसरों को उल्लू बनाने के गुण हैं, सब लोमड़ी में यथेष्ट मात्रा में पाए जाते हैं। फरवरी मार्च में लोमड़ी प्रसव करती है। बच्चों की संख्या पाँच से आठ तक होती है।
विभिन्न देशों की लोमड़ियों में वहाँ की जलवायु के अनुसार रंग, आकृति और स्वभाव में अंतर होता है। संसार में लोमड़ी की चौबीस उपजतियाँ पाई जाती हैं। ऑस्ट्रेलिया को छोडकर पृथ्वी पर यह सर्वत्र पाई जाती है।
मांसभक्षी श्रेणी के अन्य जीवों की तरह लोमड़ी के बच्चे भी अंधे उत्पन्न होते हैं। बाद में आँखें खुलती हैं। लोमड़ी छोटे मोटे पक्षियों पर निर्वाह करती है। कीड़े मकोड़े और गिरगिट भी चट कर जाती है। बस्तियों में घुसकर मुर्गा, मुर्गी पकड़ने की चेष्टा करती है। हमारे देश में कई जगह लोमड़ी को खिखिर भी कहते हैं।
यह भारत में सर्वत्र पाया जाता है। प्राचीन काल से ही यह पाला भी जाता है। पालतू नेवला पालक से प्रेम करता है। नेवला जंगली भी होता है। यह साहसी जंतु है। इसकी प्रकृति भीषण और खूँखार होती है। यदि संयोग से यह मुर्गी और कबूतर के घर में घुस जाता है, तो एक दो को मारकर ही संतुष्ट नहीं होता, वरन् सबको मार डालता है। शिकार का मांस नहीं खाता। नेवला साँप का कट्टर शत्रु है। साँप और नेवले की लड़ाई देखने लायक होती है। नेवले के बच्चे अप्रैल, मई के महीनों में पैदा होते हैं। श् नेवले का रंग भूरा होता है। इसकी दुम लंबी होती है। इसके शरीर में एक ग्रंथि होती है, जिससे एक प्रकार का सुगंधित पदार्थ निकलता है। इसकी गंध कस्तूरी से मिलती है।
यह नियततापी (warm blooded) जंतु है। जल के अंदर शरीर के रक्त की उष्णता बनाए रखने के लिये, इसकी त्वचा के नीचे वसा (चर्बी) की एक मोटी तह होती है। इसकी लंबाई कभी कभी 100 फुट से भी अधिक पहुँच जाती है तथा इसका भार डेढ़ सौ टन (चार हजार मन) तक ज्ञात हो सका है। इसे आज का सबसे विशाल शरीरधारी जीव ही नहीं कह सकते बल्कि इसे विश्व भर में उत्पन्न हुए आज तक समस्त जीवों से अधिकतम दीर्घाकार जंतु माना जा सकता है। इतना बड़ा आकार होने पर भी यह क्षुद्र मत्स्यों तथा झींगा के समान जलजंतुओं का ही आहार कर सकता है। इसके उपगण ह्वेलबीन ह्वेल में दाँत का पूर्ण अभाव होता है और मुख के भीतर गले का छिद्र केवल कुछ इंचों के व्यास का होता है। नीलवर्णी महातिमि अपना मुख खुला रखकर ही पानी के अंदर चलता है। पानी वेग से भीतर पहुँच कर क्षूद्र जंतुओं को उदरस्थ करने का अवसर देता है।
दंतधारी ह्वेल में स्पर्मह्वेल सबसे अधिक बृहदाकार है। यह जापान, चिली तथा नेपाल के तटवर्ती जलखंडों में उपलब्ध होता है। दंतधारी नर ह्वेल 60 फुट तक लंबा होता है, परंतु मादा कुछ छोटे ही आकार की होती है। स्पर्मह्वेल चर्बी के असीम भंडार के लिये बड़ा वांछनीय जीव रहा है। आठ या नौ वर्षों तक जीवित रहता है। मादा ह्वेल शिशु को दूध पिलाने के लिये जलतल पर करवट तैरने लगती है।
गंगा या उत्तर भारत की अन्य नदियों में एक जंतु को उलटते हुए लोग देखते हैं। इसे सूँस कहते हैं। ये जंतु जल में लुढ़कते फिरते हैं। जहाँ छोटी-छोटी मछलियाँ पाई जाती हैं, वहाँ सूँस भी देखने में आते हैं। सूँस की लंबाई सात फुट होती है। इसका रंग काला अथवा स्लेट जैसा होता है। वृद्ध सूँस की लंबाई सात फुट होती है इसके शरीर पर चित्तियाँ पैदा हो जाती हैं। इसकी आँखें प्रकाश में बिलकुल काम नहीं करतीं, इसे कीचड़ में लोटना विशेष प्रिय है। सूँस का जबड़ा भी डेढ़ फुट लंबा होता है और उसमें नुकीले दाँत होते हैं। सूँस की मादा आकार में नर से बड़ी होती है।
ये सभी समुद्रों में मिलते हैं। इनकी लंबाई 8 फुट होती है, दोनो जबड़े चोंच की तरह निकले होते हैं और उनमें नुकीले दाँत होते हैं। छोटी मछलियाँ और घोंघे खाकर ये अपना पेट पालते हैं।
यह साइरनिया (Sirenia) वर्ग के मैनेटिडी (Manatidae) परिवार का जानवर है। हिंद महासागर के उष्ण भाग मेें तथा लाल सागर से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक पाया जाता है।
यह भारी, भद्दा, आलसी और मंदगामी जानवर है तथा दो तीन मीटर लंबा और स्लेटी रंग का होता है। इसका शरीर मछली के समान आगे से पीछे की ओर पतला होता गया है। थूथन गोलाकार और ठूँठ की तरह होता है। नासाछिद्र आँख और थूथन के बीच स्थित होते हैं। इसकी पिछली टाँगे नहीं होती। मादा अगले पैरों से अपनी संतान को गोद में दाबकर स्तनपान कराती है। यह शाकाहारी जंतु है। नर मादा के एक दूसरे को खूब चाहते हैं और माँ बाप बच्चों को बहुत प्यार करते हैं। कुछ लोग ड्यूगांग को समुद्री गाय कहते हैं। इसकी तीन उपजातियाँ हैं : लाल सागर के ड्यूगांग, ऑस्ट्रेलिया के ड्यूगांग और हिंद महासागर के ड्यूगांग।
साहियों के शरीर केश् पिछले भाग में बड़े बड़े काँटे होते हैं। दूसरों के आक्रमण के समय यह अपने कॉँटों को खड़ा कर लेता है। फिर किसी जंतु को इस पर आक्रमण करने का साहस नहीं होता।
साही नदियों या तालाबों के किनारे माँद खोदकर रहता है। यह दिनभर माँद में छिपा रहता है और रात को बाहर आता है। यह खरहे की तरह पूर्णत: शाकाहारी होता है। इसका मांस स्वदिष्ठ होता है और मांस के लिये इसका शिकार होता है। इसके काँटे से कलम बनाकर बच्चे लिखते हैं।
इसका मुँह ठीक खरगोश जैसा होता है, लेकिन उससे कुद पतला। इसका आकार खरगोश से थोड़ा ही छोटा होता है। गिनीपिग विभिन्न आकार के होते हैं। कुछ बहुत ही छोटे होते हैं। इतने छोटे जितनी घर की चुहिया, लेकिन देखने में सब से सुंदर होते हैं। समूचा शरीर सुंदर रोओं से ढँका होता है। रंग सफेद, काला, भूरा और नारंगी होता है, पर चितकबरे गिनीपिग देखने में ज्यादा अच्छे लगते है। इनकी पूँछ नहीं होती। यह पूर्णतया शाकाहारी है। और हरी हरी दूब आँखे मूदकर, बड़े प्रेम से खाता है। भीगा चना, मोकना, गोभी और पालक के पत्ते भी इसे प्रिय हैं। मादा को एक बार में दो बच्चे होते हैं और वह एक वर्ष में चार बार प्रसव करती है।
घोड़े का ही वंश गधा है, पर ऐसे बुद्धिमान, सुंदर और स्वामिभक्त पशु के वंश में जन्म लेकर भी गधा पूरा गधा है। मूर्खता और नीचता का प्रतीक हमारे देश में गधे को ही माना जाता है। गधा उपयोगी पशु है। हमारे देश में तो इसका काम मुख्यत: धोबियों को ही पड़ता है। गधे की एक नस्ल गोरखर नाम से प्रसिद्ध है। यह गुजरात, कच्छ, जैसलमेर और बीकानेर में पाई जाती है। गधे की दूसरी नस्ल क्यांग तिब्बत के पहाड़ों में पाई जाती है। नर गधा और घोड़ी के संयोग से खच्चर नाम की नस्ल पैदा हुई है। खच्चर निर्भीक, साहसी और सहनशील होता है। उसमें माँ बाप दोनों के गुण आ जाते हैं।
अर्ना या वन्य महिष का शरीर कंधे के निकट 5।। फुट ऊँचा होता है, किंतु 6।। फुट ऊँचा भी हो सकता है। शरीर का भार 25 मन या उससे भी अधिक होता है। सींग की लंबाई लगभग 78 इंच तक भी देखी गई है। यह पालतू भैंसे के रूप रंग से भिन्न होता है। रंग स्लेटी काला होता है। गुल्फ या घुटने तक का रंग मलीन श्वेत होता है। इसका प्रसारक्षेत्र नेपाल की तराई के घास मैदान तथा असम में ब्रह्मपुत्र के मैदान हैं। यह जलपंक का प्रेमी तथा यूथचारी है।
पैंगोलिन को वज्रदेही या शल्कीय कीट भक्षक कहा जाता है। इस जंतु का शरीर छिछड़े या शल्क समान छोटे छोटे श्रृंगीय खंडों द्वारा आच्छादित रहता है। ये शल्क चपटे और कठोर होते हैं। खपरैल की भाँति ये एक दूसरे के ऊपर छोर की ओर पड़े होते हैं। चीटियों, दीमकों आदि को खाने के कारण कीटभक्षक कहलाते है। पूँछ लंबी और मजबूत होती है। शरीर का रंग भूरा या पीलापन युक्त भूरा होता है। मुख दंतहीन होता है। जीभ धागे के समान तथा कोई वस्तु अपनी लपेट से पकड़ सकने योग्य (ग्रहणशील) होती है। ये जंगलों या मैदानों में रहते हैं।
लंबपुच्छ पैंगोलिन, चीनी पैंगोलिन, मलाया पैंगोलिन, दीर्घ पैंगोलिन और भारतीय पैंगोलिन आदि इनकी कई जातियाँ होती हैं।
भारतीय श्ल्कीय कीटभक्षक, या पैंगोलिन, को मानी प्रजति का कहा जाता है। ये विचित्र स्तनधारी जंतु अन्य स्तनधारी जंतुओं से भिन्न रूप रखते हैं। इनकी बाहरी आकृति सरीसृप सी मालूम होती है। ये प्राय: कर्णहीन होते हैं। पूँछ लंबी होती है, जो आधारस्थान पर बहुत मोटी होती है। सभी पैरों में पाँच अँगुलियाँ होती हैं। किसी शत्रु के आक्रमण करने पर पैंगोलिन अपने शरीर को मोड़कर गेंद का रूप दे देता है। ये निशिचर जंतु है। इसके शरीर तथा धड़ की लंबाई दो फुट तथा पूँछ की लंबाई डेढ़ फुट होती है। श् इसके शरीर के चारों ओर शल्कों की प्राय: एक दर्जन पंक्तियाँ होती है।
भारतीय पैंगोलिन भूमि में 12 फुट तक बिल बनाता है। एक बार में एक या दो शिशु उत्पन्न होते है। यह पालतू भी बनाया जाता है।
Paksiyo ke bachav ke liye kya kya kadam udae gaye hai
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