चौथी शताब्दी में गुप्त वंश का उदय भारतीय इतिहास में एक नए युग की शुरूआत को रेखांकितकरता है। श्रम और राजनीतिक फूट की जगह एकता ने ले ली। शक्तिशाली गुप्त राजाओं केनेतृत्व और संरक्षण में भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय विकास हुआ। चीनी यात्राीफाहियान (चौथी-पांचवी सदी ईस्वी) के अनुसार उस काल में खूब खुशहाली थी।
महाराजा श्री गुप्त को गुप्त वंश का संस्थापक बताया जाता है। उसके बाद धटोत्कच गुप्त आया।लेकिन यह चंद्रगुप्त (319 से 355 ईस्वी) था, जिसने महाराजाधिराज की पदवी अपनाई वह पहलाप्रसिद्ध गुप्त राजा था। समुद्रगुप्त अन्य प्रमुख गुप्त सम्राट था। उसका बेटा और उत्तराधिकारी- समुद्रगुप्त (335-380) बड़ा पराक्रमी था। इलाहाबाद स्तंभ में समुद्रगुप्त की प्रशंसा में दर्ज उसकेदरबारी कवि हरिसेन के प्रशस्ति गीत में उसके विजय अभियानों का जीवंत चित्राण है। एक महानविजेता और शासक होने के साथ ही समुद्रगुप्त एक विद्वान, उच्च स्तर का कवि, कला और विद्याका संरक्षक तथा संगीतज्ञ था। उसने अश्वमेघ यज्ञ करवाया।
समुद्रगुप्त के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय (380-415 ई0) उसका उत्तराधिकारी बना। उसने पश्चिम भारतके शक राजाओं पर जीत हासिल करने के बाद विक्रमादित्य की उपाधि अपनाई। उसने महत्वपूर्णवैवाहिक संबंध भी स्थापित किए। उसकी बेटी प्रभावती का विवाह वाटक के शासक रुद्रसेनद्वितीय के साथ हुआ था। उसका उत्तराधिकारी उसका बेटा कुमारगुप्त प्रथम (415 - 455 ई0)बना। उसके शासन काल में शांति और खुशहाली थी। उसका उत्तराधिकारी उसका बेटा स्कंदगुप्त(455 - 467 ई) बना। उसने कई बार हूण आक्रमण विफल किए। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी(पुरुगुप्त, बुद्धगुप्त, नारायणगुप्त) उतने शक्तिशाली और योग्य नहीं थे। इससे धीरे-धीेरे गुप्तसाम्राज्य का पतन हो गया।
गुप्त काल के दौरान राजतन्त्र प्रशासन की प्रमुख प्रणाली थी। राजा के दैनंदिन प्रशासन में मददके लिए एक मंित्रपरिषद के साथ अन्य अधिकारी भी शामिल होते थे। गुप्तों के पास शक्तिशालीसेना थी। प्रांतों का प्रशासन गवर्नर करते थे। उनके मातहत अनेक अधिकारी होते थे, जो जिलाऔर नगरों का प्रशासन संभालते थे। ग्राम प्रमुख (ग्रामिक) के नेतृत्व में ग्राम प्रशासन को उल्लेखनीयस्वायत्ता हासिल थी। गुप्त राजाओं ने न्यायिक और राजस्व प्रशासन की एक प्रभावी प्रणाली भीविकसित की थी।
गुप्तकाल में सांस्कृतिक विकास
1. ब्राह्मण और बौद्धधर्म का विकास-
गुप्तों के पूर्व शासन काल में बौद्ध धर्म एकप्रमुख धर्म था । गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, इस कारण ब्राह्मण धर्म के विकास मेंसहयोग दिया । हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण हुआ। बौद्ध धर्म के विकास में अवरोध उत्पन्न हुआ ।गुप्तकाल में ब्राह्मणों का प्रभाव अत्यधिक बढ़ा । इसकाल में हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां बनी। इसके अतिरिक्त यह काल धार्मिक और धर्म निरपेक्ष साहित्य के लिए प्रसिद्ध है । गणित औरविज्ञान के क्षेत्र में आश्चर्यजनक विकास हुआ ।अशोक ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया और अपने जीवन का अधिक समय शान्ति औरअहिंसा के प्रचार में लगाया । सम्राट ब्राम्हणों को ग्रामदान भी दिया करते थे ।
2. जातियों का आविर्भाव-
इस काल में अनेक जातियों का आविर्भाव हुआ, वर्ण प्रभावितहोने लगा । विजेता आक्रन्ताओं ने अपने आप को उच्च कुल कहने लगा । हूण राजपूत स्वीकारकरने लगे । जातियों का निर्माण होने लगा युद्ध बंदियों व दासों को कार्य का बंटवारा किया जानेलगा व उसे जातियों में बांटने लगे । जो शारीरिक व कठोर परिश्रम का कार्य करते थे उन्हें शुद्रकहा । शुद्रों की स्थिति दियनीय थी कठोर परिश्रम के बावजूद इन्हें अच्छे भोजन पानी कीसुविधा नहीं होती थी । तथाकथित उच्च समाज शुद्रों के साथ धृणापूर्ण व्यवहार करते थे व उन्हेंनीची निगाह से देखते थे ।
3. स्त्रियों की दशा-
इस काल में स्त्रियों की दशा में सुधार हुआ । वह पुरूषों के साथ कंघेसे कंघा मिलाकर काम करती थी । घुमने फिरने कार्यकरने, धार्मिक अनुष्ठान में सहयोग करने वपवित्र कार्यो में सहभागिता निभाती थी । धार्मिक ग्रंथ पढ़ने सुनने का अधिकार था । सती प्रथाका उदाहरण सर्वप्रथम 510 र्इ. में मिलता है । साथ ही उन्हें पुर्नविवाह का भी अधिकार मिला ।
4. सदाचारिता-
गुप्तकालीन समाज व लागे ों में नैतिकला का पालन किया जाता था ।सामाजिक आदर्शों से परिपूर्ण था । सदाचार, सत्य, समम्भाव, अहिंसा के गुण विद्यमान थे ।फाह्यान के अनुसार- ‘‘जनता में अपराध करने की भावना ही नहीं थी । जनता सुखीसंतुष्ठ और समृद्ध थी ।’’
5. धर्म-
भारतीय यूनानी राजा मिनेन्डर बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया । बौद्ध धर्म को राजकीयसंरक्षण प्रदान किया । कनिष्क ने भी बौद्ध धर्म के विकास विस्तार के प्रयास किया । उसी केशासन काल में महायान बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को अन्तिम रूप देने के लिए चौथी बौद्धसभा काआयोजन किया गया था । महायान सम्प्रदाय में धीरे-धीरे बुद्ध की मूर्ति का पूजा करने लगा । इसतरह मूर्ति पूजा का प्रचलन प्रारम्भ हुआ ।
गुप्तकाल में ब्राम्हणवाद प्रारंभिक वैदिक धर्म से काफी भिन्न था । वैदिक काल के देवीदेवताओं की महत्ता बढ़ गर्इ । इन्द्र, अग्नि, व सूर्य आदि कृष्ण को देवता के विष्णु अवतार के रूपमें पूजा किये जाने लगा । ब्राम्हणों के पुनरूथान के बाद बहुत ही धार्मिक रचानाऐं लिखी गर्इ ।इस काल में रामायण महाभारत को विस्तृत किया गया ।
गुप्त काल में यज्ञ के बदले पूजा भक्ति और मूर्तिपूजा ने स्थान ले लिया । विष्णु बरामिहिरके मूर्ति स्थापित किये गये । हर्ष के काल में बौद्ध धर्म मध्यकाल तक चलता रहा । बौद्धधर्म कामहत्व तेजी से घटने लगा और बुद्ध को भी विष्णु का अवतार मानने लगे । बुद्ध को विष्णु काअवतार मानकर बुद्ध की महत्ता को कम करने का प्रयास किया गया ।
वैदिक धर्म की जटिलताओं के फलस्वरूप बौद्धधर्म का उदय हुआ जो अशोक और कनिष्कके काल में बौद्ध धर्म को राज्याश्रय प्राप्त हुआ । गुप्तकाल में ब्राम्हणवाद को संरक्षण मिला । दोनोंही धर्मो के स्वरूप में अन्तर आया । बौद्ध धर्म हीनयान और महायान शाखाओं में बंट गया । भक्तिऔर पूजा को अपनाने लगा ।
गुप्तकालीन आर्थिक दशा-
गुप्तकाल में लागे समद्धृ थे, सर्वत्र शान्ति थी और आय केस्त्रोत एकाधिक थे, नगरों में जीवन स्तर उत्कृष्ट था ।कृषि- इस काल में कृषि, लोगों का मुख्य व्यवसाय था । शासन की आरे से भी इस ओरध्यान दिया जाता था । भूमि को मूल्यवान माना जाता था, राजा भूमि का वास्तविक मालिक होताथा । भूमि को उस समय उपज के आधार पर पांच भागों में विभक्त किया गया था-
- कृषि हेतुप्रयुक्त की जाने वाली भूमि ‘क्षेत्र‘ कहलाती थी,
- निवास योग्य भूमि ‘वस्तु’
- जानवरों हेतु प्रयुक्त भूमि ‘चारागाह’,
- बंजर भूमि ‘सिल’
- जंगली भूमि ‘अप्र्रहत’ कहलाती थी ।
कृषिसे राजस्व की प्राप्ति होती थी, जो उपज का छठवां भाग होता था । भूमिकर को कृषक नगद(हिरण्य) या अन्न (मेय) के रूप में अदा करता था । गुप्त शासकों ने बड़े पैमाने पर भूमिदान भीकिया था, जिससे राजकोष पर विपरीत प्रभाव पड़ा था ।
1. भूमि अनुदान-
गुप्त काल में भूि म अनुदान की प्रथा प्रारम्भ की गयी । इसके अतंर्गत राज्यकी समस्त भूमि राजा की मानी जाती थी । राज्य किसानों को अस्थायी तौर पर भूमि कृषि कार्यके लिये देता था । यह राज्य के कृपापर्यन्त चलता था, परन्तु आगे चलकर भूमिकर अनुदान कास्वरूप वंशानुगत हो गया तथा इसके साथ भूमि का क्रय-विक्रय प्रारम्भ हो गया । भूमि काक्रय-विक्रय राज्य के नियम के अनुसार होता था तथा राज्य की ओर से पुंजीकृत ताम्रपत्र प्रदानकिया जाता था ।
इस व्यक्तिगत भू-स्वामित्व की प्रक्रिया का लाभ शक्तिशाली और समृद्ध व्यक्तियों ने लेनाआरम्भ कर दिया । इसके अतिरिक्त राज्य की ओर से ग्राम दान की प्रथा भी प्रचलित थी । यद्यपिग्राम दान अस्थायी रूप से प्रदान किया जाता था, परन्तु कृषक वर्ग इन ग्राम के स्वामियों मालगुजारके अधीन होते गये, इस प्रक्रिया ने सामन्ती प्रथा को जन्म दिया । ये सामन्त आगे चलकर जमींदारकहलाये ।
2. व्यापार-
इस काल में व्यापार भी उन्नति की ओर था । वस्त्र व्यावसाय विकसित हो चुकाथा और मदुरा, बंगाल, गुजरात वस्त्रों के प्रमुख केन्द्र थे । इसके अतिरिक्त शिल्पी सोना, चांदी,कांसा, तांबा आदि से औजार बनाते थे । व्यापारियों का संगठन था और संगठन का प्रमुख आचार्यकहलाता था । आचार्य को सलाह देने हेतु एक समिति होती थी, जिसमें चार-पांच सदस्य होतेथे । शक्कर और नील का उत्पादन बहुतायत से किया जाता था । शासन की ओर से वणिकों औरशिल्पियों पर राजकर लगाया जाता था । कर के एवज में बेगार का भी प्रचलन था । एक व्यवसाय‘‘पशुपालन’’ को भी माना जाता था । बैलों का उपयोग हल चलाने और समान को स्थानान्तरितकरने में किया जाता था, इस काल में कपड़े को सिलकर पहनने का प्रचलन था ।
व्यापार, मिस्त्र, र्इरान, अरब, जावा, सुमात्रा, चीन तथा सुदूरपूर्व बर्मा से भी होता था । रेशमके कपड़ों की मांग विदेशों में अत्यधिक थी । शासन की ओर से एक निश्चित मात्रा में सभीव्यापारियों पर ‘कर’ लगाया गया था, किन्तु वसूली में ज्यादती नहीं की जाती थी । व्यापार कोचलाने हेतु व्यापारिक संगठनों का अपना नियम कानून था, जिससे व्यापारियों की सुरक्षा वरक्षा कीजाती थी ।
गुप्तकाल में कला-
गुप्तकाल में मूतिर्कला का जितना विकास हअु ा उतना प्राचीन भारतमें किसी भी काल में नहीं हुआ, इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकार ने अपनी प्राचीनसम्पूर्ण शक्ति व युक्ति से मूर्ति को जीवंत कर दिया है । इसी प्रकार स्थापत्य एवं चित्रकला औरपक्की मिट्टी की मूर्तिकला की श्रेष्ठता वर्तमान में भी स्वीकार की जाती है । यही वजह है किगुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण काल कहते हैं । इस काल में कला सम्भवत: धर्म कीअनुगामिनी थी । दुर्भाग्य से गुप्तकालीन वास्तुकला की उपलब्धि क्षीण है, जो सम्भवत: विदेशीआक्रान्ताओं द्वारा मूर्ति तोड़ने के
1. वास्तुकला-
गुप्तकाल में वास्तुकला को प्रात्े साहन आरै संरक्षण मिला, इस कला मेंनितांत नवीन शैली देखने को मिलती है । भवन, राजमहन, मंदिर, राजप्रसाद बड़े बनाये गये थे,दुर्भाग्य से इनके अवशेष कम मिलते हैं । ऐसा प्राकृतिक विपदा से कम और साम्राज्यवादी ताकतोंके द्वारा विध्वंश किये जाने के कारण ज्यादा प्रतीत होता है । मोरहा भराडू में उत्खनन सेगुप्तयुगीन भवनों के अवशेष मिले हैं, जो उत्कृष्ट शैली के हैं ।
इसी प्रकार इस काल में हिन्दू धर्म को प्रचार और संरक्षण मिलने के कारण वैष्णव और शैवमत के मंदिरों का बहुतायत से निर्माण कराया गया । गुप्तकालीन मंदिरों के निर्माण में प्रौद्योगिकीऔर तकनीकी सम्बन्धी विशेषताएं देखने को मिलती हैं । मंदिर आकार में छोटे, किन्तु पत्थरो सेबनाये जाते थे, जिनमें चूने या गारे का प्रयोग नहीं किया जाता था । इसमें गर्भगृह बनाया जाताथा, जहां पर देवता की स्थापना की जाती थी । मंदिरों के स्तम्भ-द्वार, कलात्मक होते थे, किन्तुभीतरी भाग सादा होता था । कालान्तर में इन मंदिरों के शिखर लम्बे बनने लगे थे, इसकी पुष्टि‘बराहमिहिर’ एवे ‘मेघदूत’ से भी होती है, इन मंदिरों में छत्तीसगढ़ के सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर,तिगवा (जबलपुर) का विष्णु मंदिर, भूसरा (नागौद) का शिव मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मंदिर,उदयगिरि (विदिशा) का विष्णु मंदिर, दहपरबतिया (असम) का मंदिर, एरन (बीना स्टेशन) का बराहऔर विष्णु मंदिर, कानपुर के निकट भीरत गॉंव का मंदिर प्रमुख हैं ।
2. मूर्तिकला -
गुप्त युग में हिन्दू, जैन, बौद्ध धर्म से सम्बन्धित ससुज्जित व कलात्मकमूर्तियां बड़े पैमाने पर बनीं, इन मूर्तियों की सादगी, जीवंतता व भावपूर्ण मुद्रा लोगों के आकर्षण काकेन्द्र है । विख्यात इतिहासविद वासुदुदेवशरण अग्रवाल का मत है कि ‘‘प्राचीन भारत में गुप्तकालको जो सम्मान पा्रप्त है उनमें मूर्तिकला का स्थान पथ््र ाम है ।’’ मथुरा सारनाथ, पाटलिपत्रु मुर्तिकलाके प्रसिद्ध केन्द्र थे । इन मूर्तियों में नग्नता का अभाव है और वस्त्र धारण कराया गया है ।प्रभामण्डल अलंकरित है । चेहरे का भाव ऐसा प्रदर्शित किया गया है मानों तर्कपूर्ण विचारों की आंधी का जवाब हो, इसी प्रकार गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियां अपनी उत्कृष्टता के लिए चर्चित हैं । फाह्यानने अपनी भारत यात्रा के दौरान 25 मीटर से भी ऊँची बुद्ध की एक ताम्रमूर्ति देखी थी । इस कालकी मूर्तिकला की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि केश घुँघराले बनाये गये साथ ही वस्त्र या परिध्ाान पारदर्शक होते थे ।
3. चित्रकला-
‘कामसूत्र ‘ में चौंसठ कलाओं में चित्रकला की गणना की गयी है ।चित्रकला नि:संदेह वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित थी । अजंता की चित्रकला सर्वोत्तम मानीगयी है । आकृति और विविध रंगों के संयोजनों ने इसे और भी आकर्षक बना दिया है । मौलिककल्पना, रंगों का चयन और सजीवता देखते ही बनती है । इन चित्रों में प्रमुख रूप से पद्यपाणिअवलोकितेश्वर, मूिच्र्छत रानी, यशोधरा राहुल मिलन, छतों के स्तम्भ खिड़की और चौखटों केअलंकरण सिद्धहस्त कलाकार की कृति प्रतीत होती है । बाघ की गुफाओं के भित्तिचित्र को भीगुप्तकालीन माना गया है, इन चित्रों में केश-विन्यास, परिधान व आभूषण आकर्षण के केन्द्र मानेजाते हैं ।
4. संगीत-
गुप्तकाल में नृत्य व संगीत को भी कला का एक अंग स्वीकार किया गया।समुद्रगुप्त को संगीत में वीणा का आचार्य माना जाता है । वात्स्यायन ने संगीत की शिक्षा कोनागरिकों के लिए आवश्यक माना है । मालविकाग्निमित्रम् से ज्ञात होता है कि नगरों में संगीत कीशिक्षा हेतु भवन बनाये जाते थे, उच्च कुल की कन्याएं नृत्य एवं संगीत की शिक्षा अनिवार्य रूप सेलेती थीं ।
गुप्तकाल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी
गुप्तकाल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का ज्ञान इतना उन्नत थाकि वर्तमान में वैज्ञानिक चमत्कृत हो जाते हैं । इस काल में आर्यभट्ट, बराहमिहिर और ब्रह्मगुप्तसुप्रसिद्ध वैज्ञानिक हुये । आर्यभट्ट ज्योतिष और गणित के आचार्य थे । इनके द्वारा प्रतिपादितगणितीय सिद्धान्त का आगे चलकर विकास हुआ ।
गुप्तकाल में गणित, खगोलशास्त्र ज्योतिष और धातुकला के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुर्इ ।गुप्तकाल में ही दशमलव पद्धति और शुन्य के अविष्कार किया गया । क्रमांक 1 से 9 तक के अंकोंके स्थानीय मान भी निर्धारित किया । विश्वभर में 9 के बाद आने वाली समस्या का समाधान होगया । आर्यभट्ट ने गणित की समस्या को सुलझाने के लिए आर्यभटिया नामक ग्रंथ लिखा । चरकऔर सुश्रुत संहिता का संक्षिप्त विवेचन किया गया ।
धातु कला का विकास-
दिल्ली के समीप महरौली में लाहै स्तम्भ इसका उदाहरण है साढ़ेछ: टन वजनी 7.38 मीटर ऊँचा लौहस्तम्भ है, इस प्रकार गुप्त काल में कला संस्कृति की पर्याप्तउन्नति हुर्इ ।