जायसी की काव्यगत विशेषताएँ
जायसी रससिद्ध कवि हैं। आपके काव्य का भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष दोनों ही समान रूप से प्रभावशाली हैं। आपकी रचनाओं की काव्यगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं- जायसी ने भारतीय प्रेमाख्यानों को अपने काव्य का विषय बनाया और उनके माध्यम से आध्यात्मिक रहस्यों को प्रस्तुत किया। 'पद्मावत' काव्य के रूप में एक प्रेम कथा है किन्तु उसमें आत्मा-परमात्मा का मधुर सम्बन्ध तथा सूफी उपासना-पद्धति की विविध मान्यताएँ प्रतीकात्मक रूप में वर्णित हैं। 'पद्मावत' के रूपक-पक्ष को स्वयं कवि ने स्पष्ट किया है-
तन चितउर मन राजा कीन्हा। हिय सिंहल बुधि पद्मिनि चीन्हा॥
गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा। बिन गुरु जगत् को निरगुन पावा॥
भारतीय सौन्दर्य-वर्णन की परम्परागत शैली को ही जायसी ने अपनाया है। यह शैली 'नख-शिख वर्णन' कहलाती है। कवि ने पद्मावती के सौन्दर्य-वर्णन में अपने परम्परा-परिचय और मोहक बिम्ब-विधान का परिचय दिया है-
भँवर केस वह मालति रानी। बिसहर लुरहिं लेहिं अरघानी॥
ससि-मुख, अंग मलयगिरि बासा। नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा॥
प्रकृति-वर्णन की जायसी के काव्य में कमी है किन्तु वह श्रृंगार का सहायक होकर आया है। वह स्वतंत्र प्रकृति-चित्रण न होकर रस के उद्दीपन हेतु ही प्रयुक्त हुआ है; यथा
कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल हौं बिरहै जारी॥
भा बैसाख तपनी अति लागी। चोआ चीर चँदन भा आगी।
आलंकारिक एवं नामपरिगणनात्मक प्रकार का प्रकृति-वर्णन भी 'पद्मावत' में विद्यमान है। जायसी का रहस्यवाद हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि है। आंचलिक संस्पर्श एवं मानव-मनोविज्ञान के सहयोग से जायसी ने भारतीय नारी का भव्य चित्र उभारा है; यथा-
बरसै मेघ चुवहिं नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा॥
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा। तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा॥
जायसी सूफी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं, जिसमें साधक प्रेम की साधना से ही साध्य को पा सकता है। यही पारलौकिक प्रेम जायसी के ग्रन्थों में लौकिक प्रेम बनकर अवतरित हुआ है। जीवात्मा के ईश्वर से मिलन का यह रूपक, रहस्य-भावना के साथ कवि ने प्रस्तुत किया है। आचार्य शुक्ल के मत में तो शुद्ध रहस्यवाद केवल जायसी के काव्य में ही प्राप्त होता है।
जायसी की रचनाओं में विविध रसों का समावेश बड़ी ही सफलता के साथ किया गया है। श्रृंगार के अतिरिक्त वीर, रौद्र, वीभत्स रसों का मार्मिक चित्रण भी जायसी की कविता में उपलब्ध है।
जायसी की भाषा ठेठ अवधी है। उन्होंने उसके व्याकरण सम्मत स्वरूप पर विचार न करके उसमें माधुर्य और मृदुलता के संवर्द्धन पर ही अधिक ध्यान दिया है। यही कारण है कि उसमें व्याकरण-सम्बन्धी अशुद्धियाँ हैं परन्तु श्रुति-माधुर्य और हृदय को छूने की अद्भुत शक्ति है।
जायसी ने प्रबन्ध शैली को अपने उद्देश्य के अधिक अनुकूल समझा। उन्होंने लोक-प्रचलित भारतीय प्रेमकथाओं का आधार लेकर महाकाव्य की रचना की और साथ ही विदेश मसनव्बी शैली को भी स्थान दिया। काव्य-रचना में आपने आलंकारिक शैली, प्रतीकात्मक शैली, शब्द चित्रात्मक शैली तथा अतिशयोक्ति-प्रधान शैलियों का प्रयोग किया है।
जायसी ने दोहा-चौपाई, छंदों का प्रयोग किया है। इसी छंद-योजना का चरम विकास तुलसी के 'रामचरितमानस' में प्राप्त होता है।
जायसी ने अलंकारों के प्रयोग में पूर्ण उदारता से काम लिया है। रूप-वर्णन, युद्ध, प्रकृति-चित्रण तथा आध्यात्मिक तत्वों की रहस्य-योजना में अलंकारों की पूरी सहायता ली गई है। आपके प्रिय अलंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति आदि का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है।
जायसी हिन्दी के प्रथम महाकाव्य के रचयिता हैं। आपकी रसमयी प्रेम-पद्धति हिन्दी काव्य साहित्य की मूल्यवान निधि है। एक साहित्यकार के रूप में तो आप प्रतिष्ठा-प्राप्त हैं ही, आपको साम्प्रदायिक सौमनस्य का संदेश-वाहक भी माना जाना चाहिए।
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