निर्देशन के सिद्धांत
निर्देशन के सिद्धान्त
निर्देशन में व्यक्ति के विकास और समाजहित दोनों पर ही ध्यान दिया जाता है। वास्तव में निर्देशन की प्रक्रिया उन सभी कार्यो एवं प्रयासों का संगठन है जिसमें व्यक्ति को सामन्जस्य समाहित विशिष्ट तकनीकों के प्रयोग द्वारा परिस्थितियों को संभालने, एक व्यक्ति को उसके अधिकतम विकास तक पहुॅचाने जिसमें उसका शारीरिक, व्यक्तित्व, सामाजिक, व्यवसायिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास हो, सम्मिलित है। निर्देशन कुछ निश्चित सिद्धान्तों पर कार्य करता है। इसके प्रमुख सिद्धान्तों को लेस्टर डी0 क्रो एवं एलिस क्रो ने अपनी रचना ‘‘एन इण्ट्रोडक्षन टु गाइडेन्स’’ में वर्णित किया है। इनका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
व्यक्ति का सम्पूर्ण प्रदर्शित व्यक्तित्व एवं व्यवहार एक महत्वपूर्ण घटक होता है। निर्देशन सेवाओं में इन तत्वों के महत्व को दिया जाना चाहिये।
मानव की सभी विभिन्नताओं को स्तरानुसार एवं आवश्यकतानुसार महत्व देना चाहिए।
व्यक्ति को प्रेरक, उपयोगी तथा प्राप्त होने योग्य उद्देष्यों के निरूपण में मदद करना।
वर्तमान उपस्थित समस्याओं के उचित समाधान हेतु प्रशिक्षित एवं अनुभवी निर्देशनदाता द्वारा यह दायित्व निभाना जाना चाहिए।
निर्देशन को बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था तक अनवरत रूप से चलने वाली प्रक्रिया के रूप में प्रस्थापित करना।
निर्देशन की प्रक्रिया को सर्वसुलभ बनाया जाना चाहिये जिससे कि वह आवश्यकता को न बताने वाले व्यक्ति को भी मिल सके।
विविध पाठ्यक्रमों के लिये गठित अध्ययन सामग्रियों तथा शिक्षण पद्धतियों में निर्देशन का दृष्टिकोण झलकना चाहिये।
शिक्षकों एवं अभिभावकों को निर्देशनपरक उत्तरदायित्व सौपा जाना चाहिये।
निर्देशन को आयु स्तर पर निर्देशन की विशिष्ट समस्याओं को उन्हीं व्यक्तियों को सुपुर्द करना चाहिये जो इसके लिये प्रशिक्षित हो।
निर्देशन के विविध पक्षों को प्रशासन बुद्धिमतापूर्वक एवं व्यक्ति के सम्यक अवबोध के आधार पर करने की दृश्टि से व्यक्तिगत मूल्यांकन एवं अनुसंधान कार्यक्रमों को संचालित करना चाहिये।
वैयक्तिक एवं सामुदायिक आवश्यकताओं के अनुकूल निर्देशन का कार्यक्रम लचीला होना चाहिये।
निर्देशन कार्यक्रम का दायित्व सुयोग्य एवं सुप्रशिक्षित नेतृत्व पर केन्द्रित होना चाहिये।
निर्देशन के कार्यक्रमों का सतत् मूल्यांकन करना चाहिये। और इस कार्यक्रम में लगे लोगों का इसके प्रति अभिवृित्त्ायों का भी मापन होना चाहिये क्योंकि इनका लगाव ही इस कार्यक्रम की सफलता का राज होता है।
निर्देशन कार्यक्रमों का सम्यक संचालन हेतु अत्यन्त कुषल एवं दूरदर्षिता नेतृत्व अपेक्षित है।
निर्देशन के मूलभूत सिद्धान्त
निर्देशन के अधिकांश सिद्धान्तों के विषय में ऊपर पढ़ चुके है। यह स्पष्ट हो गया कि यह निर्देशन कार्मिकों, प्रशासकों, शिक्षकों, विषेशज्ञों एवं निर्देशन का लाभ उठाने वाले सेवार्थियों का आपसी सहयोग उनकी निष्ठ तथा प्रेरणा पर निर्भर करता है। निर्देशन के मूलभूत सिद्धान्त हैं जिनपर यह कार्य करता है।
निर्देशन जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जो कि जीवन के प्रत्येक चरण में उपयोगी होती है।
निर्देशन व्यक्ति विषेश पर बल देता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को स्वतन्त्रता देते हुये उसे अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु उसकी आवश्यकताओं के अनुसार ही सहयोग देता है।
निर्देशन स्व निर्देशन पर बल देता है। यह प्रक्रिया सेवाथ्री को स्वयं अपनी दक्षता विकसित करने योग्य बनाती है।
निर्देशन सहयोग पर आधारित प्रक्रिया है अर्थात् यह सेवा प्रदाता एवं सेवाथ्री के आपसी तालमेल पर निर्भर करता है।
निर्देशन एक पूर्व नियोजित एवं व्यवस्थित प्रक्रिया है। यह अपने विविध चरणों से आगे बढ़ती हुयी संचालित की जाती है।
निर्देशन में सेवाथ्री से सम्बन्धित आवश्यक जानकारी को पूरी तरह से व्यवस्थित एवं गोपनीय रखी जाती है।
यह कम से कम संसाधनों के अनुप्रयोग द्वारा अधिक से अधिक निर्देशन सेवाओं को उपलब्ध कराने के सिद्धान्त पर निर्भर करती है।
निर्देशन के लिये जो भी संसाधन उपलब्ध हैं, के गहन रूप में उपयोग का सिद्धान्त अपनाया जाता है।
निर्देशन के कार्यक्रमों का सेवाथ्री की आवश्यकताओं के अनुकूल संगठन कर आवश्यकताओं की संतुश्टि पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
निर्देशन प्रक्रिया सेवाओं के विकेन्द्रीकरण पर बल देती है।
निर्देशन सेवाओं में समन्वय लाने का कार्य किया जाता है।
विकेंद्रीकरण के महत्व को स्पष्ट करे
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