स्वरोजगार पर निबंध
स्वावलम्बन की साध प्रत्येक युवा को होती है। युवावस्था की शुरुआत होते ही उसमें आत्म निर्भर बनने की चाहत गहराती है। किसी भी तरह से वह अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहता है। कुछ दशक पहले यह सपना केवल युवक देखते थे, लेकिन आज इसमें नवयुवतियाँ भी शामिल हो गयी हैं। आज महाविद्यालय में पढ़ने वाली प्रायः हर लड़की आत्म निर्भर बनना चाहती है। वह कुछ ऐसा करना चाहती है, जिससे वह स्वयं की सार्थकता व उपयोगिता साबित कर सके। जिन्दगी में अपनी निजी पहचान बना सके।
लेकिन स्वावलम्बन की चाहत पूरी होना आज इतना आसान नहीं है। सरकारी नौकरियाँ अब सिमटती जा रही हैं। जनसंख्या बढ़ने के साथ युवाओं की संख्या और उनमें रोजगार की माँग बढ़ी है। जबकि सभी जगहों पर निजीकरण के चलते सरकारी उद्यम घटे हैं। गैर सरकारी तंत्र में रोजगार के अवसर तो बढ़े हैं, पर साथ ही कई अनुबन्ध एवं प्रतिबन्ध भी बढ़े हैं। राजनैतिक शिकंजा लगातार इन पर कसता जा रहा है। स्थिति कुछ ऐसी हुई है कि योग्यता एवं प्रतिभा को नौकरी और रोजगार की गारंटी नहीं माना जा सकता।
रही बात स्वरोजगार की तो उसके लिए धन चाहिए और यह सुविधा सबके पास उपलब्ध नहीं है। सरकारी ऋण भी किन्हीं भाग्यशालियों को मिल पाता है। अन्यथा ज्यादातर युवा तो इसे पाने की कोशिश में सरकारी दफ्तरों में चक्कर लगाते और अंत में हाथ मलते रह जाते हैं। इम्प्लायमेण्ट रिसर्च प्रोग्राम के अंश साहनी का कहना है कि स्थिति की समीक्षा से मिलने वाले आँकड़े और निष्कर्ष इसकी गम्भीरता को दर्शाते हैं।
परन्तु जहाँ चाह वहाँ राह की कहावत यहाँ भी सच है। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के युवा छात्र-छात्राओं ने इसे आज के समय के अनुरूप ढाला है। इसमें उनका सहायक बना है-युगऋषि गुरुदेव का मार्गदर्शन। इनका मानना है कि जब तक समाज है, जिन्दगी है, तब तक काम के अवसर बने रहेंगे। बस इन्हें तलाशने और अपनाने की जरूरत है। समाज के कई ऐसे क्षेत्र हैं और देश के कई ऐसे हिस्से हैं, जिनकी जरूरतों को केन्द्रीय एवं प्रांतीय सरकारें नहीं पूरा कर पा रही हैं। अपने व्यावसायिक हितों में उलझी निजी संस्थाओं का भी इनसे कोई खास सरोकार नहीं है। जबकि देश के कई हिस्सों में वहाँ के निवासी अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए जूझ रहे हैं।
इस विश्वविद्यालय के अलग-अलग विभागों के छात्रों ने अपना एक समूह बनाया है। इस समूह की योजना देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर काम करने की है। अपनी इन्टर्नशिप के दौरान उन्हें ऐसे कुछ आमंत्रण-सुझाव एवं संकेत भी मिले थे। जिसे लागू करने पर न केवल उनकी रोजगार की समस्या हल होती दिखती है, बल्कि समाज को उनकी योग्यताओं का फायदा पहुँचने की उम्मीद है। बात सही भी है यदि विश्वविद्यालयों से निकलने के बाद छात्र छोटे समूहों में बँधकर देश के जरूरतमंद हिस्सों में स्वास्थ्य, शिक्षा आदि वहाँ की मौलिक जरूरतों के लिए काम करें, तो वहाँ के लोग उन्हें आवश्यक धन मुहैया कराने के लिए आसानी से तैयार हो जाते हैं।कुछ प्रतिष्ठित व्यावसायिक संस्थानों के छात्र-छात्राओं ने भी इस योजना पर अपने खास ढंग से काम करना शुरू किया है। समाचार पत्रों में प्रकाशित खबर के मुताबिक प्रबन्धन विशेषज्ञ निष्कर्ष राय अपने कुछ साथियों के साथ उत्तर-पूर्व के युवाओं के बीच काम कर भी रहे हैं। उनकी टीम में अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ शामिल हैं। इन्होंने वहाँ के युवाओं एवं क्षेत्रवासियों के वहाँ के संसाधनों के मुताबिक प्रशिक्षण करने की योजना तैयार की है।
इस टीम ने वहाँ की क्षेत्रीय संस्कृति के संवेदन सूत्रों को भारत की संस्कृति से भी जोड़ने का काम शुरू किया है, ताकि वहाँ के निवासी केवल अपने क्षेत्र को नहीं, बल्कि सम्पूर्ण देश के साथ गहरा अपनत्व अनुभव कर सकें। इन सबको वहाँ के लोगों से भरपूर अपनापन, जरूरी साधन एवं धन तथा सहयोग मिल रहा है। इसके लिए वे किसी सरकारी या गैरसरकारी कार्य पर निर्भर नहीं हैं। इन सभी का यह मानना है कि आज देश के युवा मिलकर देश व समाज के नवनिर्माण के कार्यों को अपने स्वावलम्बन का अवसर बना लें, तो न केवल उन्हें आत्मनिर्भरता मिलेगी, बल्कि राष्ट्रीय-सामाजिक नवनिर्माण का सुयोग भी प्राप्त होगा। हाँ इस कार्य के लिए युवाओं में नैतिकता की ढहती दीवारों को बचाने का साहस जरूर करना होगा।
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