मुद्राराक्षस की पुस्तकें
मुद्राराक्षस
संवत् 1932
भारतेंदु हरिश्चंद्र
महाकवि विशाखदत्त का बनाया मुद्राराक्षस,
स्थान-रंगभूमि
रंगशाला में नान्दीमंगलपाठ
भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब धन कोऊ, लखि नाचत मन मोर ।
‘कौन है सीस पै’? ‘चन्द्रकला’, ‘कहा याको है नाम यही त्रिपुरारी’?
‘हाँ यही नाम है, भूलगई किमी जानत हू तुम प्रान-पियारी’ ।
‘नारिहि पूछत चन्द्रहिं नाहिं’, ‘कहै विजया जदि चन्द्र लबारी’।
यों गिरिजै छलि गंग छिपावत ईस हरौ सब पीर तुम्हारी ।
पाद-प्रहार सों जाइ पताल न भूमि सबै तनु बोझ को मारे।
हाथ नचाइबे सों नभ मैं इत के उत टूटि परै नहिं तारे ।
देखन सों जरि जाहिं न लोक न खोलत नैन कृपा उर धारे।
यों थल के बिनु कष्ट सों नावत शर्व हरौ दुख सर्व तुम्हारे ।
नारी पद के अनन्तर
सूत्रधार : बस! बहुत मत बढ़ाओ, सुनो, आज मुझे सभासदों की आज्ञा है कि सामन्त बटेश्वरदत्त के पौत्र और महाराज पृथु के पुत्र विशाखदत्त कवि का बनाया मुद्राराक्षस नाटक खेलो। सच है, जो सभा काव्य के गुण और दोष को सब भाँति समझती है, उसके सामने खेलने में मेरा भी चित्त सन्तुष्ट होता है।
उपजैं आछे खेत में, मूरखहू के धान।
सघन होन मैं धान के, चहिय न गुनी किसान ।
तो अब मैं घर से सुघर घरनी को बुलाकर कुछ गाने बजाने का ढंग जमाऊँ। (घूमकर) यही मेरा घर है, चलूँ। (आगे बढ़कर) अहा! आज तो मेरे घर में कोई उत्सव जान पड़ता है, क्योंकि घर वाले सब अपने अपने काम में चूर हो रहे हैं।
पीसत कोऊ सुगन्ध कोऊ जल भरि कै लावत।
कोऊ बैठि कै रंग रंग की माल बनावत ।
कहुँ तिय गन हुँकार सहित अति òवन सोहावत।
होत मुशल को शब्द सुखद जिय को सुनि भावत ।
जो हो घर से स्त्री को बुलाकर पूछ लेता हूँ (नेपथ्य की ओर)
री गुनवारी सब उपाय की जाननवारी।
घर की राखनवारी सब कुछ साधनवारी ।
मो गृह नीति सरूप काज सब करन सँवारी।
बेगि आउरी नटी विलम्ब न करु सुनि प्यारी ।
(नटी आती है)
नटी : आर्यपुत्र! मैं आई, अनुग्रहपूर्वक कुछ आज्ञा दीजिए।
सूत्र. : प्यारी, आज्ञा पीछे दी जायगी पहिले यह बता कि आज ब्राह्मणों का न्यौता करके तुमने इस कुटुम्ब के लोगों पर क्यों अनुग्रह किया है? या आपही से आज अतिथि लोगों ने कृपा किया है कि ऐसे धूम से रसोई चढ़ रही है?
नटी : आर्य! मैंने ब्राह्मणों को न्यौता दिया है।
सूत्र. : क्यों? किस निमित्त से?
नटी : चन्द्रग्रहण लगनेवाला है।
सूत्र. : कौन कहता है?
नटी : नगर के लोगों के मुँह सुना है।
सूत्र. : प्यारी मैंने ज्योतिःशास्त्र के चैंसठों अंगों में बड़ा परिश्रम किया है। जो हो; रसोई तो होने दो पर आज तो ग्रहन है यह तो किसी ने तुझे धोखा ही दिया है क्योंकि-
चन्द्र बिम्ब पूरा न भए क्रूर केतु हठ दाप।
बल सों करिहै ग्रास कह-
(नेपथ्य में)
हैं! मेरे जीते चन्द्र को कौन बल से ग्रस सकता है?
सूत्र. : जेहि बुध रच्छत आप।
नटी : आर्य! यह पृथ्वी ही पर से चन्द्रमा को कौन बचाना चाहता है?
सूत्र. : प्यारी, मैंने भी नहीं लखा, देखो, अब फिर से वही पढ़ता हूँ और अब जब वह फिर बोलैगा तो मैं उसकी बोली से पहिचान लूंगा कि कौन है।
(‘अहो चन्द्र पूर न भए’ फिर से पढ़ता है)
(नेपथ्य में)
हैं! मेरे जीते चन्द्र को कौन बल से ग्रस सकता है?
सूत्र. : (सुनकर) जाना।
अरे अहै कौटिल्य
नटी : (डर नाट्य करती है)
सूत्र. : दुष्ट टेढ़ी मतिवारो।
नन्दवंश जिन सहजहिं निज क्रोधानल जारो ।
चन्द्रग्रहण को नाम सुनत निज नृप को मानी।
इतही आवत चन्द्रगुप्त पै कछु भय जानी ।
-तो अब चलो हम लोग चलें।
(दोनों जाते हैं)
प्रस्तावना
(प्रथम अंक)
(स्थान-चाणक्य का घर)
(अपनी खुली शिखा को हाथ से फटकारता हुआ चाणक्य आता है)
चाणक्य : बता! कौन है जो मेरे जीते चन्द्रगुप्त को बल से ग्रसना चाहता है?
सदा दन्ति के कुम्भ को जो बिदारै।
ललाई नए चन्द सी जौन धारै ।
जँभाई समै काल सो जौन बाढ़ै।
भलो सिंह को दाँत सो कौन काढ़ै ।
और भी
कालसर्पिणी नन्द-कुल, क्रोध धूम सी जौन।
अबहूं बाँधन देत नहिं, अहो शिखा मम कौन ।
दहन नन्दकुल बन सहज, अति प्रज्ज्वलित प्रताप।
को मम क्रोधानल-पतँग, भयो चहत अब पाप ।
शारंगरव! शारंगरव!!
(शिष्य आता है)
शिष्य : गुरुजी! क्या आज्ञा है?
चाणक्य : बेटा! मैं बैठना चाहता हूँ।
शिष्य : महाराज! इस दालान में बेन्त की चटाई पहिले ही से बिछी है, आप बिराजिए।
चाणक्य : बेटा! केवल कार्य में तत्परता मुझे व्याकुल करती है, न कि और उपाध्यायों के तुल्य शिष्यजन से दुःशीलता’ (बैठकर आप ही आप) क्या सब लोग यह बात जान गए कि मेरे नन्दवंश1 के नाश से क्रुद्ध होकर राक्षस पितावध से दुखी मलयकेतु2 से मिलकर यवनराज की सहायता लेकर चन्द्रगुप्त पर चढ़ाई किया जाता है। (कुछ सोचकर) क्या हुआ, जब मैं नन्दवंश-वधू की बड़ी प्रतिज्ञारूपी नदी से पार उतर चुका, तब यह बात प्रकाश होने ही से क्या मैं इसको न पूरा कर सकूँगा? क्योंकि-
दिसि सरिस रिपु-रमनी बदन-शशि कारिख लाय कै।
लै नीति पवनहि सचिव-बिटपन छार डारि जराय कै ।
बिनु पुर निवासी पच्छिगन नृप बंसमूल नसाय कै।
भो शान्त मम क्रोधाग्नि यह कछुदहन हित नहिं पाय कै।
और भी--
जिन जनन के अति सोच सो नृप-भय प्रगट धिक नहिं कह्यो।
पै मम अनादर को अतिहि वह सोच जिय जिनके रह्यो ।
ते लखहिं आसन सों गिरायो नन्द सहित समाज कों।
जिमि शिखर तें बनराज क्रोध गिरावई गजराज कों ।
सो यद्यपि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ, तो भी चन्द्रगुप्त के हेतु शस्त्र अब भी धारण करता हूँ। देखो मैंने-
नव नन्दन कौं मूल सहित खोद्यो छन भर में।
चन्द्रगुप्त मैं श्री राखी नलिनी जिमि सर में ।
क्रोध प्रीति सों एक नासि कै एक बसायो।
शत्रु मित्र को प्रकट सबन फल लै दिखलायो ।
अथवा जब तक राक्षस नहीं पकड़ा जाता तब तक नन्दों के मारने ही से क्या और चन्द्रगुप्त को राज्य मिलने से ही क्या? (कुछ सोचकर) अहा! राक्षस की नन्दवंश में कैसी दृढ़ भक्ति है! जब तक नन्दवंश का कोई भी जीता रहेगा तब तक वह कभी शूद्र का मन्त्री बनाना स्वीकार न करेगा, इससे उसके पकड़ने में हम लोगों को निरुद्यम रहना अच्छा नहीं। यही समझकर तो नन्दवंश का स्र्वार्थसिद्धि विचारा तपोवन में चल गया तौ भी हमने मार डाला। देखो, राक्षस मलयकेतु को मिलाकर हमारे बिगाड़ने में यत्न करता ही जाता है। (आकाश में देखकर) वाह राक्षस मन्त्री वाह! क्यों न हो! वाह मंत्रियों में वृहस्पति के समान वाह! तू धन्य है, क्योंकि-
जब लौं रहै सुख राज को तब लौं सबै सेवा करैं।
पुनि राज बिगड़े कौन स्वामी? तनिक नहिं चित में धरैं ।
जे बिपतिहूँ में पालि पूरब प्रीति काज संवारहीं।
ते धन्य नर तुम सरीख दुरलभ अहै संसय नहीं ।
इसी से तो हम लोग इतना यतन करके तुम्हें मिलाया चाहते हैं कि तुम अनुग्रह करके चन्द्रगुप्त के मन्त्री बनो, क्योंकि-
मूरख कातर स्वामिभक्त कछु काम न आवै।
पंडित हू बिन भक्ति काज कछु नाहिं बनावै ।
निज स्वारथ की प्रीति करैं ते सब जिमि नारी।
बुद्धि भक्ति दोउ होय सबैं सेवक सुखकारी ।
यों मैं भी इस विषय में कुछ सोता नहीं हूँ यथाशक्ति उसी के मिलाने का यत्न करता रहता हूँ। देखो, पर्वतक को चाणक्य ने मारा यह अपवाद न होगा, क्योंकि सब जानते हैं कि चन्द्रगुप्त और पर्वतक मेरे मित्र हैं तो मैं पर्वतक को मारकर चन्द्रगुप्त का पक्ष निर्बल कर दूँगा ऐसी शंका कोई न करेगा, सब यही कहेंगे कि राक्षस ने विषकन्या प्रयोग करके चाणक्य के मित्र पर्वतक को मार डाला। पर एकान्त में राक्षस ने मलयकेतु के जी में यह निश्चय करा दिया है कि तेरे पिता को मैंने नहीं मारा, चाणक्य ही ने मारा। इससे मलयकेतु मुझसे बिगड़ रहा है। जो हो, यदि यह राक्षस लड़ाई करने को उद्यत होगा तो भी पकड़ जायगा। पर जो हम मलयकेतु को पकड़ेंगे तो लोग निश्चय कर लेंगे कि अवश्य चाणक्य ही ने अपने मित्र इसके पिता को मारा और अब मित्रपुत्र अर्थात् मलयकेतु को मारना चाहता है और भी, अनेक देश की भाषा, पहिरावा, चाल व्यवहार जाननेवाले अनेक वेषधारी बहुत से दूत मैंने इसी हेतु चारों ओर भेज रखे हैं कि वे भेद लेते रहें कि कौन हम लोगों से शत्रुता रखता है, कौन मित्र है। और कुसुमपुर निवासी नन्द के मन्त्री और संबंधियों के ठीक ठाक वृत्तान्त का अन्वेषण हो रहा है, वैसे ही भद्रभटादिकों को बड़े-बड़े पद देकर चन्द्रगुप्त के पास रख दिया है और भक्ति की परीक्षा लेकर बहुत से अप्रमादी पुरुष भी शत्रु से रक्षा करने को नियत कर दिए हैं। वैसे ही मेरा सहपाठी मित्र विष्णु शर्मा नामक ब्राह्मण जो शुक्रनीति और चैसठों कला से ज्योतिषशास्त्र में बड़ा प्रवीण है, उसे मैंने पहले ही योगी बनाकर नन्दवध की प्रतिज्ञा के अनन्तर ही कुसुमपुर में भेज दिया है, वह वहाँ नन्द के मंत्रियों से मित्रता करके, विशेष करके राक्षस का अपने पर बड़ा विश्वास बढ़ाकर सब काम सिद्ध करेगा, इससे मेरा सब काम बन गया है परन्तु चन्द्रगुप्त सब राज्य का भार मेरे ही ऊपर रखकर सुख करता है। सच है, जो अपने बल बिना और अनेक दुःखों के भोगे बिना राज्य मिलता है वही सुख देता है। क्योंकि-
अपने बल सों लावहीं जद्यपि मारि सिकार।
तदपि सुखी नहिं होत हैं, राजा-सिंह-कुमार ।
(यमका चित्र हाथ में लिए योगी का वेष धारण किए दूत आता है)
दूत : अरे, और देव को काम नहिं, जम को करो प्रनाम।
जो दूजन के भक्त को, प्रान हरत परिनाम ।
और
उलटे ते हू बनत है, काज किए अति हेत।
जो जम जी सबको हरत, सोई जीविका देत ।
तो इस घर में चलकर जमपट दिखाकर गावें। (घूमता है)
शिष्य : रावल जी! ड्योढ़ी के भीतर न जाना।
दूत : अरे ब्राह्मण ! यह किसका घर है?
शिष्य : हम लोगों के परम प्रसिद्ध गुरु चाणक्य जी का।
दूत : (हँसकर) अरे ब्राह्मण, तो यह मेरे गुरुभाई का घर है; मुझे भीतर जाने दे, मैं उसको धर्मोपदेश करूँगा।
शिष्य : (क्रोध से) छिः मूर्ख! क्या तू गुरु जी से भी धर्म विशेष जानता है?
दूत : अरे ब्राह्मण! क्रोध मत कर सभी कुछ नहीं जानते, कुछ तेरा गुरु जानता है, कुछ मेरे से लोग जानते हैं।
शिष्य : (क्रोध से) मूर्ख! क्या तेरे कहने से गुरु जी की सर्वज्ञता उड़ जायगी?
दूत : भला ब्राह्मण! जो तेरा गुरु सब जानता है तो बतलावे कि चन्द्र किसको नहीं अच्छा लगता?
शिष्य : मूर्ख! इसको जानने से गुरु को क्या काम?
दूत : यही तो कहता हूँ कि यह तेरा गुरु ही समझेगा कि इसके जानने से क्या होता है? तू तो सूधा मनुष्य है, तू केवल इतना ही जानता है कि कमल को चन्द्र प्यारा नहीं है। देख-
जदपि होत सुन्दर, कमल, उलटो तदपि सुभाव।
जो नित पूरन चन्द सों, करत बिरोध बनाव ।
चाणक्य : (सुनकर आप ही आप) अहा! ”मैं चन्द्रगुप्त के बैरियों को जानता हूँ“ यह कोई गूढ़ बचन से कहता है।
शिष्य : चल मूर्ख! क्या बेठिकाने की बकवाद कर रहा है।
दूत : अरे ब्राह्मण! यह सब ठिकाने की बातें होंगी।
शिष्य : कैसे होंगी?
दूत : जो कोई सुननेवाला और समझनेवाला होय।
चाणक्य : रावल जी! बेखटके चले आइए, यहाँ आपको सुनने और समझनेवाले मिलेंगे।
दूत : आया। (आगे बढ़कर) जय हो महाराज की।
चाणक्य : (देखकर आप ही आप) कामों की भीड़ से यह नहीं निश्चय होता कि निपुणक को किस बात के जानने के लिये भेजा था। अरे जाना, इसे लोगों के जी का भेद लेने को भेजा था। (प्रकाश) आओ आओ कहो, अच्छे हो? बैठो।
दूत : जो आज्ञा। (भूमि में बैठता है)
चाणक्य : कहो, जिस काम को गए थे उसका क्या किया? चन्द्रगुप्त को लोग चाहते हैं कि नहीं?
दूत : महाराज! आपने पहले ही दिन से ऐसा प्रबन्ध किया है कि कोई चन्द्रगुप्त से बिराग न करे; इस हेतु सारी प्रजा महाराज चन्द्रगुप्त में अनुरक्त है, पर राक्षस मन्त्री के दृढ़ मित्र तीन ऐसे हैं जो चन्द्रगुप्त की वृद्धि नहीं सह सकते।
चाणक्य : (क्रोध से) अरे! कह, कौन अपना जीवन नहीं सह सकते, उनके नाम तू जानता है?
दूत : जो नाम न जानता तो आप के सामने क्योंकर निवेदन करता?
चाणक्य : मैं सुना चाहता हूँ कि उनके क्या नाम हैं?
दूत : महाराज सुनिए। पहिले तो शत्रु का पक्षपात करनेवाला क्षपणक है।
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) हमारे शत्रुओं का पक्षपाती क्षपणक है? (प्रकाश) उसका नाम क्या है?
दूत : जीवसिद्धि नाम है।
चाणक्य : तूने कैसे जाना कि क्षपणक मेरे शत्रुओं का पक्षपाती है?
दूत : क्योंकि उसने राक्षस मन्त्री के कहने से देव पर्वतेश्वर पर विषकन्या का प्रयोग किया।
चाणक्य : (आप ही आप) जीवसिद्धि तो हमारा गुप्तदूत है। (प्रकाश) हाँ, और कौन है?
दूत : महाराज! दूसरा राक्षस मन्त्री का प्यारा सखा शकटदास कायथ है।
चाणक्य : (हँसकर आप ही आप) कायथ कोई बड़ी बात नहीं है तो भी क्षुद्र शत्रु की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, इसी हेतु तो मैंने सिद्धार्थक को उसका मित्र बनाकर उसके पास रखा है (प्रकाश) हाँ, तीसरा कौन है?
दूत : (हँसकर) तीसर तो राक्षस मन्त्री का मानों हृदय ही, पुष्पपुरवासी चन्दनदास नामक वह बड़ा जौहरी है जिसके घर में मन्त्री राक्षस अपना कुटुंब छोड़ गया है।
चाणक्य : (आप ही आप) अरे! यह उसका बड़ा अन्तरंग मित्र होगा; क्योंकि पूरे विश्वास बिना राक्षस अपना कुटुंब यों न छोड़ जाता। (प्रकाश) भला, तूने यह कैसे जाना कि राक्षस मन्त्री वहां अपना कुटुंब छोड़ गया है?
दूत : महाराज! इस ‘मोहर’ की अँगूठी से आपको विश्वास होगा। (अँगूठी देता है?)
चाणक्य : (अँगूठी लेकर और उसमें राक्षस का नाम बाँचकर प्रसन्न होकर आप ही आप) अहा! मैं समझता हूँ कि राक्षस ही मेरे हाथ लगा। (प्रकाश) भला तुमने यह अँगूठी कैसे पाई? मुझसे सब वृत्तान्त तो कहो।
दूत : सुनिए, जब मुझे आपने नगर के लोगों का भेद लेने भेजा तब मैंने यह सोचा कि बिना भेस बदले मैं दूसरे के घर में न घुसने पाऊँगा, इससे मैं जोगी का भेस करके जमराज का चित्र हाथ में लिए फिरता-फिरता चन्दनदास जौहरी के घर में चला गया और वहाँ चित्र फैलाकर गीत गाने लगा।
चाणक्य : हाँ तब?
दूत : तब महाराज! कौतुक देखने को एक पाँच बरस का बड़ा सुन्दर बालक एक परदे के आड़ से बाहर निकला। उस समय परदे के भीतर स्त्रियों में बड़ा कलकल हुआ कि ”लड़का कहां गया।“ इतने में एक स्त्री ने द्वार के बाहर मुख निकालकर देखा और लड़के को झट पकड़ ले गई, पर पुरुष की उँगली से स्त्री की उँगली पतली होती हे, इससे द्वार ही पर यह अँगूठी गिर पड़ी, और मैं उस पर राक्षस मन्त्री का नाम देखकर आपके पास उठा लाया।
चाणक्य : वाह वाह! क्यों न हो। अच्छा जाओ, मैंने सब सुन लिया! तुम्हें इसका फल शीघ्र ही मिलेगा।
दूत : जो आज्ञा।
चाणक्य : शारंगरव! शारंगरव!!
शिष्य : (आकर) आज्ञा, गुरुजी।
चाणक्य : बेटा! कलम, दवात, कागज तो लाओ।
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर ले आता है) गुरुजी! ले आया।
चाणक्य : (लेकर आप ही आप) क्या लिखूं? इसी पत्र से राक्षस को जीतना है।
(प्रतिहारी आती है)
प्रतिहारी : जय हो, महाराज की जय हो!
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) वाह वाह! कैसा सगुन हुआ कि कार्यारंभ ही में जय शब्द सुनाई पड़ा। (प्रकाश) कहो, शोणोत्तरा, क्यों आई हो?
प्रति. : महाराज! राजा चन्द्रगुप्त ने प्रणाम कहा है और पूछा है कि मैं पर्वतेश्वर की क्रिया किया चाहता हूँ इससे आपकी आज्ञा हो तो उनके पहिरे आभरणों को पंडित ब्राह्मणों को दूँ।
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) वाह चन्द्रगुप्त वाह; क्यों न हो; मेरे जी की बात सोचकर सन्देश कहला भेजा है। (प्रकाश) शोणोत्तरा! चन्द्रगुप्त से कहो कि ‘वाह! बेटा वाह! क्यों न हो, बहुत अच्छा विचार किया! तुम व्यवहार में बड़े ही चतुर हो, इससे जो सोचा है सो करो, पर पर्वतेश्वर के पहिरे हुए, आभरण गुणवान ब्राह्मणों को देने चाहिएँ, इससे ब्राह्मण मैं चुन के भेजूँगा।’
प्रति. : जो आज्ञा महाराज? ख्जाती है
चाणक्य : शारंगरव! विश्वावसु आदि तीनों भाइयों से कहो कि जाकर चन्द्रगुप्त हो आभरण लेकर मुझसे मिलें।
शिष्य : जो आज्ञा। ख्जाता है
चाणक्य : (आप ही आप) पीछे तो यह लिखें पर पहिले क्या लिखें। (सोचकर) अहा! दूतों के मुख से ज्ञात हुआ है कि उस म्लेच्छराज-सेना में से प्रधान पांच राजा परम भक्ति से राक्षस की सेवा करते हैं।
प्रथम चित्रवर्मा कुलूत को राजा भारी।
मलयदेशपति सिंहनाद दूजो बलधारी ।
तीजो पुसकरनयन अहै कश्मीर देश को।
सिंधुसेन पुनि सिंधु नृपति अति उग्र भेष को ।
मेधाक्ष पांचवों प्रबल अति, बहु हय-जुत पारस-नृपति।
अब चित्रगुप्त इन नाम को मेटहिं हम जब लिखहिं हति ।1
(कुछ सोचकर) अथवा न लिखूँ, अभी सब बात यों ही रहे। (प्रकाश) शारंगरव! शारंगरव!
शिष्य : (आकर) आज्ञा गुरुजी!
चाणक्य : बेटा! वैदिक लोग कितना भी अच्छा लिखें तो भी उनके अक्षर अच्छे नहीं होते; इससे सिद्धार्थक से कहो (कान में कहकर) कि वह शकटदास के पास जाकर यह सब बात कहे या लिखवा कर और ‘किसी का लिखा कुछ कोई आप ही बांचे’ यह सरनामे पर नाम बिना लिखवाकर हमारे पास आवे और शकटदास से यह न कहे कि चाणक्य ने लिखवाया है।
शिष्य : जो आज्ञा। ख्जाता है
चाणक्य : (आप ही आप) अहा! मलयकेतु को तो जीत लिया। (चिट्ठी लेकर सिद्धार्थक आता है)
सिद्धा. : जय हो महाराज की जय हो, महाराज! यह शकटदास के हाथ का लेख है।
चाणक्य : (लेकर देखता है) वाह कैसे सुन्दर अक्षर हैं! (पढ़कर) बेटा, इस पर यह मोहर कर दो।
सिद्धा. : जो आज्ञा। (मोहर करके) महाराज, इस पर मोहर हो गई, अब और कहिए क्या आज्ञा है।
चाणक्य : बेटा! हम तुम्हें एक अपने निज के काम में भेजा चाहते हैं।
सिद्धा. : (हर्ष से) महाराज, यह तो आपकी कृपा है। कहिए, यह दास आपके कौन काम आ सकता है।
चाणक्य : सुनो पहिले जहाँ सूली दी जाती है वहाँ जाकर फाँसी देने वालों को दाहिनी आँख दबाकर समझा देना ’ और जब वे तेरी बात समझकर डर से इधर उधर भाग जायँ तब तुम शकटदास को लेकर राक्षस मन्त्री के पास चले जाना। वह अपने मित्र के प्राण बचाने से तुम पर बड़ा प्रसन्न होगा और तुम्हें पारितोषिक देगा, तुम उसको लेकर कुछ दिनों तक राक्षस ही के पास रहना और जब और भी लोग पहुंच जायँ तब यह काम करना। (कान में समाचार कहता है।)
सिद्धा. : जो आज्ञा महाराज।
चाणक्य : शारंगरव! शारंगरव!!
शिष्य : (आकर) आज्ञा गुरु जी!
चाणक्य : कालपाशिक और दण्डपाशिक से यह कह दो कि चन्द्रगुप्त आज्ञा करता है कि जीवसिद्ध क्षपणक ने राक्षस के कहने से विषकन्या का प्रयोग करके पर्वतेश्वर को मार डाला, यही दोष प्रसिद्ध करके अपमानपूर्वक उसको नगर से निकाल दें।
शिष्य : जो आज्ञा (घूमता है)
चाणक्य : बेटा! ठहर-सुन, और वह जो शकटदास कायस्थ है वह राक्षस के कहने से नित्य हम लोगों की बुराई करता है। यही दोष प्रगट करके उसको सूली पर दे दें और उसके कुटंुब को कारागार में भेज दें।
शिष्य : जो आज्ञा महाराज। ख्जाता है
चाणक्य : (चिन्ता करके आप ही आप) हा! क्या किसी भाँति यह दुरात्मा राक्षस पकड़ा जायगा।
सिद्धा. : महाराज! लिया।
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) अहा! क्या राक्षस को ले लिया? (प्रकाश) कहो, क्या पाया?
सिद्धा. : महाराज! आपने जो सन्देश कहा, वह मैंने भली भाँति समझ लिया, अब काम पूरा करने जाता हूँ।
चाणक्य : (मोहर और पत्र देकर) सिद्धार्थक! जा तेरा काम सिद्ध हो।
सिद्धा. : जो आज्ञा। (प्रणाम करके जाता है)
शिष्य : (आकर) गुरु जी, कालपाशिक, दण्डपाशिक आपसे निवेदन करते हैं कि महाराज चन्द्रगुप्त की आज्ञा पूर्ण करने जाते हैं।
चाणक्य : अच्छा बेटा! मैं चन्दनदास जौहरी को देखा चाहता हूँ।
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर चन्दनदास को लेकर आता है) इधर आइए सेठ जी!
चन्दन. : (आप ही आप) यह चाणक्य ऐसा निर्दय है कि यह जो एकाएक किसी को बुलावे तो लोग बिना अपराध भी इससे डरते हैं, फिर कहाँ मैं इसका नित्य का अपराधी, इसी से मैंने धनसेनादिक तीन महाजनों से कह दिया कि दुष्ट चाणक्य जो मेरा घर लूट ले तो आश्चर्य नहीं, इससे स्वामी राक्षस का कुटुंब और कहीं ले जाओ, मेरी जो गति होती है वह हो।
शिष्य : इधर आइए साह जी!
चन्दन : आया (दोनों घूमते हैं)
चाणक्य : (देखकर) आइए साहजी! कहिए, अच्छे तो हैं? बैठिए, यह आसन है।
चन्दन. : (प्रणाम करके) महाराज! आप नहीं जानते कि अनुचित सत्कार अनादर से भी विशेष दुःख का कारण होता है, इससे मैं पृथ्वी पर बैठूँगा।
चाणक्य : वाह! आप ऐसा न कहिए, आपको तो हम लोगों के साथ यह व्यवहार उचित ही है; इससे आप आसन ही पर बैठिए।
चन्दन. : (आप ही आप) कोई बात तो इस दुष्ट ने जानौ। (प्रकाश) जो आज्ञा (बैठता है)
चाणक्य : कहिए साहजी! चन्दनदास जी! आपको व्यापार में लाभ तो होता है न?
चन्दन. : महाराज, क्यों नहीं, आपकी कृपा से सब वनज-व्यापार अच्छी भाँति चलता है।
चाणक्य : कहिए साहजी! पुराने राजाओं के गुण, चन्द्रगुप्त के दोषों को देखकर, कभी लोगों को स्मरण आते हैं?
चन्दन. : (कान पर हाथ रखकर) राम! राम! शरद ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा की भाँति शोभित चन्द्रगुप्त को देखकर कौन नहीं प्रसन्न होता?
चाणक्य : जो प्रजा ऐसी प्रसन्न है तो राजा भी प्रजा से कुछ अपना भला चाहते हैं।
चन्दन. : महाराज! जो आज्ञा। मुझसे कौन और कितनी वस्तु चाहते हैं?
चाणक्य : सुनिए साह जी! यह नन्द का राज नहीं है चन्द्रगुप्त का राज्य है, धन से प्रसन्न होनेवाला तो वह लालची नन्द ही था, चन्द्रगुप्त तो तुम्हारे ही भले से प्रसन्न होता है।
चन्दन. : (हर्ष से) महाराज, यह तो आपकी कृपा है।
चाणक्य : पर यह तो मुझसे पूछिए कि वह भला किस प्रकार से होगा?
चन्दन. : कृपा करके कहिए।
चाणक्य : सौ बात की एक बात यह है कि राजा से विरुद्ध कामों को छोड़ो।
चन्दन. : महाराज वह कौन अभागा है जिसे आप राजविरोधी समझते हैं?
चाणक्य : उनमें पहिले तो तुम्हीं हो।
चन्दन. : (कान पर हाथ रखकर) राम! राम! राम! भला तिनके से और अग्नि से कैसा विरोध?
चाणक्य : विरोध यही है कि तुमने राजा के शत्रु राक्षस मन्त्री का कुटुंब अब तक घर में रख छोड़ा है।
चन्दन. : महाराज! यह किसी दुष्ट ने आपसे झूठ कह दिया है।
चाणक्य : सेठजी! डरो मत। राजा के भय से पुराने राज के सेवक लोग अपने मित्रों के पास बिना चाहे भी कुटुंब छोड़कर भाग जाते हैं इससे इसके छिपाने ही में दोष होगा।
चन्दन. : महाराज! ठीक है। पहिले मेरे घर पर राक्षस मन्त्री का कुटुंब था।
चाणक्य : पहिले तो कहा कि किसी ने झूठ कहा है। अब कहते हो था, यह गबड़े की बात कैसी?
चन्दन. : महाराज! इतना ही मुझसे बातों में फेर पड़ गया।
चाणक्य : सुनो, चन्द्रगुप्त के राज्य में छल का विचार नहीं होता, इससे राक्षस का कुटुंब दो, तो तुम सच्चे हो जाओगे।
चन्दन. : महाराज! मैं कहता हूँ न, पहिले राक्षस का कुटुंब था।
चाणक्य : तो अब कहाँ गया?
चन्दन. : न जाने कहाँ गया।
चाणक्य : (हँसकर) सुनो सेठ जी! तुम क्या नहीं जानते कि साँप तो सिर पर बूटी पहाड़ पर। और जैसा चाणक्य ने नन्द को....(इतना कह कर लाज से चुप रह जाता है।)
चन्दन. : (आप ही आप)
प्रिया दूर घन गरजहो, अहो दुःख अति घोर।
औषधि दूर हिमाद्रि पै, सिर पै सर्प कठोर ।
चाणक्य : चन्द्रगुप्त को अब राक्षस मन्त्री राज पर से उठा देगा यह आशा छोड़ो, क्योंकि देखो-
नृप नन्द जीवित नीतिबल सों मति रही जिनकी भली।
ते ‘वक्रनासादिक’ सचिव नहिं थिर सके करि, नसि चली ।
सो श्री सिमिट अब आय लिपटी चन्द्रगुप्त नरेस सों।
तेहि दूर को करि सकै? चाँदनि छुटत कहुँ राकेस सों? ।
और भी
”सदा दंति के कुंभ को“ इत्यादि फिर से पढ़ता है।
चन्दन. : (आप ही आप) अब तुमको सब कहना फबता है ।
(नेपथ्य में) हटो हटो-
चाणक्य : शारंगरव! यह क्या कोलाहल है देखो तो?
चन्दन. : जो आज्ञा (बाहर जाकर फिर आकर) महाराज, राजा चन्द्रगुप्त की आज्ञा से राजद्वेषी जीवसिद्धि क्षपणक निरादरपूर्वक नगर से निकाला जाता है।
चाणक्य : क्षपणक! हा! हा! अब वह राजविरोध का फल भोगै। सुनो चन्दनदास। देखो, राजा अपने द्वेषियों को कैसा कड़ा दण्ड देता है। मैं तुम्हारे भले की कहता हूँ, सुनो, और राक्षस का कुटुंब देकर जन्म भर राजा की कृपा से सुख भोगो।
चन्दन. : महाराज! मेरे घर राक्षस मन्त्री का कुटुंब नहीं है।
(नेपथ्य में कलकल होता है)
चाणक्य : शारंगरव! देख तो यह क्या कलकल होता है?
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर फिर आता है) महाराज! राजा की आज्ञा से राजद्वेषी शकटदास कायस्थ को सूली देने ले जाते हैं।
चाणक्य : राजविरोध का फल भोगै। देखो, सेठ जी! राजा अपने विरोधियों को कैसा कड़ा दण्ड देता है, इससे राक्षस का कुटुंब छिपाना वह कभी न सहेगा; इसी से उसका कुटुंब देकर तुमको अपना प्राण और कुटुंब बचाना हो तो बताओ।
चन्दन. : महाराज, क्या आप मुझे डर दिखाते हैं! मेरे यहाँ अमात्य राक्षस का कुटुंब हई नहीं है, पर जो होता तो भी में न देता।
चाणक्य : क्या चन्दनदास! तुमने यही निश्चय किया है?
चन्दन. : हाँ! मैंने यही दृढ़ निश्चय किया है।
चाणक्य : (आप ही आप) वाह चन्दनदास! वाह! क्यों न हो!
दूजे के हित प्रान दै, करे धर्म प्रतिपाल।
को ऐसो शिवि के बिना, दूजो है या काल ।
(प्रकाश) क्या चन्दनदास, तुमने यही निश्चय किया है?
चन्दनदास : हाँ! हाँ! मैंने यही निश्चय किया है।
चाणक्य : (क्रोध से) दुरात्मा दुष्ट बनिया! देख राजकोप का कैसा फल पाता है।
चन्दन. : (बाँह फैलाकर) मैं प्रस्तुत हूँ, आप जो चाहिए अभी दण्ड दीजिए।
चाणक्य : (क्रोध से) शारंगर! कालपाशिक, दण्डपाशिक से मेरी आज्ञा कहो कि अभी इस दुष्ट बनिए को दण्ड दें। नहीं, ठहरो, दुर्गपाल विजयपाल से कहो कि इसके घर का सारा धन ले लें और इसको कुटुंब समेत पकड़कर बाँध रखें, तब तक मैं चन्द्रगुप्त से कहूँ, वह आप ही इसके सर्वस्व और प्राण के हरण की आज्ञा देगा।
शिष्य : जो आज्ञा महाराज सेठजी इधर आइए।
चदन. : लीजिए महाराज! यह मैं चला। (उठकर चलता है, आप ही आप) अहा? मैं धन्य हूँ कि मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, अपने हेतु को सभी मरते हैं!
चाणक्य : (हर्ष से) अब ले लिया है राक्षस को, क्योंकि
जिमि इन तृन सम प्रान तजि कियो मित्र को त्रान।
तिमि सोहू निज मित्र अरु कुल रखिहै दै प्रान ।
(नेपथ्य में कलकल)
चाणक्य : शारंगरव!
शिष्य : (आकर) आज्ञा गुरुजी!
चाणक्य : देख तो यह कैसी भीड़ है।
शिष्य : (बाहर जाकर फिर आश्चर्य से आकर) महाराज! शकटदास को सूली पर से उतार कर सिद्धार्थक लेकर भाग गया।
चाणक्य : (आप ही आप) वाह सिद्धार्थक। काम का आरंभ तो किया। (प्रकाश) हैं क्या ले गया? (क्रोध से) बेटा! दौड़कर भागुरायण से कहो कि उसको पकड़े।
शिष्य : (बाहर जाकर आता है, विषाद से) गुरु जी! भागुरायण तो पहिले ही से कहीं भाग गया है।
चाणक्य : (आप ही आप) निज काज साधने के लिये जाय। (क्रोध से प्रकाश) भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुराज, बलगुप्त, राजसेन, रोहिताक्ष और विजयवर्मा से कहो कि दुष्ट भागुरायण को पकडें।
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर फिर आकर विषाद से) महाराज! बड़े दुख की बात है कि सब बेड़े का बेड़ा हलचल हो रहा है। भद्रभट इत्यादि तो सब पिछली ही रात भाग गए।
चाणक्य : (आप ही आप) सब काम सिद्ध करें। (प्रकाश) बेटा, सोच मत करो।
जे बात कछु जिय धारि भागे, भले सुख सों भागहीं।
जे रहे तेहू जाहिं, तिनको सोच मोहि जिय कछु नहीं ।
सत सैन सो अधिक साधिनि काज की जेहि जग कहै।
सो नन्दकुल की खननहारी बुद्धि नित मो मैं रहै ।
(उठकर और आकाश की ओर देखकर) अभी भद्रभटादिकों को पकड़ता हूँ। (आप ही आप) राक्षस! अब मुझसे भाग के कहाँ जायगा, देख-
एकाकी मदगलित गज, जिमि नर लावहिं बाँधि।
चन्द्रगुप्त के काज मैं तिमि तोहि धरिहों साधि ।
(सब जाते हैं-जवनिका गिरती है)
द्वितीय अंक
स्थान-राजपथ
(मदारी आता है)
मदारी : अललललललल, नाग लाए साँप लाए!
तंत्र युक्ति सब जानहीं, मण्डल रचहिं बिचार।
मंत्र रक्षही ते करहिं, अहि नृपको उपकार ।
(आकाश में देखकर2) महाराज! क्या कहा? ‘तू कौन है?’ महाराज! मैं जीर्णविष नाम सपेरा हूँ। (फिर आकाश की ओर देखकर) क्या कहा कि मैं भी साँप का मंत्र जानता हूँ खेलूँगा?“ तो आप काम क्या करते हैं, यह कहिए? (फिर आकाश की ओर देखकर) क्या कहा-‘मैं राजसेवक हूँ’ तो आप तो साँप के साथ खेलते ही हैं। (फिर ऊपर देखकर) क्या कहा ‘कैसे’? मंत्र और जड़ी बिन मदारी और आँकुस बिन मतवाले हाथी का हाथीवान, वैसे ही नए अधिकार के संग्रामविजयी राजा के सेवक-ये तीनों अवश्य नष्ट होते हैं। (ऊपर देखकर) यह देखते देखते कहाँ चला गया? (फिर ऊपर देखकर) यह महाराज? पूछते हो कि ‘इन पिटारियों में क्या है?’ इन पिटारियों में मेरी जीविका के सर्प हैं। (फिर ऊपर देखकर) क्या कहा कि ‘मैं देखूँगा!’ वाह वाह महाराज। देखिए देखिए, मेरी बोहनी हुई, कहिए इसी स्थान पर खोलूँ? परन्तु यह स्थान अच्छा नहीं है; यदि आपको देखने की इच्छा हो तो आप इस स्थान में आइए मैं दिखाऊँ। (फिर आकाश की ओर देखकर) क्या कहा कि ‘यह स्वामी राक्षस मन्त्री का घर है, इसमें मैं घुसने न पाऊँगा, तो आप जायँ, महाराज! मैं तो अपनी जीविका के प्रभाव से सभी के घर जाता आता हूँ। अरे क्या वह गया? (चारों ओर देखकर), अहा, बड़े आश्चर्य की बात है, जब मैं चाणक्य की रक्षा में चन्द्रगुप्त को देखता हूँ तब समझता हूँ कि चन्द्रगुप्त ही राज्य करेगा, पर जब राक्षस की रक्षा में मलयकेतु को देखता हूँ तब चन्द्रगुप्त का राज गया सा दिखाई देता है, क्योंकि-
चाणक्य ने लै जदपि बाँधी बुद्धि रूपी डोर सो।
करि अचल लक्ष्मी मौर्यकुल में नीति के निज जोर सो ।
पै तदपि राक्षस चातुरी करि हाथ में ताकों करै।
गहि ताहि खींचत आपुनी दिसि मोहि यह जानी परै ।
सो इन दोनों पर नीतिचतुर मंत्रियों के विरोध में नन्दकुल की लक्ष्मी संशय में पड़ी है।
दोऊ सचिव विरोध सों, जिमि बन जुग गजराय।
हथिनी सी लक्ष्मी बिचल, इत उत झोंका खाय ।
तो चलूँ अब मन्त्री राक्षस से मिलूँ।
जवनिका उठती है और आसन पर बैठा राक्षस और पास प्रियंबदक नामक सेवक दिखाई देते हैं।
राक्षस : (ऊपर देखकर आँखों में आँसू भरकर) हा! बड़े कष्ट की बात है-
गुन-नोति बल सों जीति अरि जिमि आपु जादवगन हयो।
तिमि नन्द को यह विपुल कुल बिधि बाम सों सब नसि गयो ।
एहि सोच में मोहि दिवस अरु निसि नित्य जागत बीतहीं।
यह लखौ चित्र विचित्र मेरे भाग के बिनु भीतहीं ।
अथवा
बिनु भक्ति भूले, बिनहि स्वारथ हेतु हम यह पन लियो।
बिनु प्रान के भय, बिनु प्रतिष्ठालाभ सब अब लौं कियो ।
सब छोड़ि कै परदासता एहि हेत नित प्रति हम करैं।
जो स्वर्ग में हूँ स्वामि मम निज शत्रु हत लखि सुख भरैं ।
(आकाश की ओर देखकर दुःख से) हा! भगवती लक्ष्मी! तू बड़ी अगुणज्ञा है क्योंकि-
निज तुच्छ सुख के हेतु तजि गुनरासि नन्द नृपाल कों।
अब शूद्र मैं अनुरक्त ह्वै लपटी सुधा मनु ब्याल कों ।
ज्यों मत्त गज के मरत मद की धार ता साथहिं नसै।
त्यों नन्द के साथहि नसी किन? निलज, अजहूँ जग बसै ।
अरे पापिन!
का जग में कुलवन्त नृप जीवित रह्यौ न कोय।
जो तू लपटी शूद्र सों नीचगामिनी होय?
अथवा1
बारबधू जन को अहै सहजहि चपल सुभाव।
तजि कुलीन गुनियन करहिं ओछे जन सों चाव ।
तो हम भी अब तेरा आधार ही नाश किए देते हैं। (कुछ सोचकर) हम मित्रवर चन्दनदास के घर अपना कुटुंब छोड़कर चले आए सो अच्छा ही किया। क्योंकि एक तो अभी कुसुमपुर को चाणक्य घेरा नहीं चाहता, दूसरे यहाँ के निवासी महाराजनन्द में अनुरक्त हैं, इससे हमारे सब उद्योगों में सहायक होते हैं। वहाँ भी विषादिक से चन्द्रगुप्त के नाश करने को और सब प्रकार से शत्रु का दाँव घात व्यर्थ करने को बहुत सा धन देकर शकटदास को छोड़ ही दिया है। प्रतिक्षण शत्रुओं का भेद लेने को और उनका उद्योग नाश करने को भी जीवसिद्धि इत्यादि सुहृद नियुक्त ही हैं।
सो अब तो-
विषवृक्ष-अहिसुत-सिंहपोत समान जो दुखरास कों।
नृपनन्द निज सुत जानि पाल्यौ सकुल निज असु-नास कों ।
ता चन्द्रगुप्तहि बुद्धि सर मम तुरत मारि गिराइ है।
जो दुष्ट दैव न कवच धनिकै असह आड़ै आइहै ।
(कंचुकी आता है)
कंचुकी : (आप ही आप)
नृपनन्द काम समान चानक-नीति-जर जरजर भयो।
पुनि धर्म सम नृप चन्द्र तिन तन पुरहु क्रम सों बढ़ि लियो ।
अवकास लहि तेहि लोभ राक्षस जदपि जीतन जाइहै।
पै सिथिल बल भे नाहिं कोऊ विधिहु सों जय पाइहै ।
(देखकर) मन्त्री राक्षस है। (आगे बढ़कर) मन्त्री! आप का कल्याण हो।
राक्षस : जाजलक! प्रणाम करता हूँ। अरे प्रियंवदक! आसन ला।
प्रियंवदक : (आसन लाकर) यह आसन है, आप बैठंे।
कंचुकी : (बैठकर) मन्त्री, कुमार मलयकेतु ने आपको यह कहा है कि ‘आपने बहुत दिनों से अपने शरीर का सब शृंगार छोड़ दिया है इससे मुझे बड़ा दुःख होता है। यद्यपि आपको अपने स्वामी के गुण नहीं भूलते और उनके वियोग के दुःख में यह सब कुछ नहीं अच्छा लगता तथापि मेरे कहने से आप इनको पहिरें।’ (आभरण दिखाता है) मन्त्री! आभरण कुमार ने अपने अंग से उतार कर भेजे हैं, आप इन्हें धारण करें।
राक्षस : जाजलक! कुमार से कह दो कि तुम्हारे गुणों के आगे मैं स्वामी के गुण भूल गया। पर-
इन दुष्ट बैरिन सो दुखी निज अंग नाहिं सँवारिहौं।
भूषन बसन सिंगार तब लौं हौ न तन कछु धारिहौं ।
जब लौं न सब रिपु नासि, पाटलिपुत्र फेर बसाइहौं।
हे कुँवर! तुमको राज दै, सिर अचल छत्र फिराइहौं ।
कंचुकी : अमात्य! आप जो न करो सो थोड़ा है, यह बात कौन कठिन है? पर कुमार की यह पहिली विनती तो माननेे ही के योग्य है।
राक्षस : मुझ तो जैसी कुमार की आज्ञा माननीय है वैसी ही तुम्हारी भी, इससे मुझे कुमार की आज्ञा मानने में कोई विचार नहीं है।
कंचुकी : (आभूषण पहिराता है) कल्याण हो महाराज! मेरा काम पूरा हुआ।
राक्षस : मैं प्रणाम करता हूँ।
कंचुकी : मुझको जो आज्ञा हुई थी सो मैंने पूरी की। ख्जाता है,
राक्षस : प्रियंवदक! देख तो मेरे मिलने को कोई द्वार पर खड़ा है।
प्रियं. : जो आज्ञा (आगे बढ़कर सपेरे के पास आकर) आप कौन है?
सँपेरा : मैं जीर्णविष नामक सपेरा हूँ और राक्षस मन्त्री के सामने मैं साँप खेलना चाहता हूँ। मेरी यही जीविका है।
प्रियं. : तो ठहरो, हम अमात्य से निवेदन कर लें। (राक्षस के पास जाकर) महाराज! एक सपेरा है, वह आपको अपना करतब दिखलाया चाहता है।
राक्षस : (बाई आँख का फड़कना दिखाकर आप ही आप) हैं, आज पहिले ही साँप दिखाई पड़े। (प्रकाश) प्रियंबदक! मेरा साँप देखने को जी नहीं चाहा तू इसे कुछ देकर विदा कर।
प्रियं. : जो आज्ञा। (सपेरे के पास जाकर) लो, मन्त्री तुम्हारा कौतुक बिना देखे ही तुम्हें यह देते हैं, जाओ।
सँपेरा : मेरी ओर से यह बिनती करो कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ किन्तु भाषा का कवि भी हूँ, इससे जो मन्त्री जी मेरी कविता मेरे मुख से न सुना चाहें तो यह पत्र ही दे दो पढ़ लें! (एक पत्र देता है)
प्रियं. : (पत्र लेकर राक्षस के पास आकर) महाराज! वह सँपेरा कहता है कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ, भाषा का कवि भी हूँ। इससे जो मन्त्री जी मेरी कविता मेरे मुख से सुनना न चाहें तो यह पत्र ही दे दो, पढ़ लें। ख्पत्र देता है।,
राक्षस : (पत्र पढ़ता है)
सकल कुसुम रस पान करि मधुप रसिक सिरताज।
जो मधु त्यागत ताहि लै होत सबै जग काज ।
(आप ही आप) अरे!!-‘मैं कुसुमपुर का वृत्तान्त जानने वाला आप का दूत हूँ’ इस दोहे से यह ध्वनि निकलती है। अह! मैं तो कामों से ऐसा घबड़ा रहा हूँ कि अपने भेजे भेदिया लोगों को भी भूल गया। अब स्मरण आया। यह तो सँपेरा बना हुआ विराधगुप्त कुसुमपुर से आया है। (प्रकाश) प्रियंबदक! इसको बुलाओ यह सुकवि है, मैं भी इसकी कविता सुना चाहता हूँ।
प्रियं. : जो आज्ञा (सँपेरे के पास जाकर) चलिए, मन्त्री जी आपको बुलाते हैं।
सँपेरा : (मन्त्री के सामने जाकर और देखकर आप ही आप) अरे यही मन्त्री राक्षस है! अहा!-
लै बाम बाहु-लताहि राखत कंठ सौं खसि खसि परै।
तिमि धरे दच्छिन बाहु कोहू गोद में बिच लै गिरै ।
जा बुद्धि के डर होइ संकित नृप हृदय कुच नहिं धरै।
अजहूँ न लक्ष्मी चन्द्रगुप्तहि गाढ़ आलिंगन करै ।
(प्रकाश) मन्त्री की जय हो।
राक्षस : (देखकर) अरे विराध-(संकोच से बात उड़ाकर) प्रियंबदक! मैं जब तक सर्पों से अपना जी बहलाता हूँ तब तक सबको लेकर तू बाहर ठहर!
प्रिय. : जो आज्ञा।
(बाहर जाता है)
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! इस आसन पर बैठो।
विराधगुप्त : जो आज्ञा। (बैठता है)
राक्षस : (खेद-सहित निहारकर) हा! महाराज नन्द के आश्रित लोगों की यह अवस्था! (रोता है)
विराध. : आप कुछ सोच न करें, भगवान की कृपा से शीघ्र ही वही अवस्था होगी।
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! कहो, कुसुमपुर का वृत्तान्त कहो।
विराध. : महाराज! कुसुमपुर का वृत्तान्त बहुत लंबा-चैड़ा है, जिससे जहाँ से आज्ञा हो वहाँ से कहूँ।
राक्षस : मित्र! चन्द्रगुप्त के नगर-प्रवेश के पीछे मेरे भेजे हुए विष देनेवाले लोगों ने क्या क्या किया यह सुना चाहता हूँ।
विराध. : सुनिए-शक, यवन, किरात, कांबोज, पारस, वाल्हीकादिक देश के चाणक्य के मित्र राजों की सहायता से, चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर के बलरूपी समुद्र से कुसुमपुर चारों ओर सो घिर गया है।
राक्षस : (कृपाण खींचकर क्रोध से) हैं! मेरे जीते कौन कुसुमपुर घेर सकता है? प्रवीरक! प्रवीरक!
चढ़ौ लै सरैं धाइ घेरौं अटा को।
धरौ द्वार पैं कुंजरै ज्यों घटा को ।
कहौ जोधनै मृत्यु को जीति धावैं।
चलैं संग भै छाँड़ि कै कीर्ति पावैं ।
विराध. : महाराज! इतनी शीघ्रता न कीजिए, मेरी बात सुन लीजिए।
राक्षस : कौन बात सुनूं? अब मैंने जान लिया कि इसी का समय आ गया है। (शस्त्र छोड़कर आँखों में आँसू भरकर) हा! देव नन्द! राक्षस को तुम्हारी कृपा कैसे भूलेगी?
हैं जहँ झुण्ड खडे़ गज मेघ के अज्ञा करौ तहाँ राक्षस! जायकै।
त्यों ये तुरंग अनेकन हैं, तिनहूँ के प्रबन्धहि राखौ बनायकै ।
पैदल ये सब तेरे भरोसे हैं, काज करौ तिनको चि लायकै।
यों कहि एक हमैं तुम मानत है, निज काज हजार बनाय कै ।
हाँ फिर?
विराध. : तब चारों ओर से कुसुम नगर घेर लिया और नगरवासी बिचारे भीतर ही भीतर घिरे घिरे घबड़ा गए। उनकी उदासी देखकर सुरंग के मार्ग से सव्र्वार्थसिद्धि तपोवन में चला गया और स्वामी के विरह से आपके सब लोग शिथिल हो गए। तब अपने जयकी डौण्ड़ी सब नगर में शत्रु लोगों ने फिरवा दी, और आपके भेजे हुए लोग सुरंग में इधर-उधर छिप गए, और जिस विषकन्या को आपने चन्द्रगुप्त के नाश-हेतु भेजा था उससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गया।
राक्षस : अहा मित्र! देखो, कैसा आश्चर्य हुआ-
जो विषमयी नृप-चन्द्र वध-हित नारि राखी लाय कै।
तासों हत्यो पर्वत उलटि चाणक्य बुद्धि उपाय कै ।
जिमि करन शक्ति अमोघ अर्जुन-हेतु धरी छिपाय कै।
पै कृष्ण के मत सो घटोत्कच पै परी घहराय कै ।
विराध. : महाराज! समय की सब उलटी गति है-क्या कीजिएगा?
राक्षस : हाँ तब क्या हुआ?
विराध. : तब पिता का वध सुनकर कुमार मलयकेतु नगर से निकलकर चले गए और पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक पर उन लोगों ने अपना विश्वास जमा लिया। तब उस दुष्ट चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का प्रवेश मुहूत्र्त प्रसिद्ध करके नगर के सब बढ़ई और लोहारों को बुलाकर एकत्र किया और उनसे कहा कि महाराज के नन्द भवन में गृहप्रवेश का मुहूर्त ज्योतिषियों ने आज ही आधी रात का दिया है, इससे बाहर से भीतर तक सब द्वारों को जाँच लो। तब उससे बढ़ई लोहारों ने कहा कि ‘महाराज! चन्द्रगुप्त का गृहप्रवेश जानकर दारुवर्म ने प्रवेश द्वार तो पहले ही सोने की तोरनों से शोभित कर रखा है, भीतर में द्वारों को हम लोग ठीक करते हैं।’ यह सुनकर चाणक्य ने कहा कि बिना कहे ही दारुवर्म ने बड़ा काम किया इससे उसको चतुराई का पारितोषिक शीघ्र ही मिलेगा।
राक्षस : (आश्चर्य से) चाणक्य प्रसन्न हो यह कैसी बात है? इससे दारुवर्म। का यत्न या तो उलटा होगा या निष्फल होगा, क्योंकि इसने बुद्धिमोह से या राजभक्ति से बिना समय ही चाणक्य के जी में अनेक सन्देह और विकल्प उत्पन्न कराए। हां फिर?
विराध. : फिर उस दुष्ट चाणक्य ने बुलाकर सबको सहेज दिया कि आज आधी रात को प्रवेश होगा, और उसी समय पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक और चन्द्रगुप्त को एक आसन पर बिठा कर पृथ्वी का आधा आधा भाग कर दिया।
राक्षस : क्या पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक को आधा राज मिला, यह पहले ही उसने सुना दिया?
विराध. : हां, तो इससे क्या हुआ?
राक्षस : (आप ही आप) निश्चय यह ब्राह्मण बड़ा धूर्त है, कि उसने उस सीधे तपस्वी से इधर उधर की चार बात बनाकर पर्वतेश्वर के मारने के अपयश निवारण के हेतु यह उपाय सोचा। (प्रकाश) अच्छा कहो-तब?
विराध. : तब यह तो उसने पहले ही प्रकाश कर दिया था कि आज रात को गृह प्रवेश होगा, फिर उसने वैरोधक को अभिषेक कराया और बड़े बड़े बहुमूल्य स्वच्छ मोतियों का उसको कवच पहिराया और अनेक रत्नों से बड़ा सुन्दर मुकुट उसके सिर पर रखा और गले में अनेक सुगंध के फूलों की माला पहिराई, जिससे वह एक ऐसे बड़े राजा की भांति हो गया कि जिन लोगों ने उसे सर्वदा देखा है वे भी न पहिचान सकें। फिर उस दुष्ट चाणक्य की आज्ञा से लोगों ने चन्द्रगुप्त की चन्द्रलेखा नाम की हथिनी पर बिठाकर बहुत से मनुष्य साथ करके बड़ी शीघ्रता से नन्द मंदिर में उसका प्रवेश कराया। जब वैरोधक मंदिर में घुसने लगा तब आपका भेजा दारुवर्म बढ़ई उसको चन्द्रगुप्त समझकर उसके ऊपर गिराने को अपनी कल की बनी तोरन लेकर सावधान हो बैठा। इसके पीछे चन्द्रगुप्त के अनुयायी राजा सब बाहर खड़े रह गये और जिस बर्बर को आपने चन्द्रगुप्त के मारने के हेतु भेजा था वह भी अपनी सोने की छड़ी की गुप्ती जिसमें एक छोटी कृपाण थी लेकर वहाँ खड़ा हो गया।
राक्षस : दोनों ने बेठिकाने काम किया। हां फिर?
विराध. : तब उस हथिनी को मारकर बढ़ाया और उसके दौड़ चलने से कल की तोरण का लक्ष्य, जो चन्द्रगुप्त के धोखे वैरोधक पर किया गया था, चूक गया और वहाँ बर्बर जो चन्द्रगुप्त का आसरा देखता था, वह बेचारा उसी कल की तोरण से मारा गया। जब दारुवर्मा ने देखा कि लक्ष्य तो चूक गए, अब मारे जाय हींगे तब उसने उस कल के लोहे की कील से उस ऊँचे तोरण के स्थान ही पर से चन्द्रगुप्त के धोखे तपस्वी वैरोधक को हथिनी ही पर मार डाला।
राक्षस : हाय! दोनों बात कैसे दुख की हुई कि चन्द्रगुप्त तो काल से बच गया और दोनों बिचारे बर्बर और वैरोधक मारे गये (आप ही आप) दैव ने इन दोनों को नहीं मारा हम लोगों को मारा!! (प्रकाश) और वह दारुवर्म बढ़ई क्या हुआ?
विराध. : उसको वैरोधक के साथ के मनुष्यों ने मार डाला।
राक्षस : हाय! बड़ा दुःख हुआ! हाय प्यारे दारुवर्म का हम लोगों से वियोग हो गया। अच्छा! उस वैद्य अभयदत्त ने क्या किया?
विराध. : महाराज! सब कुछ किया।
राक्षस : (हर्ष से) क्या चन्द्रगुप्त मारा गया?
विराध. : दैव ने न मारने दिया।
राक्षस : (शोक से) तो क्या फूलकर कहते हो कि सब कुछ किया?
विराध. : उसने औषधि में विष मिलाकर चन्द्रगुप्त को दिया, पर चाणक्य ने उसको देख लिया और सोने के बरतन में रखकर उसका रंग पलटा जानकर चन्द्रगुप्त से कह दिया कि इस औषधि में विष मिला है, इसको न पीना।
राक्षस : अरे वह ब्राह्मण बड़ा ही दुष्ट है। हाँ, तो वह वैद्य क्या हुआ?
विराध. : उस वैद्य को वही औषधि पिलाकर मार डाला।
राक्षस : (शोक से) हाय हाय! बड़ा गुणी मारा गया। भला शयनघर के प्रबन्ध करनेवाले प्रमोदक के क्या किया?
विराध. : उसने सब चैका लगाया।
राक्षस : (घबड़ा कर) क्यों?
विराध. : उस मूर्ख को जो आपके यहाँ से व्यय को धन मिला सो उससे उसने अपना बड़ा ठाटबाट फैलाया। यह देखते ही चाणक्य चैकन्ना हो गया और उससे अनेक प्रश्न किए, जब उसने उन प्रश्नों के उत्तर अण्डबण्ड दिए तो उस पर पूरा सन्देह करके दुष्ट चाणक्य ने उसको बुरी चाल से मार डाला!
राक्षस : हा! क्या देव ने यहाँ भी उलटा हमी लोगों को मारा! भला वह चन्द्रगुप्त को सोते समय मारने के हेतु जो राजभावन में वीभत्सकादि वीर सुरंग में छिपा रखे थे उनका क्या हुआ?
विराध. : महाराज! कुछ न पूछिए।
राक्षस : (घबड़ाकर) क्यों-क्यों! क्या चाणक्य ने जान लिया?
विराध. : नहीं तो क्या?
राक्षस : कैसे?
विराध. : महाराज! चन्द्रगुप्त के सोने जाने के पहले ही वह दुष्ट चाणक्य उस घर में गया और उसको चारों ओर से देखा तो भीतर की एक दरार से चिउँटियाँ चावल के कने लाती हैं। यह देखकर उस दुष्ट ने निश्चय कर लिया कि इस घर के भीतर मनुष्य छिपे हैं। बस, यह निश्चय कर उसने घर में आग लगवा दिया और धुआँ से घबड़ाकर निकल तो सके ही नहीं, इससे वे वीभत्सकादिक वहीं भीतर ही जलकर राख हो गए।
राक्षस : (सोच से) मित्र! देख, चन्द्रगुप्त का भाग्य कि सब के सब मर गए। (चिन्ता सहित) अहा! सखा! देख दुष्ट चन्द्रगुप्त का भाग्य।
कन्या जो विष की गई ताहि हतन के काज।
तासों मार्यौ पर्वतक जाको आधो राज ।
सबै नसे कलबल सहित जे पठए बध हेत।
उलटी मेरी नीति सब मौर्यहि को फल देत ।
विराध. : महाराज! तब भी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए-
प्रारंभ ही नहिं विघ्न के भय अधम जन उद्यम सजैं।
पुनि करहिं तौ कोउ विघ्न सों डरि मध्य ही मध्यम तजैं ।
धरि लात विध्न अनेक पै निरभय न उद्यम ते टरैं।
जे पुरुष उत्तम अन्त में ते सिद्ध सब कारज करंै ।
और भी-
का सेसहि नहिं भार पै धरती देत न डारि।
कहा दिवस नहि नहिं बकत पै नहिं रुकत विचारि ।
सज्जन ताको हित करत जेहि किय अंगीकार।
यहै नेम सुकृत को निज जिय करहु विचार ।
राक्षस : मित्र! यह क्या तू नहीं जानता कि मैं प्रारबध के भरोसे नहीं हूँ? हाँ, फिर।
विराध. : तब से दुष्ट चाणक्य चन्द्रगुप्त की रक्षा में चैकन्ना रहता है और इधर-उधर के अनेक उपाय सोचा करता है और पहिचान-पहिचान के नन्द के मित्रों को पकड़ता है।
राक्षस : (घबड़ाकर) हाँ! कहो तो, मित्र! उसने किसे किसे पकड़ा है?
विराध. : सबसे पहले तो जीवसिद्धि क्षपणक को निरादर करके नगर से निकाल दिया।
राक्षस : (आप ही आप) भला, इतने तक तो कुछ चिन्ता नहीं, क्योंकि वह योगी है उसका घर बिना जी न घबड़ायगा। (प्रकाश) मित्र! उस पर अपराध क्या ठहराया?
विराध. : कि इसी दुष्ट ने राक्षस की भेजी विषकन्या से पर्वतेश्वर को मार डाला।
राक्षस : (आप ही आप) वाह रे कौटिल्य वाह? क्यों न हो?
निज कलंक हम पै धर्यौ, हत्यो अर्ध बँटवार।
नीतिबीज तुव एक ही फल उपजवत हजार ।
(प्रकाश) हाँ, फिर
विराध. : फिर चन्द्रगुप्त के नाश को इसने दारुवर्मादिक नियत किए थे यह दोष लगाकर शकटदास को शूली दे दी।
राक्षस : (दुःख से) हा मित्र शकटदास! तुम्हारी बड़ी अयोग्य मृत्यु हुई। अथवा स्वामी के हेतु तुम्हारे प्राण गए। इससे कुछ सोच नहीं है, सोच हमीं लोगों का है कि स्वामी के मरने पर भी जीना चाहते हैं।
विराध. : मन्त्री। ऐसा न सोचिए, आप स्वामी का काम कीजिए।
राक्षस : मित्र।
केवल है यह सोक, जीव लोभ अब लौं बचे।
स्वामि गयो परलोक, पै कृतघ्न इतही रहे ।
विराध. : महाराज! ऐसा नहीं। (‘केवल है यह’ ऊपर का छन्द फिर से पढ़ता है)
राक्षस : मित्र! कहो, और भी सैकड़ों मित्रों का नाश सुनने को ये पापी कान उपस्थित हैं।
विराध. : यह सब सुनकर चन्दनदास ने बड़े कष्ट से आपके कुटुम्ब को छिपाया।
राक्षस : मित्र! उस दुष्ट चाणक्य के तो चन्दनदास ने विरुद्ध ही किया।
विराध. : तो मित्र का बिगाड़ करना तो अनुचित ही था।
राक्षस : हाँ, फिर क्या हुआ?
विराध. : तब चाणक्य ने आपके कुटुम्ब को चन्दनदास से बहुत मांगा पर उसने नहीं दिया, इसपर उस दुष्ट ब्राह्मण ने-
राक्षस : (घबड़ाकर) क्या चन्दनदास को मार डाला।
विराध. : नहीं, मारा तो नहीं, पर स्त्री-पुत्र धन-समेत बाँधकर बन्दीघर में भेज दिया।
राक्षस : तो क्या ऐसे सुखी होकर कहते हो कि बंधन में भेज दिया?
अरे! यह कहो कि मन्त्री राक्षस को कुटुंब सहित बाँध रक्खा है।
अरे! यह कहो कि मन्त्री राक्षस को कुटुंब सहित बाँध रक्खा है।
(प्रियंबदक आता है)
प्रियंबदक : जय-जय महाराज! बाहर शकटदास खड़े हैं।
राक्षस : (आश्चर्य से) सच ही!
प्रियं. : महाराज! आपके सेवक कभी मिथ्या बोलते हैं?
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! यह क्या?
विराध. : महाराज! होनहार जो बचाया चाहे तो कौन मार सकता है।
राक्षस : प्रियंबदक! अरे जो सच ही कहता है तो उनको झटपट लाता क्यों नहीं?
प्रियं. : जो आज्ञा। (जाता है
(सिद्धार्थक के संग शकटदास आता है)
शकटदास : (देखकर आप ही आप)
वह सूली गड़ी जो बड़ी दृढ़ कै,
सोई चन्द्र को राज थिर्यौ प्रन ते ।
लपटा वह फाँस की डोर सोई,
मनु श्री लपटी वृषलै मन तें ।
बजी डौण्ड़ी निरादर की नृप नन्द के,
सेऊ लख्यो इन आँखन तें ।
नहिं जानि परै इतनोहू भए,
केहि हेतु न प्रान कढे़ तन तें ।
(राक्षस को देखकर) यह मन्त्री राक्षस बैठे हैं। अहा!
नन्द गए हू नहिं तजत प्रभुसेवा को स्वाद।
भूमि बैठि प्रगटत मनहुँ स्वामिभक्त-मरजाद ।
(पास जाकर) मन्त्री की जय हो।
राक्षस : (देखकर आनन्द से) मित्र शकटदास! आओ, मुझसे मिल लो, क्योंकि तुम दुष्ट चाणक्य के हाथ से बच के आए हो।
शकट. : (मिलता है)
राक्षस : (मिलकर) यहाँ बैठो।
शकट. : जो आज्ञा। (बैठता है)
राक्षस : मित्र शकटदास! कहो तो यह आनन्द की बात कैसे हुई?
शकट. : (सिद्धार्थक को दिखाकर) इस प्यारे सिद्धार्थक ने सूली देने वाले लोगों को हटाकर मुझको बचाया।
राक्षस : (आनन्द से) वाह सिद्धार्थक! तुमने काम तो अमूल्य किया है, पर भला! तब भी यह जो कुछ है सो लो। (अपने अंग से आभरण उतार कर देता है)
सिद्धा. : (लेकर आप ही आप) चाणक्य1 के कहने से मैं सब करूँगा। (पैर पर गिरके प्रकाश) महाराज! यहाँ मैं पहिले पहल आया हूँ, इससे मुझे यहाँ कोई नहीं जानता कि मैं उसके पास इन भूषणों को छोड़ जाऊँ। इससे आप इसी अँगूठी से इस पर मोहर करके अपने ही पास रखें, मुझे जब काम होगा ले जाऊँगा।
राक्षस : क्या हुआ? अच्छा शकटदास! जो यह कहता है वह करो।
शकट. : जो आज्ञा। (मोहर पर राक्षस का नाम देखकर धीरे से) मित्र! यह तो तुम्हारे नाम की मोहर है।
राक्षस : (देखकर बड़े सोच से आप ही आप) हाय हाय इसको तो जब मैं नगर से निकला था तो ब्राह्मणी ने मेरे स्मरणार्थ ले लिया था, यह इसके हाथ कैसे लगी? (प्रकाश) सिद्धार्थक! तुमने यह कैसे पाई?
सिद्धा. : महाराज! कुसुमपुर में जो चन्दनदास जौहरी हैं उनके द्वार पर पड़ी पाई?
राक्षस : तो ठीक है।
सिद्धा. : महाराज! ठीक क्या है?
राक्षस : यही कि ऐसे धनिकों के घर बिना यह वस्तु और कहां मिले?
शकट. : मित्र! यह मन्त्रीजी के नाम की मोहर है, इससे तुम इसको मन्त्री को दे दो, तो इसके बदले तुम्हें बहुत पुरस्कार मिलेगा।
सिद्धा. : महाराज! मेरे ऐसे भाग्य कहां कि आप इसे लें। (मोहर देता है)
राक्षस : मित्र शकटदास! इसी मुद्रा से सब काम किया करो।
शकट. : जो आज्ञा।
सिद्धा. : महाराज! मैं कुछ बिनती करूँ?
राक्षस : हाँ हाँ! अवश्य करो।
सिद्धा. : यह तो आप जानते ही हैं कि उस दुष्ट चाणक्य की बुराई करके फिर मैं पटने में घुस नहीं सकता, इससे कुछ दिन आप ही के चरणों की सेवा किया चाहता हूँ।
राक्षस : बहुत अच्छी बात है। हम लोग तो ऐसा चाहते ही थे, अच्छा है, यहीं रहो।
सिद्धार्थक : (हाथ जोड़कर) बड़ी कृपा हुई।
राक्षस : मित्र शकटदास! ले जाओ, इसको उतारो और सब भोजनादिक को ठीक करो।
शकट. : जो आज्ञा।
(सिद्धार्थक को लेकर जाता है।)
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! अब तुम कुसुमपुर का वृत्तान्त जो छूट गया था सो कहो। वहाँ के निवासियों को मेरी बातें अच्छी लगती हैं कि नहीं।
विराध. : बहुत अच्छी लगती हैं, वरन वे सब तो आप ही के अनुयायी हैं।
राक्षस : ऐसा क्यों?
विराध. : इसका कारण यह है कि मलयकेतु के निकलने के पीछे चाणक्य को चन्द्रगुप्त ने कुछ चिढ़ा दिया और चाणक्य ने भी उसकी बात न सहकर चन्द्रग्रुप्त की आज्ञा भंग करके उसको दुःखी कर रखा है, यह मैं भली भाँति जानता हूँ।
राक्षस : (हर्ष से) मित्र विराधगुप्त! तो तुम इसी सँपेरे के भेस से फिर कुसुमपुर जाओ और वहाँ मेरा मित्र स्तनकलस नामक कवि है उससे कह दो कि चाणक्य के आज्ञाभंगादिकों के कवित्तबना बनाकर चन्द्रगुप्त को बढ़ावा देता रहे और जो कुछ काम हो जाय वह करभक से कहला भेजे।
विराध. : जो आज्ञा। ख्जाता है
(प्रियंबदक आता है)
प्रियं. : जय हो महाराज! शकटदास कहते हैं कि ये तीन आभूषण बिकते हैं, इन्हें आप देखें।
राक्षस. : (देखकर) अहा यह तो बड़े मूल्य के गहने हैं। अच्छा शकट दास से कह दो कि दाम चुकाकर ले ले।
प्रियं. : जो आज्ञा। ख्जाता है
राक्षस : तो अब हम भी चलकर करभक को कुसुमपुर भेजें। (उठता है)
अहा! क्या उस मृतक चाणक्य से चन्द्रगुप्त से बिगाड़ हो जाएगा?
क्यों नहीं? क्योंकि सब कामों को सिद्ध ही देखता हूँ।
चन्द्रगुप्त निज तेज बल करत सवन को राज।
तेहि समझत चाणक्य यह मेरो दियो समाज ।
अपनो अपनो करि चुके काज रह्यो कछु जौन।
अब जौ आपस में लड़ैं तौ बड़ अचरज कौन ।
जाते हैं।
Aala afsar
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