साईकिल की सवारी पंडित सुदर्शन
भगवान ही जानता है कि जब मैं किसी को साइकिल की सवारी करते या हारमोनियम बजातेदेखता हूँ तब मुझे अपने ऊपर कैसी दया आती है। सोचता हूँ, भगवान ने ये दोनोंविद्याएँ भी खूब बनाई हैं। एक से समय बचता है, दूसरी से समय कटता है। मगरतमाशा देखिए, हमारे प्रारब्ध में कलियुग की ये दोनों विद्याएँ नहीं लिखी गईं।न साइकिल चला सकते हैं, न बाजा ही बजा सकते हैं। पता नहीं, कब से यह धारणाहमारे मन में बैठ गई है कि हम सब कुछ कर सकते हैं, मगर ये दोनों काम नहीं करसकते हैं।
शायद 1932 की बात है कि बैठे बैठे ख्याल आया कि चलो साइकिल चलाना सीख लें। औरइसकी शुरुआत यों हुई कि हमारे लड़के ने चुपचुपाते में यह विद्या सीख ली औरहमारे सामने से सवार होकर निकलने लगा। अब आपसे क्या कहें कि लज्जा और घृणा केकैसे कैसे ख्याल हमारे मन में उठे। सोचा, क्या हमीं जमाने भर के फिसड्डी रह गएहैं! सारी दुनिया चलाती है, जरा जरा से लड़के चलाते हैं, मूर्ख और गँवार चलातेहैं, हम तो परमात्मा की कृपा से फिर भी पढ़े लिखे हैं। क्या हमीं नहीं चलासकेंगे? आखिर इसमें मुश्किल क्या है? कूदकर चढ़ गए और ताबड़तोड़ पाँव मारनेलगे। और जब देखा कि कोई राह में खड़ा है तब टन टन करके घंटी बजा दी। न हटा तोक्रोधपूर्ण आँखों से उसकी तरफ देखते हुए निकल गए। बस, यही तो सारा गुर है इसलोहे की सवारी का। कुछ ही दिनों में सीख लेंगे। बस महाराज, हमने निश्चय करलिया कि चाहे जो हो जाए, परवाह नहीं।
दूसरे दिन हमने अपने फटे पुराने कपड़े तलाश किए और उन्हें ले जाकर श्रीमतीजीके सामने पटक दिया कि इनकी जरा मरम्मत तो कर दो।
श्रीमतीजी ने हमारी तरफ अचरज भरी दृष्टि से देखा और कहा "इन कपड़ों में अबजान ही कहा है कि मरम्मत करूँ! इन्हें तो फेंक दिया था। आप कहाँ से उठा लाए?वहीं जाकर डाल आइए।"
हमने मुस्कुराकर श्रीमतीजी की तरफ देखा और कहा, "तुम हर समय बहस न किया करो।आखिर मैं इन्हें ढूँढ़ ढाँढ़ कर लाया हूँ तो ऐसे ही तो नहीं उठा लाया। कृपाकरके इनकी मरम्मत कर डालो।"
मगर श्रीमतीजी बोलीं, " पहले बताओ, इनका क्या बनेगा?"
हम चाहते थे कि घर में किसी को कानोंकान खबर न हो और हम साइकिल सवार बनजाएँ। और इसके बाद जब इसके पंडित हो जाएँ तब एक दिन जहाँगीर के मकबरे को जानेका निश्चय करें। घरवालों को तांगे में बिठा दें और कहें, "तुम चलो हम दूसरेतांगे में आते हैं।" जब वे चले जाएँ तब साइकिल पर सवार होकर उनको रास्ते मेंमिलें। हमें साइकिल पर सवार देखकर उन लोगों की क्या हालत होगी! हैरान होजाएँगे, आँखें मल-मल कर देखेंगे कि कहीं कोई और तो नहीं! परंतु हम गर्दन टेढ़ीकरके दूसरी तरफ देखने लग जाएँगे, जैसे हमें कुछ मालूम ही नहीं है, जैसे यहसवारी हमारे लिए साधारण बात है।
झक मारकर बताना पड़ा कि रोज रोज ताँगे का खर्च मारे डालता है। साइकिल चलानासीखेंगे।
श्रीमती जी ने बच्चे को सुलाते हुए हमारी तरफ देखा और मुस्कुराकर बोलीं, "मुझेतो आशा नहीं कि यह बेल आपसे मत्थे चढ़ सके। खैर यत्न करके देख लीजिए। मगर इनकपड़ों से क्या बनेगा?"
हमने जरा रोब से कहा - "आखिर बाइसिकिल से एक दो बार गिरेंगे या नहीं? और गिरनेसे कपड़े फटेंगे या नहीं? जो मूर्ख हैं, वो नए कपड़ों का नुकसान कर बैठते हैं।जो बुद्धिमान हैं, वो पुराने कपड़ों से काम चलाते हैं।
मालूम होता है हमारी इस युक्ति का कोई जवाब हमारी स्त्री के पास न था, क्योंकिउन्होंने उसी समय मशीन मँगवाकर उन कपड़ों की मरम्मत शुरू कर दी।
हमने इधर बाजार जाकर जंबक के दो डिब्बे खरीद लिए कि चोट लगते ही उसी समय इलाजकिया जा सके। इसके बाद जाकर एक खुला मैदान तलाश किया, ताकि दूसरे दिन सेसाइकिल-सवारी का अभ्यास किया जा सके।
अब यह सवाल हमारे सामने था कि अपना उस्ताद किसे बनाएँ। इसी उधेड़बुन में बैठेथे कि तिवारी लक्ष्मीनारायण आ गए और बोले, "क्यों भाई हो जाए एक बाजी शतरंजकी?"
हमने सिर हिलाकर जवाब दिया, "नहीं साहब! आज तो जी नहीं चाहता।"
"क्यों?"
"यदि जी न चाहे तो क्या करें?"
यह कहते कहते हमारा गला भर आया। तिवारी जी का दिल पसीज गया। हमारे पास बैठकरबोले, "अरे भाई मामला क्या है? स्त्री से झगड़ा तो नहीं हो गया?"
हमने कहा, "तिवारी भैया, क्या कहें? सोचा था, लाओ, साइकिल की सवारी सीख लें।मगर अब कोई ऐसा आदमी दिखाई नहीं देता जो हमारी सहायता करे। बताओ, है कोई ऐसाआदमी तुम्हारे ख्याल में?"
तिवारी जी ने हमारी तरफ बेबसी की आँखों से ऐसे देखा, मानों हमको कोई खजाना मिलरहा है और वे खाली हाथ रह जाते हैं। बोले, "मेरी मानो तो यह रोग न पालो। इसआयु में साइकिल पर चढ़ोगे? और यह भी कोई सवारियों में कोई सवारी है कि डंडे परउकड़ूँ बैठे हैं और पाँव चला रहे हैं। अजी लानत भेजो इस ख्याल पर आओ एक बाजीखेलें।" मगर हमने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थी। साफ समझ गए कि तिवारीईर्ष्या की आग में फुँका जाता है। मुँह फुलाकर हमने कहा, "भाई तिवारी हम तोजरूर सीखेंगे। कोई आदमी बताओ।"
"आदमी तो है ऐसा एक, मगर वह मुफ्त में नहीं सिखाएगा। फीस लेगा। दे सकोगे?"
"कितने दिन में सिखा देगा?"
'यही दस-बारह दिनों में!"
"और फीस क्या लेगा हमसे?"
"औरों से पचास लेता है। तुमसे बीस ले लेगा हमारी खातिर।"
हमने सोचा दस दिन सिखाएगा और बीस रुपये लेगा। दस दिन बीस रुपये। बीस रुपये -दस दिन। अर्थात् दो रुपये रोजाना अर्थात् साठ रुपये महीना और वो भी केवल एक दोघंटे के लिए। ऐसी तीन चार ट्यूशनें मिल जाएँ तो ढाई-तीन सौ रुपये मासिक होजाएँगे। हमने तिवारी जी से तो इतना ही कहा कि जाओ जाकर मामला तय कर आओ, मगर जीमें खुश हो रहे थे कि साइकिल चलाना सीख गए तो एक ट्रेनिंग स्कूल खोल दें औरतीन-चार सौ रुपये मासिक कमाने लगे।
इधर तिवारी जी मामला तय करने गए इधर हमने यह शुभ समाचार जाकर श्रीमती जी कोसुना दिया कि कुछ दिनों में हमलोग ऐसा स्कूल खोलने वाले हैं जिससे तीन-चार सौरुपये मासिक आमदनी होगी।
श्रीमती जी बोली, "तुम्हारी इतनी आयु हो गई मगर ओछापन न गया। पहले आप तो सीखलो, फिर स्कूल खोलना। मैं तो समझती हूँ कि तुम ही न सीख सकोगे दूसरों कोसिखाना तो दूर की बात है।"
हमने बिगड़कर कहा, "यह बड़ी बुरी बात है कि हर काम में टोक देती हो। हमसे बड़ेबड़े सीख रहे हैं तो क्या हम न सीख सकेंगे? पहले तो शायद सीखते या न सीखते, परअब तुमने टोका है तो जरूर सीखेंगे। तुम भी क्या कहोगी।"
श्रीमती जी बोली, "मैं तो चाहती हूँ कि तुम हवाई जहाज चलाओ। यह बाइसिकिल क्याचीज है? मगर तुम्हारे स्वभाव से डर लगता है। एक बार गिरोगे, तो देख लेना वहींसाइकिल फेंक-फाँककर चले आओगे।"
इतने में तिवारी जी ने बाहर से आवाज दी। हमने बाहर जाकर देखा तो उस्ताद साहबखड़े थे। हमने शरीफ विद्यार्थियों के समान श्रद्धा से हाथ जोड़ का प्रणाम कियाऔर चुपचाप खड़े हो गए।
तिवारी जी बोले, "यह तो बीस पर मान ही नहीं रहे थे। बड़ी मुश्किल से मनाया है।पेशगी लेंगे। कहते हैं, पीछे कोई नहीं देता।"
अरे भाई हम देंगे। दुनिया लाख बुरी है, मगर फिर भी भले आदमियों से खाली नहींहै। यह बस चलाना सीखा दें, फिर देखें, हम इनकी क्या क्या सेवा करते हैं।"
मगर उस्ताद साहब नहीं माने। बोले, "फीस पहले लेंगे।"
"और यदि आपने नहीं सिखाया तो?"
"नहीं सिखाया तो फीस लौटा देंगे।"
"और यदि नहीं लौटाया तो?"
इस पर तिवारी जी ने कहा, "अरे साहब! क्या यह तिवारी मर गया है? शहर में रहनाहराम कर दूँ, बाजार में निकलना बंद कर दूँ। फीस लेकर भाग जाना कोई हँसी-खेलहै?"
जब हमें विश्वास हो गया कि इसमें कोई धोखा नहीं है, तब हमने फीस के रुपये लाकरउस्ताद को भेंट कर दिए और कहा, "उस्ताद कल सवेरे ही आ जाना। हम तैयार रहेंगे।इस काम के लिए कपड़े भी बनवा लिए हैं। अगर गिर पड़े तो चोट पर लगाने के लिए जंबकभी खरीद लिया है। और हाँ हमारे पड़ोस में जो मिस्त्री रहता है, उससे साइकिल भीमाँग ली है। आप सवेरे ही चले आएँ तो हरि नाम लेकर शुरू कर दें।"
तिवारी जी और उस्ताद जी ने हमें हर तरह से तसल्ली दी और चले गए। इतने में हमेंयाद आया कि एक बात कहना भूल गए। नंगे पाँव भागे और उन्हें बाजार में जाकरपकड़ा। वे हैरान थे। हमने हाँफते-हाँफते कहा, "उस्ताद हम शहर के पास नहींसीखेंगे, लारेंसबाग में जो मैदान है, वहाँ सीखेंगे। वहाँ एक तो भूमि नरम है,चोट कम लगती है। दूसरे वहाँ कोई देखता नहीं है।"
अब रात को आराम की नींद कहाँ? बार बार चौंकते थे और देखते थे कि कहीं सूरज तोनहीं निकल आया। सोते थे तो साइकिल के सपने आते थे। एक बार देखा कि हम साइकिलसे गिरकर जख्मी हो गए हैं। साइकिल आप से आप हवा में चल रही है और लोग हमारीतरफ आँखें फाड़-फाड़ के देख रहे थे।
अब आँखें खुली तो दिन निकल आया था। जल्दी से जाकर वो पुराने कपड़े पहन लिए,जंबक का डिब्बा साथ में ले लिया और नौकर को भेज कर मिस्त्री से साइकिल मँगवाली। इसी समय उस्ताद साहब भी आ गए और हम भगवान का नाम लेकर लारेंसबाग की ओरचले। लेकिन अभी घर से निकले ही थे कि एक बिल्ली रास्ता काट गई और लड़के ने छींकदिया। क्या कहें कि हमें कितना क्रोध आया उस नामुराद बिल्ली पर और उस शैतानलड़के पर! मगर क्या करते? दाँत पीसकर रहे गए। एक बार फिर भगवान का पावन नामलिया और आगे बढ़े। पर बाजार में पहुँच कर देखते हैं कि हर आदमी हमारी तरफ देखरहा है और हँस रहा है। अब हम हैरान थे कि बात क्या है। सहसा हमने देखा कि हमनेजल्दी और घबराहट में पाजामा और अचकन दोनों उलटे पहन लिए हैं और लोग इसी पर हँसरहे हैं।
सर मुड़ाते ही ओले पड़े।
हमने उस्ताद से माफी माँगी और घर लौट आए अर्थात् हमारा पहला दिन मुफ्त मेंगुजरा।
दूसरे दिन फिर निकले। रास्ते में उस्ताद साहब बोले, "मैं एक गिलास लस्सी पीलूँ। आप जरा साइकिल को थामिए।"
उस्ताद साहब लस्सी पीने लगे तो हमने साइकिल के पुर्जों की ऊपर-नीचे परीक्षाशुरू कर दी। फिर कुछ जी में आया तो उसका हैंडल पकड़ कर चलने लगे। मगर दो ही कदमगए होंगे कि ऐसा मालूम हुआ जैसे साइकिल हमारे सीने पर चढ़ी आती है।
इस समय हमारे सामने गंभीर प्रश्न यह था कि क्या करना चाहिए? युद्ध क्षेत्र मेंडटे रहें या हट जाएँ? सोच विचार के बाद यही निश्चय हुआ कि यह लोहे का घोड़ा है।इसके सामने हम क्या चीज हैं। बड़े-बड़े वीर योद्धा भी ठहर नही सकते। इसलिए हमनेसाइकिल छोड़ दी और भगोड़े सिपाही बनकर मुड़ गए। पर दूसरे ही क्षण साइकिल पूरे जोरसे हमारे पाँव पर गिर गई और हमारी रामदुहाई बाजार के एक सिरे से दूसरे सिरे तकगूँजने लगी। उस्ताद लस्सी छोड़कर दौड़े आए और अन्य दयावान लोग भी जमा हो गए।सबने मिलकर हमारा पाँव साइकिल से निकाला। भगवान के एक भक्त ने जंबक का डिब्बाभी उठाकर हमारे हाथ में दे दिया। दूसरे ने हमारी बगलों में हाथ डालकर हमेंउठाया और सहानुभूति से पूछा, "चोट तो नहीं आई? जरा दो चार कदम चलिए नहीं तोलहू जम जाएगा।"
इस तरह दूसरे दिन भी हम और हमारी साइकिल दोनों अपनी घर से थोड़ी दूर पर जख्मीहो गए। हम लंगड़ाते हुए घर लौट आए और साइकिल ठीक होने के लिए मिस्त्री के दुकानपर भेज दी।
मगर हमारे वीर हृदय का साहस और धीरज तो देखिए। अब भी मैदान में डटे रहे। कईबार गिरे, कई बार शहीद हुए। घुटने तुड़वाए, कपड़े फड़वाए पर क्या मजाल जो जी छूटजाए। आठ-नौ दिनों में साइकिल चलाना सीख गए थे। लेकिन अभी उस पर चढ़ना नहीं आताथा। कोई परोपकारी पुरुष सहारा देकर चढ़ा देता तो फिर लिए जाते थे। हमारे आनंदकी कोई सीमा न थी। सोचा मार लिया मैदान हमने। दो चार दिन में पूरे मास्टर बनजाएँगे, इसके बाद प्रोफेसर प्रिंसिपल, इसके बाद ट्रेनिंग कॉलेज फिर तीन-चार सौरुपये मासिक। तिवारी जी देखेंगे और ईर्ष्या से जलेंगे।
उस दिन उस्ताद जी ने हमें साइकिल पर चढ़ा दिया और सड़क पर छोड़ दिया कि ले जाओ,अब तुम सीख गए।
अब हम साइकिल चलाते थे और दिल ही दिल फूले न समाते थे। मगर हाल यह था कि कोईआदमी सौ गज के फासले पर होता तो हम गला फाड़-फाड़कर चिल्लाना शुरू कर देते -साहब! बाईं तरफ हट जाइए। दूर फासले पर कोई गाड़ी दिख जाती तो हमारे प्राण सूखजाते। उस समय हमारे मन की जो दशा होती वो परमेश्वर ही जानता है। जब गाड़ी निकलजाती तब कहीं जाकर हमारी जान में जान आती। सहसा सामने से तिवारी जी आते हुएदिखे। हमने उन्हें भी दूर से ही अल्टीमेटम दिया कि तिवारी जी, बाईं तरफ होजाओ, वरना साइकिल तुम्हारे ऊपर चढ़ा देंगे।
तिवारी जी ने अपनी छोटी छोटी आँखों से हमारी तरफ देखा और मुस्कुराकर कहा -"जरा एक बात तो सुनते जाओ।"
हमने एक बार हैंडल की तरफ, दूसरी बार तिवारी जी की तरफ देखकर कहा, "इस समय बातसुन सकते हैं? देखते नहीं हो साइकिल पर सवार हैं।"
तिवारी जी बोले, "तो क्या जो साइकिल चलाते हैं, वो किसी की बात नहीं सुनतेहैं? बड़ी जरूरी बात है, जरा उतर आओ।
हमने लड़खड़ाती हुई साइकिल को सँभालते हुए जवाब दिया, "उतर आएँगे तो चढ़ाएगा कौन?अभी चलाना सीखा है चढ़ना नहीं सीखा।"
तिवारी जी चिल्लाते ही रह गए, हम आगे निकल गए।
इतने में सामने से एक ताँगा आता दिखाई दिया। हमने उसे भी दूर से ही डाँट दिया,"बाईं तरफ भाई। अभी नए चलाने वाले हैं।"
ताँगा बाईं तरफ हो गया। हम अपने रास्ते चले जा रहे थे। एकाएक पता नहीं घोड़ाभड़क उठा या ताँगेवाले को शरारत सूझी, जो भी हो, ताँगा हमारे सामने आ गया।हमारे हाथ पाँव फूल गए। जरा सा हैंडल घुमा देते तो हम दूसरी तरफ निकल जाते।मगर बुरा समय आता है तो बुद्धि पहले ही भ्रष्ट हो जाती है। उस समय हमें ख्यालही न आया कि हैंडल घुमाया भी जा सकता है। फिर क्या था, हम और हमारी साइकिलदोनों ही ताँगे के नीचे आ गए और हम बेहोश हो गए।
जब हम होश में आए तो हम अपने घर में थे और हमारी देह पर कितनी ही पट्टियाँबँधी थीं। हमें होश में देखकर श्रीमतीजी ने कहा, "क्यों? अब क्या हाल है? मैंकहती न थी, साइकिल चलाना न सीखो! उस समय तो किसी की सुनते ही न थे।"
हमने सोचा, लाओ सारा इल्जाम तिवारी जी पर लगा दें और आप साफ बच जाएँ। बोले,"यह सब तिवारी जी की शरारत है।"
श्रीमती जी ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "यह तो तुम उसको चकमा दो जो कुछ जानता नहो। उस ताँगे पर मैं ही तो बच्चों को लेकर घूमने निकली थी कि चलो सैर भी करआएँगे और तुम्हें साइकिल चलाते भी देख आएँगे।
हमने निरुत्तर होकर आँखें बंद कर लीं।
उस दिन के बाद फिर कभी हमने साइकिल को हाथ न लगाया।
Why did the author wanted to learn cycling?
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