प्रतिहार वंश की मंडोर शाखा
यूँ तो प्रतिहारो की उत्पत्ति पर कई सारे मत है,किन्तु उनमे से अधिकतर कपोल कल्पनाओं के अलावा कुछ नहीं है। प्राचीन साहित्यों में प्रतिहार का अर्थ "द्वारपाल" मिलता है। अर्थात यह वंश विश्व के मुकुटमणि भारत के पश्चिमी द्वारा अथवा सीमा पर शासन करने के चलते ही प्रतिहार कहलाया।
अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।
कुछ इतिहासकार,अग्निवंश के कुलो को विदेशी मूल का मानती है तो कुछ गुर्जर मूल का।इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।
1) सोमदेव सूरी ने सन 959 में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जर देश का वर्णन किया है। वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा,चालुक्य,आदि वंश भी इस देश पर राज करने के कारण गुर्जर कहलाये।
2) विद्व शाल मंजिका,सर्ग 1,श्लोक 6 में राजशेखर ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव के पुत्र महेंद्र को रघुकुल तिलक अर्थात सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है।
3)कुमारपाल प्रबंध के पृष्ठ 111 पर भी गुर्जर देश का वर्णन है...
कर्णाटे,गुर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ सैन्धवे।
उच्चाया चैव चमेयां मारवे मालवे तथा।।
4) महाराज कक्कुक का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है....अर्थात रघुवंशी क्षत्रिय
रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।
तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।
5) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(9 वी शताब्दी)
स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।
श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।
इस शिलालेख के अनुसार इस वंश का शासनकाल गुजरात में प्रकाश में आया था।
6) चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी पीलोमोलो,भीनमाल या बाड़मेर कहा है।
7) मिहिर भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति
मन्विक्षा कुक्कुस्थ(त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं,
राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:।
श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी।
तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम।
अर्थात-सुर्यवंश में मनु,इश्वाकू,कक्कुस्थ आदि राजा हुए,उनके वंश में पौलस्त्य(रावण) को मारने वाले राम हुए,जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र(सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था,उसके वंश में नागभट्ट हुआ। इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव(विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।
8) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी:(बालभारत,1/11)
तेन(महिपालदेवेन)च रघुवंश मुक्तामणिना(बालभारत)
बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी कहा है।
9)ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत 1013(ईस्वी 956) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है,उसमे उल्लेख किया गया है कि-
तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव:।।6।।
तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोडsभवत।
अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया,अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ।
10) गौडेंद्रवंगपतिनिर्ज्जयदुर्व्विदग्धसदगुर्ज्जरेश्वरदिगर्ग्गलतां च यस्य।
नीत्वा भुजं विहतमालवरक्षणार्त्थ स्वामी तथान्यमपि राज्यछ(फ) लानि भुंक्ते।।
-बडोदे का दानपत्र,Indian Antiquary,Vol 12,Page 160
उक्त ताम्रपत्र के 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश(गुजरात) का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।
ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्जुर इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।
11) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।
12)36 राजवंशो की किसी भी सूची में इस वंश के साथ "गुर्जर" एद का प्रयोग नहीं किया गया है। यह तथ्य भी गुर्जर एद को स्थानसूचक सिद्धकर सम्बंधित एद का कोइ विशेष महत्व नही दर्शाता।
13)ब्राह्मण उत्पत्ति के विषय में इस वंश के साथ द्विज,विप्र यह दो संज्ञाए प्रयुक्त की गई है,तो द्विज का अर्थ ब्राह्मण न होकर द्विजातिय(जनेउ) संस्कार से है न की ब्राह्मण से। ठीक इसी तरह विप्र का अर्थ भी विद्वान पंडित अर्थात "जिसने विद्वत्ता में पांडित्य हासिल किया है
उपरोक्त सभी प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की,प्रतिहार वंश निस्संदेह भारतीय मूल का है तथा शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है।
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प्रतिहार वंश
संस्थापक- हरिषचन्द्र प्रतिहार
वास्तविक - नागभट्ट प्रथम (वत्सराज)
प्रतिहार-वत्सराज
राजस्थान के दक्षिण पष्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेष में प्रतिहार वंष की स्थापना हुई। ये अपनी उत्पति लक्ष्मण से मानते है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंष प्रतिहार वंष कहलाया। नगभट्ट प्रथम पष्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों को विफल किया। नागभट्ट प्रथम के बाद वत्सराज षासक बना। वह प्रतिहार वंष का प्रथम षासक था जिसने त्रिपक्षीप संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष/त्रिराष्ट्रीय संघर्ष में भाग लिया।
त्रिपक्षीय संघर्ष:- 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य लगभग 200 वर्षो तक पष्चिम के प्रतिहार पूर्व के पाल और दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंष ने कन्नौज की प्राप्ति के लिए जो संघर्ष किया उसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है।
नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज के पष्चात् षक्तिषाली षासक हुआ उसने भी अरबों को पराजित किया किन्तु कालान्तर में उसने गंगा में डूब आत्महत्या कर ली।
मिहिर भोज प्रथम - इस वंष का सर्वाधिक षक्तिषाली षासक इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर कन्नौज पर अपना अधिकार किया और प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया। मिहिर भोज की उपब्धियों की जानकारी उसके ग्वालियर लेख से प्राप्त होती है।
- आदिवराह व प्रीाास की उपाधी धारण की।
-आदिवराह नामक सिक्के जारी किये।
मिहिर भोज के पष्चात् महेन्द्रपाल षासक बना। इस वंष का अन्तिम षासक गुर्जर प्रतिहार वंष के पतन से निम्नलिखित राज्य उदित हुए।
मारवाड़ का राठौड़ वंष
मेवाड़ का सिसोदिया वंष
जैजामुक्ति का चन्देल वंष
ग्वालियर का कच्छपधात वंष
गुर्जर-प्रतिहार
8वीं से 10वीं षताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंष गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है।
प्रतिहार का अर्थ है द्वारपाल प्रतिहार स्वयं को लक्ष्मण वंषिय सूर्य वंषीय या रधुकुल वंषीय मानते है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण षैली गुर्जर प्रतिहार षैली या महामारू षैली कहलाती है। प्रतिहारों ने अरब आक्रमण कारीयों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें "द्वारपाल"भी कहा जाता है। प्रतिहार गुर्जरात्रा प्रदेष (गुजरात) के पास निवास करते थे। अतः ये गुर्जर - प्रतिहार कहलाएं। गुर्जरात्रा प्रदेष की राजधानी भीनमाल (जालौर) थी।
मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी।
मण्डौर शाखा का संस्थापक - हरिशचंद्र था।
गुर्जर प्रतिहारों की प्रारम्भिक राजधानी -मण्डौर
भीनमाल शाखा
1. नागभट्ट प्रथम:- नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंष की स्थापना की तथा भीनमाल को प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
2. वत्सराज द्वितीय:- वत्सराज भीनमाल प्रतिहार वंष का वास्तिवक संस्थापक था। वत्सराज को रणहस्तिन की उपाधि प्राप्त थी। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने "कुवलयमाला" की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू षैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन षैली में बना है।
-औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था।
-औसिंया (जोधपुर)के मंदिर प्रतिहार कालीन है।
-औसियां को राजस्थान को भुवनेष्वर कहा जाता है।
-औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।
-जिनसेन ने "हरिवंष पुराण " की रचना की।
वत्सराज ने त्रिपक्षिय संर्घष की षुरूआत की तथा वत्सराज राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित हुआ।
त्रिपक्षिय/त्रिराष्ट्रीय संर्घष
कन्नौज को लेकर उत्तर भारत की गुर्जर प्रतिहार पूर्व में बंगाल का पाल वंष तथा दक्षिणी भारत का राष्ट्रवंष के बीच 100 वर्षो तक के चले संघर्ष को त्रिपक्षिय संघर्ष कहा जाता है।
3. नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज व सुन्दर देवी का पुत्र। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणकारियों पर पूर्णतयः रोक लगाई। नागभट्ट द्वितीय ने गंगा समाधि ली। नागभट्ट द्वितीय ने त्रिपक्षिय संघर्ष में कन्नौज को जीतकर सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
4. मिहिर भोज (835-885 ई.):- मिहिर भोज को आदिवराह व प्रभास की उपाधि प्राप्त थी। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी था। मिहिरभोज प्रतिहारों का सबसे अधिक षक्तिषाली राजा था। इस काल चर्माेत्कर्ष का काल था। मिहिर भोज ने चांदी के द्रुम सिक्के चलवाये। मिहिर भोज को भोज प्रथम भी कहा जाता है। ग्वालियर प्रषक्ति मिहिर भोज के समय लिखी गई।
851 ई. में अरब यात्री सुलेमान ने मिहिर भोज के समय भारत यात्रा की। अरबीयात्री सुलेमान व कल्वण ने अपनी राजतरंगिणी (कष्मीर का इतिहास) में मिहिर भोज के प्रशासन की प्रसंषा की। सुलेमान ने भोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया है।
5. महिन्द्रपाल प्रथम:- इसका गुरू व आश्रित कवि राजषेखर था। राजषेखर ने कर्पुर मंजरी, काव्य मिमांसा, प्रबंध कोष हरविलास व बाल रामायण की रचना की। राजषेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को निर्भय नरेष कहा है।
6. महिपाल प्रथम:- राजषेखर महिपाल प्रथम के दरबार में भी रहा। 915 ई. में अरब यात्री अली मसुदी ने गुर्जर व राजा को बोरा कहा है।
7. राज्यपाल:- 1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया।
8. यषपाल:- 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यषपाल था।
भीनमाल:- हेनसांग/युवाचांग न राजस्थान में भीनमाल व बैराठ की यात्रा की तथा अपने ग्रन्थ सियू की मे भीनमाल को पोनोमोल कहा है। गुप्तकाल के समय का प्रसिद्व गणितज्ञ व खगोलज्ञ ब्रहमागुप्त भीनमाल का रहने वाला था जिससे ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त " ब्रहमास्फुट सिद्धान्त (बिग बैन थ्यौरी) का प्रतिपादन किया।
-- दो महानायक प्रतिहार राजपूत वंश के - - . .....सम्राट नागभट्ट प्रतिहार .....
के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -"जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी ,तथा दूसरीऔर मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी ,जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था ,जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था।
इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया ,वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वंहा के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी ,वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी। अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता। इस सबसे बचाने का भारत में कार्य नागभट्ट प्रतिहार ने किया। उसने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देन है। परिहार वंश में वैसे तो कई महान राजा हुए पर सबसे ज्यादा शक्तिशाली नागभट्ट प्रथम एवं मिहिर भोज जी थे जिन्होने अपने जीवन मे कभी भी मुगल और अरबों को भारत पर पैर जमाने का मौका नहीं दिया । इसीलिए आप सभी मित्रों ने कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक किताबो पर भी पढा होगा की प्रतिहारों को ईसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया है।।
ब्रिटिश इतिहासकार कहते थे कि भारत कभी एक " राष्ट्र " था ही नहीं वामी इतिहासकार कहते हैं कि भारत राष्ट्रीयता की भावना से " एक " हुआ ही नहीं --- धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार कहते हैं कि " हिंदुत्व और इस्लाम " में कोई संघर्ष था ही नहीं
--- मुस्लिम कहते है कि इस्लाम के शेरों के सामाने निर्वीर्य हिंदू कभी टिके ही नहीं ...--- हमें तो यही बताया गया है , यही पढाया गया है कि हिंदू सदैव हारते आये हैं .. They are born looser , और आप भी शायद ऐसा ही मानते हों ,पर क्या ये सच है ?
...................नहीं ....................
तो फिर सच क्या है ? क्या हमारे पूर्वजों के भी कुछ कारनामे हैं ? कुछ एसे कारनामे जिनपर हम गर्व कर सकें ? जवाब है ..... हाँ ...हैं .....एसे ढेर सारे कारनामे जिन्होंने इस देश ही नहीं विश्व इतिहास को भी प्रभावित किया और जिनके कारण आज हम हमारी संस्कृति जीवित है और हम अपना सिर ऊंचा करके खडे हो सकते हैं .क्या थे वे कारनामे ? कौन थे वे जिन्होंने इन्हें अंजाम दिया और हम उनसे अंजान हैं ??
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समय - 730 ई.
मुहम्मद बिन कासिम की पराजय के बाद खलीफा हाशिम के आदेश पर जुनैद इब्न अब्द ने मुहम्मद बिन कासिम के अधूरे काम को पूरा करने का बीडा उठाया . बेहद शातिर दिमाग जुनैद समझ गया था कि कश्मीर के महान योद्धा शासक ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज के यशोवर्मन से वह नहीं जीत सकता , इसीलिये उसने दक्षिण में गुजरात के रास्ते से राजस्थान और फिर मध्यभारत को जीतकर ( और शायद फिर कन्नौज की ओर) आगे बढने की योजना बनाई . और अपनी सेना के दो भाग किये -
1- अल रहमान अल मुर्री के नेतृत्व में गुजरात की ओर
2- स्वयं जुनैद के नेतृत्व में मालवा की ओर
-- अरब तूफान की तरह आगे बढे . नांदीपुरी में दद्द द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , राजस्थान में मंडोर का हरिश्चंद्र द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , चित्तौड का मोरी राज्य इस तूफान में उखड गये और यहाँ तक कि अरब उज्जैन तक आ पहुँचे और अरबों को लगने लगा कि वे स्पेन ,ईरान और सिंध की कहानी भी यहाँ बस दुहराने ही वाले हैं ..स्थित सचमुच भयावनी हो चुकी थी ..और ....तब ....तब भारत के गौरव को बचाने के लिये अपने यशस्वी पूर्वजों के नाम पर वे अपने सुयोग्य नेता नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में उठ खडे हुए . वे थे ---
..........." प्रतिहार " .............
--- प्रतिहार रघुवंशी क्षत्रिय है
--- प्रतिहार श्रीराम के भाई लक्ष्मण जी के वंशज है
--- प्रतिहार धर्मरक्षा के लिये अग्निकुंड से जन्म के मिथक के कारण अग्निवंशी भी कहलाते है .
वे शायद गुप्त और वर्धन साम्राज्य के सबसे विश्वसनीय और प्रतिष्ठापूर्ण सैनिक सेवा " प्रतिहार " बटालियन के पीढीगत योद्धा थे , इसीलिये वे अपनी सैनिक पदवी " प्रतिहार " नाम से भी पहचाने जाते थे .
वे भारतीय इतिहास के रंगमंच पर एसे समय प्रकट हुए जब भारत अब तक के ज्ञात सबसे भयंकर खतरे का सामना कर रहा था . भारत संस्कृति और धर्म , उसकी ' हिंद ' के रूप में पहचान खतरे में थी अरबों के रूप में " इस्लाम " हिंदुत्व " को निगलने के लिये बेचैन था .
नागभट्ट प्रतिहार के नेतृत्व में दक्षिण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय और नागदा के गुहिलौत वंश के राणा खुम्माण जिन्हें इतिहास " बप्पा रावल " के नाम से जानता है , के साथ एक संघ बनाया गया . संभवतः यशोवर्मन और ललितादित्य भी अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से पीछे नहीं हटे और उन्होंने भी इस संघ को सैन्य सहायता भेजी . मुकाबला फिर भी गैरबराबरी का था ----
--- 100000 मुस्लिम योद्धा v/s 40000 हिंदू योद्धा .
और फिर शुरू हुयी कई युद्धों की श्रंखला जिसे मुस्लिम और वामिये इतिहासकार छुपाते आये हैं -
........... " The Battle of Rajsthaan " .............
विक्रमादित्य चालुक्य के सेनापति अवनिजनाश्रय पुलिकेशिन ने अल मुर्री को बुरी तरह पराजय दी ,
- नागभट्ट ने जुनैद को पीछे खदेड दिया
- और अंत में नागभट्ट और बप्पा रावल ने जुनैद को घेर लिया और फिर राजस्थान की सीमा पर हुआ संयुक्त राजपूत सैन्य और अरबों का निर्णायक युद्ध जो भारत में अरबों की किस्मत का फैसला करने वाला था . सैन्य रूप से अरब अभी भी भारी बढत में थे उनके 30000 घुड्सवार , ऊँटसवार और पैदल सेना के मुकाबले में हिंदूसैन्य केवल 6000 घुडसवार और पैदल सेना का था .पर अरबों की संख्या पर राजपूतों का दुधारी खांडा बहुत भारी पडा . नागभट्ट और बप्पा रावल की बेहतरीन रणनीति और हिंदू योद्धाओं की वीरता ने मुस्लिम सेना को ना केवल बुरी तरह मात दी बल्कि भारत में अरबों का सबसे महान जनरल जुनैद युद्ध में मारा भी गया .
-भागती मुस्लिम सेना का क्रूरतापूर्वक सिंधु तक पीछा किया गया और उनका सफाया किया गया जुनैद के बाद तमिन ने एक कोशिश और की परंतु इसका परिणाम मात्र इतना हुआ कि अरब सदैव के लिये सिंधु के उस पार धकेल दिये गये और मात्र टापूनुमा शहर " मनसुरा " तक सीमित होकर रह गये . इस तरह ना केवल विश्व को यह बताया गया कि हिंदुत्व के योद्धा , शारीरिक बल में श्रेष्ठ हैं बल्कि यह भी कि उनके हथियार , उनकी युद्ध तकनीक और रणनीति विश्व में सर्वश्रेष्ठ है .
इस तरह भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने अपना नाम सार्थक किया।।
~~ सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार ~~
मिहिर भोज परिहार जी का जन्म सम्राट रामभद्र परिहार की महारानी अप्पा देवी के द्वारा सूर्यदेव
की उपासना के प्रतिफल के रूप में हुआ माना जाता है। सम्राट मिहिर भोज के बारे में इतिहास की पुस्तकों के अलावा बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक
49 साल तक राज किया। मिहिर भोज के
साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल तक ओर कश्मीर से कर्नाटक तक था।
सम्राट मिहिर भोज बलवान, न्यायप्रिय और
धर्म रक्षक थे। मिहिर भोज शिव शक्ति के उपासक थे। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में भगवान शिव के प्रभास क्षेत्र में स्थित शिवालयों व पीठों का उल्लेख है। प्रतिहार साम्राज्य के काल में सोमनाथ को भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता था। प्रभास क्षेत्र की प्रतिष्ठा काशी विश्वनाथ के समान थी। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। मिहिर भोज के संबंध में कहा जाता है कि वे सोमनाथ के परम भक्त थे उनका विवाह भी सौराष्ट्र में ही हुआ
था। उन्होंने मलेच्छों से पृथ्वी की रक्षा की। 50
वर्ष तक राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्रपाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे।सम्राट मिहिर भोज का सिक्का जो की मुद्रा थी उसको सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। सम्राट मिहिर भोज महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णू के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह
भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी।सम्राट मिहिर भोज का नाम आदिवाराह भी है। ऐसा होने के पीछे दो कारण हैं पहला जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार सम्राट भोज ने
मलेच्छों(मुगलो,अरबों)को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। दूसरा कारण सम्राट का जन्म वाराह जयंती को हुआ था जो कि भादों महीने की शुक्ल पक्ष के द्वितीय दोज को होती है। सनातन धर्म के अनुसार इस दिन चंद्रमा का दर्शन करना बहुत शुभ फलदायक माना जाता है। इस दिन के 2 दिन बाद
महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का उत्सव प्रारंभ
हो जाता है। जिन स्थानों पर प्रतिहारों, परिहारों, पडिहारों, इंदा, राघव, अन्य शाखाओं को सम्राट भोज के जन्मदिवस का पता है वे इस वाराह जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के
इसकी जानकारी दें और सम्राट मिहिर भोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा चालू करें।
अरब यात्रियों ने किया सम्राट मिहिर भोज का यशोगान अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक
सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में लिखी जब वह भारत भ्रमण पर आया था। सुलेमान सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखता है कि परिहार सम्राट
की बड़ी भारी सेना है। उसके समान किसी राजा के पास उतनी बड़ी सेना नहीं है। सुलेमान ने यह
भी लिखा है कि भारत में सम्राट मिहिर भोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रू नहीं है। मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना है। इसके राज्य में व्यापार, सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यह भी कहा जाता है कि उसके राज्य में सोने और चांदी की खाने
भी हैं।यह राज्य भारतवर्ष का सबसे सुरक्षित क्षेत्र है। इसमें डाकू और चोरों का भय नहीं है। मिहिर भोज राज्य की सीमाएं दक्षिण में राष्ट्रकूटों के राज्य,पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में
मुलतान के शासकों की सीमाओं को छूती है। शत्रू
उनकी क्रोध अग्नि में आने के उपरांत ठहर नहीं पाते थे। धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर
कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की। कश्मीर
के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगणी में सम्राट मिहिर भोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मंडलों आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए
दंडनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते
थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शांति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियंत्रण था।
किसी की आज्ञा का उल्लंघन करने व सिर उठाने
की हिम्मत नहीं होती थी। उनके पूर्वज सम्राट नागभट्ट परिहार ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस
समय में और भी पक्की हो गई और प्रतिहार परिहार राजपूत साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है,
जब किसी सेना को नगद वेतन दिया।।
Kya khangaar parihaar vansh ki shaakha hai
Padiyar vansh jo ki mandore sakha se hain unki uup sakha konsi hee
गुर्जर प्रतिहार वंश की मंडोर शाखा किस शासक से प्रारंभ हो जाती है
Mandore ke Prati Yaaron ke sambandh mein Jankari Kis shilalekh Se milti hain
Jai
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