आरक्षण के पक्ष में निबंध
तमाम सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों और पूँजीवादी आर्थिक विकास के बावजूद, राजनीतिक स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लगभग छह दशक बाद भी हमारे देश में जाति का ज़हर समाज के पोर-पोर में मिला हुआ है। दलित जातियाँ न केवल अपमानजनक सामाजिक पार्थक्य और बर्बर सामाजिक उत्पीड़न की शिकार हैं, बल्कि आर्थिक तौर पर भी लगभग नब्बे फ़ीसदी दलित आबादी पूँजीवादी समाज के फ्नये ग़ुलामों”-उजरती मज़दूरों की क़तारों में खड़ी है। पिछड़ी जातियों की स्थिति उनसे कुछ भिन्न है और देश के कई हिस्सों में इनका एक हिस्सा पूँजीवादी धनी किसान बनकर गाँवों के स्तर पर शोषक-शासक जमात में शामिल हो गया है, दलित जातियों का नया उत्पीड़क बनकर उभरा है तथा गाँवों से लेकर राज्यों और देश के केन्द्रीय राजनीतिक तन्त्र तक में इसकी वर्गीय स्थिति के अनुरूप हिस्सेदारी भी बनी है, लेकिन शिक्षा, शहरी नौकरियों, प्रशासन और स्वतन्त्र व्यवसायों में इसकी भागीदारी अभी सानुपातिक रूप से काफ़ी कम है और इसका आधार मुख्यतः कृषि अर्थव्यवस्था बना हुआ है। लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि कुछ पिछड़ी जातियों के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर, उनका बड़ा हिस्सा और अन्य अधिकांश पिछड़ी जातियाँ सामाजिक-आर्थिक तौर पर दलितों के ही समकक्ष या उनसे कुछ ही ऊपर हैं तथा आर्थिक तौर पर उनकी स्थिति सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा या निम्न-मध्य वर्ग से आगे की क़तई नहीं है। इनका जो हिस्सा कृषि अर्थव्यवस्था में मुनाफ़ाख़ोर वर्ग और ग्रामीण समाज के स्वामी वर्ग का हिस्सा बन चुका है, वह तो कालान्तर में पैसे की ताक़त से उच्च शिक्षा और नौकरियाँ हासिल करके शहरी अभिजन समाज का अंग (या समकक्ष) बन भी जायेगा, लेकिन पिछड़ी जातियों की बहुसंख्यक ग़रीब आबादी तो पूँजीवादी समाज की असमानतापूर्ण प्रतिस्पर्द्धा में लगातार पिछड़ती ही चली जायेगी।
भारतीय समाज की इस नंगी, क्रूर और वीभत्स सच्चाई के मद्देनज़र, यदि भावुकतापूर्ण ढंग से उद्विग्नचित्त होकर सोचा जाये तो दलितों और पिछड़ों के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का फ़ार्मूला न्यायसंगत प्रतीत होता है। लेकिन गहराई से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दलितों और पिछड़ी जातियों की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति में, वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के फ़्रेमवर्क के भीतर, आरक्षण या ऐसे किसी भी प्रावधान से कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है। आरक्षण का मूल मन्तव्य सदियों से वंचित-उत्पीड़ित लोगों के आक्रोश की ज्वाला को भड़क उठने से रोकने के लिए उस पर पानी के छींटे मारना मात्र है। शोषित-उत्पीड़ित दलितों और पिछड़ी जातियों के आक्रोश को व्यवस्था-विरोधी विस्फोट के रूप में फूट पड़ने से रोकने के लिए आरक्षण का हथकण्डा एक सेफ्ऱटीवॉल्व का काम करता है।
दलितों के लिए दो दशकों से शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में लागू आरक्षण से मात्र इतना फ़र्क़ पड़ा है कि उनके बीच से एक अत्यन्त छोटा, सुविधाजीवी मध्य वर्ग पैदा हुआ है जो गाँवों और शहरों में निकृष्टतम कोटि के उजरती ग़ुलामों का जीवन बिताने वाले दलितों से अपने को पूरी तरह काट चुका है। चूँकि उसे भी ऊँची जातियों के हमपेशा लोगों के बीच तरह-तरह से, प्रत्यक्ष-परोक्ष सामाजिक अपमान का सामना करना पड़ता है, इसलिए वह उस दलितवादी राजनीति के पक्षधर, प्रवक्ता और सिद्धान्तकार की भूमिका बढ़-चढ़कर निभाता है, जिसका चरित्र तमाम गरमागरम बातों के बावजूद, निहायत सुधारवादी है और जो व्यापक दलित आबादी की भावनाओं को भुनाकर मात्र अपना वोट बैंक मज़बूत करने का काम किया करता है। रिपब्लिकन पार्टी से लेकर बसपा और उदितराज की पार्टी तक, और यही नहीं, तमाम छोटे-छोटे रैडिकल दलित संगठनों से लेकर अधिकांश दलितवादी बुद्धिजीवियों तक-सभी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही सुधार की गुंजाइश के लिए लड़ते हैं, चाहे उनके तेवर जितने भी तीखे हों। नंगी सच्चाई यह है कि भारत में जब तक पूँजीवाद रहेगा, तब तक उजरती ग़ुलामी रहेगी और दलितों का (और पिछड़ों का भी) बहुलांश तब तक इन्हीं उजरती ग़ुलामों की क़तारों में शामिल रहेगा। जातिगत आधार पर क़ायम पार्थक्य और शोषण-उत्पीड़न का आधार पहले सामन्तवाद था और आज पूँजीवाद है। इसे समाप्त करने के लिए पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के अतिरिक्त और कोई भी बुनियादी उपाय नहीं है। ज़ाहिर है कि हम केवल आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष की ही बात नहीं कर रहे हैं। व्यवस्था विरोधी यह क्रान्तिकारी संघर्ष उस आमूलगामी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के बिना अधूरा होगा और कभी सफल न हो सकेगा जो जातिगत विभेद को अपने एजेण्डा पर प्रमुखता के साथ स्थान देगा, जो जनता के बीच जातिगत आधार पर क़ायम विभेद को समाप्त करने के लिए सतत सक्रिय होगा। सच्चाई यह है कि भारतीय समाज में जाति का ज़हर इतनी गहराई तक घर किये हुए है कि किसी सामाजिक-राजनीतिक क्रान्ति के बाद भी, इसके समूल नाश के लिए सतत सांस्कृतिक क्रान्ति के एक लम्बे सिलसिले की ज़रूरत होगी।
यदि आरक्षण ही समस्या का समाधान होता तो पंजाब में 37 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 30,000, हरियाणा में 47 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 10,000, हिमाचल प्रदेश में 47 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 6,000, बिहार में 50 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 62,500, राजस्थान में 49 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 41,565 और मध्यप्रदेश में 50 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 11,500 पद ख़ाली नहीं पड़े रहते। अन्य राज्यों की स्थिति भी इससे बेहतर नहीं है। अनुमानतः देशभर में एक लाख ऐसी सरकारी नौकरियाँ हैं जो कोटे के तहत ख़ाली हैं। सच्चाई यह है कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों व अन्य पिछड़ी जातियों की बहुसंख्यक आम आबादी की ऐसी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति ही नहीं है कि वह इन नौकरियों के लिए आवेदन कर सके। जो आरक्षित सीटें भर्ती हैं, वे उनके खाते में ही चली जाती हैं जो पहले से ही मध्य वर्ग में शामिल हो चुके हैं। शैक्षणिक स्थिति में परिवर्तन की रफ़्तार यह है कि आज़ादी के 59 वर्षों बाद भी, 79-88 प्रतिशत अनुसूचित जाति के छात्र स्कूली पढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं। उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित 50 प्रतिशत सीटें ख़ाली रह जाती हैं और आरक्षण के अन्तर्गत दाखि़ला लेने वाले 25 प्रतिशत छात्र बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। पिछड़ी जातियों के लिए भी उच्च शिक्षा में आरक्षण लागू होने के बाद स्थिति इससे कुछ भिन्न नहीं होगी। ग़रीब घरों के युवा, आर्थिक कारणों से या तो आरक्षण के बावजूद दाखि़ला नहीं ले पायेंगे, या फिर बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने को विवश होंगे। लाभ केवल पिछड़ी जाति के उन थोड़े से परिवारों को ही मिलेगा, जिनकी आर्थिक स्थिति धनी या ख़ुशहाल मध्यम किसान की है या जो खेती से अर्जित मुनाफ़े के सहारे, पहले से ही शहरी मध्य वर्ग की क़तारों में शामिल हो चुके हैं।
आरक्षण के समर्थक इन्हीं आँकड़ों के आधार पर कहेंगे कि इसीलिए आरक्षण को अभी लम्बे समय तक जारी रहना चाहिए और इसके दायरे को भी विस्तारित किया जाना चाहिए। लेकिन हमारा कहना यह है कि इस रफ़्तार से ही यदि आरक्षण का प्रभाव पड़ता रहा तब तो एक शताब्दी बाद भी स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आयेगा। और इससे भी अहम बात यह है कि उदारीकरण-निजीकरण के इस “रोज़गारविहीन विकास” के दौर में जब सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियाँ लगातार कम होती जा रही हैं (और निजी क्षेत्र में भी कुल मिलाकर उत्पादन के विकास और सेवाक्षेत्र के विस्तार के अनुपात में रोज़गार के अवसर पहले के मुक़ाबले काफ़ी कम पैदा हो रहे हैं) तो ऐसी स्थिति में आरक्षित नौकरियों का प्रतिशत यदि कुछ बढ़ भी जाये तो आम दलित और पिछड़ों की जीवन स्थितियों में भला इससे क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है एक बटलोई भात पर यदि सौ खाने वाले हों और भात का कुछ हिस्सा कुछ प्रतिशत अधिक भूखों के लिए आरक्षित भी कर दिया जाये तो किसी भी भूखे की स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि भूखों की संख्या की तुलना में भात है ही बहुत कम! आज आरक्षण का प्रतिशत यदि बढ़ा भी दिया जाये और यह पूरी तरह से लागू भी हो जाये, तो भी आम दलितों और पिछड़ों की सामाजिक स्थिति में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हो सकता। पूँजीवादी विकास आबादी का अभूतपूर्व गति से ध्रुवीकरण कर रहा है और यह पूँजीवाद की विशेषता होती है कि जो पहले से ही वंचित और उत्पीड़ित होते हैं, उन्हीं को सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा की क़तारों में सबसे पहले शामिल करता है। दासों-भूदासों और उजड़े काश्तकारों के बेटे ही सबसे पहले उद्योगों के सर्वहारा बनते हैं। भारत में भी दलितों के साथ और पिछड़ी जातियों के बहुलांश के साथ ऐसा ही हुआ। कालान्तर में इनके बीच से, सचेतन प्रयासों से, बुर्जुआ राज्यसत्ता ने एक अत्यन्त छोटी मध्यवर्गीय जमात भी पैदा की, जो मुखर और वाचाल है, जो जातिगत उत्पीड़न पर ख़ूब बोलती है, लेकिन साथ ही आम दलित आबादी और आम पिछड़ों की आबादी से वह अपने को काट चुकी है, वह पराजित मन है, सापेक्षतः विशेषाधिकार-प्राप्त और सुविधाभोगी है तथा हर प्रकार के क्रान्तिकारी परिवर्तन की विरोधी और घनघोर सुधारवादी है। वह आम दलितों की नुमाइन्दगी का स्वांग भरते हुए अपनी सुविधाओं की पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षा की गारण्टी चाहती है और विकास के पूँजीवादी मॉडल की अन्ध समर्थक है। दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच की यही मध्यवर्गीय जमात आरक्षण को समस्या का समाधान बताती है ताकि उसकी स्थिति सुरक्षित रहे और आम वंचित दलित और पिछड़े आकाशकुसुम की अभिलाषा में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें या फिर याचनाएँ करते रहें और वोट बैंक की पूँजीवादी राजनीति के मोहरे बने रहें।
पूँजीवादी व्यवस्था के कर्णधार यही चाहते हैं लेकिन पूँजीवाद के भीतर ही इसकी एक विरोधी आन्तरिक गति भी है। एक ओर जहाँ दलितों का बहुलांश (और पिछड़ी जातियों का भी पर्याप्त बड़ा हिस्सा) पूरे देश के पैमाने पर गाँवों और शहरों की सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी में शामिल है, वहीं पूँजी की मार ऊँची जाति की आबादी के एक बड़े हिस्से और पिछड़ी जाति के किसानों के भी एक बड़े हिस्से को लगातार जगह-ज़मीन, नौकरी, सम्पत्ति आदि से वंचित करते हुए सर्वहारा की क़तारों में धकेलती जा रही है। समाज का अन्तरविरोधी यथार्थ यह है कि एक ओर जहाँ जातिगत आधार पर क़ायम विषमता और विभेद को क़ायम रखने वाली और खाद-पानी देने वाली कारक शक्तियाँ सक्रिय हैं, वहीं दूसरी ओर एक विरोधी गति रसातली जीवन जीने वाले उजरती ग़ुलामों (मुख्यतः औद्योगिक सर्वहाराओं) की लगातार बढ़ती आबादी के बीच जातिगत विभेदों को तोड़कर एकता बनाने का एक वस्तुगत आधार भी तैयार कर रही है, जो पूँजी की सर्वग्रासी मार का प्रतिरोध करते हुए, ज़्यादा से ज़्यादा उनके अस्तित्व की शर्त बनती जा रही है। ज़ाहिर है कि पूँजीवादी व्यवस्था के भाड़े के टट्टू आम मेहनतकशों के बीच जातिगत विभेदों को बढ़ाने वाले मनोगत कारकों को बढ़ावा देंगे, जबकि पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी धारा का दायित्व यह होना चाहिए कि वह मेहनतकश जनता के बीच जातिगत आधार पर क़ायम विभेदों को दूर करने वाले और उन्हें बढ़ाने की हर साज़िश को नाकाम करने वाले मनोगत कारकों को बल प्रदान करे। पूँजीवाद भारत में शहरीकरण और औद्योगीकरण की प्रक्रिया को लगातार अभूतपूर्व त्वरित गति से आगे बढ़ा रहा है और साथ ही सर्वहाराकरण की प्रक्रिया तथा पूँजी और श्रम के बीच के अन्तरविरोध को भी। इस नयी सर्वहारा आबादी को जातिगत विभेद मिटाकर वर्गीय आधार पर एकजुट करना सापेक्षतः सुगम होगा और यही हमारा सर्वोपरि लक्ष्य होना चाहिए, क्योंकि तभी हम एक ऐसे फ़ैसलाकुन संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे जो एक ऐसे समाज का निर्माण करेगा जो वर्ग-वैषम्य के साथ ही जाति-वैषम्य, लिंग-वैषम्य आदि समस्त विषमताओं के ख़ात्मे का फ़ैसलाकुन सिलसिला शुरू करेगा। यह अनायास नहीं है कि आरक्षण की बहस सर्वाधिक उद्वेलन मध्यवर्गीय जमातों में, और विशेषकर शहरी मध्यवर्गीय जमातों में पैदा करती है, शहरी सर्वहाराओं में नहीं। गाँवों में जो दलित और ग़रीब पिछड़ी जातियाँ हैं, वे या तो आर्थिक शोषण के साथ बर्बर सामाजिक उत्पीड़न झेलती हुई वोट बैंक की राजनीति का मोहरा बनी रहती हैं, या फिर एकजुट होकर क्रान्तिकारी ढंग से लड़ती हैं और नतीजे के तौर पर प्रायः एक हद तक स्वाभिमान-सम्मान से जीने का हक़ भी हासिल कर लेती हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि एक ओर जहाँ वर्गीय आधार पर संघर्ष को संगठित करने के लिए आम जनता के बीच जड़ जमाये जातिवादी मानसिकता और संस्कृति को समाप्त करने के लिए सतत प्रयास करना होगा, वहीं वर्गीय आधार पर संगठित जनसंघर्ष की सफलता ही जातिगत विभेद के निर्णायक उच्छेद की पहली गारण्टी हो सकती है। इस ऐतिहासिक-वैज्ञानिक सूत्र को पकड़कर ही आरक्षण के प्रश्न को सही ढंग से समझा जा सकता है और सही अवस्थिति अपनायी जा सकती है।
आरक्षण की माँग यदि क्रान्तिकारी संघर्ष की दीर्घकालिक प्रक्रिया के दौरान, सुधार की एक माँग होती तो बेशक हम इस पर सवाल नहीं उठाते। सोलह आने की लड़ाई के फ़ैसलाकुन दौर से पहले, ऐसे भी दौर आते हैं जब दो आने की लड़ाई जीतकर हासिल को हस्तगत कर लिया जाता है और फिर आगे की तैयारी की जाती है। लेकिन दो-दो आने करके सोलह आने हासिल करने की सोच एक सुधारवादी सोच होती है, जो मौजूदा व्यवस्था को कमज़ोर करने के बजाय मज़बूत बनाती है और जनता की क़तारों में दरारें पैदा करती है। आरक्षण की माँग एक ऐसी ही भयंकर भ्रमोत्पादक सुधारवादी माँग है। यह दलितवादी राजनीति की उन तमाम धाराओं के चार्टरों का साझा मुद्दा है, जो इस पूँजीवादी लूट-मार की व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर ही जाति-प्रश्न का निदान चाहती हैं। आरक्षण से यदि आम दलित और आम पिछड़ी जातियों की बहुसंख्यक आबादी की वास्तविक स्थिति में कोई बदलाव आता, तो इस सुधार को स्वीकारते हुए एक नयी सामाजिक व्यवस्था के लिए संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ना ही उचित क़दम होता। पर वास्तविकता इसके विपरीत है। आरक्षण सुधार की माँग नहीं बल्कि एक सुधारवादी माँग है। यह आम उत्पीड़ित जातियों की जनता के हितों की दुहाई देती हुई, उनके एक अत्यन्त छोटे-से (लगभग नगण्य) हिस्से को मलाई चटाकर स्वामिभक्त और सत्ता का चाटुकार बनाती है, जबकि दूसरी ओर जातिगत आधार पर मेहनतकश आबादी को और आम मध्यवर्गीय आबादी को बाँट देती है तथा समस्या की मूल जड़ और मूल समाधान को दृष्टिओझल कर देती है। यह जाति-प्रश्न के निर्णायक समाधान की दिशा में जारी यात्र को आगे बढ़ाने के बजाय दिग्भ्रमित करती है और रास्ते से भटका देती है। इसीलिए, अपने जातिवादी पूर्वाग्रहों के बावजूद सभी पूँजीवादी सिद्धान्तकार, राजनीतिज्ञ और पार्टियाँ आरक्षण के प्रश्न पर एकराय हो जाते हैं। इस शिगूफ़े के उछलते ही, सवर्ण मानस वर्चस्व वाला मीडिया और शिक्षित मध्य वर्ग दलित और पिछड़ी जातियों के विरुद्ध विषवमन करना शुरू कर देता है और पूरे समाज में जातिगत विभेद और पार्थक्य की संस्कृति को मानो एक नयी शक्ति मिल जाती है। आरक्षण के समर्थन और विरोध की राजनीतियाँ एक समान उद्देश्य की पूर्ति करती हैं। वे भ्रामक और मिथ्या आशा पैदा करती हुई आम आबादी के सदियों पुराने जातिगत विभाजन को मज़बूत बनाकर उसकी वर्गीय एकता क़ायम करने के उपक्रमों को कमज़ोर और निष्प्रभावी बना देती हैं। इसलिए, महज़ प्रतिक्रियावश, तथ्यों की अनदेखी करते हुए, आरक्षण का समर्थन करने वालों को भी सोचना ही होगा कि इससे उन्हें वास्तव में भला क्या हासिल होने वाला है!
मान लीजिये कि आप किसी बस स्टैण्ड पर खड़े हैं और लगातार कई भरी बसें गुज़रने के बाद आप मुश्किल से किसी बस में लटक पाते हैं या घुसकर पैर टिका पाते हैं तो आप प्रायः पहले से बैठे मुसाफ़िरों से ग़ुस्सा होते हैं और जो पहले से बैठे होते हैं उनका भी रवैया आपके प्रति निहायत बेरुख़ी का होता है। आपका क्रोध लचर परिवहन व्यवस्था और बसों की संख्या की कमी पर लक्षित होना चाहिए और इसमें बैठे हुए मुसाफ़िरों को भी साथ लेने की कोशिश होनी चाहिए, पर व्यवहार में प्रायः ऐसा नहीं होता। एक राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था में भी प्रायः ऐसा ही होता है और शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण के प्रश्न पर भी ऐसा ही हो रहा है। लड़ाई एक ऐसी व्यवस्था के लिए होनी चाहिए जिसमें सबके लिए समान और निःशुल्क शिक्षा हो और सबके लिए नौकरियों के समान अवसर हों। आर्थिक विश्लेषण बताता है कि उत्पादन यदि चन्द लोगों के मुनाफ़े के लिए न होकर सामाजिक उपयोगिता के लिए हो तो ऐसा सम्भव हो सकता है। बीसवीं शताब्दी में समाजवादी क्रान्तियों के प्रथम संस्करण विफल भले ही हो गये हों लेकिन उन्होंने इसे सम्भव कर दिखाया था। आज उत्पादक शक्तियों के अभूतपूर्व विकास के बावजूद पूँजीवाद आम आबादी पर जो क़हर बरपा कर रहा है, उसे देखते हुए एक बार फिर सर्वहारा क्रान्तियों के नये संस्करण अवश्यम्भावी प्रतीत होने लगे हैं। ये नयी क्रान्तियाँ जब उत्पादन, राज-काज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले लोगों का नियन्त्रण क़ायम करेंगी और उनके हाथों में फ़ैसले की ताक़त देंगी, तभी जाकर सभी को समान और निःशुल्क शिक्षा मिल सकेगी और सभी काम करने वालों को काम मिल सकेगा। आरक्षण की माँग यदि ‘सभी को समान एवं निःशुल्क शिक्षा तथा सबके लिए रोज़गार’ की लड़ाई की एक कड़ी होती या इसे आगे बढ़ाने में सहायक होती, तो बेशक इसका समर्थन किया जा सकता था। लेकिन एक तो इससे आम दलित या पिछड़े को मिलता कुछ भी नहीं, दूसरे यह अन्तिम समाधानकर्ता संघर्ष के लिए जुड़ती युवा क़तारों को ही जातिगत आधार पर बाँट देती है। इस तरह सामाजिक न्याय का भ्रामक नारा देते हुए आरक्षण का मुद्दा उस पूँजीवादी व्यवस्था की जड़ों को ही मज़बूत बनाता है, जिसके रहते हुए जाति-वैषम्य का ख़ात्मा सम्भव ही नहीं है।
आरक्षण के पक्ष में तर्क देते हुए दलित नेता उदित राज लिखते हैं “साधारण स्कूलों में पढ़ने वाले जिन बच्चों के माँ-बाप पढ़े-लिखे नहीं हैं और बच्चा स्कूल के बाद घर के कामकाज में हाथ बँटाता है, अगर वह कुछ अंकों की छूट माँगता भी है तो इसमें कौन-सी बुराई है जो मापदण्ड पिछड़ों और दलितों के लिए निर्धारित किया जा रहा है, यदि यूरोप और अमेरिका वही भारत के लिए तय करने लगें तो क्या वे अपनी खोज, आविष्कार या तकनीक का इस्तेमाल करने देंगे कौन-सी मौलिक खोज या आविष्कार भारत में हुआ, जिसे लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर गर्व किया जा सके बात कुल मिलाकर स्वार्थ की है कि अभिजात वर्ग के कुछ ही लोग इन संस्थाओं का फ़ायदा उठाना चाहते हैं और इससे ग़रीब या आम सवर्ण प्रभावित नहीं होता” (जनसत्ता, 2 जून, 2006)। उदित राज की इस तर्क प्रणाली की पड़ताल के माध्यम से आरक्षणवादी राजनीति के वर्ग-चरित्र को आसानी से समझा जा सकता है। पहली बात तो यह कि आरक्षण के नाम पर मिलने वाली छूट का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा ही वास्तव में अशिक्षित दलित माँ-बाप के उन बच्चों तक पहुँच पाता है जो स्कूल के बाद घर के कामकाज में माँ-बाप का हाथ बँटाते हैं। दूसरी बात यह कि आरक्षण की इस छूट का लाभ पूरी तरह से ऐसे बच्चों तक पहुँच भी जाये तो इन बच्चों की संख्या के अनुपात में इस छूट की मात्र अत्यन्त कम पड़ेगी। तीसरी बात यह कि जब उदित राज स्वयं मानते हैं कि नौकरियों व अन्य विशेषाधिकारों के लाभ से ग़रीब व आम सवर्ण वंचित होता है तो फिर क्या आरक्षण का नारा इन ग़रीबों को दलित व पिछड़ी जाति के ग़रीबों से और दूर करने काम नहीं करता ग़रीब सवर्णों को साथ लेने के लिए उनके पास क्या कार्यक्रम है कोई कह सकता है कि इसका उपाय है कि आर्थिक आधार पर भी आरक्षण दिया जाये। हम सभी जानते हैं कि सरकारी दफ़्तरों से हर प्रभावी आदमी कम आमदनी का नक़ली आय प्रमाणपत्र बनवा लेगा लेकिन बहुत कम आम ग़रीब ही इसका लाभ लेने में सफल हो सकेंगे। और फिर यहाँ भी सवाल वही है कि जब नौकरियाँ हैं ही नहीं तो उस आय प्रमाणपत्र से भी भला क्या हासिल होगा और जब आर्थिक स्थिति बहुसंख्य ग़रीबों को शिक्षा बीच में ही छोड़ देने के लिए मजबूर कर देती है तो फिर शिक्षा के क्षेत्र में हासिल आरक्षण में भला किसको कितना लाभ मिल सकेगा, ख़ासकर तब जबकि शिक्षा के क्षेत्र में भी प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक निजीकरण की प्रक्रिया लगातार जारी है और शिक्षा ज़्यादा से ज़्यादा बिकाऊ माल बनती जा रही है
उदित राज ने जाति व्यवस्था की तुलना (या सादृश्य-निरूपण) पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के साथ की है और यह तर्क दिया है कि जिस प्रकार अपनी खोजों, आविष्कारों और तकनीकों का इस्तेमाल करने देने की “उदारता” अमेरिका जैसे देश भारत के साथ बरतते हैं, उसी प्रकार की “उदारता” आरक्षण के मामले में सवर्ण समाज को भी दलित समाज के प्रति बरतनी चाहिए। यह तुलना अपनेआप में उदित राज की वर्ग-दृष्टि का जीता-जागता प्रमाण है। पहली बात तो यह कि साम्राज्यवादी देश अपनी खोजों व तकनीकों को ग़रीब देशों को यूँ ही नहीं देते बल्कि रायल्टी और मनमानी शर्तों पर लूट के रूप में उसकी भरपूर क़ीमत वसूलते हैं (साथ ही, यह भी ध्यान रखना होगा कि उनकी खोजों और तकनीकी प्रगति के पीछे उपनिवेशों की लूट का कितना बड़ा हाथ था!)। दूसरी बात यह कि साम्राज्यवादी देशों की इस “उदारता” के बावजूद अमेरिका जैसे देशों और भारत जैसे देशों के बीच के अन्तर और असमानतापूर्ण सम्बन्धों का अन्त मौजूदा विश्व व्यवस्था के रहते सम्भव नहीं है। यानी सवाल साम्राज्यवादी देशों से छूट हासिल करने का नहीं बल्कि पूँजीवादी विश्व व्यवस्था से निर्णायक विच्छेद करने का और फिर इस विश्व व्यवस्था का ध्वंस करने का है। ठीक उसी प्रकार, जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में भी प्रश्न कुछ छूट हासिल करने का नहीं बल्कि जाति व्यवस्था को ही समाप्त करने का है और आरक्षण की माँग किसी भी रूप में इसमें सहायक नहीं है बल्कि इसके प्रतिकूल भूमिका निभाती है।
एक अन्य स्वनामधन्य दलित चिन्तक चन्द्रभान प्रसाद हैं जो अमेरिकी शैली की पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था के कट्टर समर्थक हैं और उसी फ़्रेमवर्क में दलित प्रश्न का भी समाधान ढूँढ़ते हैं। आज ऐसे भारतीय बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है, जो अमेरिका द्वारा बेहिसाब विश्वव्यापी लूट, अमेरिकी समाज के अन्दरूनी संकटों तथा उसमें व्याप्त गहन असमानता, उत्पीड़न और निरंकुशता की अनदेखी करते हुए, उसे समृद्ध और सुखी समाज के आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे बुद्धिजीवी दलित समाज में भी पैदा हो गये हैं और चन्द्रभान प्रसाद उनमें अग्रणी हैं। चन्द्रभान प्रसाद जैसों की जमात “दलित पूँजीवाद” का अनूठा विचार लेकर सामने आयी है। उसका मानना है कि निजी क्षेत्र के उद्योगों में और उच्च शिक्षा संस्थानों में (जो उनके विचार से ज़्यादातर निजी क्षेत्र में होने चाहिए) “जाति वैविध्य” को बढ़ावा देने से दलितों के बीच से भी एक पूँजीपति वर्ग तथा नौकरशाहों एवं बुद्धिजीवियों सहित मध्य वर्ग के विभिन्न संस्तर विकसित होंगे और इस प्रकार जाति प्रश्न का समाधान हो जायेगा। चन्द्रभान प्रसाद ब्राण्ड दलित चिन्तकों का मानना है कि सार्वजनिक क्षेत्र की समाप्ति और निजीकरण-उदारीकरण की लहर अनिवार्य है और इसे न्यायसंगत बनाने की गुंजाइश अधिक है। नवउदारवाद के इन पैरोकारों की सोच यह है कि यदि अमेरिका में अश्वेतों के लिए 1965 से लागू “सकारात्मक कार्रवाई” (अफ़र्मेटिव एक्शन) की ही तरह भारत में भी निजी क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों तथा औद्योगिक-वित्तीय एवं सेवा क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में दलितों के लिए आरक्षण को अनिवार्य कर दिया जाये तो दलितों के बीच से भी एक सम्पत्तिशाली मध्य वर्ग और उद्योगपति वर्ग पैदा हो जायेगा और उनके सामाजिक पार्थक्य, अपमान और उत्पीड़न का ख़ात्मा हो जायेगा। सच पूछें तो इससे अधिक प्रतिक्रियावादी, दलित-विरोधी सोच और कोई हो भी नहीं सकती।
सबसे पहले तो यह देखना होगा कि 1965 से अमेरिका में अश्वेत लोगों के लिए लागू “सकारात्मक कार्रवाई” से उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर क्या फ़र्क़ पड़ा है! निस्सन्देह, विगत चार दशकों के दौरान कारपोरेट जगत के उच्चाधिकारियों, नौकरशाहों, बुर्जुआ राजनयिकों और पत्रकारों, अकादमीशियनों आदि की जमात में काले लोगों की भागीदारी बढ़ी है और एक अच्छे-ख़ासे आयतन वाला अश्वेत मध्य वर्ग अस्तित्व में आया है (हालाँकि अभी भी कुछ छोटे-मोटे उद्यमियों-व्यापारियों को छोड़कर “अश्वेत पूँजीवाद” जैसी कोई चीज़ अमेरिका में भी अस्तित्व में नहीं आयी है)। लेकिन यह पूरा अश्वेत मध्य वर्ग समूची अश्वेत आबादी का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा है। बहुसंख्यक अश्वेत आज भी निकृष्टतम कोटि के उजरती मज़दूरों का जीवन बिताते हैं और समृद्धि के द्वीप महानगरों को घेरे हुए झुग्गी-झोंपड़ियों जैसी गन्दी बस्तियों के अन्धकार-वलय के निवासी बने हुए हैं। अमेरिका में रहने वाले मुलैटो, चिकानो मूल के मज़दूरों और लातिन अमेरिका व एशियाई देशों से गये आप्रवासी मज़दूरों और अमेरिकी अश्वेत मज़दूरों को अमेरिकी समाज में न केवल बर्बर शोषण और असुरक्षा का, बल्कि सामाजिक पार्थक्य और अपमान का भी सामना करना पड़ता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना पड़ा है कि अमेरिकी समाज में भी धनी-ग़रीब के बढ़ते ध्रुवीकरण ने इन शापित जमातों में श्वेत आबादी के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से को भी उजरती ग़ुलाम बनाकर ला खड़ा किया है। नस्लवाद और रंगभेद आज भी अमेरिकी समाज में मौजूद है, बस उसका रूप कुछ बदल गया है। अमेरिकी जेलों में रहने वाले बन्दियों में आज भी पचहत्तर फ़ीसदी से भी अधिक अश्वेत, और लातिन अमेरिकी या एशियाई मूल के लोग हैं। सबसे कम मज़दूरी और कठिन श्रम वाले काम भी यही आबादी करती है। अश्वेतों को यदि आज से चार दशक पहले की अपेक्षा रंगभेद और अपमान का कम सामना करना पड़ता है तो इसका कारण “सकारात्मक कार्रवाई” या कुछ थोड़े से अश्वेतों का समृद्ध हो जाना नहीं है, बल्कि यह अश्वेतों के जुझारू आन्दोलनों, अमेरिकी नागरिक अधिकार आन्दोलन और अश्वेतों की प्रबल भागीदारी वाले अमेरिकी मज़दूर आन्दोलन के परिणामस्वरूप सम्भव हुआ है। किसी भी समाज में वंचितों-उत्पीड़ितों के बीच से ऊपर उठकर एक छोटा-सा हिस्सा यदि समृद्धशाली जमातों में शामिल हो जाता है, तो इससे वंचित-उत्पीड़ित आबादी की वास्तविक स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं आता और बस होता यह है कि उस स्थिति पर एक हद तक पर्दा पड़ जाता है। अमेरिकी पैटर्न पर “सकारात्मक कार्रवाई” की माँग करने वाले “दलित पूँजीवाद” के पैरोकार तो वास्तव में दलित आबादी के सबसे घटिया दर्जे के भितरघाती, अव्वल दर्जे के प्रतिक्रियावादी और आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के सर्वाधिक निर्लज्ज टुकड़ख़ोर हैं जो तथ्यों को छुपाकर भारत के दलितों के सामने अमेरिकी समाज की गुलाबी तस्वीर पेश करते हैं और उन्हें देशी पूँजीवाद और समूची साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था की सेवा में सन्नद्ध कर देना चाहते हैं। ऐसा करते हुए चन्द्रभान प्रसाद जैसे लोग इस तथ्य की भी अनदेखी करते हैं कि अमेरिकी पूँजीपति वर्ग अपने देश में दबाव बढ़ने पर, अपने नन्दन कानन को वर्ग-संघर्ष की आँच से बचाने के लिए अश्वेतों और अन्य वंचित जमातों को, पूरी दुनिया से निचोड़े जाने वाले अकूत मुनाफ़े के बल पर, एक हद तक सुविधाएँ, छूट और अधिकार दे भी सकता है, लेकिन भारतीय पूँजीपति वर्ग की इतनी औक़ात नहीं है। यह अकारण नहीं है कि भारतीय पूँजीपतियों के राहुल बजाज जैसे प्रतिनिधि अमेरिकी पैटर्न की “सकारात्मक कार्रवाई” को स्वीकारने की बात तो करते हैं, लेकिन उसे पूरी तरह स्वैच्छिक बनाये रखने की बात करते हैं जबकि अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई को 1964 के नागरिक अधिकार क़ानून और कार्यकारी निर्देश सं- 11246 के द्वारा क़ानूनी तौर पर (हालाँकि एक हद तक ही) बाध्यताकारी बना दिया गया था।
यदि दलितों के बीच से कुछ पूँजीपति और उच्च अधिकारी पैदा हो जाने से दलित-प्रश्न का समाधान होना होता, तो पिछले पाँच दशकों के भीतर तमाम दलित राजनेता, कलक्टर, अन्य सरकारी अधिकारी और एक छोटे से दलित मध्य वर्ग के पैदा हो जाने से आम दलितों की स्थिति में कुछ तो फ़र्क़ आया होता! बेशक, कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो कहेंगे कि फ़र्क़ तो आया ही है। इतना मात्रात्मक फ़र्क़ तो समाज-विकास की स्वाभाविक क्रमिक गति के साथ आता ही है! इसी रफ़्तार से बदलाव की उम्मीद में यदि कोई बैठा रहे तो, तब तो उसे शताब्दियों तक प्रतीक्षा करनी होगी। इस तरह से तो कोई भी इंसाफ़पसन्द और ख़ुद्दार इंसान नहीं सोच सकता। यह नियतिवादी कायरता के साथ यथास्थिति को स्वीकारने की मानसिकता होगी। दलितों के बीच से जो एक सुविधाभोगी मध्य वर्ग पैदा हुआ है, वह अपने सामाजिक अपमान और जातिगत पार्थक्य से छुटकारा तो चाहता है लेकिन डरता भी है कि किसी प्रकार की क्रान्तिकारी बदलाव की आँधी उसकी सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा को छीन लेगी। इस कायरता के चलते, वह गरमागरम बातें तो करता है लेकिन इसी व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर रहकर जिस हद तक सम्भव हो, उस हद तक कुछ पा लेने की कोशिश करता है! साथ ही, वह बोलता तो पूरी दलित आबादी की ओर से है, पर आम दलितों से उसने अपने को पूरी तरह से काट लिया है और बर्बरतम दलित उत्पीड़न की घटना होने पर भी वह किसी आन्दोलन में सड़क पर उतरकर जुझारू भागीदारी के बजाय बस गरमागरम बयानबाज़ी ही करता रहता है। जो लोग वंचितों-उत्पीड़ितों के बीच से ऊपर उठकर सफ़ेदपोशों की जमात में शामिल होते हैं, वे कायरता, गलाज़त और प्रतिक्रियावादी मानसिकता के मामले में परम्परागत सफे़दपोशों से भी बढ़-चढ़कर होते हैं। चन्द्रभान प्रसाद “दलित पूँजीवाद” के लिए बेहाल हैं, उन्हें उन बहुसंख्य दलितों की चिन्ता नहीं है जो ऐसे दलित पूँजीपतियों और अन्य पूँजीपतियों के कारख़ानों में उजरती ग़ुलामी करते हुए अपनी ज़िन्दगी जलाते-गलाते रहेंगे।
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