Haar Nahi मानूंगा रार Nahi ठानूंगा Kavita हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा कविता

हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा कविता

GkExams on 10-01-2019

पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अपनी कविता ‘अपने ही मन से कुछ बोलें’ में मानव शरीर की नश्वरता के बारे में लिखा है. इस कविता के एक छंद में उन्होंने लिखा है,

‘पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी,
जीवन एक अनंत कहानी
पर तन की अपनी सीमाएं
यद्यपि सौ शरदों की वाणी,
इतना काफी है अंतिम दस्तक पर खुद दरवाजा खोलें.’

वाजपेयी ने एक बार अपने भाषण में यह भी कहा था, ‘मनुष्य 100 साल जिये ये आशीर्वाद है, लेकिन तन की सीमा है.’


साल 1924 में ग्वालियर में जन्मे वाजपेयी की अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ थी. बहरहाल, जब वह हिंदी में बोलते थे तो उनकी वाकपटुता कहीं ज़्यादा निखर कर आती थी. अपने संबोधन में वह अक्सर हास्य का पुट डालते थे जिससे उनके आलोचक भी उनकी प्रशंसा से खुद को रोक नहीं पाते थे.


काफी अनुभवी नेता रहे वाजपेयी कोई संदेश देने के लिए शब्दों का चुनाव काफी सावधानी से करते थे. वह किसी पर कटाक्ष भी गरिमा के साथ ही करते थे. वाजपेयी के भाषण इतने प्रखर और सधे हुए होते थे कि उन्होंने इसके ज़रिये अपने कई प्रशंसक बना लिए. उन्हें ‘शब्दों का जादूगर’ भी कहा जाता था.


शब्दों के इस अलबेले चितेरे की रवानगी से दिल में कसक सी उठी तो इस चितेरे की ही कविता की पंक्तियां कुछ इस तरह ढांढस बंधाती नजर आईं…

‘पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफां का, तेवरी तन गई.’

भाजपा नेता वाजपेयी के ज़्यादातर भाषणों में देश के लिए उनका प्रेम और लोकतंत्र में उनका अगाध विश्वास झलकता था. उनके संबोधनों में भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने की ‘दृष्टि’ भी नज़र आती थी.


संसद में मई 1996 में अपने संबोधन में वाजपेयी ने कहा था, ‘सत्ता का तो खेल चलेगा, सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी, मगर यह देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए.’


वाजपेयी की कई रचनाएं प्रकाशित हुईं जिनमें ‘कैदी कविराय की कुंडलियां’ (आपातकाल के दौरान जेल में लिखी गई कविताओं का संग्रह), ‘अमर आग है’ (कविता संग्रह) और ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ भी शामिल हैं.


उन्हें अक्सर ऐसा महसूस होता था कि राजनीति उन्हें कविताएं लिखने का समय नहीं देती.


एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने एक बार कहा था, ‘…लेकिन राजनीति के रेगिस्तान में ये कविता की धारा सूख गई.’


वाजपेयी को नई कविताएं लिखने का समय नहीं मिल पाता था, लेकिन वह अपने भाषणों में कविताओं के अंश डालकर इसकी कमी पूरी करने की कोशिश करते थे.


वाजपेयी ने यह जानते हुए पोखरण में परमाणु परीक्षण का फैसला किया कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया होगी. भारत को ऊंचाइयों पर पहुंचाने के लिए मानो उनकी यह सोच उन्हें अपने फैसले पर अटल रखे हुए थी कि…

बाधाएं आती हैं आएं,
घिरें प्रलय की घोर घटाएं
पावों के नीचे अंगारे
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं
निज हाथों में हंसते हंसते
आग लगा कर जलना होगा,
कदम मिला कर चलना होगा.

रूमानी अंदाज़ वाले वाजपेयी ज़्यादातर धोती-कुर्ता और बंडी पहना करते थे, खाली समय में कविता लिखते थे, खानपान के शौकीन थे और राजनीति में सक्रियता के दौरान अनुकूल माहौल नहीं मिल पाने के बारे में खुलकर बोलते थे.


एक सार्वजनिक संबोधन में उन्होंने ‘आज़ादी’ के विचार पर अपने करिश्माई अंदाज़ में बोला था और इसके लिए ख़तरा पैदा करने वालों पर बरसे थे. वाजपेयी ने कहा था,

‘इसे मिटाने की साज़िश करने वालों से कह दो
कि चिंगारी का खेल बुरा होता है;
औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खड़ा होता है.’

एक बार उन्होंने कहा था, ‘कविता वातावरण चाहती है, कविता एकाग्रता चाहती है, कविता आत्माभिव्यक्ति का नाम है, और वो आत्माभिव्यक्ति शोर-शराबे में नहीं हो सकती.’


सौम्य, सरल और मृदुभाषी वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन ये रिश्ते सुधरे तो नहीं, उल्टे करगिल युद्ध का कभी न मिटने वाला घाव दे गए. सीमा पर अपने प्राणों का बलिदान देते जवानों की खबरें मानो वाजपेयी को संदेश देती थीं कि अमन के लिए बस से लाहौर जाना निरर्थक था. उनकी यह कविता संभवत: उनकी यही दशा दर्शाती है…

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता,
तुम्हें वतन का वास्ताए
बात बनाएं, बिगड़ गई
दूध में दरार पड़ गई.

वाजपेयी सत्ता के गलियारों में अजातशत्रु कहलाते थे. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी अलग पहचान रखने वाले इस अजातशत्रु की 13 माह पुरानी सरकार वर्ष 1999 में केवल एक वोट से गिरी थी. हंसते-हंसते प्रधानमंत्री पद छोड़ने वाले वाजपेयी ने कभी कटाक्ष की या आरोपों की मदद नहीं ली. उनके व्यक्तित्व की विशालता उनकी ही कविता की ये पंक्तियां परिचायक हैं…

हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं.

अपने लंबे राजनीतिक सफर में कई उतार-चढ़ाव देखने वाले वाजपेयी का हिंदी प्रेम जगजाहिर है. संयुक्त राष्ट्र के मंच पर हिंदी का जादू सर चढ़ कर बोला जब वाजपेयी की वाणी वहां मुखर हुई थी. एक-एक शब्द का चुन-चुन का उपयोग करने वाले वाजपेयी प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का हौसला रखते थे. साथ ही उन्हें अतीत में देखे गए स्वर्णिम भारत का सपना भी याद था. शायद यही वजह है कि उन्होंने लिखा …

क्षमा करो बापू! तुम हमको,
बचन भंग के हम अपराधी,
राजघाट को किया अपावन,
मंज़िल भूले, यात्रा आधी.
जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,
टूटे सपनों को जोड़ेंगे.
चिताभस्म की चिंगारी से,
अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे.

भारत को सबसे आगे, ऊंचाई पर, दुनिया की अगुवाई करते देखने का सपना भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की आंखों में पलता था. अपनी चिरपरिचित मुस्कुराहट, सौम्यता, शब्दों की विरासत और कई खट्टी मीठी यादों को पीछे छोड़ कर अनंत यात्रा पर जाते हुए यह पथिक एक संदेश भी देता है…

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?

अटल सत्य सामने है. कल और आज की राजनीति भी अलग-अलग है. इनमें नजर नहीं आएगा अजातशत्रु का अटल चेहरा. उन्हीं के शब्दों में….

सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी.

अपने हास्य-विनोद के लिए मशहूर वाजपेयी ने एक बार कहा था, ‘मैं राजनीति छोड़ना चाहता हूं, पर राजनीति मुझे नहीं छोड़ती.’


उन्होंने कहा था, ‘लेकिन, चूंकि मैं राजनीति में दाख़िल हो चुका हूं और इसमें फंस गया हूं, तो मेरी इच्छा थी और अब भी है कि बगैर कोई दाग लिए जाऊं… और मेरी मृत्यु के बाद लोग कहें कि वह अच्छे इंसान थे जिन्होंने अपने देश और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश की.’


वाजपेयी के योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें मार्च 2015 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया था.



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