शारीरिक विकास के उपाय
अन्य प्राणियों की अपेक्षा, मनुष्य के शरीरिक विकास की गति धीमी होती है| शैशवावस्था में शारीरिक वृद्धि एवं परिवर्तन तीव्रतम गति से होता है| बाल्यावस्था में यह गति धीमी हो जाती है पुन: किशोरावस्था में विकास तीव्रतम गति से होता है शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था में शारीरिक विकास ‘सिर से पैर की ओर’ एवं ‘निकट से दूर की ओर’ के नियमनुसार होता है शारीरिक अनुपात में परिवर्तन एवं मांसपेशिया वसा आगे चलकर किशोरावस्था के दौरान एथलेटिक्स कौशल के विकास में सहायक होते हैं|
गेसल ने शैशवावस्था के शरीरिक विकास को चार प्रमुख चरणों में विभाजित किया है| प्रथम चरण जन्म से 4 माह की आयु तक जो विभीन्न प्रकार के शरीरिक विकास एवं परिवर्तनों को व्यक्त करता है| दुसरे चरण: 4 से 8 माह की अवधि में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों, जिसमें लम्बाई और भार का बढ़ना शामिल है तथा शिशु के दो दांत भी आ जाते हैं| तीसरे चरण (8 से 12 माह की आयु) में होने वाले परिवर्तनों में मुख्य रूप से लड़के, लड़कियों के भार में अंतर पाया जाता है| चौथे चरण (12 से 18 माह की आयु) में होने वाले परिवर्तनों में भार एवं लम्बाई में सार्थक वृद्धि पायी जाती है| जिससे बच्चों में चलने की क्षमता, सीढ़ी चढ़ना, पैर उछलना एवं दो शब्दों वाले वाक्यों को बोलने की क्षमता विकसित हो जाती है| 18 से 24 माह (दो वर्ष) की आयु में विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों के अतिरिक्त बच्चों में अन्वेषण की प्रवृति पायी जाती है| वह चीजों को छिपाने अथवा ढूढ़ने जैसी क्रियाएँ करने लगता है|
शारीरक परिपक्वता की जानकारी खोपड़ी की आयु के आधार पर भी की जा सकती है| जन्म के समय लड़कियाँ अधिक विकसित होती हैं| यह विकास क्रम उम्र के साथ परिवर्तित होता रहता है| शारीरिक संस्थान निजी एवं विशिष्ट संरूप के अनुसार परिपक्व होते हैं| शारीरिक वृद्धि में कालिक प्रवृत्ति का प्रभाव पाया गया है| विकसित देशों के बच्चे पहले की तुलना में जल्दी परिपक्व एवं लम्बे होने लगे हैं| पिट्यूटरी ग्रंथि के हारमोंस स्राव द्वारा शारीरिक वृद्धि पर नियंत्रण होता है एवं इसकी नियमितता में हैपोथैलमस की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है|
शारीरिक विकास की भांति शिशु के गत्यात्मक विकास में भी ‘सिर से पैर की ओर’ एवं ‘निकट- दूर’ के नियम कार्य करते हैं| यद्यपि विकास का क्रम सभी बच्चों में समान रूप से ही होता है, तथापि विकास गति में वैयक्तिक भिन्नताएँ पायी जाती है हैं| नये कौशल के विकास में जटिल क्रियाओं के संस्थानों की भूमिका होती है| यद्यपि कौशलों के विकास में परिपक्वता की भूमिका प्रमुख होती है तथापि विभिन्न परिवेशीय कारक, जैसे- उपयुक्त अवसर, पालन पोषण के ढंग एवं समृद्ध परिवेश का प्रभाव प्रमुख रूप से पड़ता है| यद्यपि शिशु में ऐच्छिक प्रयास का आरम्भ असंयोजनात्मक होता है, परंतु धीरे- धीरे एक वर्ष बीतते – बीतते परिष्कृत हो जाता है| एक बार जब पहुँचने की प्रवृत्तियाँ पूर्ण का अभ्यास हो जाता है तब वह गत्यात्मक कौशलों के समाकलन में सहायक तो होता ही है, नये संज्ञानात्मक विकास में भी सहायक होता है|
अन्य विकास प्रक्रमों की भांति स्नायूविक विकास में भी सामान्य संरूप पाया जाता है| स्नायूविक संस्थानों का विकास गर्भावस्था में एवं जन्म के बाद तीन चार वर्षो तक तीव्रतम गति से होता है| तत्पश्चात इनका विकास धीमी गति से होने लगता है| जन्म के समय मस्तिष्क भार तथा शरीर के भार के बीच का अनुपात घटता होता हैं परन्तु आयु वृद्धि के साथ मस्तिष्क भार तथा शरीर के भार के बीच का अनुपात घटता जाता है| यह संरूप प्रमस्तिष्क एवं अनुमस्तिष्क विकास में पूर्णतया परिपक्वता आ जाती है परन्तु आन्तरिक प्रमस्तिष्क पूरी तरह विकसति नहीं होता है| तंत्रिका तंत्र तीन चरणों में विकसित होते हैं (1) उत्पादन (2) प्रवर्जन तथा (3) विभेदन| प्रमस्तिष्क कार्टेक्स का पर्श्वीकरण जन्म से ही शुरू हो जाता है परंतु प्रथम वर्ष तक की आयु तक लचीलापन बना रहता है|
हस्त प्रबलता की प्रवृती शैशवावस्था में व्यक्त होती है एवं बाल्यावस्था में समृद्धि होती है जो पर्श्वीकरण का एक उदहारण है| प्राय: वाम हस्त प्रबलता की विकासात्मक दोष का सूचक माना जाता है जो निराधार है| शैशवावस्था से किशोरावस्था तक अनेक अंतरालों में मस्तिष्क वृद्धि प्रवेग पाये जाते हैं|
अतिसूक्ष्म मस्तिष्क कोशिकाएं एवं प्रमस्तिष्क कार्टेक्स, मस्तिष्क के महत्वपूर्ण अंग हैं| तंत्रिका तंत्र में सूचनाएं संरक्षित एवं स्थानांतरित होती रहती हैं| इसमें परस्पर संधि स्थल पाये जाते हैं| प्रमस्तिष्क कार्टेक्स मस्तिष्क का लगभग 85% भाग होता है जो बौद्धिक क्षमता के विकास के लिए उत्तरदायी होता है| मस्तिष्क का यह अंतिम भाग होता है अत: इस पर परिवेशीय कारकों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है|
मस्तिष्क में बाम एवं दक्षिण गोलार्द्ध पाये जाते हैं| प्रत्येक गोलार्द्ध संवेदिक सूचनाओं को प्राप्त करता है तथा शरीर के विपरीत हिस्सों को नियंत्रित करता है| दक्षिण हस्त प्रबल लोगों में पर्श्वीकरण सबसे ज्यादा स्पष्ट होता है पर्श्वीकरण की प्रक्रिया आयु के साथ विकसित होती है 90% लोग दक्षिण हस्त प्रबल पाये जाते हैं जबकि 10% लोग ही बाम हस्त प्रबल होते हैं| उपयुक्त प्रशिक्षण द्वारा बाम हस्त प्रबल को मिश्रित हस्त प्रबल बनाया जा सकता है|
कार्टेक्स के अतिरिक्त अवमस्तिष्क शारीरिक गति को सन्तुलित एवं नियंत्रित करता है| इसी प्रकार रेतीकूलर फार्मेशन का विकास सक्रियता एवं चेतना को बनाये रखने में सहायक होता है |
स्नायूविक विकास में परिपक्वता के अतिरिक्त, परिवेश की भूमिका कितनी मत्त्वापूर्ण होती है ? इसके बारे में जानकारी अपर्याप्त है एवं आगे अनूसंधान अपेक्षित है|
स्रोत: जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
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