अलीराजपुर की स्थापना
अलीराजपुर भारतीय राज्य मध्य प्रदेश का एक जिला है। यह मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग में पड़ता है। यह कुछ सालों पहले ही झाबुआ जिले से कुछ क्षेत्रों को विलग करके एक अलग जिला बनाया गया था। इसके नाम को परिवर्तित करके आलीराजपुर करने की माँग भी कुछ समूहों द्वारा की गयी है।
वैसे तो प्रारम्भ से ही आदीवासी बहुल समुदाय रहे अलीराजपुर क्षेत्र पर आदिवासी राजाओं का राज रहा परंतु 15 शताब्दी में जोधपुर के राणा राठोर नरेश के वंशज आनंददेव ने उस समय जमुरा डोडीया भील तथा उसकी फ़ौज को मार कर उसके कब्ज़े के सारे इलाकों को अपने अधिकार में कर लिया जिसकी हदें उत्तर दिशा की ओर झाबुआ-दाहोद के तालाब तक, पश्चिम में शिवराजपुर गुजरात तक दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में हथिनी नदी के किनारे धोलगढ तक थी। आनंददेव को शिकार खेलने का बहुत शौक था। एक दिन आनंददेव शिकार खेलते-खेलते आली के जंगल की तरफ चले गये जहाँ उस समय अलिया भील का राज्य था। इसी जगह राजा को एक खरगोश दिखाई पड़ा उसके पिछे मुड़कर आनंददेव की घुरकर देखा ओर नजरो के सामने से गायब हो गया। तब राजा आनंद देव ने महसुस किया कि यह कोई चमत्कारी स्थान होना चाहिए जो खुशनुमा ओर बहुत रोनक वाली जगह है। उसी समय राजा आनंददेव ने इस स्थान पर एक किला सन् 1438 ई0 में माघ सुदी पंचमी शनिवार के दिन बसाया। वह उसका नाम आनंदावली रखा, इसके पश्चात अलिया भील युद्ध मे मारा गया तथा आनंद देव का एक छत्र राज्य स्थापित हो गया। इसके बाद राजा आनंद देव ने अपनी राजधानी मोटीपोल से आली स्थानातरित कर दी तथा इसका नाम आनंदावली रखा। राजा आनंददेव ने अपने छोटे भाई इन्द्रदेव को सन् 1440 में फुलमाल नामक गाॅंव जागीर में दिया और उसे अपना प्रधानमंत्री बनाया। इसके बाद राजा ने अपने अमीर उमराव तथा भाई बन्दुओ को अपने अधिन क्षेत्र के परगनो का बटवारा कर दिया जिसके अनुसार वजेसिंह को आमखुट परगना, मानसिंह सोलंकी को डही परगना, भुलजी को झिरण परगना, अधिकरणदेव जी को मथवाड़ परगना, तथा सारगदेव जाधव को कट्ठीवाड़ा दे दिया।
ये पाॅंचो उमराव कई सालो तक आनंदावली राज्य के अधिन रहे। परंतु धीरे-धीरे डही, मथवाड़ और कट्ठीवाड़ा परगने अलग हो गये। परंतु झिरण व आमखुट की वंश न चलने से दोनो ही आनंदावली के अधीन रहे। राजा आनंददेव के बाद उसका पुत्र चचलदेव गददी पर बैठा। उसके दो पुत्र हुए, गुगलदेव व केशरदेव अपने पिता चचलदेव की हत्या पर गुगलदेव सन् 1470 में यहाॅं का राजा बन गया। उधर छोटे भाई केशरदेव ने अपने पिता के जीवित रहते ही सन् 1465 में राज्य के उत्तर पूर्व में जोबट पर अपना कब्जा कर लिया था। उधर आली के राजा गुगलदेव का पुत्र कृष्णादेव निःसंतान मरा तक कृष्णादेव का भतीजा बंच्छराज राजसिहासन पर बैठा बंच्छराज के चार पुत्र थे।
पहला पुत्र दिपसेन था इसने अपने भाई संबलसिंह को 07 मई 1665 को सोण्डवा गाव की अलग से जागीर दे दी थी। दिपसेन का पुत्र सुरतसिंह हुआ जिसने आली राज्य का बहुत विस्तार किया सुरतदेव के 4 पुत्र हुए पहला पहाडदेव दुसरा प्रतापदेव (प्रतापसिंह प्रथम) तीसरा दौलसिंह व चैथा पुत्र अभयदेव थे। इनमे से सुरतदेव की मृत्यू के पश्चात बडा पुत्र पहाडसिह राजगददी पर बैठा इस परिस्थिति ने प्रतापसिंह प्रथम ने भाई के पास रहना उचित नही समझा ओर महेश्वर चला गया। तथा अपनी पहचान छुपाकर 5 साल तक अहिल्याबाई होलकर के पास रहे जब अहिल्याबाई को यह पता चला कि प्रातापसिंह (प्रथम) आली के राजा का भाई है तो उन्हे अपना मुहबोला भाई बनाया व वापस उन्हे आली भेज दिया। आली वापसी होने पर प्रतापसिंह प्रथम सत्ता प्राप्त करने की योजना बनाकर लगातार कार्य किया अन्नतः दिनांक 29 जूलाई सन् 1765 को प्रतापसिंह प्रथम ने अपने आप को आली राज्य का राजा घोषित कर दिया। राजा प्रतापसिंह का विवाह गुजरात के धरमपुरी राज्य की सिसोदिया राजकुमारी से हुआ।
राज प्रातापसिंह ने अपने सगे भाई दोलतसिंह को सन् 1777 में भाभरा रियासत प्रदान की उधर मथवाड़ भी एक प्रथक रियासत होकर यहाॅं ठाकुर रामसिंह शासक थे। सन् 1797 ई0 में मुसाफिर मकरानी वास्तविक नाम दुरमोहम्मद खान अपने साथीगण बेतुला मकरानी ओर हासम मकरानी अफगानिस्तान की सीमा से लगे मकरान प्रांत से आकर आली राज्य के सेवक नियुक्त हुए। श्री मुसाफिर मकरानी आजीवन राज्य के बहुत ही वफादार सेवक रहे। ओर कई मरतबा उन्होने राज्य की आक्रमणों, हमलो आदि से रक्षा भी की इस के बाद प्रतापसिंह प्रथम का शासन छोटे मोटे विवादो व आपसी आक्रमणो के बावजुद चलता रहा इसके बाद सन् 1800 मे चेत्र वदी अष्ठमी शनिवार को आली रीयासत की राजधानी आली से राजपुर स्थांतरित कर दि गई। महाराज प्रताप सिह पृथम की मृत्यु के पश्चात महारानी प्रतापकुॅवर बाई के गृभ से सन 1809 में जसन्त सिंह का जन्म हुआ। पश्चात महाराज जसवंत सिह का शासन चला व सन 1861 में उनकी मृत्यु हो गई। जसवंत सिह की मृत्यु के पश्चात इनके पुत्र गंगदेव राजगद्दी पर बैठे तथा सन 1862 से 1871 तक अलीराजपुर में राज्य किया इनकी मृत्यु पश्चात इनके भाई रूप देव ने 1871 से 1881 तक राज्य किया ओर वे भी एक वर्ष पश्चात मृत्यु को प्राप्त हुए।
रूप देवजी की कोई संतान न होने से सोण्डवा ठाकुर परिवार के कालुबाबा को पोत्र व चंद्रसिह के पुत्र विजय सिह को अलीराजपुर लाकर राजगद्दी पर बैठाया इनहोने सन 1890 तक अलीराजपुर राज्य पर राज कीया और इनकी भी कोई संतान न होने से पुनः सोण्डवा के कालुबाबा के पोत्र व दुसरे पुत्र भगवान सिह के पुत्र प्रतापसिह द्वितीय को सोण्डवा से लाकर विधि विधान से राजतीलक कर अलीराजपुर राजगद्दी पर बैठाया। हिजहाईनेस प्रताप सिह द्वितीय का जन्म 12 सिंतबर सन 1881 में हुआ व उनका राजतीलक 10 जुन सन 1891 में किया गया महाराजा प्रताप सिह द्वितीय की शिक्षा राजकोट के राजकुमार कालेज मे हुई। युवा हेाने पर सन 1901 में उन्हे अलीराजपुर राज्य के नानपुर व खट्टाली के परगनो के शासन का भार सौपा गया तथा एक साल बाद ही उन्हे पृथम श्रेणी मजिस्टेट के अधिकार प्रदान किये गये। दिनांक 27 जनवरी सन 1904 में महाराजा श्री प्रताप सिह को शाासन संचालन के समस्त अधिकार प्रदान किये गये। 04 मार्च 1908 को महाराजा प्रतापसिह का विवाह कट्ठीवाडा के ठाकुर श्री बहादुरसिंह जादव की सुपूत्री श्रीमती रानी राजकुॅवर बाई के साथ सम्पन्न हुआ। महाराजा प्रतापसिंह की बडी रानी के गर्भ से संवत 1961 की श्रावण सुदी ग्यारस केा प्रिंस फतेह सिह जी का जन्म हुआ। महाराज फतेह सिह जी की शिक्षा डेली कालेज इन्दौर व राजकुमार कालेज राजकोट से हुई। प्रिंस फतेह सिह जी को इतीहास, साहित्य, शिकार, पौलो व क्रिकेट खलने का बडा शौक था। महाराजा प्रतापसिह जी ने अलीराजपुर नगर मे इसी समय मे बडे व सुन्दर खैल मैदान वर्तमान मे कलेक्टर कार्यालय के सामने स्थित फतेह क्लब मैदान, गेस्ट हाउस, प्रताप भवन, हास्पीटल तथा स्कुल बनवाए, ओर नगर नियोजन की सुन्दर रचना की। प्रिंस फतेहसिह जी का विवाह खिची कुल के हिज हाईनेस महाराज सर रणजीतसिहं जी के स्टेट के बारिया नरेश जी की राजकुमारी सो राजकुमारी राजेतुकुवंरबाई के साथ दिनांक 07 मई सन 1922 में धुमधाम से हुआ। प्रिन्स फतेहसिंह जी की 6 संताने हुई इनमें 3 राजकुमार व 3 राजकुमारी थी। इनमे महाराज सुरेन्द्रजी का जन्म 17 मार्च सन 1923 को हुआ तथा महाराज कमलेन्द्रसिंह अभी जीवित है। राजकुमारीयों की शादीयाॅं कर दी गई थी। राजाप्रतापसिंह द्वितीय बहुत सदिप, परोपकारी व अंग्रेजी हुकुमत के खास थे। 03 जून 1915 को दिल्ली सम्राट ने अपने जन्म दिवस पर प्रतापसिंह जी बहादुर के0सी0आई की उच्च उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया सन 1917 में राजा साहब ने सेंट जान्स एम्बुलेंस एसोशिएसन की आर्थिक सहायता की इस सहायता व वफादारी से प्रसन्न होकर दिनांक 01 जनवरी 1920 को राजा साहब की सलामी 9 तोपो से बडाकर 11 तोप की सलामी कर दी गई। साथ ही एक वर्ष बाद दिनांक 01 जनवरी 1921 को अग्रेज सरकारी द्वारा पुस्त-दर-पुस्त के लिए हिज हाईनेस उपाधि स्थाई करते हुए महाराजा प्रतापसिंह द्वितीय सम्मानित भी किया। इस समय अलीराजपुर की आबादी 5000 हजार से कुछ अधिक थी। यहाॅं के रास्ते व बाजारा चैडे़ तथा सीधे हवादार होकर सुन्दर मकानों से युक्त मनभावन नगर था। हिज हाईनेस श्री प्रतापसिंह बड़े ही निर्भीक व दयालु शासक थे बावजूद जो डाकु व चोर लुटेरे दिन दहाडे डाका डालते उन्हेें कठोर दण्ड दिया जाता था। अलीराजपुर रियासत की जनसंख्या 12 हजार थी जिसमें 569 ईसाई धर्म के अंग्रेज, पादरी लोग थे। अधिकतर ईसाई भील जाति से कन्वर्टेड थे ये लोग आमखंुट, अलीराजपुर सर्दी, मेंढा आदि जगह स्थापित थे। धर्म प्रचारक पादरियों के पास खेती बाड़ी के लिए राज्य द्वारा दी गई बहुत सी भूमि थी। दिनांक 1 फरवरी 1924 में अंग्रेजो के नियमानुसार स्टेट फोर्सेस (फोज) की स्थापना की गई थी जो प्रताप इन्फेन्ट्री कहलाती थी। इसमे गोरखे व सैनिक बेंड भी थे। हिज हाईनेस महाराज श्री प्रतापसिंह जी के शासन काल में खेलो के विकास पर बहुत ध्यान दिया गया। अलीराजपुर नगर में क्रिकेट का विशाल मैदान (वर्तमान में फतेह क्लब मैदान), पोलो खेल के लिए विषाल मैदान के साथ ही बेडमेन्टन के लिए लकडी की उच्च किस्म से तैयार किया गया बेडमिंटन हाल (वर्तमान मे भी अस्तित्व में) पूरे देश मे प्रसिध्द थे। तत्कालिन समय में विजयनगर के महाराजा राजकुमार अपनी रियासत के खर्चे से टीम तैयार करते थे। बहुधा इस टीम में अलीराजपुर रियासत के 5-6 खिलाड़ी रहते थे। जिनमें महाराज कुमार श्री फतेसिहजी, श्री शाहबुदीन मकरानी, श्री सईदुदीन मकरानी आदि थे। इस प्रकार तत्कालिन विजयनगर अलीराजपुर तथा पटियाला रियासत ने क्रिकेट खेल को आगे बढ़ाने व देश में प्रसार करने में मिल के पत्थर का कार्य किया।
इस प्रकार महाराजा प्रतापसिंह जी द्वितीय ने सन 1948 (आजादी तक ) अर्थात 57 वर्षों तक तक अलीराजपुर रियासत पर सफलतापूर्वक शासन दिया उनके निधन के पष्चात् उनके पोत्र व महाराजा फतेसिंहजी के पुत्र श्री सुरेन्द्रसिंह जी महाराज साहब का राजतिलक हुआ। उसके बाद अलीराजपुर राज्य का भारतीय संघ में विलय हो गया लेकिन हिज हाईनेस श्री सुरेन्द्रसिंह जी हमेशा बापजी के नाम से लोकप्रिय रहें व वे पत्रों पर पद हस्ताक्षर भी इसी नाम से करते थे। वैसे महाराजा सुरेन्द्रसिंह जी एक अत्यधिक शिक्षित व्यक्ति होकर उन्होने आई0सी0एस0 की परीक्षा भी उत्तीर्ण की थी। वे भारतीय विदेश सेवा में अनेकों देषों में भारतीय राजदूत के रूप में अपनी सेवाएॅं दे चुकंे। देष के पूर्व प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू व श्रीमती इंदिरा गाँधी से उनके पारिवारिक संबंध रहें। सेवानिवृति के बाद भी महाराजा सुरेन्द्रसिंहजी काफी सक्रियता पूर्वक सेवा कार्यों में लगे रहें। महाराजा सुरेन्द्रसिंहजी एक उदारवादी एवं एक आतिथ्य प्रिय शक्स थे। सन् 1947 में देश की आजादी के बाद 1948 में अलीराजपुर रियासत के भारतीय संघ में विलय हो जाने के बाद यह क्षेत्र प्रषासनिक रूप से मध्य भारत के अधीन हो गया।
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