राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदी की भूमिका
14 सितंबर ‘हिन्दी दिवस’ के रुप में मनाया जाता है और यह क्यों मनाया जाता है, यह सर्वविदित है. आज हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा ही नहीं राजभाषा भी है. हिन्दी को एक प्रादेशिक भाषा की हैसियत से लेकर राष्ट्रभाषा के रुप में लोकप्रिय और सर्वमान्य बनने में और फिर भारत की राजभाषा बनने में कई शताब्दियां लगी हैं. राजभाषा के रूप में हिन्दी को जो मान्यता दी गयी उसमें स्वतंत्रता-संग्राम के हमारे राजनेताओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही हैं. यह देखकर आश्चर्य होता है कि हिन्दी के विकास के लिए उन चिन्तकों, मनीषियों और नेताओं ने अभूतपूर्व कार्य किया है जो अधिकतर हिन्दीतर प्रदेश के थे. हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम बंगाल में ही उदित हुआ और प्रारम्भ से अन्त तक इसे वहां के मूर्धन्य नेताओं का सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ. पूरे देश के लिए एक राष्ट्रभाषा हिन्दी की कल्पना करनेवालों में सबसे अग्रणी हैं बंगाल के श्री केशवचंद्र सेन, जिन्होंने 1873 में अपने पत्र ‘सुलभ समाचार’ (बंगला) में लिखा “यदि भाषा एक न होने पर भारतवर्ष में एकता न हो तो उसका उपाय क्या है? समस्त भारतवर्ष में एक भाषा का प्रयोग करना इसका उपाय है. इस समय भारत में जितनी भी भाषाएं प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी भाषा प्राय: सर्वत्र प्रचलित है. इस हिन्दी भाषा को यदि भारतवर्ष की एक मात्र भाषा बनाया जाए तो अनायास ही (यह एकता) शीघ्र ही सम्पन्न हो सकती है.” इनके अलावा अन्य अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने प्रान्तीयता की भावना से ऊपर उठकर मुक्त कंठ से हिन्दी का समर्थन किया, जिनकी हिन्दी सेवा अविस्मरणीय रहेगी.
“स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है जिसे मैं प्राप्त करके रहूंगा” का नारा देनेवाले नेता बाल गंगाधर तिलक का स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में विशिष्ट स्थान है. भाषा के बारे में तिलक का विचार था कि हिन्दी ही एक मात्र भाषा है जो राष्ट्रभाषा हो सकती है. हिन्दी का समर्थन करते हुए ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में उन्होंने लिखा था “यह आंदोलन उत्तर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है, यह तो उस आन्दोलन का एक अंग है जिसे मैं राष्ट्रीय आन्दोलन कहूंगा और जिसका उद्देश्य समस्त भारत वर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण अंग है, अतएव अदि आप किसी राष्ट्र के लोगों को एक दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा के बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है.”
तिलक जहां हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानते थे वहां देवनागरी को हिन्दी की लिपि मानते थे. तिलक ने राष्ट्रीय चेतना को प्रबल करने के लिए सन् 1903 में ‘हिन्दी केसरी’ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ किया और इस बात का परिचय दिया कि जन साधारण तक अपने विचारों को पहुंचाने के लिए केवल हिन्दी ही एक सरल और सशक्त माध्यम है. साथ ही तिलक ने अंग्रेजी की बजाय हिन्दी में भाषण देने की परम्परा आरंभ कर अन्य नेताओं के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया.
महात्मा गांधी भाषा के प्रश्न को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रश्नों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते थे. उन्होनें प्रारंभ से हिन्दी को स्वतंत्रता संग्राम की भाषा बनाने के लिए अथक परिश्रम किया. उनका अनुभव था कि “पराधीनता चाहे राजनीतिक क्षेत्र की हो अथवा भाषाई क्षेत्र की, दोनों ही एक दूसरे की पूरक और पीढ़ी-दर-पीढ़ी सदा परमुखापेक्षी बनाये रखने वाली है” सन् 1917 में उन्होंने एक परिपत्र निकाल कर हिन्दी सीखने के कार्य का सूत्रपात किया. गांधीजी की प्रेरणा से 1925 में काँग्रेस ने यह प्रस्ताव पास किया कि कांग्रेस का, काँग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का कामकाज आमतौर पर हिन्दुस्तानी में चलाया जायेगा. इसी का परिणाम था कि सन् 1925 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन भरतपुर में हुआ जिसकी अध्यक्षता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने की और उन्होंने हिन्दी में बोलकर हिन्दी का प्रबल समर्थन किया.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विभिन्न राज्यों में हिन्दी-प्रचार करने के लिए नेताओं को जहाँ प्रेरित किया वहीं लोगों के अलग-अलग जत्थे को राज्यों में भेजा. उन्होंने खुद अपने बेटे श्री देवदास गांधी को हिन्दी-प्रचार के लिए भारत के दक्षिण में भेजा था. आज़ादी के इस मुहिम में इसे पुनीत कर्तव्य मानकर विभिन्न राज्यों में विभिन्न हिन्दी-प्रचारक गए और वहाँ उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. राष्ट्रीय आंदोलन में शिरकत करते हुए राष्ट्रीय चेतना से युक्त हमारे ये हिन्दी-प्रचारक आज़ादी में और आज़ादी के बाद भी लोगों को जागृत करते हुए उनके बीच हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते रहे.
गांधीजी के प्रयत्नों से तमिलनाडु में हिन्दी के प्रति ऐसा उत्साह प्रवाहित हुआ कि प्रांत के सभी प्रभावशाली नेता हिन्दी का समर्थन करने लगे. यह वह समय था जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे नेता हिन्दी के प्रचार को अपना भरपूर सहयोग दे रहे थे.
‘पंजाब केसरी’ के नाम से प्रसिद्ध लाला लाजपतराय एक महान देशभक्त शिक्षाशास्त्री ही नहीं, एक प्रभावशाली पत्रकार भी थे. पंजाब में हिन्दी के प्रचार का पूरा श्रेय लालाजी को जाता है. जब उर्दू हिन्दी का विवाद जोरों से चल रहा था, तब लालाजी ने हिन्दी का बड़ा समर्थन किया और उन्हीं के प्रयत्न से पंजाब के शिक्षा क्षेत्र में हिन्दी को स्थान मिला. उन्होंने अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की जिनमें हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य बनाया गया. लालाजी की प्रेरणा से ही पंजाब विश्वविद्यालय के पाठयक्रम में हिन्दी को स्थान मिला.
स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पुरूष के रूप में विख्यात पंडित मदनमोहन मालवीय जी का नाम हिंदी प्रचारकों में बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है. वे न केवल एक महान हिंदीव्रती थे बल्कि हिंदी आंदोलन के अग्रणी नेता भी थे. हिंदी के प्रचार एवं प्रसार और हिंदी के स्वरूप निर्धारण दोनों ही दृष्टियों से उन्होंने हिंदी की अभूतपूर्व सेवा की. यह उन्हीं का प्रोत्साहन, समर्थन और प्रेरणा थी जिसकी बदौलत हिंदी प्रशासन एवं राजकाज की भाषा बनी. `हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ की सेवा उनका संकल्प था. उनके सार्वजनिक जीवन की सक्रियता, उनके आदर्श और उनकी योजनाएँ इसी संकल्प से प्रेरित थी. मालवीयजी जीवन-पर्यन्त भारतीय स्वराज्य के लिए कठोर तप करते रहे. उसी के समानान्तर हिन्दी की प्रतिष्ठापना के लिए भी वे अनवरत साधना में लीन रहे. सन् 1986 के काँग्रेस अधिवेशन में श्री मालवीय के भाषण से प्रभावित होकर कालाकांकर के राजा ने अपने हिन्दी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ का उन्हें संपादक बनाया उसके बाद उन्होंने हिन्दी साप्तहिक ‘अभ्युदय’ प्रारंभ किया और 1910 में प्रयाग से ‘मर्यादा’ नामक हिन्दी पत्रिका तथा सन् 1933 से ‘सनातन धर्म’ नामक हिन्दी पत्र भी प्रारंभ किया. उन्हीं की प्रेरणा से कई और हिन्दी पत्रिकाओं का जन्म हुआ.
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन की हिन्दी सेवा भी अप्रतिम है. वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कर्ताधर्ता थे और उनसे हिन्दी प्रचार के कार्य को बड़ी गति मिली. टण्डनजी ने अपना सारा जीवन हिन्दी की सेवा और हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि में अर्पित किया. हिन्दी को आगे बढ़ाने और राष्ट्रभाषा के रूप में इसे सर्वोत्तम स्थान देने के लिए टण्डन जी ने कठिन परिश्रम किया. इन्होंने 10 अक्टूबर 1910 को वाराणसी के नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की. फिर 1918 में उन्होंने ‘हिन्दी विद्यापीठ’और 1947 में ‘हिन्दी रक्षक दल’की स्थापना की. टण्डन जी हिन्दी को देश की आज़ादी के पहले आज़ादी प्राप्त करने का’और आज़ादी के बाद ‘आज़ादी को बनाये रखने का’साधन मानते थे. उन्होंने हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए हरसंभव प्रयास किए. अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने बहुत ही आकर्षक ढंग से हिन्दी भाषा के महत्व को बताया ताकि सबके मन में हिन्दी भाषा के लिए प्रेम जाग जाए और देशभर में हिन्दी का ही प्रचार-प्रसार हो. उन्होंने बहुत ही सरल ढंग से हिन्दी को प्रगति के मार्ग पर लाने का प्रयास किया.
राष्ट्रीय नेताओं में देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी की हिन्दी सेवा से कौन परिचित नहीं है. भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष के रुप में हिन्दी को उचित स्थान दिलाने का श्रेय डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को ही है. उन्होंने ही भारतीय संविधान की भारतीय भाषाओं में परिभाषिक कोष तैयार करवाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है. भारत के प्रथम राष्ट्रपति के पद से उन्होंने जो हिन्दी की सेवा की उसका विशेष महत्व है. उनके कार्यकाल में सरकारी स्तर पर हिन्दी को मान्यता मिली.
''यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है, तो वह जनता की भाषा में चलाना होगा'' इन शब्दों में जनता की भाषा की वकालत करने वाले काका कालेलकर जी का नाम हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार और विकास में अतुलनीय योगदान देने वालों में आदर के साथ लिया जाता है. दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के वे कर्णधार रहे और गुजरात में रहकर हिन्दी प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाया. 1942 में वर्धा में जब हिन्दुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना हुई तो काका साहब ने ‘हिन्दुस्तानी’ के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया. उन्होंने हिन्दी के प्रचार कार्यक्रम को राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में प्रतिष्ठित किया और सन् 1938 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के अधिवेशन में इसका खुलकर ऐलान भी किया. अपने इसी लक्ष्य पर अडिग रहते हुए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दी के विकास और प्रचार-प्रसार में लगा दिया.
श्री केशवचन्द्र सेन पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होने ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ के महत्व को हृदय से समझा और स्वीकार किया. साथ ही, भारत को एकता के सूत्र में बांधने की दृष्टि से सभी से यह आह्वान किया कि सब हिन्दी को आत्मसात करें क्योंकि हिन्दी हमारे देश की आत्मा है. उन्होने हिन्दी के प्रचार- प्रसार हेतु हर संभव प्रयास किया. उनका मानना था कि हमारा प्राथमिक उद्देश्य है अपनी बात को आखिरी व्यक्ति तक पहुँचाना और इस देश में आखिरी व्यक्ति तक संदेश पहुँचाने का सरलतम मार्ग है हिन्दी. केशव जी का मत था कि हिन्दी के माध्यम से हम किसी व्यक्ति को ही नहीं अपितु उसकी आत्मा तक को स्पर्श करने की क्षमता रखते हैं क्योंकि हिन्दी भारत के जनसामान्य की आत्मा में बसती है.
राष्ट्रभाषा के प्रहरी के रुप में सेठ गोविन्ददासजी कौन भुला सकता है. अपने युवाकाल में ही कई हिन्दी पत्रिकाएं प्रारंम्भ कर सेठजी ने हिन्दी के प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया था. 18 मई सन् 1949 में जब भारतीय संविधान सभा की बहस चल रही थी तब गोविंद दास जी ने कहा था –“मैं व्यक्तिगत रूप से यह चाहता हूं कि – संविधान मौलिक रूप में हमारी मुख्य भाषा में हो, अंग्रेजी में नहीं; जिससे हमारे भावी न्यायाधीश अपनी भाषा पर निर्भर हो सकें, विदेशी भाषा पर नहीं.” भारतीय लोकसभा के सदस्य के रुप में उन्होंने हिन्दी के प्रसार के लिए कई कदम उठाये जो हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिलाने में सहायक सिद्ध हुए. उन्होने हिन्दी की समृद्धि और प्रचार के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया था. इसी कारण से 1963 में सेठ जी को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया था.
यहां हमने हिन्दी के प्रचार प्रसार एवं उसे राजभाषा की मंजिल तक पहुंचाने वाले कुछ प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं के योगदान का अत्यंत संक्षिप्त उल्लेख किया है. इसके अतिरिक्त अन्य बहुत से महत्वपूर्ण नेताओं के नाम गिनाये जा सकते हैं, जिन्होंने हिन्दी का प्रबल समर्थन किया और हिन्दी को विकसित करने में अपना बहुमूल्य सहयोग दिया.
बहुत सुंदर लेख है अच्छा लगा पढ़कर
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bahut badhiya lekh
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