जनजातियों की समस्या
प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की समाप्ति: ब्रिटिश शासन के आगमन से पूर्व जनजातियां प्राकृतिक संसाधनों (भूमि, जंगल, वन्य जीवन, जल, मिट्टी, मत्स्य इत्यादि) के ऊपर स्वामित्व एवं प्रबंधन के निर्वाघ अधिकारों का उपभोग करती थीं। औपनिवेशिक शासन के अधीन अधिकाधिक जनजातीय क्षेत्रों को शामिल किया गया है। भारत में औद्योगीकरण की शुरूआत तथा खनिजों की खोज ने जनजातीय क्षेत्रों को बाहरीजगत के लिए खोल दिया। जनजातीय नियंत्रण का स्थान राजकीय नियंत्रण द्वारा ले लिया गया। इस प्रकार जनजातियों की कभी न खत्म होने वाली विपन्नता का दौर शुरू हुआ। स्वतंत्रता के बाद विकास प्रक्रिया के साधनों के रूप में भूमि एवं वनों पर दबाव बढ़ता गया। इसका परिणाम भूमि पर से स्वामित्व अधिकारों की समाप्ति के रूप में सामने आया।
इसने बेमियादी ऋणग्रस्तता भूस्वामी, महाजन, ठेकेदार तथा अधिकारी जैसे शोषणकर्ता वर्गों को जन्म दिया। संरक्षित एवं वनों एवं राष्ट्रीय पाक की अवधारणाओं ने जनजातियों में अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने का भाव उत्पन्न किया और वे अपनी आजीविका के सुरक्षित साधनों से वंचित होते गये।
शिक्षा का अभाव: 2001 की जनगणना के अनुसार, जनजातियों की कुल जनसंख्या का 70 प्रतिशत से अधिक भाग निरक्षर है। जनजातीय अंधविश्वास व पूर्वाग्रह, अत्यधिक गरीबी, कुछ शिक्षकों व अन्य सुविधाओं की कमी आदि ऐसे कारक हैं, जो जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा के विस्तार को बाधित करते हैं। शिक्षा के प्रसार के द्वारा ही जनजातियों को विकास प्रक्रिया में सच्चा भागीदार बनाया जा सकता है।
विस्थापन एवं पुनर्वास: स्वतंत्रता के पश्चात् विकास प्रक्रिया का केंद्र बिंदु भारी उद्योगों एवं कोर सेक्टर का विकास रहा है। इसके परिणामतः विशाल इस्पात संयंत्र, शक्ति परियोजनाएं एवं बड़े बांध अस्तित्व में आये, जिन्हें अधिकतर जनजातीय रिहाइश वाले क्षेत्रों में स्थापित किया गया। इन क्षेत्रों में खनन सम्बंधी गतिविधियां भी तीव्र होती गयीं। इन परियोजनाओं हेतु सरकार द्वारा जनजातीय क्षेत्रों की भूमि का विशाल पैमाने पर अधिग्रहण किया गया, जिससे जनजातीय लोगों के विस्थापन की समस्याएं पैदा हुई। छोटा नागपुर, ओडीशा, प. बंगाल, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के जनजातीय संकेंद्रण वाले क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुए। सरकार द्वारा प्रदान की गयी नकद क्षतिपूर्ति की राशि व्यर्थ के कार्यों में अपव्यय हो गयी। औद्योगिक क्षेत्रों में विस्थापित जनजातियों को बसाने के समुचित प्रयासों के अभाव में ये जनजातियां या तो निकट की मलिन बस्तियों में रहने लगीं या अकुशल श्रमिकों के रूप में निकटवर्ती प्रदेशों में प्रवास कर गयीं। शहरी क्षेत्रों में इन्हें जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, क्योंकि ये गहरी जीवन शैली एवं मूल्यों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ नहीं हो पाती हैं।
स्वास्थ्य एवं कुपोषण की समस्याएं: आर्थिक पिछड़ेपन एवं असुरक्षित आजीविका के साधनों के कारण जनजातियों की कई स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जनजातीय क्षेत्रों में मलेरिया, क्षय रोग, पीलिया, हैजा तथा अतिसार जैसी बीमारियां व्याप्त रहती हैं। लौह तत्व की कमी, रक्ताल्पता, उच्च शिशु मृत्यु दर एवं जीवन प्रत्याशा का निम्न स्तर आदि समस्याएं कुपोषण से जुड़ी हुई हैं।
लैंगिक मुद्दे: प्राकृतिक पर्यावरण के क्षय, विशेषतः वनों के विनाश व संसाधनों की घटती मात्रा के कारण, ने जनजातीय महिलाओं की स्थिति पर गहरा प्रभाव डाला है। खनन व उद्योग हेतु जनजातीय क्षेत्रों का खुलना तथा उनका व्यवसायीकरण होना जनजातियों के स्त्री-पुरुषों को बाजार अर्थव्यवस्था के हथकंडों का शिकार बनाने में सहायक सिद्ध हुआ है। इससे उपभोक्तावाद तथा महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझने की अवधारणाओं को मजबूती मिली है।
पहचान का क्षय: जनजातियों की परंपरागत संस्थाओं एवं कानूनों का आधुनिक संस्थाओं के साथ टकराव होने से जनजातियों में पहचान के संकट की आशंकाएं पैदा हई हैं। जनजातीय भाषाओं व उपभाषाओं की विलुप्ति भी एक विचार का विषय है, क्योंकि यह सुनिश्चित क्षेत्रों में जनजातीय पहचान के क्षरण का संकेतक है।
अनुसूचित जनजातियों का विकास
भारत में अनुसूचित जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक दशा को सुधारने के लिए कई उपाय किए गए हैं। अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए जनजाति उपयोजना का आरंभ पंचवर्षीय योजना की शुरुआत में वर्ष 1974-75 में किया गया। इसके तहत् अनुसूचित जनजाति की बड़ी आबादी वाले 21 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों को शामिल किया गया। इस विशेष रणनीति का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि केंद्र और राज्य स्तर पर चलाई जा रही विकास योजनाओं का उचित हिस्सा अनुसूचित जनजाति के लोगों तक पहुंचे। इसमें राज्य योजना की धनराशि ही नहीं बल्कि सभी केंद्रीय मंत्रालय/विभागों की धनराशि का लाभ भी अनुसूचित जनजाति को मिलना सुनिश्चित करने की बात की गई।
भारत सरकार ने जनजातीय उपयोजना के समर्थन में 1974 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में एससीए योजना लागू की है। इसका उद्देश्य पारिवारिक आय बढ़ाने के कार्यक्रमों में अंतर को दूर करना है। नतीजतन, सभी विकास कार्यक्रमों के तहत् अनुसूचित जनजातियों को अधिक लाभ पहुंचाने के लिए उनके विकास हेतु नौवीं पंचवर्षीय योजना में उपलब्ध धनराशि में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई।
जनजातीय मामलों का मंत्रालय जनजातीय उपयोजना के तहत् विशेष केंद्रीय सहायता, 21 जनजातीय राज्यों की सरकारों और दो केंद्रशासित प्रदेशों को उपलब्ध कराता है। इन राज्यों में पूर्वोत्तर राज्य-असम, मणिपुर और त्रिपुरा शामिल हैं लेकिन वर्ष 2003-04 से केंद्रशासित प्रदेशों के लिए जनजातीय उपयोजना को विशेष केन्द्रीय सहायता के तहत धनराशि गृह मंत्रालय उपलब्ध करा रहा है।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 275 (1) के तहत् अनुसूचित जनजातियों के कल्याण को बढ़ावा देने और अनुसूचित क्षेत्रों में प्रबंधन के स्तर को बढ़ाकर, राज्य के अन्य क्षेत्रों के समान करने के लिए सुनिश्चित विशेष वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान जंगल बाहुल्य गांवों का विकास जनजाति विकास के क्षेत्र में एक अहम हिस्सा है। योजना आयोग ने प्रति गांव ₹ 15 लाख के औसत आबंटन के हिसाब से जंगल बाहुल्य गांवों के विकास के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालयको ₹ 450 करोड़ आबंटित किए हैं। 12 राज्यों में लगभग 2474 ऐसे जंगल बाहुल्यगांव हैं जिन्हें अभी भी राज्य का वन विभाग देखता है। ऐसा अनुमान है कि इन गांवों में लगभग 2.5 लाख आदिवासी परिवार रहते हैं।
वर्ष 1998-99 में इन समूहों के समूचे विकास के लिए केंद्रीय क्षेत्र की योजना शुरू की गई। इस योजना के तहत् अन्य किसी योजना में शामिल नहीं की गई परियोजनाएं/गतिविधियां शुरू करने के लिए समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाओं, जनजातीय शोभा संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है।
लघु वनोत्पादों के लिए सहायता अनुदान कार्यक्रम केंद्रीय क्षेत्र की योजना है। इसके तहत् राज्य जनजातीय विकास सहकारी निगमों, वन विकास निगमों और लघु वन उत्पाद (व्यापार और विकास) परिसंघों को लघु वन उत्पादक कार्यक्रम शुरू करने के लिए शत-प्रतिशत अनुदान दिया जाता है।
अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक विकास की गति को तेज करने और उस पर ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वित्त और विकास निगम को विभाजित कर, अप्रैल, 2001 में जनजातीय मामले के मंत्रालय के तहत् राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्त और विकास निगम की स्थापना की गई। इसे कंपनी अधिनियम की धारा 25 (ऐसी कंपनी जो लाभ के लिए नहीं है) के तहत् लाइसेंस दिया गया।
बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम, 1984 के तहत् राष्ट्रीय स्तर के शीर्षस्थ निकाय के रूप में वर्ष 1987 में ट्राइफेड की स्थापना की गई।
बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम, 2007 के अधिनियमित होने के बाद ट्राइफेड को इस अधिनियम में पंजीकृत कर इसे राष्ट्रीय सहकारी समिति के रूप में अधिनियम की दूसरी अनुसूची में अधिसूचित किया गया।
नए बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम,2002 (इसे बहुराज्यीय सहकारी समिति के नियम 2002 के साथ पढ़ा जाए) से सुसंगत बनाने के लिए अप्रैल, 2003 में ट्राइफेड की नियमावली में परिवर्तन किया गया। इसके अनुसार, ट्राइफेड ने जनजातियों से लघु वनोत्पाद और अधिशेष कृषि उत्पादों की खरीद बंद कर दी है। यह खरीद अब राज्य स्तर की जनजातीय सहकारी/समिति फेडरेशन द्वारा की जाती है। ट्राइफेड अब जनजातीय उत्पादों के लिए बाजार का विकास करने वाले और सदस्य फेडरेशनों को सेवा प्रदान करने वाली इकाई के रूप में कार्य कर रहा है।
राष्ट्रीय जनजाति नीति
जनजाति मामलों के मंत्रालय द्वारा एक राष्ट्रीय जनजाति नीति तैयार की गई है जिसमें जनजाति भूमि का पृथक्करण; प्रतिस्थापन; पुनर्वास और जनजातियों की बसावट, जनजाति क्षेत्र में आवश्यक अवसंरचनात्मक विकास, संकटग्रस्त जनजाति समूहों का पुननिर्माण और विकास, जनजातियों का सशक्तिकरण और लिंग समानता का सुनिश्चितीकरण; जनजाति क्षेत्रों का प्रशासन, इत्यादि जैसे मामले शामिल हैं।
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