जनजाति की विशेषता
भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा प्राप्त करने वाले समुदायों को कुछ संरक्षण प्रदान किये जाते हैं, लेकिन यह बात हमेशा ही विवादग्रस्त रही है कि किन समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान किया जाए. अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने का अर्थ है कि इन समुदायों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व के रूप में, स्कूलों में आरक्षित सीटों के रूप में और सरकारी नौकरियों के रूप में वांछित ठोस लाभ प्राप्त होना. पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक और राजनैतिक लामबंदी के कारण अनुसूचित जनजातियों की संख्या अब (एक से अधिक राज्यों में एक दूसरे से टकराती हुई) 700 तक पहुँच गई है, जबकि सन् 1960 में इनकी संख्या 225 थी. जैसे-जैसे अनुसूचित जनजातियों का दर्जा हासिल करने को इच्छुक समुदायों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देने के औचित्य पर भी सवाल उठने लगे हैं और यही कारण है कि इसे दर्जा प्रदान करने के मानदंड की जाँच करने की माँग भी बढ़ती जा रही है.
भारत के संविधान में निर्देश दिया गया है कि राष्ट्रपति राज्यपाल के परामर्श से अनुसूचित जनजातियों को निर्दिष्ट कर सकते हैं. इसके लिए कोई विशिष्ट मानदंड निर्धारित नहीं किये गये हैं. जनजाति मामलों के मंत्रालय के अनुसार यद्यपि इसके मानदंड का कोई विधान तय नहीं किया गया है, फिर भी “स्थापित मान्यताओं” के अनुसार इसका निर्धारण किया जाता है. इन मान्यताओं में निम्नलिखित विशेषताओं को शामिल किया गया है, “आदिम” गुण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, विशाल समुदाय से “जुड़ने में संकोच” और “पिछड़ापन”. ये सामान्य मानदंड 1931 की जनगणना की परिभाषाओं, प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग 1955 की रिपोर्टों, कालेलकर सलाहकार समिति और लोकुर समिति द्वारा तैयार की गई अनुसूचित जाति / जनजातियों की पुनःसंशोधित सूचियों के आधार पर तय किये गये थे, परंतु आधी से अधिक सदी बीत जाने के बाद व्यापक मानदंडों में बहुत स्थलों पर विवेकाधिकार की बहुत गुंजाइश रह गई है.
अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल जाने से प्राप्त होने वाले विभिन्न प्रकार के संरक्षणों और लाभों को हासिल करने के लिए भारत के अनेक समुदाय इन मानदंडों पर अपने-आपको खरा सिद्ध करने के लिए हर संभव उपाय करते हैं. ऐसा ही एक समुदाय है, नर्रिकुरोवर. यह एक अर्ध-खानाबदोश जनजाति है. लगभग आधी सहस्राब्दी पूर्व तमिलनाडु में दक्षिण की ओर प्रवास करने से पहले इसका उद्भव उत्तर भारत में हुआ था. परंपरागत रूप में शिकारी (नर्रिकुरोवर का अर्थ है, “गीदड़” या “लोमड़ी” के शिकारी) होने पर भी इनके उद्भव की प्रचलित कहानियों से पता चलता है कि यह जनजाति उच्च वर्ग से संबद्ध थी और अधिकांशतः इनका काम राजाओं को संरक्षण प्रदान करना था, लेकिन एक बार आक्रमणकारियों ने जिस क्षेत्र में वे रहते थे, उस पर कब्ज़ा कर लिया, इस प्रकार कई अन्य समुदायों की तरह नर्रिकुरोवर भी खानाबदोश हो गए और वनों में रहने लगे. वन में रहते हुए भी अपनी परंपराओं और आज़ादी को सहेज कर रखा. लेकिन जब शिकार करना अवैध घोषित कर दिया गया तब उनके लिए अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन करना भी संभव न रहा. उसके बाद से नर्रिकुरोवर गरीबी की हालत में समाज के आसपास हाशिये में रहने लगे और स्थानीय मंडियों में और मंदिरों में मालाएँ और छोटे-मोटे गहने बेचकर अपना गुज़ारा करने लगे. मैंने अपने शोध में पाया है कि नर्रिकुरोवर की बहुत-सी धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक विशेषताएँ योरोप की रोमा जाति के अनेक समुदायों से मिलती-जुलती हैं. इस बात की भी संभावना है कि भारत के उत्तर-पूर्व में इनका भी उद्भव हुआ हो और उसके बाद एक के बाद अनेक हमलों के बाद ये अनेक दिशाओं में बिखर गए हों.
नर्रिकुरोवर समुदाय आज भी निरक्षरता, विभिन्न प्रकार की बीमारियों और बेरोज़गारी से जूझ रहा है. इस समय तमिलनाडु में लगभग 8,500 नर्रिकुरोवर परिवार (30,000 लोग) हैं, जो राज्य की आबादी के 0.1 प्रतिशत से भी कम है. तमिलनाडु सरकार ने इस समुदाय को सर्वाधिक पिछड़े वर्ग (MBC) के समुदाय के रूप में वर्गीकृत किया है. इसके कारण इस आबादी के बारे में कई प्रकार के गलत अनुमान लगा लिये जाते हैं. उदाहरण के लिए, सन् 2005 में ग्रामीण तमिलनाडु में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले अनुसूचित जनजाति के लोगों का प्रतिशत 32.1 था (जो राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति के 47.3 के औसत से भी कम है), जबकि ग्रामीण अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) और अन्य का प्रतिशत मात्र 19 था. नर्रिकुरोवर के अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत होने के कारण यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अनुसूचित जनजातियों के रूप में मान्यता प्राप्त समुदायों की तुलना में इस समुदाय के गरीबी रेखा से ऊपर होने की संभावना हो सकती है. इसके अलावा सर्वाधिक पिछड़े वर्ग (MBC) के समुदाय के रूप में वर्गीकृत होने के कारण नर्रिकुरोवर समुदाय ऊँची सामाजिक-आर्थिक हैसियत और भारी राजनैतिक रसूख वाले अन्य उन्नीस बड़े समुदायों के साथ सरकारी लाभों को प्राप्त करने की होड़ में शामिल हो गया है.
पिछले तीन दशकों में नर्रिकुरोवर समुदाय अपने-आपको “आदिवासी” मानकर अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त करने की कोशिश में जुटा हुआ है. जब उनसे पूछा गया कि उन्हें यह दर्जा क्यों दिया जाए तो उन्होंने उत्तर दिया कि उनके समुदाय को इसकी ज़रूरत है और इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपनी आर्थिक और सामाजिक बदहाली का ज़िक्र किया. उनकी बदहाली ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में खानाबदोशी का जीवन-यापन करने के कारण और भी बढ़ गई है. अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करने के लिए अपेक्षित “भौगोलिक अलगाव” के मानदंड से यह बिल्कुल मेल नहीं खाता. इसके अलावा, नर्रिकुरोवर समुदाय के लोग अपने उत्पाद आम लोगों को बेचते हैं और इस कारण उन्हें आम लोगों से जुड़ने में संकोची भी नहीं माना जा सकता. और यह भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करने का एक और मानदंड है. चूँकि ये मानदंड स्पष्ट नहीं हैं, इसलिए किसी भी समुदाय के लिए अपनी राजनैतिक माँगों को परिभाषित करना भी आसान नहीं है.
नर्रिकुरोवर समुदाय के लिए अनिश्चित कानूनी गलियारों में भटकते हुए अपनी राह खोजना आसान नहीं है, इसलिए वे डीएमके और एडीएमके जैसे प्रमुख राजनैतिक दलों से मदद की अपील करते रहते हैं. एडीएमके ने इस बारे में केंद्र सरकार से भी गुहार लगाई है और इसके समर्थन में कहा हैः “खानाबदोश की ज़िंदगी जीने के लिए अभिशप्त यह समुदाय बेहद बदहाली की स्थिति में है.” सन् 2013 से नर्रिकुरोवर समुदाय के लोग कई बार धरने और भूख हड़ताल पर बैठ चुके हैं और इस प्रकार वे ज़मीनी स्तर पर भी राजनैतिक लामबंदी की कोशिश में जुटे हुए हैं. इससे उनके समुदाय की आर्थिक बदहाली के बारे में लोग जानने लगे हैं और केंद्र सरकार ने भी नर्रिकुरोवर, कुरिविकर्रन और मलयाली गौंडर समुदायों को अनुसूचित जनजाति के वर्ग में शामिल करने के लिए 1950 के संवैधानिक (अनुसूचित जनजाति) आदेश में संशोधन के लिए प्रयास शुरू कर दिये हैं. दिसंबर, 2016 में लोकसभा में तत्संबंधी विधेयक भी पेश किये जा चुके हैं और अब उनके पारित होने की प्रतीक्षा है.
नर्रिकुरोवर समुदाय के लिए मार्ग अभी-भी लंबा और ऊबड़-खाबड़ है, क्योंकि अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त करने की पात्रता की न तो कोई स्पष्ट परिभाषा है और न ही कोई पारदर्शी मानदंड हैं. इसके लिए विशिष्ट आर्थिक और सामाजिक आँकड़े भी मौजूद नहीं हैं, जिनकी मदद से अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त करने के इच्छुक समुदायों की अन्य अनुसूचित जनजातियों और भारत के जन-सामान्य के साथ तुलना की जा सके और बदहाली के आधार पर यह तय किया जा सके कि उनका संबंध किस वर्ग से है ताकि अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त प्रदान करने की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और विश्वस्त बनाया जा सके.
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