मधुशाला कविता का सारांश
मधुशाला की भूमिका का शीर्षक है ‘संबोधन’।
‘संबोधन’ है अपने मादक के लिए। कविता रूपी हाला पीने वाले मदिर के लिए। यह भूमिका कहने भर को गद्य है, लेकिन इसमें पद्य जैसी गतिमयता है। पूरी भूमिका एक विह्वल आत्मह-कथन है जिसमें पाठक से कहा जा रहा है कि उमर ख़य्याम की रुबाइयों का अनुवाद कर देना ही कवि के काव्य-कर्म की इति नहीं थी। उनकी मधुशाला उनकी अपनी है। प्रतीक भले ही एक जैसे हों लेकिन प्रतीकार्थ भिन्न हैं। उसमें कवि का अपनापन है। रचना-प्रक्रिया के बारे में तभी से चिंतन चला आ रहा है जब से रचनाएं रची जाने लगीं। धीरे-धीरे आलोचकगण बारीक़ियों में गए और इस प्रक्रिया को गहनता से जानने की कोशिश की। हिंदी आलोचना में रचना-प्रक्रिया पर सर्वाधिक कार्य गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ ने किया। मुक्तिबोध मानते थे कि रचना-प्रक्रिया एक नहीं अनेक हैं। विभिन्न व्यक्तियों के लिए रचना प्रक्रियाएं भिन्न-भिन्न हैं, विभिन्न युगों में सृजन प्रक्रियाएं अलग-अलग होती हैं। विभिन्न साहित्य प्रकारों के लिए भी सृजन प्रक्रियाएं भिन्न-भिन्न होती हैं। बुद्धि, भावना, कल्पना इत्यादि के एक होते हुए भी आंतरिक उद्देश्यों की भिन्नता के कारण रचना-प्रक्रिया बदल जाती है।
[Figure 4.5.2]
[Figure 4.5.3]
उमर ख़य्याम की रुबाइयां जिन परिस्थितियों में और जिस युग में रची गई थीं बच्चन की रुबाइयां अपने युगीन कलेवर में उससे नितांत भिन्न थीं। यहां प्रश्न उठता है कि बिम्ब और प्रतीक फिर एक से क्यों हैं? मधुशाला की भूमिका में बड़े ही कलात्मक ढंग से यह बात समझाई गई है। हर रचनाकार के सोचने समझने का एक निजी विशिष्ट ढंग होता है। बच्चन जी जिसे अपनापन कहते हैं, यह अपनापन परंपरा से चला आता है। हर रचनाकार अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों, चिंतकों और दार्शनिकों से उनके अनुभव लेता है और उन अनुभवों में अपने अनुभव मिलाकर कुछ नया सृजित करता है। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए उन्होंने इस परंपरा-प्रदान-प्रक्रिया को व्याख्यायित करने के लिए बादल, बूंद, नदी और समुद्र का उदाहरण दिया। यह सभी अपने आगामी को अपना अपनापन देते हैं और सिलसिला आगे तक बढ़ता जाता है। रचनाकार में इन सिलसिलों को आगे बढ़ाने की उतावली होती है। बच्चन जी इस उतावली को समर्पण भी कहते हैं। सूर्य धरती के लिए भले ही प्रकाश और ऊर्जा का स्रोत हो लेकिन वह भी चाहता होगा कि स्वयं से महान किसी ज्योति को समर्पित होकर वह बुझ जाए। समर्पण की भावना रचनाकार के लिए एक तृप्ति का बोध है कि उसने रचना प्रभावी-वर्ग को सौंप कर अपना काम पूरा किया।
बच्चन जी ने अभिव्यक्ति की अभिलाषा को आत्मानंद नहीं आत्मसमर्पण बताया है। उमर ख़़य्याम की और उनकी मधुशाला का यह एक मूलभूत अंतर है। जहां उमर ख़य्याम दुःख और निराशा से घबराकर हालावाद की शरण में जाते हैं, वहीं बच्चन की मधुशाला स्वयं का समर्पण करके विषम स्थितियों से मानव को निकालने का प्रयास करती है। बच्चन मानते हैं कि उनकी कविता-मदिरा पीने से भविष्य के भय भाग जाएंगे और भूतकाल का दारुण दुःख दूर हो जाएगा। इस मदिरा की जब ऐसी तासीर है तो इसे कौन नहीं पीना चाहेगा?
[Figure 4.5.4]
[Figure 4.5.5]
‘मधुशाला’ की भूमिका के जो अंश लिए गए हैं वे भले ही अपनी तत्सम शब्दावली के कारण कठिन लगें लेकिन सरल और बोधगम्य भाव समझाने में मददगार सिद्ध होते हैं। कवि के हृदय की जो व्याख्या बच्चन जी ने की है वह रोमानी लगते हुए भी कवि-कर्म की व्यापकता दिखाती है। भूमिका के इन अंशों को बार-बार पढ़ा और सुना जाना चाहिए ताकि ‘मधुशाला’ की रुबाइयों के प्रतीकार्थ समझ में आ सकें।उमर ख़य्याम ग्यारहवीं शताब्दी के एक फ़ारसी विद्वान थे। वे मूलत: कवि नहीं थे, विचारक, चिंतक, वैज्ञानिक और समाज-शास्त्री थे। उन्होंने जो रुबाइयां लिखीं वे किसी एक समय में नहीं लिखी गईं, बल्कि उनका रचना-काल यौवन से लेकर वृद्धावस्था तक फैला हुआ था। अवस्था के अनुसार उन रुबाइयों में वैचारिक परिवर्तन आता गया। कहीं-कहीं तो लगता है जैसे उनके विचार एक-दूसरे को काटने वाले हों और परस्पर विरोधी हों।
हालावाद पूरे विश्व को ईरानी, फ़ारसी, सूफ़ी चिंतन की देन है। एक बात और समझ ली जानी चाहिए कि इस्लाम के मूल चिंतन में ईश्वर और जीव का एकात्म्य नहीं है। ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते, दूरी है। उस दूरी को समाप्त करने के लिए सूफ़ी कवियों और साधकों ने प्रेम मार्ग अपनाया और कहा कि हम तो अपने ईश्वर के आशिक हैं। जो सघनता प्रेम में होती है वही हमारी ईश्वर के साथ है। एक रहस्यवादी आवरण में मय, मयख़ाना, जाम, सुराही, साक़ी आदि को प्रतीक बनाते हुए एक ऐसी साधना-पद्धति ईजाद की गई जिसमें दुनियादार भौतिकवादी सतही लोगों को उन प्रतीकों की रसमयता में डूबने का सहारा मिल सके, जो उसके रहस्यवाद में नहीं जा सकते थे। इस प्रकार सूफ़ी धर्म जनता के स्तर पर अपने जाने पहचाने प्रतीकों के कारण तो लोकप्रिय हुआ ही, आध्यात्मिक और दार्शनिक बुद्धिजीवियों को भी वह इसलिए सुहाया चूंकि गूढ़ अर्थों तक ले गया। यही कारण है कि सूफ़ी धर्म की स्वीकृति न केवल जनता में बढ़ी बल्कि विद्वानों और चिंतकों में भी बढ़ी।
ग्यारहवीं शताब्दी में लिखी गई उमर ख़य्याम की रुबाइयों का अनुवाद उन्नीसवीं शताब्दी में फ़िटजेरॉल्ड ने किया। फ़िटजेरॉल्ड ने फारसी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करते समय अपने यूरोपीय मन और मानसिकता के अनुकूल भावार्थ को कहीं-कहीं बदल दिया। कोई भी काव्य अपने युग की परिस्थितियों और उस समय के वातावरण से विमुख होकर नहीं लिखा जा सकता। उमर ख़़य्याम ने ग्यारहवीं शताब्दी में हाला, प्याला, सुरबाला के प्रतीकों से जो कुछ कहा था ठीक वही भाव-कथ्य बीसवीं शताब्दी में आकर व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि युगीन आवश्यकताएं बदल चुकी थीं। मानव मन की बुनियादी चीज़ें तो एक-सी होती हैं— भावना, कल्पना, बुद्धि और जीने का कोई मक़सद। ये ग्यारहवीं सदी में भी थे, बीसवीं में भी थे। लेकिन ग्यारहवीं सदी का ख़य्याम दुख, निराशा और अवसाद से घिरा हुआ है।
उसके यौवन के दौरान रची गई रुबाइयों में जहां हमें उमंग, मस्ती और भोगवाद दिखाई देता है वहां प्रौढ़ावस्था में उनकी विचारशीलता झलकती है, वृद्धावस्था में धर्मपरायणता। इसलिए उमर ख़़य्याम की रुबाइयों की वैचारिक लय को एक जैसा नहीं माना जा सकता, जबकि बच्चन ने जो मधुशाला रची वह उनके यौवन काल की अभिव्यक्ति थी। वह यौवन जो निराश भी था लेकिन कहीं समाज की कुंठाओं को दूर करने के लिए कोई राह भी पकड़ना चाहता था। कोई एक राह जिसे पकड़ कर वह मंज़िल तक पहुंच सके।
[Figure 4.5.7] [Figure 4.5.8]
मधुशाला की रचना के समय का वातावरण बहुत ही उलझा हुआ सा था। गांधी का सत्याग्रह आंदोलन राजनीतिक स्तर पर विफल हो रहा था। क्रांतिकारी गतिविधियां गुपचुप बढ़ती जा रही थीं। नवयुवक बेरोज़गार थे। ब्रिटिश दमन विकराल रूप लिए जा रहा था। ऐसी स्थिति में भारतीय जन-मन कुंठाओं, अवसादों में जी रहा था। बच्चन की ‘मधुशाला’ उस अवसाद को दूर करते हुए रूप, रस, गंध की मस्ती लेकर आई। एक गति, लय और प्रवाह के साथ आई। तन्मयता और हृदय के आंतरिक आवेग के साथ आई। जनता ने उसे तत्क्षण स्वीकार किया और वह जनता की कविता बन गई। इस भावबोध का सिलसिला यद्यपि भगवती चरण वर्मा ने प्रारंभ किया था। उसे आगे बढ़ाने वालों में नरेन्द्र शर्मा और अंचल भी रहे, लेकिन उसे सर्वाधिक मुखर अभिव्यक्ति ‘मधुशाला’ के माध्यम से मिली, क्योंकि मधुशाला सामाजिक स्तर पर सभी प्रकार के तनावों से मुक्त करते हुए जीवन के मिथ्या आडंबरों और विडंबनाओं के सहज निदान प्रस्तुत करती थी। उमर ख़य्याम की मधुशाला निराशा देती है, दुख देती है लेकिन बच्चन की मधुशाला एक सुखानुभूति है, एक मस्ती है और उमंग है। हां, कभी-कभी इसमें भी निराशा झलकती है और जीवन की क्षणभंगुरता भी, लेकिन वह क्षणभंगुरता किसी अवचेतन के गड्ढे में नहीं गिराती बल्कि ज़िंदगी में बाहर सक्रिय होने की प्रेरणा
देतीहै।
[Figure 4.5.9]
बच्चन जी ने जब उमर ख़़य्याम की रुबाइयों का अनुवाद फ़िटजेरॉल्ड के अंग्रेज़ी अनुवाद के सहारे किया होगा तो इन भौतिक प्रतिमानों और प्रतीकों ने उनको मोह लिया होगा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकारा भी है कि उन्हें लगा कि जैसे यह स्वयं उनकी कहानी है, उनका सत्य है। कोई भी काव्य यदि मन को छू जाए तो पाठक की भावना, कल्पना और विचारशक्ति को भी झंकृत कर देता है। उस झंकार के रहते एक नई रचनात्मक अभिव्यक्ति बाहर आने के लिए छटपटाने लगती है। अनुवाद के दौरान बच्चन जी के मन के कल्पना-लोक और विचार-तंत्र में भी कुछ ऐसा हुआ जिससे उनकी अपनी मधुशाला आकार लेने लगी। निश्चित रूप से उस समय कुछ टिप्पणियां हुई होंगी। कहीं न कहीं बात कविमन को चुभी होगी। संभवत: उत्तर देने के लिए बच्चन जी ने भूमिका लिखी। यह भूमिका एक ओर स्पष्टीकरण है कि वे मौलिक हैं तो दूसरी ओर मधुशाला की रचना-प्रक्रिया को समझने का एक ऐसा आधार है जिसे जाने बिना हम मधुशाला के मर्मतत्वों को नहीं समझ सकते। भूमिका के जो अंश यहां लिए गए हैं उसमें पहला अंश है प्रकृति का अपनापन।
प्रकृति को बच्चन जी ने बड़े व्यापक फलक पर देखा है और उस प्रक्रिया को रेखांकित करने का प्रयास किया है जिसमें कोई सर्जक अभिव्यक्ति की आकुलता का अनुभव करता है, अभिव्यक्ति के लिए छटपटाता है। कला की प्रक्रिया को प्रकृति के उपादानों से समझाते हुए बच्चन जी बताना चाहते हैं कि हर कोई बाहर की दुनिया से कुछ लेता है और फिर उसे वापस देता है। जो लिया उसे अपने अनुभवों में घोल कर नया रूप दिया और फिर एक बेचैनी बढ़ी कि कैसे इसे वापस दिया जाए।
[Figure 4.5.10]
बादल, बूंद, नदी समुद्र एक क्रमिकता में आगामी सुपात्र को अपनी रचना और अपना कौशल प्रदान करते हैं। यानी हर रचनाकार अपने रचना-कर्म को दूसरों तक पहुंचा कर उसकी इति समझता है और वहीं समाप्त भी हो जाना चाहता है। बादल का कार्य समाप्त हो गया यदि वह बूंदों में बदल कर नदी तक पहुंच गया। पतंगे का काम समाप्त हो गया जब वह दीपक के पास आया। दीपक का काम उस समय समाप्त हो जाता है और वह बुझ जाता है जब दिवस निकल आता है।काल-क्रमिकता और प्रकृति के इन अलग-अलग उपादानों का औचित्य, इनकी सार्थकता इसी में है कि वे अपना कार्य करके स्वयं समाप्त हो जाएं और प्रकृति को आगे की दिशा में बढ़ा दें। यदि कोई अपने कार्य को अच्छी तरह सम्पन्न करके उसे आगे पहुंचा देता है तो उस समर्पण में ही आनंद है। बच्चन जी का युवा मन जिस रोमानी बलिदानी भावनाओं से उस समय प्रभावित था उसमें त्याग और समर्पण की मिलीजुली अनूभुतियां हैं। प्रकृति के उदाहरणों के बाद वे रचनाकारों तक पहुंचे। अब हम भूमिका के अगले अंश को ध्यान से देखें।लेने और देने की इस प्रक्रिया को कला के क्षेत्र में एक सांस्कृतिक प्रक्रिया मानते हुए मुक्तिबोध ने आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण कहा है। आभ्यंतरीकरण अर्थात रचनाकार, कलाकार बाहर की दुनिया एवं दृश्यों, घटनाओं, हलचलों, कोलाहलों को अपने अन्दर समाहित करता है और फिर उन्हें अपनी चेतना की धुरी पर घुमा कर कला के विभिन्न सोपानों से गुज़रते हुए, विभिन्न रूप देते हुए वापस बाहर पहुंचाता है अर्थात बाह्यीकरण करता है।
यहां हमारी ज्ञानेन्द्रियां कला का आस्वाद करती हैं। कला का आनंद उठाती हैं। चित्रकार रंगों और रेखाओं से जो कुछ बनाता है, वह चाहता है कि कोई उसे एक बार देख ले। यदि आंख नामक ज्ञानेन्द्रियों ने चित्रकार की निर्मिति को देखा, चाहा और सराहा तो चित्रकार का काम गोया पूरा हो गया। अब उसकी संतृप्ति का आलम यह है कि यदि वे रंग तिरोहित होकर समाप्त भी हो जाएं तो उसे लगेगा कि उसके कार्य को सार्थकता मिली। इसी प्रकार वादक के स्वरों की अनुगूंज कान नामक ज्ञानेन्द्रियों तक गई। लोगों के कानों ने उसके स्वरों को सुना और यदि वे कान उस कलाभिव्यक्ति से जुड़ कर, उसका आनंद उठाते हुए, कलाकार द्वारा दिए गए तत्व को ले सके तो वादक-गायक का कार्य समाप्त। अब भले ही वे सारे स्वर कहीं दूर अनंत में विलीन हो जाएं। अब वादक और गायक को अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उसने अपना काम पूरा किया।
शिल्पकार मूर्ति गढ़ता है और लोग नयनाभिराम उसकी मूर्ति को देखते हैं। देखा जाना, लोगों द्वारा अधिकतम मात्रा में देखा जाना, कलाकार की कला-प्रियता का पारितोषिक है। उसके बाद उसकी चाहना समाप्त हो जाती है।
[Figure 4.5.12]
एक छोटा सा उदाहरण संभवत: बात को और स्पष्ट कर सके। यह उदाहरण बच्चन जी के उदाहरणों से भिन्न है। रामलीला के दौरान कितने ही शिल्पी रावण का पुतला बनाते हैं। महीनों मेहनत करते हैं। भारी भीड़ के सामने उसे जला दिया जाता है। देखा जाए तो कारीगरों और शिल्पियों के लिए यह दुःख की बात है। उनकी कृति उनके सामने ही फूंकी जा रही है। लेकिन जब वे शिल्पी जन-समुदाय में बच्चों की आंखों में चमक देखते हैं और लोगों द्वारा बजाई गई तालियों का शोर सुनते हैं तो गोया उनके कर्म का सार्थकत्व सिद्ध हो जाता है। और वे भी बच्चों के समान मुस्कराने लगते हैं। तालियां बजाते हैं। इस अहसास के साथ कि उसके कृतित्व को अब आकर पूर्णता मिली।
[Figure 4.5.13]
प्रकृति और शिल्पी कलाकारों का अपनापन बताने के बाद बच्चन जी का रचनाकार कहता है कि मैं भी वैसा ही स्वार्थी हूं, जैसे कि अन्य। मैं भी कुछ बनाकर लाया हूं और चाहता हूं कि उसे समर्पित कर दूं। आत्मानंद के लिए नहीं आत्मसमर्पण के लिए तैयार की है यह ‘मधुशाला’। कुछ तृप्ति मिली होगी जब उमर ख़य्याम की मधुशाला का अनुवाद किया था लेकिन वह कलाकार की पूर्ण तृप्ति नहीं थी, इसलिए आज दोबारा मदिरा बना कर लाए हैं। बड़े सलीके से बच्चन जी यह कहना चाहते हैं कि कलाकार को तृप्ति तभी मिलती है जब उसका अपनापन उसमें जुड़कर कोई नया रूप लेता है। अब यह जो नई ‘मधुशाला’ बन गई है वे उसे अपने मादक मदिर पाठक को देना चाहते हैं और उससे मुक्त भी होना चाहते हैं।
भूमिका के अगले चरण में जहां बच्चन जी कहते है कि ‘आज मदिरा लाया हूं’ तो उस मदिरा के पीछे अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों को व्यक्त करते हैं। मदिरा बनाई इसलिए है कि जीवन बड़ा कठोर-कठिन है और उससे जूझने के लिए यह मदिरा लाभकारी होगी। यह भूतकाल के दारुण दुःख हरेगी और भविष्य के लिए तैयार करेगी। छोटी-छोटी कष्टकारक संवेदनाएं जो व्यर्थ में मान-अपमान का बोध कराती हैं, उनसे मुक्ति दिलाएगी। यह मदिरा उस मानव के पास जाएगी जो दुर्बल है और अनेक प्रकार की व्याधियों से घिरा हुआ है। जीवन जिन विसंगतियों से ग्रस्त है उन्हें दूर करने में कविता बड़ी सार्थक भूमिका अदा करती है और एक महौषधि का काम करती है। इसलिए इस मदिरा को पीना होगा। जिस तरह चित्रकार के चित्र को देखना होगा, गायक के स्वरों को सुनना होगा, शिल्पकार को सराहना होगा।
मदिरा बनाने वाले को विश्वास है कि यह मदिरा विसंगतियों को दूर करते हुए पीने वाले के जीवन को नए उल्लास, नई स्फूर्ति और नई उमंगों से भर देगी। क्या है इस मदिरा में जो वह ऐसा करने में संभव हो पाएगी? हमारा सांप्रदायिक विचार, हमारी आर्थिक विषमताएं, मनुष्य और मनुष्य के बीच की दूरी और हमारी निजी गोपन पीड़ाएं, इन सबसे ऊपर उठने के लिए वे इस काव्य-रूपी मदिरा को बना कर लाएं हैं।
[Figure 4.5.15]
भूमिका के अगले चरण में यह बात स्पष्ट होती है कि मदिरा बनी कहां और किसने बनाई। मदिरा बनाई कवि ने और बनी कवि के हृदय में। बच्चन जी बहुत आत्मीयता से और साथ ही वस्तुवादी ढंग से संवेदनात्मक और ज्ञानात्मक होते हुए बताते हैं कि कवि का हृदय वह बड़ी प्रयोगशाला है जहां त्रिकाल और त्रिभुवन सोते हैं। कवि सृष्टा होता है, मनीषी होता है, सब कुछ जानता है और उसका हृदय केवल उसका हृदय नहीं होता है, वह जनमन का हृदय होता है। वह कई बार प्रकृति से भी बड़ा हो जाता है क्योंकि प्रकृति की भाव-योजना उसके पास होती है, इसलिए सृष्टि उसके हृदय में दुधमुंही बच्ची के समान क्रीड़ा करती है। कैसी भी प्रलय से उसका हृदय डरता नहीं।
प्रलय भी कोई मानव नटखट बच्चा है जो कवि के हृदय में उत्पात करता रहता है। यानी कवि का हृदय प्रकृति से और सृष्टि से बड़ा है, जिसमें सब कुछ समा सकता है। कवि जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-हानि, इन सबसे ऊपर उठकर बहुत सारे अंतर्विरोधी विचारों को आमने-सामने रखते हुए कोई निदान ढूंढ़ना चाहता है। इतने व्यापक स्तर पर चीज़ों को देखने के बाद तभी उसने हाला-प्याला और मधुशाला का सृजन किया है। यह मधुशाला किसी अनिष्ट के लिए नहीं है। यह मस्ती और मादकता के लिए है। संबंधों की साधना के लिए है, विश्व के उन्नयन के लिए है और अनंत काल तक मनुष्यता के समर्थन के लिए है।
वे अपनी मधुशाला बनाने के बाद कहते हैं कि अगर ये लाभकारी है तो मेरे मादक इसे पीता जा। क्योंकि मैं अनंत काल तक तुझे पिलाता रहूंगा और तू पीने से नहीं थकेगा। कविता का कर्म वहां पूरा हो जाता है, जहां कोई उसे पीने से थक जाए और उस तृप्ति के बाद अपने आचरण को अनुकूलित करता हुआ प्रकृति को पुन: संवारने में जुट जाए। ‘मधुशाला’ की भूमिका के इन अंशों में हमने चार चरणों पर चार बातें देखीं, उन्हें दोहरा लेते हैं।
1. प्रकृति में यदि परस्पर लेन-देन की प्रक्रिया न चले तो प्रकृति रुक जाएगी। हमारी ज्ञानेंद्रियां जिस तरह प्रकृति को लेती हैं, देखती, सुनती, समझती, छूती, परखती हैं उसमें सिलसिला तभी आगे बढ़ता है जब समय के अनुसार प्रकृति के विभिन्न तत्व अपना श्रेष्ठ दिखा कर समाप्त हो जाते हैं। यह उनके लिए आनंद हो सकता है, लेकिन आनंद से अधिक समर्पण है।
2. प्रकृति को देखने और अनुभूत करने के बाद अर्थात प्रकृति का आभ्यंतरीकरण करने के बाद जब कोई भी कलाकार अपनी रचना बनाता है तो उसे तभी संतोष मिलता है जब वह अपने प्रभावी वर्ग को अर्थात अपने पाठकों, श्रोताओं अथवा दर्शकों को अपनी कृति से परिचित करा सके।
3. बच्चन जी का रचनाकार भी यही चाहता है कि ‘मधुशाला’ के रूप में जो उसने बनाया है उसमें उसका अपनापन और समर्पण घुला हुआ है। यह न माना जाए कि जो अर्धतृप्ति उसे उमर ख़य्याम का अनुवाद करने के बाद मिली वहीं इति हो गई। उसे अपने रचनात्मक समर्पण की पूर्णता चाहिए। इस अंश से पता लगता है कि वे किसी बहाने कहना चाहते हैं कि ‘मधुशाला’ लिखकर उसका लेखकीय तोष उन्हें तभी मिलेगा जब पाठक ये जानें कि उनकी ‘मधुशाला’ उनकी अपनी है।
4. कवि सामाजिक प्राणी होते हुए भी सामान्य नहीं है। कवि का हृदय दूरदर्शी, भविष्यदर्शी होता है और वह विभिन्न प्रकार के ज्ञानों के आलोक से आलोकित रहता है। ज्ञान और संवेदनों को मिलाकर जो रचना वह तैयार करता है, उसका लक्ष्य मानवता का उद्धार होता है। मदिरा बच्चन जी के लिए ठीक उन अर्थों में नहीं है जिन भौतिकवादी अर्थों में उसे लिया जाता है। वह एक महौषधि है जो हर प्रकार की व्याधियों को दूर करने की सामर्थ्य रखती है।
पाठ्यक्रम में निर्धारित रुबाइयां समाज में फैली धार्मिक असहिष्णुता पर जहां एक और व्यंग्य हैं वहीं दूसरी ओर सौहार्दपूर्वक रहने का एक मीठा संदेश देती हैं।
[Figure 4.5.16]
दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीने वाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफ़िर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साक़ी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।
सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधज कर, पर, साक़ी आता, बनठन कर, पीने वाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।
बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीने वाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूं तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला।४९।
मुसलमान औ हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला।५०।
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखने वाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूं कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला।५१।
और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।
आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्दिर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।
यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भट्ठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साक़ी बालाएं,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।
सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोण कलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेद-विहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारो,
युग-युग से है पुजती आई, नई नहीं है मधुशाला।।५५।
वही वारुणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती साक़ी बाला,
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे
किसमें कितना दमखम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।
कभी न सुन पड़ता, इसने, हा, छू दी मेरी हाला,
कभी न कोई कहता, उसने जूठा कर डाला प्याला,
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठ कर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।
श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हरिजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हरि मंदिर वाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।
मधुशाला की प्रतीक योजना पर प्रकाश डाले
मधुशाला कविता का अर्थ
Madhushala Kavita ka poora bhavarth
कविता. का विषय
I want the full explanation of Madhushala
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