नदियों की सुरक्षा के कार्य
पृथ्वी पर जीवन सुरक्षित रखने के लिए पानी अत्यन्त आवश्यक है और नदियाँ इसका प्रमुख स्रोत हैं। वर्षों से बढ़ती मानव गतिविधियों और 80 के दशक तक उद्योगों के अनियमित विकास के कारण भारत में नदियों पर अधिक दबाव पड़ा और वे प्रदूषित हो गईं। यह समस्या इस बात से और भी बढ़ गई है कि एक तो हमारे यहाँ पानी समय और स्थान दोनों ही दृष्टियों से निरन्तर उपलब्ध नहीं है और दूसरे, नदियों के ऊपरी भागों से सिंचाई हेतु बहुत-सा जल पहले ही निकाल लिया जाता है।
भारत में 14 नदियाँ हैं वे सब किसी न किसी स्थान पर प्रदूषण का शिकार होती हैं। गंगा को सर्वाधिक प्रदूषित नदी माना गया है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण संघ (के.प्र.नि.सं.) द्वारा वर्ष 1984 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि नदियों में 75 प्रतिशत प्रदूषण नदी किनारे स्थित छोटे-बड़े शहरों से निस्तृत अनुपचारित मल-जल से होता है और शेष 25 प्रतिशत औद्योगिक अपशिष्ट से, जो संसाधित/असंसाधित दोनों प्रकार का हो सकता है। अध्ययन में प्रदूषण के कतिपय गैर-बिन्दु स्रोतों का भी उल्लेख है जैसे खुले स्थानों पर पड़ा मल-मूत्र, कचरे के ढेर, कृषि कार्य में आने वाले खेत, बिना जले अथवा अधजले शव और पशु कंकाल आदि। इतना अवश्य है कि इन स्रोतों से होने वाले प्रदूषण की मात्रा निर्धारित नहीं की जा सकी है।
भारत में नदियों की सफाई का अभियान वर्ष 1985 में पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. श्री राजीव गाँधी द्वारा गंगा कार्य योजना की शुरुआत से प्रारम्भ हुआ। यह भारत सरकार के वन और पर्यावरण मन्त्रालय के तहत आने वाली पूर्णतः केन्द्र द्वारा वित्तपोषित योजना थी। अब इसे राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (रा.न.सं.यो.) के तहत देश की अन्य प्रदूषित नदियों पर भी लागू कर दिया गया है।
उद्देश्य
गंगा कार्ययोजना का प्रमुख उद्देश्य प्रदूषकों का गंगा में निस्सरण रोककर उसके जल को लक्षित स्तर तक सुधारना है। के.प्र.नि.सं. द्वारा नामित गुणवत्ता की विभिन्न श्रेणियों में गंगा के जल की गुणवत्ता ‘स्नान श्रेणी’ निर्धारित की गई है जिसका अर्थ है कि उसमें जैव-रासायनिक ऑक्सीजन स्तर (बीओडी) 3 मि.ग्रा./1 (अधिकतम) और सान्द्रित ऑक्सीजन स्तर (डीओ) 5 मि.ग्रा./1 (न्यूनतम) होना आवश्यक है।
कार्य योजना के तहत प्रदूषण नियन्त्रण का कार्य प्रथम श्रेणी (1985 में एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले) के 25 नगरों में शुरू किया गया है जिनमें से छह उत्तर प्रदेश में, चार बिहार में एवं शेष 15 पश्चिम बंगाल में स्थित हैं।
इस योजना का प्रमुख उद्देश्य है इन 25 शहरों से निकलने वाले 1340 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) नगरीय सीवेज (1985 के आँकड़ों पर) में से कम से कम 840 एमएलडी को गंगा में गिरने से रोकना एवं उसकी दिशा बदलना। शेष जल का उपचार योजना के दूसरे चरण के लिए निर्धारित था जो अब प्रारम्भ हो चुका है। योजना के अन्तर्गत गैर-बिन्दु स्रोतों जैसे खुले क्षेत्रों में पड़ा मल-मूत्र, अधजले शव, ठोस अपशिष्ट आदि से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम का काम भी हाथ में लिया गया है। स्नानघाटों की मरम्मत और उनके निर्माण का कार्य भी शुरू किया गया है ताकि नदी-जल दूषित न हो। पर्यावरण कानूनों के तहत अत्यधिक प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों पर भी नियन्त्रण लगाया गया है।
नगरीय गतिविधियों से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम की 261 परियोजनाओं को कार्ययोजना के तहत मन्जूरी दी जा चुकी है। इनमें से 88 परियोजनाएँ जलस्राव रोकने और उसका रुख मोड़ने से सम्बद्ध हैं, 35 सीवेज उपचार की, 43 सुलभ शौचालयों की, 28 बिजली शवदाहगृहों की, 35 नदी घाटों के विकास की और 32 अन्य हैं।
गंगा कार्ययोजना के लिए 462.04 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की गई है। योजना का पूरा खर्च केन्द्र सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। स्वीकृत राशि में 1.5 करोड़ (एसडीआर-स्पेशल ड्राइंग राइट) डॉलर की विश्व बैंक सहायता और 5 करोड़ डच गिल्डर की नीदरलैंड सरकार की सहायता शामिल है।
अभी तक 250 योजनाएँ पूरी की जा चुकी हैं। शेष 10 योजनाओं में से एक उत्तर प्रदेश में, चार बिहार में एवं 5 पश्चिम बंगाल में कार्यान्वयनाधीन हैं। कार्ययोजना में कुल 35 सीवेज उपचार संयन्त्रों का निर्माण किया जाना है। इनमें से 28 पर कार्य पूरा हो चुका है। और शेष 7 पर भी कार्य अन्तिम चरण में है। इन संयन्त्रों की वर्तमान जल उपचार क्षमता 683 एमएलडी है। यद्यपि इलाहाबाद स्थित उपचार संयन्त्र पर काम पूरा नहीं हुआ है परन्तु इसके लिए निर्धारित 60 एमएलडी सीवेज की दिशा बदलकर उसका उपयोग खेती हेतु किया जा रहा है। गंगा कार्ययोजना को 31 मार्च 1997 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था परन्तु तीन राज्यों में चल रही शेष 10 परियोजनाओं पर कार्य अगले वर्ष यानी 1998 के अन्त तक ही पूरा हो सकेगा।
योजना के लिए स्वीकृति 462.04 करोड़ की राशि में से अब तक 440.23 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं।
गंगा कार्ययोजना जैसा विशाल कार्य देश में पहली बार हाथ में लिया गया था और 6-7 वर्ष में उसके पूरा हो जाने की उम्मीद की गई थी परन्तु निम्नलिखित कारणों से उसमें देरी हुई:
1. अपनी तरह की पहली योजना होने के कारण केन्द्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर तत्सम्बन्धी अनुभव का अभाव,
2. सीवेज उपचार संयन्त्र एवं पम्पिंग इकाइयों की स्थापना हेतु भूमि के अधिग्रहण में देरी,
3. उत्तर प्रदेश के दो शहरों, कानपुर एवं इलाहाबाद तथा कोलकाता में न्यायालय में दायर मुकदमों के कारण देरी,
4. कोलकाता एवं पटना में उपचार संयन्त्रों की स्थापना हेतु अधिगृहीत भूमि पर अनाधिकृत कब्जा,
5. बिहार के सात और पश्चिम बंगाल के दो उपचार संयन्त्रों के निर्माण हेतु निविदा का बार-बार जारी किया जाना तथा ठेकेदारी सम्बन्धी अन्य समस्याएँ।
6. कानपुर एवं मिर्जापुर में स्थापित किए जाने वाले संयन्त्रों के लिए नीदरलैंड सरकार से सहायता प्राप्ति में देरी, जिसका कारण था दोनों देशों के मध्य प्राथमिक औपचारिकताओं की पूर्ति में देरी। ये दोनों योजनाएँ अब पूरी हो चुकी हैं।
7. उत्तर प्रदेश एवं बिहार राज्य की सरकारों द्वारा परियोजना की राशि का अन्यत्र उपयोग किए जाने से केन्द्र से बकाया राशि की प्राप्ति में देरी।
केन्द्र एवं राज्य स्तर पर कार्ययोजना का संचालन बहुस्तरीय निरीक्षण प्रणाली द्वारा किया जाता है जो इस प्रकार है:
राज्य स्तर
1. क्षेत्र इंजीनियरों के दल द्वारा प्रतिदिन कार्य की प्रगति का निरीक्षण।
2. प्रमुख कार्यवाहक एजेन्सी के कार्यकारी प्रमुख द्वारा प्रतिमाह किया जाने वाला निरीक्षण,
3. सम्बद्ध प्रमुख सचिवों की अध्यक्षता में राज्य की संचालन समिति द्वारा समय-समय पर किया गया निरीक्षण।
केन्द्रीय स्तर
1. रा.न.सं.यो. के अधिकारियों द्वारा कार्यस्थल का दौरा और कार्य की प्रगति की निरन्तर जाँच।
2. मन्त्रालय के सचिव की अध्यक्षता में गठित संचालन समिति द्वारा हर तीन माह पर प्रगति का सर्वेक्षण। सम्बद्ध राज्यों के मुख्य सचिव और लोक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग एवं अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञ इस समिति के सदस्य हैं।
3. योजना आयोग के पर्यावरण सदस्य की अध्यक्षता में संचालन समिति द्वारा योजना के वैज्ञानिक एवं तकनीकी पहलुओं की एवं नदी जल की गुणवत्ता पर उसके प्रभाव की त्रैमासिक जाँच।
4. प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण द्वारा प्रतिवर्ष कार्य की प्रगति की जाँच।
योजना के तहत निर्मित परिसम्पत्तियों के परिचालन एवं अनुरक्षण का कार्य अंततः राज्य सरकारों द्वारा किया जाएगा। सितम्बर, 1989 तक सभी पम्पिंग स्टेशनों और सीवेज उपचार संयन्त्रों के परिचालन एवं अनुरक्षण का खर्च केन्द्र सरकार द्वारा वहन किया गया था और तत्पश्चात इस कार्य के लिए स्वीकृत 25-30 करोड़ की राशि के पूरा खर्च होने तक यह खर्च केन्द्र एवं सम्बद्ध राज्य सरकारों द्वारा आधा-आधा वहन किया जाना था। यह राशि अब पूरी इस्तेमाल हो चुकी है। अतः अब इन परिसम्पत्तियों के रख-रखाव का कार्य राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है।
गंगा कार्ययोजना के मार्ग में प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं:
उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे कुछ राज्य सीवेज जल उपचार संयन्त्र एवं पम्पिंग स्टेशन आदि प्रमुख परिसंपत्तियों के परिचालन एवं रख-रखाव के लिए पर्याप्त राशि जुटाने में असमर्थ हैं। अब तक यह खर्च केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आधा-आधा बाँट लिया जाता था। तथापि पश्चिम बंगाल में स्थित परिसम्पत्तियों के मामले में स्थिति बहुत बेहतर है।
जलवाहक सीवरों और माध्यमिक पम्पिंग स्टेशनों के परिचालन और अनुरक्षण पर आने वाला भारी खर्च अब पूर्णतः राज्य सरकारों को वहन करना है। राज्यों द्वारा पर्याप्त धन न जुटाए जाने से इसकी स्थिति भी शोचनीय है। फलस्वरूप सुविधाओं के निर्माण के बाद भी गन्दा जल कई स्थानों पर नदी में छोड़ा जा रहा है और इसने कार्ययोजना के लाभों को धूमिल कर दिया है।
पम्पिंग स्टेशनों, सीवेज उपचार संयन्त्रों एवं बिजली शवदाहगृहों को बिजली की अनिश्चित सप्लाई भी एक बड़ी बाधा है। यह सोचा गया था कि इन बड़ी योजनाओं के लिए बिजली अबाधित रूप से प्राप्त होती रहेगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अतः बिजली प्राप्त न होने पर अनुपचारित गन्दा जल अब भी नदियों में छोड़ दिया जाता है।
शौचालयों एवं स्नानघरों के परिचालन और रख-रखाव का कार्य भी पैसे के अभाव के कारण सुचारु ढँग से नहीं हो पा रहा है।
फर्रुखाबाद से वाराणसी तक गंगा नदी में पानी का बहाव बहुत कम है, कानपुर में नगर निगम एवं औद्योगिक दोनों स्रोतों से निकलने वाले प्रदूषक तत्व बहुत अधिक हैं और जल का बहाव कम होने से ये उसमें घुल भी नहीं पाते। कानपुर में यह स्थिति और भी गम्भीर है। गंगा कार्ययोजना की अन्तस्थ गतिविधियों के जरिए नदी तक पहुँचने वाले जैविक प्रदूषण (बीओडी द्वारा इंगित) को कम किया जा सका है हालाँकि उपचारित सीवेज में माइक्रोबाॅयल प्रदूषण (कोलिफार्म काउंट्स द्वारा इंगित) की मात्रा थोड़ी ही कम हो पाई है। माइक्रोबाॅयल प्रदूषण से निपटने के उपलब्ध तरीके या तो मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं या बेहद महंगे हैं।
माइक्रोबाॅयल प्रदूषण को कम करने के लिए उपयुक्त स्वदेशी तथा कम लागत वाली तकनीकों पर शोध कार्य शुरू किया जा चुका है। उत्तर प्रदेश और बिहार में बिजली शवदाहगृहों को बड़े पैमाने पर स्वीकार नहीं किया गया है हालाँकि पश्चिम बंगाल में इनके इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
प्रभाव
251 योजनाएँ पूरी होने के साथ ही गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में बीओडी तथा डीओ दोनों दृष्टियों से सुधार आया है। नदी के जल की गुणवत्ता मापने के यही दो महत्त्वपूर्ण पैमाने हैं। जल की गुणवत्ता के संदर्भ में गंगा कार्य-योजना पूर्व (1986 तथा 1996) के आँकड़े जो गर्मियों के औसत पर आधारित हैं, नीचे दिए गए हैं:
बीओडी तथा डीओ मूल्य
नगर
बीओडी (मि.ग्रा./1) स्टैंडर्ड- (3 मि.ग्रा./1) (अधिकतम)
डीओ (मिग्रा./1) 5 मिग्रा./1 (न्यूनतम)
1986
1996
1986
1996
ऋषिकेष
1.7
1.0
8.1
8.9
कानपुर
8.6
4.1
6.7
6.4
इलाहाबाद
15.5
3.3
6.6
8.5
वाराणसी
10.6
2.3
5.9
7.7
पटना
2.2
1.6
8.1
7.0
उलबेरिया
1.5
2.0
5.8
5.5
हालाँकि कानपुर तथा इलाहाबाद के आस-पास नदी के जल की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है लेकिन अभी भी यहाँ बीओडी निर्धारित मापदंड (3 मि.ग्रा./1) से ऊपर है। इसके निम्नलिखित कारण हैं:
क. गंगा कार्ययोजना के फेज-1 के तहत कानपुर में 3600 एमएलडी में से केवल 1600 और इलाहाबाद में 1100 में से केवल 900 एमएलडी सीवेज को रोककर उसकी दिशा बदली गई।
ख. नदी का बहाव सामान्यतः फर्रुखाबाद से वाराणसी तक तथा विशेष तौर से कानपुर में जल की न्यूनतम मात्रा भी उपलब्ध न होने के कारण बहुत कम है।
ग. नदी जल की गुणवत्ता पर प्रदूषण नियन्त्रण कार्यों का पूरा प्रभाव काम पूरा होने पर ही दिखाई देगा।
इस कार्यक्रम से सीवेज उपचार की कई उन्नत तकनीकें विकसित की जा चुकी हैं जैसे अपफ्लो अनारोबिक स्लज ब्लैंकेट (यूएएसबी), ऑक्सीकरण तालाबों में सुधार तथा वृक्षारोपण द्वारा सीवेज उपचार आदि। ये नई तकनीकें परिचालन तथा रख-रखाव की दृष्टि से कम खर्चीली हैं जिससे राज्य सरकारों पर वित्तीय बोझ थोड़ा कम होगा। इन तकनीकों से गंगा कार्ययोजना तथा भावी योजनाओं को जारी रखने में मदद मिलेगी।
भारत-डच स्वास्थ्य रक्षा परियोजना के तहत कानपुर में जाजमऊ में 175 चर्मशोधकों के लिए एक संयुक्त वाहक तथा उपचार प्रणाली शुरू की गई है। साथ ही प्रत्येक क्रोमिंग इकाई में क्रोम रिकवरी डेमोनसट्रेशन प्लांट स्थापित किया गया है। 87 चर्मशोधक क्रोम शोधन के काम में लगे हैं। क्रोम रिकवरी डेमोनसट्रेशन प्लांट द्वारा यूनिट में इस्तेमाल होने वाला करीब 70 प्रतिशत क्रोमियम वापिस प्राप्त कर लिया जाता है।
शेष चर्मशोधकों में केन्द्रीय एवं राज्य सरकार के प्रदूषण नियन्त्रण संघों के नियमों के तहत क्रोमियम एवं अन्य ठोस धातुओं के जमाव हेतु प्राथमिक बहिस्राव उपचार संयन्त्र स्थापित किए गए हैं। संयुक्त वाहक प्रणाली के जरिए जाजमऊ के सभी चर्मशोधकों से निकला अपशिष्ट 36 एमएलडी जल उपचार क्षमता वाले एक संयन्त्र में एकत्र होता है। जहाँ यूएएसबी विधि द्वारा उसका उपचार किया जाता है। यूएएसबी से निकले बहिस्राव से क्रोमियम निकालने के लिए अलग प्रकार के संयन्त्रों का इस्तेमाल किया जाता है। तत्पश्चात इस बहिस्राव को जाजमऊ के सीवेज फार्म में डाल दिया जाता है। मई, 1997 में 130 एमएलडी सीवेज उपचार क्षमता वाले संयन्त्र की स्थापना के बाद चर्मशोधक बहिस्राव एवं नगरीय सीवेज को मिलाकर उसका इस्तेमाल खेती के लिए किया जा सकेगा।
कार्ययोजना के अन्तर्गत सीवेज उपचार द्वारा संसाधनों के निर्माण पर भी बल दिया गया है ताकि यह कार्य जारी रखा जा सके। इसमें शामिल हैं बिजली पैदा करना और बायोगैस के इस्तेमाल से अतिरिक्त उपचारित सीवेज और स्लज (कीचड़) की बिक्री उपचारित होकर यह स्लज खेतों के लिए पोषक खाद प्रदान करता है। गंगा कार्य योजना के तहत निर्मित अधिकांश जमाव-तालाबों में मत्स्य पालन शुरू करने की भी योजना है।
पम्पिंग स्टेशनों एवं जल उपचार संयन्त्रों के परिचालन एवं देखरेख के कार्य में लगे अधिकारियों एवं कर्मचारियों को निरन्तर प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे अपना कार्य कुशलतापूर्वक कर सकें।
नदी के पारिस्थितिकीय स्वास्थ्य एवं जैविक सम्पदा की रक्षा के लिए जैव नियन्त्रण एवं जैव संरक्षण की संकेतक जाति के आधार पर योजनाएँ आरम्भ की गई हैं। हिमालयी क्षेत्र में हरिद्वार से कानपुर तक महासीर ऊदबिलाव और मगरमच्छ, कानपुर से वाराणसी तक बड़ी शफरी मछली और बिहार में डॉलफिन मछली को इस अध्ययन के लिए संकेतक जातियाँ माना गया है। हेमवतीनंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय, गढ़वाल, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर, सेंट्रल इनलैण्ड कैप्चर फिशरीज रिसर्च इंस्टीच्यूट, बैरकपुर और पटना विश्वविद्यालय आदि संस्थाओं के वैज्ञानिक जैव नियन्त्रण एवं जैव संरक्षण सम्बन्धी इन अध्ययनों में जुटे हुए हैं।
मूल्यांकन
अप्रैल, 1995 में स्वतन्त्र एजेंसियों (विश्वविद्यालयों तथा शोध एवं विकास संस्थानों) द्वारा गंगा कार्ययोजना का वृहद मूल्यांकन किया गया। मूल्यांकन रिपोर्ट से यह निष्कर्ष निकला कि गंगा कार्ययोजना के तहत जल में मिलने वाले सामग्री प्रदूषकों की मात्रा में पर्याप्त कमी हासिल कर ली गई है जो जल की गुणवत्ता बनाए रखने हेतु आवश्यक था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि गंगा कार्ययोजना जैसे ही कार्यक्रम अन्य नदी बेसिनों पर भी लागू किए जाने चाहिए। रिपोर्ट में इस कार्यक्रम की कमियों का भी जिक्र किया गया तथा अगले कार्यक्रमों में इन कमियों को दूर करने का निर्देश भी दिया गया।
गंगा कार्ययोजना के तहत वाराणसी (उत्तर प्रदेश) तथा नाबाद्वीप (प. बंगाल) में योजना के प्रभाव का मूल्यांकन किया गया ताकि उन लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का जायजा लिया जा सके जो गंगा के पानी से सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं। अखिल भारतीय जन स्वास्थ्य तथा स्वास्थ्य विज्ञान संस्थान, कोलकाता ने नागपुर के ‘एनईईआरआई’ संस्थान के साथ मिलकर इन नगरों में कुछ अध्ययन किए। इन अध्ययनों से यह बात सामने आई कि गंगा कार्ययोजना के तहत चलाई गई योजनाओं के पूरा होने के साथ-साथ पानी से होने वाली बीमारियों में कमी आई है। हालाँकि अनुपचारित सीवरों की सफाई का काम करने वाले मजदूरों में हैजा, कृमि रोग, त्वचा की बीमारियाँ तथा साँस की बीमारियाँ पाई गई।
गंगा कार्ययोजना का मूल्य के आधार पर विश्लेषण चल रहा है। इस अध्ययन की सिफारिशों को इस तरह के अन्य कार्यक्रमों की कमियों के सुधार हेतु प्रयुक्त किया जाएगा।
इस कार्यक्रम में जन समुदाय को शामिल किए जाने पर पर्याप्त जोर दिया गया। लोगों में इस कार्यक्रम के प्रति जागरुकता पैदा करने के लिए कई कदम उठाए गए। लोगों में जागरुकता लाने के लिए छात्रों तथा स्वयंसेवकों की भागीदारी से प्रदर्शनियाँ, गोष्ठियाँ, श्रमदान, वृक्षारोपण, पदयात्राएँ आदि आयोजित की गई। हालाँकि इस सन्दर्भ में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
उद्योगों से होने वाले प्रदूषण के नियन्त्रण तथा निगरानी के लिए गंगा के तट पर स्थित 68 प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की पहचान की गई है। इन उद्योगों पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है। गंगा कार्ययोजना की शुरुआत के समय केवल 14 इकाइयों में पर्याप्त बहिस्राव निरुपण उपकरण मौजूद थे। जून, 1995 में 55 इकाइयों में एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (ईटीपी) लगाए गए तथा 12 इकाइयों को बंद कर दिया गया और बची हुई एक इकाई में टेक्नोलाॅजी ही बदल दी गई। इसीलिए वहाँ ईटीपी की जरूरत नहीं रही। फिलहाल 45 इकाइयों में ईटीपी संतोषजनक रूप से कार्य कर रहे हैं तथा शेष 23 इकाइयों को बंद कर दिया गया है।
गंगा कार्ययोजना चरण-II
गंगा कार्ययोजना फेज-II तथा रा.न.सं.यो. की दो स्किमों के तहत गंगा कार्ययोजना के दौरान हुए अनुभवों के आधार पर इसके मॉडल में पर्याप्त संशोधन करके इसे देश की सभी प्रमुख नदियों पर लागू किया गया है। हालाँकि गंगा कार्ययोजना पूरी तरह से केन्द्र द्वारा चलाई जा रही है किन्तु इन कार्यक्रमों का खर्च केन्द्र तथा सम्बद्ध राज्य सरकारों द्वारा मिलकर उठाया जाएगा।
गंगा कार्ययोजना फेज-II के तहत पाँच राज्यों के 95 नगरों में निम्नलिखित कार्य चल रहा है। जो गंगा बेसिन की चार प्रमुख नदियों से सम्बद्ध है।
1. गंगा नदी की प्रमुख सहायक नदियों जैसे यमुना, गोमती तथा दामोदर पर।
2. गंगा की मुख्य शाखा पर स्थित शेष बड़े नगरों में, जो इस प्रदूषण के मुख्य कारक हैं तथा गंगा कार्ययोजना फेज-I के 25 नगरों में से कुछ नगरों में जहाँ फेज-I के तहत कार्य शुरू नहीं किया जा सका था।
3. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार 30 अतिरिक्त नगरों में कार्य।
4. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में शामिल कोलकाता लेदर (चमड़ा) कॉम्प्लेक्स के लिए सीईपीटी (सेन्ट्रल एप्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट) की स्थापना।
इन कार्यक्रमों के लिए 1281.16 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं जिसमें से 50 प्रतिशत केन्द्र सरकार उपलब्ध कराएगी। अब तक केन्द्र सरकार ने अपने 50 प्रतिशत हिस्से में से 130 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए हैं।
रा.न.सं.यो. के तहत 10 राज्यों में 18 अन्तर्राज्यीय नदियों के किनारे स्थित 46 नगरों में प्रदूषण नियन्त्रण कार्य चल रहा है इस कार्य के लिए कुल 772.08 करोड़ रुपये का खर्च अनुमोदित किया गया है जिसे केन्द्र तथा सम्बद्ध राज्य सरकारें मिलकर वहन करेंगी। अब तक इस कार्यक्रम के लिए 30 करोड़ रुपये की केन्द्रीय सहायता जारी की जा चुकी है।
गंगा कार्ययोजना के फेज-II तथा रा.न.सं.यो. की स्कीमों में गंगा कार्ययोजना के अनुभव के आधार पर निम्नलिखित संशोधन किए गए हैं।
1. ये योजनाएँ केन्द्र तथा राज्य सरकार द्वारा बराबर अनुपात से खर्च उठाने के आधार पर शुरू की गई हैं। इन कार्यक्रमों के परिचालन एवं अनरक्षण पर होने वाला पूरा खर्च सम्बद्ध राज्य सरकारें उठाएँगी।
2. नगरों से निष्कासित गन्दे पानी के सही सर्वेक्षण के बाद प्रणाली के नमूने में पर्याप्त सुधार किया गया है।
3. खर्च कम करने के लिए अवरोधन, दिशा बदलाव तथा उपचार योजनाओं में विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाई गई है।
4. भूमि अधिग्रहण हेतु आवश्यक कदम उठाए गए हैं ताकि योजनाएँ समय पर पूरी की जा सकें।
5. जहाँ तक सम्भव हो कम लागत वाली उपयुक्त तकनीक जैसे यूएएसबी, स्थिरीकरण तालाबों तथा करनाल तकनीक आदि के इस्तेमाल का सुझाव दिया गया है ताकि इन कार्यक्रमों को सुगमता से जारी रखा जा सके।
6. अन्य मन्त्रालयों जैसे नगरीय मामले तथा रोजगार, गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत, जल संसाधन आदि के साथ सलाह-मशविरा किया गया है ताकि एक समग्र दृष्टिकोण अपनाकर इन कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सके।
7. बाँधों, जलाशयों तथा बिजलीघरों की बड़ी विकास परियोजनाओं को अनुमति देते समय नदी में न्यूनतम बहाव बनाए रखने तथा कार्ययोजना की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति पर बल दिया गया है।
8. बिजली शवदाहगृहों के स्थान पर लकड़ी के संशोधित शवदाहगृहों को अपनाया गया है क्योंकि बिजली शवदाहगृह बिजली की लगातार आपूर्ति न होने के कारण छोटे शहरों में ज्यादा प्रचलित नहीं हो पाए थे।
9. भौतिक सर्वेक्षणों के आधार पर कम लागत वाले टॉयलेट कॉम्प्लेक्स बनाए गए हैं। इनके परिचालन तथा रख-रखाव का कार्य प्रतिष्ठित गैर-सरकारी संस्थानों द्वारा किए जाने का प्रस्ताव है।
10. परियोजनाओं को जल्दी से जल्दी पूरा करने की दृष्टि से परियोजना प्रबन्धन में प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार किए गए हैं तथा परियोजना प्रबन्धकों को इनके तहत प्रशिक्षित किया गया है।
11. कार्यक्रमों को जारी रखने के लिए नागरिक निगरानी समितियों को इनमें शामिल करने और जन-जागरुकता बढ़ाने पर ज्यादा जोर दिया गया है। कुछ सीवेज उपचार संयन्त्रों के परिचालन एवं रख-रखाव की जिम्मेदारी निजी संस्थाओं को प्रयोग रूप में सौंपने का भी प्रस्ताव है।
यमुना कार्ययोजना
यमुना कार्ययोजना पर कार्य प्रगति पर है। हालाँकि दिल्ली से लगे 22 कि.मी. लम्बे नदी मार्ग की स्थिति प्रदूषण तथा न्यूनतम बहाव दोनों दृष्टियों से बेहद खराब है। अतः पर्याप्त बहाव न होने से दिल्ली सरकार एवं केन्द्र सरकार के 900 करोड़ रुपये के संयुक्त खर्च के बाद भी यह सम्भव नहीं होगा कि जल की गुणवत्ता को ‘स्नान श्रेणी’ तक सुधारा जा सके। यमुना कार्ययोजना के लिए 17.77 अरब येन का विदेशी अनुदान उपलब्ध हो चुका है। यह योजना मार्च, 1999 तक पूरी होने की सम्भावना है।
इंग्लैंड की ओडीए (ओवरसीज डेवलेपमेंट एजेंसी) गोमती नदी के लखनऊ संघटक के लिए अनुदान देने पर गम्भीरता से विचार कर रही है। ओडीए 4.2 करोड़ ब्रिटिश पाउंड की सहायता पहले ही अनुमोदित कर चुकी है। लखनऊ में होने वाले मुख्य कार्य के लिए यह संस्था विस्तृत मास्टर प्लान तैयार कर रही है जो जून, 1997 तक पूरा हो जाने की उम्मीद थी। यह कार्य पूरा होने के बाद ब्रिटिश सरकार से अनुमति लेने में भी चार से छह महीने का समय लग जाएगा। इस बीच दो अन्य नगरों-जौनपुर तथा सुल्तानपुर में विकास कार्य जारी है।
गंगा कार्ययोजना फेज-II तथा जुलाई, 1995 के बाद अलग-अलग समय पर अनुमोदित की गई रा.न.सं.यो. की अन्य योजनाओं पर भी कार्य जारी है। इन सब पर कार्य पूरा होने में लगभग 10 वर्ष का समय और लगेगा।
गंगा कार्ययोजना फेज-II तथा रा.न.सं.यो. की योजनाओं के सन्दर्भ में एक बड़ी बाधा राज्यों की तरफ से 50 प्रतिशत हिस्सेदारी का उपलब्ध न होना है। बहुत से राज्य अपना हिस्सा सही समय पर नहीं दे पाए हैं। दूसरी तरफ केन्द्र द्वारा राज्यों को जारी किया गया हिस्सा कार्यक्रम लागू करने वाली एजेंसियों तक समय पर नहीं पहुँच पाया जिससे योजनाओं को लागू करने में देरी हुई है। राज्यों द्वारा परिचालन और रख-रखाव अनुदान के प्रावधान की समस्या जो गंगा कार्ययोजना के दौरान अनुभव की गई थी, गंगा कार्ययोजना के फेज-II तथा रा.न.सं.यो. के कार्यक्रमों में भी सामने आ रही है।
इन कार्यक्रमों की सफलता पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करेगी कि राज्य इस क्षेत्र को कितनी प्राथमिकता देता है। नदी को साफ करने के कार्यक्रम पूँजीगत तथा परिचालन खर्च दोनों दृष्टियों से बेहद महंगे थे।
राज्यों द्वारा आबंटित धनराशि इन योजनाओं को जारी रखने के लिए नितांत अपर्याप्त है। यदि राज्य सरकारें इन कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त अनुदान उपलब्ध नहीं कराती तो इन्हें चालू रखना मुश्किल हो जाएगा। संसाधनों में वृद्धि का एक तरीका इस कार्यक्रम के लाभकर्ताओं पर अतिरिक्त टैक्स लगाना है। दूसरा तरीका इस क्षेत्र का निजीकरण हो सकता है परन्तु उसमें भी बोझ लाभकर्ताओं पर पड़ेगा। राज्य इस क्षेत्र के लिए अपने संसाधनों को कैसे बढ़ाए, इस मामले पर केन्द्र तथा राज्यों के बीच गम्भीर विचार-विमर्श की जरूरत है।
नदियों की सुरक्षा के कौन-कौन से तरीके हैं?
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