रासो काव्य की विशेषता
रासो काव्य की विशेषताएँ :
रासो काव्य आदिकालीन कविता की मुख्य धारा है. इस्मने वीरता एवं श्रृंगार प्रधान दोनों प्रवृत्तियों का चित्रण किया गया है. इस युग के महत्वपूर्ण रासो काव्यों में पृथ्वीराज रासो, खुमान रासो, बीसलदेव रासो, परमाल रासो प्रमुख हैं. रासो काव्यों के लेखक राजाओं की वीरता की प्रशंसा राज्य दरबार में रहकर करते थे तथा अपने काव्य के माध्यम से उन्हें प्रेरित किया करते थे.
1. वीरता एवं श्रृंगार की प्रधानता-
इन काव्य में वीरता एवं श्रृंगार का विषद चित्रं किया गया है. वीरता एवं श्रृंगार आदिकालीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ है जहाँ युद्ध का करण नायिकाओं की सुन्दरता भी होती थी. पृथ्वीराज रासो में वीरता एवं श्रृंगार दोनों प्रकार के पद्य देखने को मिलते हैं वहीँ बीसलदेव रासो में मुख्य रूप से वियोग श्रृंगार का चित्रण हुआ है.
वीरता परक पद-
फ़ौज रची सामंत, गरुड़ व्यूहं रचि गढ़िय.
भूमि पर्यो तत्तार, मारि कमनेत प्रहारे.
फ़ौज बन्धि सुरतन मुष्ष अग्गे तत्तारिय
सिर धूनत पतिसाह, धाह सुनी सेना सत्थिय.[1]
श्रृंगार परक पद :
इस पद में राग वसंत का प्रयोग करते हुए वसंत को प्रेम का उद्दीपक और श्रृंगार को उनका सहायक माना गया है. यह श्रृंगार ही अंततः ही अंततः युद्ध में सहायक भी बनता है-
अलि अलक कंठ कलकंठ मंत, संयोगी भोग वर भुआ वसंत,
मधुर हिमंत रितुराज मंत. परस पर प्रेम से पियन कन्त.[2]
बीसलदेव रासो में वियोग के पद-
जइ तं पूछइ धरइ नरेश
वनषंड सेवती हिरणी कइ बेस
निरनाला करती एकादसी
एक आहाणीय बनह मंझारि,
बिहूँ बाणे उरिआं हणी.
म्हाकउ काल घटयउ जगन्नाथ दुआरि.[3]
2. लोक कथाओं की बहुलता :
रासो काव्य की रचना पद्य में की गई है जिसमें विजय उल्लास का वर्णन है. लोक कथाओं का प्रयोग करते हुए अनुष्ठान, टोन, भूत-प्रेत, कल्पना, लोक विश्वास और लोकगीत को लेते हुए जनसाधारण में प्रचलित कथाओं को इन कवियों ने चुना है इसीलिए ये सरे रास व्यक्ति-विशेष की सम्पदा न रहकर हिंदी की जातीय सम्पदा बन चुके हैं. डॉ० सुमन राजे लोक गाथाओं की प्रमुख विशेषताएँ मानती हैं-
अनेक रचनाओं के रचयिता का अज्ञात होना
मौखिक परंपरा द्वारा रचनाओ का विकास
प्रमाणिक मूल पाठ का प्रायः अभाव
स्थानीय रंग और लोक संस्कृति का प्रयोग
विकसनशील काव्य
नाम रहित वस्तुओं की अधिकता
सार्वभौम कथाएँ जिनका अंततः सुख में होता है.[4]
उदाहरण के लिए-
संदेश रासक की नायिका ‘णवगिम्हागमि पहियउ णाहु तव पवसियउ’ कहकर जिस विरह यात्रा का आरम्भ करती है उसका अंत अंततः नायक के आगमन से होता है.
3. ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता का आभाव :
रासो काव्य के रचयिता मूलतः आश्रयदाताओं के सरक्षण में रहकर रचना करते थे इसलिए अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन करने के कारण अनेक स्थानों पर ऐतिहासिकता का आभाव दिखाई देता है. आश्रयदाता की हार को जीत के रूप में बदलने की विवशता भी अनेक अलौकिक और असंभव घटनाओं को जन्म देती है. वीरों के सर कटने से लेकर मानवीय, अतिमानवीय और बाह्य सहायता के माध्यम से अंततः आश्रयदाता की सफलता को अभिव्यक्त करना ही इन रचनाकारों का लक्ष्य था. अतः इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध होना स्वाभाविक ही है.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पृथ्वीराज रासो को अर्धप्रामाणिक और पृथ्वीराज विजय को डॉ० बूलर के निश्कर्षानुसार अधिक प्रामाणिक मानते हैं परन्तु इससे पृथ्वीराज रासो की साहित्यिक महत्ता कहीं भी कम नहीं हो जाति. राजप्रशस्ति का उद्देश्य होने के कारण किसी भी प्रकार राजा की उपलब्धियाँ चित्रित करने वाले यह काव्य भी किसी सीमा तक इतिहास की रक्षा कर पाए हैं परन्तु पूरी तरह इतिहास की कसौटी पर कसना ही यदि उद्देश्य हो तो इन काव्यों के साथ सही न्याय नहीं हो पायेगा. हालाँकि देशकाल, वातावरण के अनुसार पृथ्वीराज रासो में ही पट्टन गजनी दिल्ली आदि नगरों के कालानुसार वर्णन मिलते हैं-
तिन नगर पहुच्यौ चंद कवि, मनौ कैलास समाष लहि.
उपकंठ महल सागर प्रबल, सघन साइ चाहन चलहि[5]
4. जनचेतना का आभाव :
यह काव्य मूलतः राजाओं की वीरता, उनके आख्यानों, श्रृंगार की सीमाओं, रूप-सौन्दर्य, नख-शिख वर्णन से होता हुआ युद्ध के मैदान तक की यात्रा का काव्य है. चारण और भात कवि युद्धों में भाग लेकर राजाओं की व्यक्तिगत वीरता के साक्षी बनते थे जो मूलतः किसी स्त्री अथवा नायिका की प्राप्ति से जुड़े हुए शौर्य का प्रदर्शन मात्र ही थी. ऐसे में यह काव्य सामाजिक जन-जीवन के भीतर होने वाली हलचलों के देखता और समझता दिखाई नहीं देता. व्यक्तिगत शौर्य की लड़ाइयोंके केंद्र में समाज दिखाई नहीं देता. व्यक्तिगत शौर्य की लड़ाइयों के केंद्र में समाज कहीं केंद्र में नहीं आता. वैसे भी यह युग अपने-अपने राज्यों को ही राष्ट्र मानने की सीमाओं से बंधा हुआ था ऐसे में जान सामान्य के सुख-दुःख से इनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं देता.
“ वास्तविक जीवन के कर्तव्य-द्वंद्व, आत्म विरोध और आत्म प्रतिरोध जैसी बातें उसमें नहीं आ पाती.”[6]
5. कथानक रूढ़ियाँ :
रूप-सौन्दर्य, ऋतु, युद्ध सभी का वर्णन करते हुए रासो काव्य के रचयिता परंपरा प्रचलित उपमानों को केंद्र में रखते हैं और इसी कारण कथानक रुढियों और काव्य रुढियों का प्रयोग यहाँ विशेष रूप से हुआ है. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अनेक कथानक रुढियों में कहानी कहने वाला तोता, स्वप्न में प्रेम मूर्ति दर्शन, मुनि का शाप, लिंग परिवर्तन, नायिका का चित्र, चरी प्रेम, आकाशवाणी, परकाया प्रवेश जैसी लगभग बीस प्रमुख कथानक रुढियों का वर्जन किया है.[7]
डॉ० सुमन राजे ने कथानक रुढियों को 8 भागों में विभाजित किया है तो कहीं कवी कपोल कल्पना मात्र है.
उदाहरण के लिए पृथ्वीराज रासो का प्रामाणिक माना जाने वाला अंश शुक-शुकी संवाद भी इसी काव्य रुढ़ि से उपजा है. उनके द्वारा बताई गई कथानक रूढ़ियाँ इस प्रकार है-
संभावना अथवा कल्पना पर आधारित
अलौकिक और अप्राकृतिक शक्तियों से सम्बंधित
अतिमानवीय शक्ति और कार्य से सम्बंधित
संयोग और भाग्य पर आधारित
निषेध और शकुन सम्बंधित
शरीर वैज्ञानिक रूढ़ियाँ
आध्यत्मिक और मनोवैज्ञानिक रूढ़ियाँ
सामाजिक रीति-रिवाज और परिस्थितियों का परिचय देने वाली रूढ़ियाँ[8]
उदाहरण-
चंद कवि स्वयं को अत्यंत आत्महीन बताते हुए अपने गुरु की उपासना कर रहे हैं-
गुरं राब्ब कव्वी लहू चंद कव्वी, जिनै दर्सियं देविसा अंगहब्बी.
कवी कित्ती कित्ती उकत्ती सुदिक्खी, तिनैकी उचिष्टी कबी चंद चंद मक्खी.[9]
6. शैलीगत वैशिष्ट्य :
रासो काव्य मूलतः प्रबंध शैली लिखे हैं. वर्णनात्मकता जिनकी प्रमुख विशेषता है. सन्देश रासक और पृथ्वीराज रासो को यदि छोड़ दिया जाए तो विकसनशीलता के कारण अलंकृति भी बहुत अधिक दिखाई नहीं देती. वाक् कौशल अथवा चमत्कारोत्पादक संवादों, प्रश्नोत्तर शैली, हेलिका-प्रहेलिका, समस्या पूर्ति, सुभाषित सुक्ति, कहावतों का प्रयोग विशेष रूप से दिखाई देता है.
यह काव्य मुख्यतः कथात्मक है. संवाद शैली का प्रयोग करते हुए आद्यांत एक ही छंद का प्रयोग करने का प्रयास दिखाई देता है. वाक् कौशल का एक उदाहरण-
चढि तुरंग चहुआन, आन फेरीत परद्धर
x----------x----------x----------x----------x
प्रथिराज बलन बद्दोजउ षर सुयोदुब्बसे बरद्दिआ
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Prakasan barsha
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रासो काव्य की विशेषता
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Raso Kavya Ki Visheshta - रासो काव्य की विशेषता
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