मानवाधिकार का अर्थ और प्रकृति
नव अधिकारों का शब्दकोशीय अर्थ है, दृढ़तापूर्वक रखे गये दावे, अथवा वे जो होने चाहिए, अथवा कभी-कभी उनको भी कहा जाता है जिनकी विधिक रूप से मान्यता है और उन्हें संरक्षित किया गया है जिनका प्रयोजन प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यक्तित्व आध्यात्मिक, नैतिक और अन्य स्वतंत्रता का अधिक से अधिक पूर्ण और स्वंतंत्र विकास सुनिश्चित करने को है। मानव अधिकार का संरक्षण अधिनियम, 1993 मानव अधिकार को निम्न प्रकार से परिभाषित करता है-
मानव अधिकार से प्राण, स्वतंत्रता, समानता और व्यक्ति की गरिमा से संबंधित ऐसे अधिकार अभिप्रेत हैं जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत किये गए हों या अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाओं में सन्निविष्ट और भारत में न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं
संक्षेप में, मानव अधिकार विश्व भर में मान्य व्यक्तियों के वे अधिकार हैं जो उनके पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए बहुत बुनियादी माने गये हैं। ये अधिकार मानव शरीर में अंतर्निहित गरिमा और महत्व से निकाले गये हैं।
इन अधिकारों की मान्यता मानव मूल्यों को चरितार्थ करने के लिए मनुष्य के लंबे संघर्ष के बाद हुई है। मानव अधिकार का विचार अनेक विधिक प्रणालियों में पाया जा सकता है। प्राचीन भारतीय विधिक प्रणाली, जो विश्व की सबसे प्राचीन विधिक प्रणाली है, इन अधिकारों की संकल्पना नहीं थी, केवल कर्तव्यों को ही अधिकथित किया गया था। यहाँ के विधि शास्त्रियों की मान्यता थी कि यदि सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करने तो सभी के अधिकार संरक्षित रहेंगे। प्राचीन भारत के धर्मसूत्रों एवं धर्म्शास्स्त्रों की विशाल संख्या में लोगों के कर्तव्यों का ही उल्लेख है। धर्म एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ बहुत विस्तृत है किन्तु उसका एक अर्थ कर्तव्य भी है। इस प्रकार सारे धर्मशास्त्र धर्मसंहिताएँ हैं, अर्थात कर्तव्य संहिताएँ हैं। इसलिए मनुस्मृति को मनु की संहिता भी कहा गया है। मनुस्मृति के अध्यायों के शीर्षकों को देखने से ही ज्ञात हो जाएगा कि वे राजा को सम्मिलित करते हए समाज के विभिन वर्गों एवं व्यक्तियों के कर्तव्यों का उल्लेख करते हैं।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय विधिनिर्माताओं ने केवल कर्तव्यों की ही बात सोची और अधिकार के बारे में उन्होंने कदाचित ही कुछ कहा। उन्होंने कर्तव्य पालन को स्वयं के विकास के लिए अनिवार्य बनाकर, कर्तव्य की कठोरता को समाप्त कर दिया।
अधिकार के दावे का, अंतिम विश्लेषण में यह अर्थ होगा कि ऐसा कार्य जो किसी अन्य के हित के अनुरूप न होगा।
इस बात पर प्राचीन भारतीय विधि शास्त्रियों और कतिपय आधुनिक विधिशास्त्रियों की विचारों में बड़ी समानता पायी जाती है। विधि की समाजशास्त्रियों विचारधारा के एक बड़े पश्चात् चिंतक ड्यूगिट महोदय प्राइवेट अधिकारों के अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। कॉमटे की तरह उनका भी यह कथन है-
एकमात्र अधिकार जो किसी मनुष्य का हो सकता है, वह सदैव अपना कर्तव्य करने का अधिकार है। किसी भी हैसियत में कार्य करने वाले व्यक्ति एक ही सामाजिक संगठन के भाग हैं और प्रत्येक को उसी लक्ष्य अर्थात सामजिक समेकता की पूर्ति के लिए अपनी भूमिका निभानी होती है।
उसी प्रकार विधि के विशुद्ध सिद्धांत के प्रवर्तक के महान विधिशास्त्री केल्सन ने भी यह मत व्यक्त किया है, यद्यपि वे एक भिन्न आधार- भूमि से इस निष्कर्ष पर पहुंचते है। केल्स के अनुसार भी विधि में व्यक्तिगत अधिकार जैसी कोई वस्तु नहीं ही। विधिक कर्तव्य ही ‘विधि का सार’ है। विधि सर्वदा होना चाहिए की एक प्रणाली है। अधिकार की संकल्पना किसी विधिक प्रणाली के लिए मूलतः अनिवार्य नहीं है। विधिक अधिकार उसकी पूर्ति की अपेक्षा करने के हकदार व्यक्ति की दृष्टि, में केवल कर्तव्य के रूप में है।
पश्चिम में मनुष्यों के अधिकार का विचार प्राक्रतिक विधि की संकल्पना से उदभूत हुआ। यूनान के लघु नगर राज्यों में राजनीतिक संस्थाओं के अस्थिरता और सरकारों का जल्दी-जल्दी परिवर्तन और विधि में मनमानापन तथा निरंकुश्ता से दार्शनिकों को कुछ अपरिवर्तणीय और सार्वदेशिक सिद्धांतों के बारे में सोचने और उसकी बात करने को प्रेरित किया। उन्होंने सामाजिक यथास्थिति को व्यवस्थित रूप से चलाने और सामाजिक संस्थाओं की सुरक्षा की आवश्यकता की बात कही और राजनितिक रूप से संगठित’ एक आर्दश समाज में किसी प्रमाणिक सिद्धांत को निकालने का प्रयत्न किया। उनहोंने के आदर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जो संबंधों के तालमेल का और नियमों एवं सिद्धांतों द्वार आचरण करने को व्यवस्थ्ति करने का प्रयोजन पूरा करने और उनके ऊपर जो नियमों को लागू करेंगे और उनके ऊपर जो उनके अधीन थे, युक्ति का एक बंधन लगाए। उनके द्वारा कल्पित अपरिवर्तनीय और सार्वदेशिक सिद्धांत जिसे उन्होंने राज्य की वही ऊपर माना प्राकृतिक विधि कहलाए। बाद में रोम के और अन्यंत्र दार्शनिकों ने प्राकृतिक विधि का भिन्नप्रकार से अर्थ निकाला। तथापि, राज्य की विधि की ऊपर एक विधि मान्य की गई। परवर्ती काल के राजनितिक दार्शनिकों के हाथों में प्राकृतिक विधि मनुष्यों के अधिकारों का मुख्य आधार बनी। धर्म ने भी मनुष्यों के अधिकारों के विकास में योगदान किया। यहूदी दर्शन ने व्यक्ति के महत्व के विचार को विकसित किया। इसने मनुष्य को एक ऐसे व्यक्ति एक रूप में माना जिसे पूरा करने के लिए जीवन में उसका अपना एक लक्ष्य है। धर्म ग्रंथों ने एक नैतिक संहिता निर्धारित की । इसने मनुष्यों के भातृत्व के सिद्धांत को रखा और इसमें व्यक्तिगत संस्थाओं के प्रति निर्देश है। इसाई धर्म ने इस दर्शन को और आगे बढ़ाया। इसने यह सीख दी कि सभी मनुष्य बराबर हैं और प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण हैं प्रत्येक मनुष्य का एक अनंत भविष्य है और उसके लिए असीमित उपलब्धियाँ हैं ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता का एक बड़ा उपहार दिया है और उसकी पूर्ण उन्नति और विकास की उसकी इच्छा है। ये सिद्धांत दस समादेशों एवं अन्य धर्मग्रन्थों में अंतर्विष्ट है। कुछ ये सिद्धांत जो मानव प्राणियों की एकता की सीख देते हैं इस प्रकार हैं तुम अपने पड़ोसी को वैसा ही प्यार करोगे जैसा अपने को करते हो। वह अजनबी जो तुम्हारे साथ रहता है वह तुम्हारे बीच उत्पन्न हुआ कोई क हो सकता है और तुम वैसा प्यार करोगे जैसा अपने से करते हो।
ईसाई धर्म के प्रसार के साथ मनुष्यों की समता और व्यक्ति के महत्व के विचार को बोध सारे यूरोप में हुआ। यहूदी- ईसाई धर्म ग्रंथों के नये विचारों से रोमन साम्राज्य का पतन हुआ। मध्यकाल के कैथोलिक दार्शनिकों और धर्माचार्यों ने प्राक्रतिक विधि के अपने सिद्धातों का प्रतिपादन किया। थोमस एक्विनस ने, जिनके विचारों को प्रतिनिधि रूप में माना जा सकता है, कहा कि राज्य की केवल सिमित शक्तियां होती हैं। मानव विधि अथवा मनुष्य द्वारा बनाई गयी विधि केवल वहाँ तक विधिमान्य है जहाँ तक एक प्राकृतिक विधि या शास्वत विधि की अनुरूपता में है। तथापि उसने कह की इसके अनुचित होने पर भी मनुष्य के इसका पालन करना चाहिए। इस प्रकार मध्य काल में शासक की शक्ति पर सीमाओं की जोरदार हिमायत की गिया। एक ओर इस विचार की बढ़ती हुई लोकप्रियता और दूसरी ओर मध्य काल में राष्ट्र राज्यों का अभ्युदय और तानाशाही शासनों की स्थापना से राष्ट्र की सीमाओं के भीतर यूरोप में मनुष्यों के अधिकार के लिए संघर्ष प्रांरभ हुआ और आगे चलकर मनुष्य के कतिपय अधिकारों को मान्यता मिली।
मैगना कार्टा (1215) वह पहला दस्तावेज है जो व्यक्तियों को कतिपय बुनियादी स्वतंत्रताएं और संरक्षाएं प्रदान करता है। यद्यपि वह वैरनों के दबाव कर करण प्रदान किया गया था किन्तु समाज के सारे वर्गों के लोब इसके पीछे थे। यद्यपि इसमें प्रधान रूप से वैरनों के लिए अधिकारों की घोषणा की गयी थी अनेक तरह के लोगों के अधिकारों के अल्पीकरण के रूप में था किन्तु समाज के सभी वर्गों की शिकायतों को दूर करने का प्रयत्न किया गया था। यह अपराध और अपराधी के अनुपात में युक्तियुक्त जुर्माने के लिए कहता है। यह न्याय के अधिकार के रूप में होने, इसके बेचे न जाने, इसके स्वच्छ साफ-सुथरे होने और विलम्ब न किए जाने की घोषणा करताहै। यह सम्पत्ति की सुरक्षा, इसके राजा के प्रयोजनों के लिए प्राचीन रूढ़िगत अदायगी के बिना न लिए जाने की घोषणा करता है और यह शरीर की संरक्षा की घोषणा करता है। कसी स्वतंत्र व्यक्ति को कारावास, निर्वासन, गैर कानूनी करार देना या दंडित नहीं किया जा सकता या उसके स्थापित विशेषाधिकारों के बिना एक विधिपूर्ण निर्णय या विधि के अनुसार कार्रवाई के अलावा उसे वंचित नहीं किया जा सकता है। पशिचम में मैगन कार्टा ने पहली बार राजा की शक्तियों को सीमित किया एवं एक संवैधानिक सरकार स्थापित करने का प्रयत्न किया।
मैगन कार्टा द्वारा प्रदान किये गए अधिकार और अधिक अधिकारों का दावा करने के आधार बने। बाद के शासन कालों में लोगों ने अपना संघर्ष जारी रखा और कालक्रम से राजा की शक्ति पर और सीमाएं लगायीं गयी। मैगना कार्टा द्वारा गारंटीकृत अधिकारों का अतिक्रमण और व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में लोगों में सामान्य जागृति और उनके द्वारा उन पर दृढ़ता से अदने के कारण 1688 में गौरवशाली क्रांति हुई। नए रजा को उसके द्वारा बिल ऑफ़ राइट्स पर हस्ताक्षर करने के पश्चात ही गद्दी पर बैठाया गया। बिल ऑफ़ राइट्स में मैगन कार्टा के गांरटीकृत अधिकारों को पुनकथिक किया गया और राजा द्वारा मैगना कार्टा के पूर्व के किए अनेक अतिक्रमणों को उल्ल्लिखित किया गया।
जब ब्रिटिश उपनिवेशी अमेरिका में बसने के लिए गये तो ऊपर कथित अधिकार उनके साथ वहाँ गये। उनके चार्टरों में यह अधिकार घनिष्ठता से जुड़े थे। बहुत से राज्य जो अमेरिका के स्वंतन्त्रता के युद्ध के पूर्व अस्तित्व में आ गए थे उन्होंने मनुष्यों के अधिकारों की गारंटी को अंगीकार किया। वर्जीनिया ने सबसे पहले इन अधिकारों को अंगीकार किया जिसका अन्य अनेक राज्यों द्वार अनुसरण किया गया। वर्जिनिया द्वारा अंगीकार किये गये मनुष्यों के अधिकारों की कुछ विशेष बातें थीं। ऐसी एक विशेष बात यह थी कि एन अधिकारों से संबधित प्रावधानों को अधिकारों की घोषणा का नामा देकर पृथक रखा गया। इनका अन्य महत्वपूर्ण वैश्ष्टीय यह था कि वे विधानमंडल पर भी आबद्धकर थे।
मध्य काल में राष्ट्र राज्यों के उदभव और तानाशाही शासनों की स्थापना के साथ यूरोप में स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर प्रारंभ हुआ।
रिफामरेशियों और रेनेसा ने व्यक्ति के अधिकारों की मांग, उसके आधार और सरकार की शक्तियों को सिमित करने में नए आयामों को जोड़ा। ज्ञान की नयीं शाखाओं और विज्ञान की खोजों ने स्थापित मूल्यों के आधार क धवस्त कर दिया। तर्कनावाद नए युग का एक पंथ बन गया।
सामाजिक संविदा सिद्धांत जिसका बहुत पहले प्रतिपादन हुआ था, इसे नया तत्व और अर्थ दिया गया। लाक और रूसो ने इस सिद्धांत को व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सिमित सरकार का अर्थ देने वाला कहा। लाक ने सिविल गवर्नमेंट पर दो कृतियाँ रची जिनका ध्येय 1988 की गौरवशाली क्रांन्ति को उचित ठहराना था और अधिकारों की घोषणा और बिल ऑफ़ राइट्स के भाव को स्पष्ट करना था। रूसो ने अपने प्राकृतिक विधि और सामाजिक संविदा सिद्धांतों के अर्थन्वयन में लोगों की सम्प्रभुता पर जोर दिया। इसका अर्थ मनुष्यों की स्वतंत्रता और समता है। लाक और रूसो ने समकालीन चिन्तन पर भारी प्रभाव डाला और फ्रांसीसी और अमरीकी राज्य क्रांतियों को प्रेरित किया।
अमरीकी स्वंत्रता की घोषणा स्वतन्त्रता के अधिकार की दृढ़क्ति थी। फ्रांस की मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की घोषणा ने मनुष्यों के प्राकृतिक और अहरणीय अधिकारों की घोषणा की। राज्यों द्वारा अमेरिका के संविधान के अनुसमर्थन क्र पूर्व मनुष्यों के अधिकार को दस संशोधन के रूप में संविधान में सम्मिलित किया गया था जिन्हें बिल ऑफ़ राइट्स कहा जाता है। बाद में बुनियादी स्वतंत्राओं से संबधित और अधिक संशोधन अंगीकार किए गये। अब उनकी संख्या उन्नीस है।
यह उल्लेखनीय है कि अमरीकी बिल ऑफ़ राइट्स फ्रांसीसी संविधान में यथा सम्मिलित की गयी सिविल स्वंतत्रताओं से महत्वपूर्ण रूप से भिन्न है। कुछ उल्लेखनीय अंतर है फ्रांसीसी घोषणा सरकार के बारे में एक कृति है। यह बताता है कि ये अधिकार क्यों रखे गये हैं।
अमरीकी संविधान विनिदृष्टि अधिकारों को उल्लिखित करता है। फ्रांसीसी घोषणा पत्र में अधिकारों को लागू करने के लिए किसी तंत्र का प्रावधान नहीं किया गया है। अमरीकी बिल ऑफ़ राइट्स न्यायालय द्वारा लागू किये जाने योग्य है।
मनुष्यों की स्वतंत्रताएं बाद के अनेक संविधानाओं में अपनाई गयी विशेष रूप से लातिनी अमरीकी देशों में यद्यपि वहाँ से उतनी प्रभावी नहीं है न ही उस रूप में संरक्षित है जैसा अमरीकी संविधान में।
संयुक्त राष्ट्र और मानव अधिकार
अपने वर्तमान रूप में मानव अधिकार की संकल्पना गत शताब्दी में विकसित हुई है और जब समकालीन अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू बन गयी है। सम्प्रति मानव अधिकार भारी अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी के विषय हो गये हैं। मानव अधिकारों के निरूपण और संरक्षण की वर्तमान चिंता दो विश्वयुद्धों में उनके घोर अतिक्रमण का परिमाण है। विश्व समुदाय द्वारा यह अनुभव किया गया कि मात्र राष्ट्रीय सरकारों से मानव अधिकारों के संरक्षण की आशा करना अयथार्थ है। यह अनुभव किया गया कि मानव अधिकारों के प्रभावी संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी कदम उठाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय शान्ति के लिए इसे एक आवश्यक शर्त माना गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात बनाया गया। संयुक्त राष्ट्र प्राथमिक रूप से अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को कायम रखने के लिए एक तंत्र कल्पित किया गया था। यह बुनियादी मानव अधिकारों की सुरक्षा पर बहुत जोर देता है क्योंकि यह महसूस किया गया कि मानव अधिकारों की संरक्षण अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा से घनिष्ठ रूप से संबधित है। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के प्रयोजन और सिद्धांत के पैरा 3 में कहा गया है-
आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या मानव कल्याण संबंधी अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए और मूल, वंश, लिंग, भाषा या धर्म के आधार पर विभेद किये बिना सभी के लिए मानव अधिकारों और मूल स्वंत्रताओं के प्रति सम्मान की अभिवृद्धि करने और उसे प्रोत्साहित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग उत्पन्न करना है।
इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मूल मानव अधिकारों और मानव की गरिमा और महत्व की पुष्टि की गयी और मानव अधिकारों एवं मूल स्वतंत्रताओं का उन्नयन करना या उनके प्रति सम्मान को प्रोत्साहित करने को विश्व निकाय का उत्तरदायित्व बनाया गया। चार्टर मानव अधिकारों के पालन किये जाने के बारे में सदस्य राज्यों पर एक बाध्य डालता है। इस प्रकार यह मानव अधिकारों एवं मूल स्वतंत्रताओं को अंतर्राष्ट्रीय विधि का एक महत्वपूर्ण मानक बनाता अहि। चार्टर के प्रभावी होने के पश्चात विश्व निकाय का एक पहला काम मानव अधिकारों के बारे में अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करना था। अन्तः विश्व निकाय ने 1948 मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अंगीकार किया और उदघोषित किया।
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