राजस्थान में जल संरक्षण
(Conventional methods of water conservation in Rajasthan) भारत में मानसून की अनियमितता के कारण सम्पूर्ण देश में कहीं-न-कहीं अनावृष्टि, अतिवृष्टि एवं आंशिक वृष्टि का खतरा बना रहता है। परन्तु राजस्थान राज्य की जलाभाव के मामले में विशिष्ट स्थिति है। राज्य का अधिकांश भाग रेगिस्तान है जहाँ प्रायः वर्षा बहुत कम होती है। परम्परागत तरीकों से राज्य के निवासियों ने अपने क्षेत्र के अनुरूप जल भण्डारण के विभिन्न ढाँचों को बनाया है।
ये पारम्परिक जल संग्रहण की प्रणालियाँ काल की कसौटी पर खरी उतरीं। ये प्रणालियाँ विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों के कारण अपने प्रभावशाली स्वरूप में उभरीं। साथ ही इनका विकास भी स्थानीय पर्यावरण के अनुसार हुआ है। इसलिये सम्पूर्ण भारत में राजस्थान की जल संचयन विधियाँ अपनी अलग विशेषता रखती हैं। इनके विकास में ऐतिहासिक तत्वों के साथ ही विविध भौगोलिक कारकों का प्रभाव भी है। वस्तुतः राजस्थान एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ वर्ष भर बहने वाली नदियाँ नहीं हैं। यहाँ पानी से सम्बन्धित समस्याएँ, अनियमित तथा कम वर्षा और नदियों में अपर्याप्त पानी को लेकर उत्पन्न होती हैं। यहाँ प्रकृति तथा संस्कृति एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
राजस्थान में स्थापत्य कला के प्रेमी राजा-महाराजाओं तथा सेठ-साहूकारों ने अपने पूर्वजों की स्मृति में अपने नाम को चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य से इस प्रदेश के विभिन्न भागों में कलात्मक बावड़ियों, कुओं, तालाबों, झालरों एवं कुंडों का निर्माण करवाया। राजस्थान में पानी के कई पारम्परिक स्रोत हैं, जैसे- नाड़ी, तालाब, जोहड़, बन्धा, सागर, समंद एवं सरोवर। कुएँ पानी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। राजस्थान में कई प्रकार के कुएँ पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त बावड़ी या झालरा भी है जिनको धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
राजस्थान में जल संचयन की परम्परागत विधियाँ उच्च स्तर की हैं। इनके विकास में राज्य की धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रमुख योगदान है। जहाँ प्रकृति एवं संस्कृति परस्पर एक दूसरे से समायोजित रही हैं। राजस्थान के किले तो वैसे ही प्रसिद्ध हैं पर इनका जल प्रबन्ध विशेष रूप से देखने योग्य है तथा ये शिक्षाप्रद भी हैं। जल संचयन की परम्परा वहाँ के सामाजिक ढाँचे से जुड़ी हुई हैं तथा जल के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण के कारण ही प्राकृतिक जलस्रोतों को पूजा जाता है।
यहाँ के स्थानीय लोगों ने पानी के कृत्रिम स्रोतों का निर्माण किया है। जिन्होंने पानी की प्रत्येक बूँद का व्यवस्थित उपयोग करने वाली लोक-कथाएँ एवं आस्थाएँ विकसित की हैं, जिनके आधार पर ही प्राकृतिक जल का संचय करके कठिन परिस्थितियों वाले जीवन को सहज बनाया है। पश्चिमी राजस्थान में जल के महत्त्व पर जो पंक्तियाँ लिखी गई हैं उनमें पानी को घी से बढ़कर बताया गया है।
‘‘घी ढुल्याँ म्हारा की नीं जासी।
पानी डुल्याँ म्हारो जी बले।।’’
जल उचित प्रबन्धन हेतु पश्चिमी राजस्थान में आज भी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में पराती में चौकी रखकर उस पर बैठकर स्नान करते हैं जिससे शेष बचा पानी अन्य उपयोग में आ सके। राजस्थान में जल संचयन की निम्नांकित संरचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं:
वर्षा पानी को संचित करने के लिये तालाब प्रमुख स्रोत रहे हैं। प्राचीन समय में बने इन तालाबों में अनेक प्रकार की कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। इन्हें हर प्रकार से रमणीय एवं दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाता रहा है। इनमें अनेक प्रकार के भित्ति चित्र इनके बरामदों, तिबारों आदि में बनाए जाते हैं। कुछ तालाबों की तलहटी के समीप कुआँ बनाते थे जिन्हें ‘बेरी’ कहते हैं।
तालाबों की समुचित देखभाल की जाती थी जिसकी जिम्मेदारी समाज पर होती थी। धार्मिक भावना से बने तालाबों का रख-रखाव अच्छा हुआ है, परन्तु आज इन तालाबों की भी स्थिति दयनीय हो चुकी है तथा इन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। आज राजस्थान के कई ग्रामीण क्षेत्रों में जलाभाव के कारण ग्रामीण महिलाओं को बहुत दूर से पानी लाना पड़ता है। जिसके कारण उनका अधिकांश समय जल की व्यवस्था करने में ही चला जाता है।
राजस्थान में जल की परम्परागत ढंग से सर्वाधिक संचय झीलों में होता है। यहाँ पर विश्व प्रसिद्ध झीलें स्थित हैं। जिनके निर्माण में राजा-महाराजाओं, बंजारों एवं आम जनता का सम्मिलित योगदान रहा है। झीलों के महत्त्व का अनुमान झीलों की विशालता से लगाया जा सकता है। उदयपुर में विश्व प्रसिद्ध झीलों- जयसमंद, उदयसागर, फतेहसागर, राजसमंद एवं पिछोला में काफी मात्रा में जल संचय होता रहता है। इन झीलों से सिंचाई के लिये जल का उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त इनका पानी रिसकर बावड़ियों में भी पहुँचता है जहाँ से इसका प्रयोग पेयजल के रूप में करते हैं।
नाड़ी एक प्रकार का पोखर होता है, जिसमें वर्षाजल संचित होता है। इसका जलग्रहण क्षेत्र विशिष्ट प्रकार का नहीं होता है। राजस्थान में सर्वप्रथम पक्की नाड़ी के निर्माण का विवरण सन 1520 में मिलता है, जब राव जोधाजी ने जोधपुर के निकट एक नाड़ी बनवाई थी। पश्चिमी राजस्थान में लगभग प्रत्येक गाँव में कम-से-कम एक नाड़ी अवश्य मिलती है। नाड़ी बनवाते समय वर्षा के पानी की मात्रा एवं जलग्रहण क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही जगह का चुनाव करते हैं। रेतीले मैदानी क्षेत्रों में नाड़ियाँ 3 से 12 मीटर गहरी होती हैं।
इनका जलग्रहण क्षेत्र (आगोर) भी बड़ा होता है। यहाँ पर रिसाव कम होने के कारण इनका पानी सात से दस महीने तक चलता है। केन्द्रीय रूक्ष अनुसन्धान संस्थान, जोधपुर के एक सर्वेक्षण के अनुसार नागौर, बाड़मेर एवं जैसलमेर में पानी की कुल आवश्यकता में से 37.06 प्रतिशत जरूरतें नाड़ियों द्वारा पूरी की जाती हैं। वस्तुतः नाड़ी भू-सतह पर बना प्राकृतिक गड्ढा होता है, जिसमें वर्षा जल आकर संग्रहीत होता रहता है।
कुछ समय पश्चात इसमें गाद भरने से जल संचय क्षमता घट जाती है इसलिये इनकी समय-समय पर खुदाई की जाती है। कई छोटी नाड़ियों की जल क्षमता बढ़ाने हेतु एक या दो ओर से पक्की दीवार बना दी जाती है। नाड़ी के जल में गुणवत्ता की समस्या बनी रहती है। क्योंकि मवेशी भी पानी उसी से पी लेते हैं। आज अधिकांश नाड़ियाँ प्रदूषण एवं गाद जमा होने के कारण अपना वास्तविक स्वरूप खोती जा रही हैं। अतः इस दिशा में ध्यान देने की आवश्यकता है।
राजस्थान में कुआँ व सरोवर की तरह ही वापी (बावड़ी) निर्माण की परम्परा अति प्राचीन है। यहाँ पर हड़प्पा युग की संस्कृति में बावड़ियाँ बनाई जाती थीं। प्राचीन शिलालेखों में बावड़ी निर्माण का उल्लेख प्रथम शताब्दी से मिलता है प्राचीनकाल में अधिकांश बावड़ियाँ मन्दिरों के सहारे बनी हैं। बावड़ियाँ और सरोवर प्राचीनकाल से ही पीने के पानी और सिंचाई के महत्त्वपूर्ण जलस्रोत रहे हैं। आज की तरह जब घरों में नल अथवा सार्वजनिक हैण्डपम्प नहीं थे तो गृहणियाँ प्रातःकाल एवं सायंकाल कुएँ, बावड़ी व सरोवर से ही पीने का पानी लेने जाया करती थीं। बावड़ी का जल लवणीय नहीं होता है क्योंकि इनका निर्माण बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है।
राजस्थान में बावड़ी निर्माण का प्रमुख उद्देश्य वर्ष जल का संचय रहा है। आरम्भ में ऐसी भी बावड़ियाँ हुआ करती थीं जिनमें आवासीय व्यवस्था हुआ करती थी। आज के प्रदूषण युग में प्राचीन बावड़ियों की दशा अच्छी नहीं है। यदि समय रहते इनका जीर्णोंद्धार किया जाये तो ये बावड़ियाँ जल संकट का समाधान बन सकती हैं।
झालरों का कोई जलस्रोत नहीं होता है। यह अपने से ऊँचाई पर स्थित तालाबों या झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका स्वयं का कोई आगोर नहीं होता है। झालरों का पानी पीने के लिये उपयोग में नहीं आता है वरन इनका जल धार्मिक रीति-रिवाजों को पूर्ण करने, सामूहिक स्नान एवं अन्य कार्यों हेतु उपयोग में आता है। अधिकांश झालरों का आकार आयताकार होता है, जिनके तीन ओर सीढ़ियाँ बनी होती हैं। अधिकांश झालरों का वास्तुशिल्प अद्भुत प्रकार का होता है। जल संचय की दृष्टि से ये अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। आज इनके संरक्षण के प्रति तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है।
नाड़ी के समान आकृति वाला जल संग्रह केन्द्र ‘टोबा’ कहलाता है। इसका आगोर नाड़ी से अधिक गहरा होता है। इस प्रकार थार के रेगिस्तान में टोबा महत्त्वपूर्ण स्रोत है। सघन संरचना वाली भूमि जिसमें पानी रिसाव कम होता है, टोबा निर्माण हेतु उपयुक्त स्थान माना जाता है। इसका ढलान नीचे की ओर होना चाहिए। इसके जल का उपयोग मानव व मवेशियों द्वारा किया जाता है। टोबा के आसपास नमी होने के कारण प्राकृतिक घास उग जाती है जिसे जानवर चरते हैं।
मानसून के आगमन के साथ ही लोग सामूहिक रूप में टोबा के पास ढाणी बनाकर रहने लगते हैं। सामान्यतया टोबाओं में 7-8 माह तक पानी ठहरता है। राजस्थान में प्रत्येक गाँव में जाति एवं समुदाय विशेष द्वारा पशुओं एवं जनसंख्या के हिसाब से टोबा बनाए जाते हैं। एक टोबे के जल का उपयोग उसकी संचयन क्षमता के अनुसार एक से बीस परिवार तक कर सकते हैं। इसके संरक्षण का कार्य विशिष्ट प्रकार से किया जाता है तथा खुदाई करके पायतान को बढ़ाया जाता है।
कुंडी राजस्थान के रेतीले ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षाजल को संग्रहित करने की महत्त्वपूर्ण परम्परागत प्रणाली है, इसे कुंड भी कहते हैं। इसमें संग्रहीत जल का मुख्य उपयोग पेयजल के लिये करते हैं। यह एक प्रकार का छोटा सा भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढँक दिया जाता है। कहीं-कहीं पर सन्दूषण को रोकने के लिये इस जलस्रोत के ढक्कन पर ताला भी लगा दिया जाता है। इसका निर्माण मरुभूमि में किया जाता है, क्योंकि मरुस्थल का अधिकांश भूजल लवणीयता से ग्रस्त होने के कारण पेय रूप में स्वीकार्य नहीं है। अतः वर्षाजल का संग्रह इन कुंडों में किया जाता है।
कुंड का निर्माण सभी जगह होता है पहाड़ पर बने किलों में, पहाड़ की तलहटी में, घर की छत पर, आँगन में, मन्दिर में, गाँव में, गाँव के बाहर बिलग क्षेत्र में तथा खेत आदि में। इसका निर्माण सार्वजनिक रूप में लोगों, सरकार तथा निजी निर्माण स्वयं व्यक्ति या परिवार विशेष द्वारा करवाया जाता है। निजी कुंड का निर्माण घर के आँगन या चबूतरे पर किया जाता है, जबकि सामुदायिक कुंडियाँ पंचायत भूमि में बनाई जाती हैं जिनका उपयोग गाँव वाले करते हैं। गाँवों में इन बड़े कुंडों के पास दो खुले हौज भी बनाते हैं जिनकी ऊँचाई भी कम रखी जाती है। इनका उद्देश्य आसपास से गुजरने वाले भेड़-बकरियों, ऊँट एवं गायों आदि की पेयजल व्यवस्था के लिये होता है।
कुंड या कुंडी का निर्माण जगह के अनुसार किया जाता है। आँगन या चबूतरे का ढाल जिस ओर होता है उसके निचले भाग में कुंडियाँ बनाई जाती हैं जिन्हें गारे-चूने से लीप-पोतकर रखते हैं वर्तमान में कुंड की दीवारों पर सीमेंट का प्लास्टर किया जाता है। जिस आँगन में वर्षा के पानी को एकत्रित किया जाता है, वह आगोर या पायतान कहलाता है। इसको साल भर साफ-सुथरा रखा जाता है। पायतान से बहकर पानी सुराखों से होता हुआ अन्दर प्रवेश करता है। इन सुराखों के मुहाने पर जाली लगी होती है, जिससे कचरा एवं वृक्षों की पत्तियाँ अन्दर प्रवेश न कर सकें। कुंड या कुंडी 40 से 50 फुट तक गहरी होती है। इसमें सन्दूषण रोकने हेतु सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता है तथा पानी भी खींचकर निकाला जाता है।
खड़ीन जल संरक्षण की पारम्परिक विधियों में बहुउद्देशीय व्यवस्था है। यह परम्परागत तकनीकी ज्ञान पर आधारित होती है। खड़ीन मिट्टी का बना बाँधनुमा अस्थायी तालाब होता है, जो किसी ढालवाली भूमि के नीचे निर्मित करते हैं। इसके दो तरफ मिट्टी की पाल उठाकर तीसरी ओर पत्थर की मजबूत चादर लगाई जाती है। खड़ीन की यह पाल धोरा कहलाती है। धोरे की लम्बाई पानी की आवक के हिसाब से कम ज्यादा होती है। पानी की मात्रा अधिक होने पर खड़ीन को भर कर पानी अगले खड़ीन में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे यह पानी सुखाकर खड़ीन की भूमि को भी कृषि योग्य बनाया जा सकता है।
खड़ीनों में पानी को निम्न ढालू स्थानों पर एकत्रित करके फसलें ली जाती हैं। जिस स्थान पर पानी एकत्रित होता है उसे खड़ीन तथा इसे रोकने वाले बाँध को खड़ीन बाँध कहते हैं। खड़ीनों द्वारा शुष्क प्रदेशों में बिना अधिक परिश्रम के फसलें ली जा सकती हैं क्योंकि इसमें न तो अधिक निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है, न ही रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों की। इन खड़ीनों के पास कुआँ भी बनाया जाता है, जिसमें खड़ीन से रिसकर पानी आता रहता है, जिसका उपयोग पीने के लिये किया जाता है।
कई क्षेत्रों का अवलोकन करने पर ज्ञात हुआ कि अधिकांश स्थानों पर बावड़ियों के ऊपर वृक्ष थे जिनसे पत्तियाँ आदि गिरने के कारण जैविक नाइट्रेट की वृद्धि हो गई तथा अन्य स्थानों पर इन जलस्रोतों पर मानवीय कृत्यों द्वारा भी सन्दूषण की समस्या देखी गई। मुख्यतया ये कृत्य अतिक्रमण, दुकान एवं मकानों के कचरे डालने के रूप में देखे गए। इन सन्दूषित जलस्रोतों में घुलनशील ऑक्सीजन तथा जैव ऑक्सीजन माँग का मान भी अधिक पाया गया। जिसके कारण हुई अत्यधिक शैवाल वृद्धि ने जलीय जीवों के जीवन को भी खतरे में डाल दिया है। अतः जो पारम्परिक जलस्रोत अतीत में पेयजल आपूर्ति में सक्षम थे, आज प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं।
हमारे देश में प्रतिवर्ष भू-सतह पर गिरने वाले 4000 घन किलोमीटर जल का आधे से दो तिहाई हिस्सा बेकार बह जाता है। दूसरी तरफ तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिये भूजल का अन्धाधुन्ध दोहन तथा पक्के मकानों, फर्शों व पक्की सड़कों के रूप में फैलता कंक्रीट का जंगल भूजल भण्डार के लिये खतरे का संकेत दे रहा है। भूजल के अत्यधिक दोहन से उत्पन्न हुए गम्भीर संकट का मुकाबला करने के लिये देश के कई भागों में वर्षा के पानी के संग्रह की योजना तैयार की गई है। इसके तहत वर्षाकाल में भवनों की छतों से बहने वाले पानी को संग्रहित करने की अनिवार्यता लागू की जा रही है। वस्तुतः ऊपर छत (रूफ टॉप) से वर्षा जल संग्रहण तकनीक गिरते भूजल को बढ़ाने का कारगर कदम है।
आधुनिक युग में भवनों की छत प्रायः आर.सी.सी. आर.बी.सी. की बनाई जाती है जिसमें छत पर एकत्रित होने वाली वर्षा और अन्य जल की निकासी का प्रबन्ध भली-भाँति किया जाता है। कई जगह इसको कुछ निकासी छिद्रों द्वारा नीचे गिरने दिया जाता है और कुछ भवनों में इसे पाइप के द्वारा भू-तल में उतारा जाता है। इस तरह बहने वाले वर्षाजल को पाइप के माध्यम से कुएँ तक लाया जाता है।
इस पाइप का एक किनारा वर्षाजल एकत्रित करने वाले पाइप से बाँधा जाता है तथा दूसरा किनारा कुएँ के अन्दर सुविधाजनक स्थिति में छोड़ा जाता है। कुएँ में छोड़े जाने वाले सिरे के मुँह पर एक प्लास्टिक की महीन जाली लगाई जाती है जिससे कि धूल मिट्टी के कणों को कुएँ में जाने से रोका जा सके। इस विधि को अपनाने से कुओं के जलस्तर में वृद्धि देखी गई। अतः वर्षाजल को छत से एकत्रित करना भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण का प्रभावी कदम है।
1. वर्षा के पानी को स्थानीय जरूरत एवं भौगोलिक स्थितियों के हिसाब से संचित किया जाये।
2. भूमि के अन्दर जल पहुँचाने के लिये जहाँ भी सम्भव हो छोटे-छोटे तालाब बनाकर उनमें वर्षाजल एकत्रित करें।
3. घर की छतों का पानी, घर में टैंक बनाकर एकत्रित करें। स्कूल, कॉलेज और अन्य सरकारी, गैर-सरकारी भवनों की छत का पानी भी व्यर्थ न बहने दें। इमारत के आगे-पीछे जहाँ भी जगह हो टैंक बनाकर छत से बहने वाले पानी को पाइपों से इकट्ठा करने की व्यवस्था करें।
4. तालाब, एनीकट की पाल को दुरुस्त करें जिससे उनमें भरने वाला पानी फालतू न बहे। तालाब, एनीकट की भराव क्षमता बढ़ाने के लिये उसमें से मिट्टी खोदकर बाहर निकालें।
5. पहाड़ी एवं उबड़-खाबड़ भूमि पर मेड़बन्दी करके वहाँ भी जल एकत्रित करें। अपने-अपने खेतों में मेड़बन्दी करें। खेती के लिये पानी भी इकट्ठा होगा, मिट्टी भी बहने से रुकेगी तथा भूजल भी बढ़ेगा।
6. गाँवों में तालाब की खुदाई के लिये श्रमदान में लोगों को जोड़ने से कार्य को जल्दी पूरा किया जा सकता है।
7. हमारे यहाँ पुराने जमाने से ही अनेक जलस्रोत बने हुए हैं। यदि परम्परागत जलस्रोतों को हमने बचाया नहीं तो आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी।
8. पिछले सालों में हमने इनकी अनदेखी करके इन्हें नष्ट कर दिया है। आगे की चिन्ता किये बिना भूगर्भ के जल को निचोड़ते रहे जिससे भूजल का स्तर नीचे चला गया है।
9. गाँव-गाँव और शहर-शहर में बने हुए जलस्रोतों का पुनरुद्धार करें। इनमें जमा कूड़े-कचरे, मिट्टी, कंकड़ को बाहर निकाल फेकें।
10. जलस्रोतों में जल आने के मार्गों को ठीक करें। जल के मार्ग में आने वाले अवरोधों को हटाएँ। हमने जो भूलें की हैं इसका समाधान भी हमें मिलजुल कर करना है। हम एक-एक मिलकर अनेक बन सकते हैं। जब इतने हाथ श्रमदान करेंगे तो जल स्रोत साफ क्यों नहीं रहेंगे।
11. कुएँ, बावड़ी व तालाबों की विरासत हमारे पुरखों ने हमें सौंपी है। अतः पुराने जलस्रोतों की सार सम्भाल करना हमारा दायित्व है।
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