वन संरक्षण अधिनियम कब लागू हुआ
संरक्षित कियाजाना चाहिए।
देश की स्वतंत्र ता के पश्चात राष्ट्रीय वन नीति (1952) घाषित की गई लेकिन वनों के विकास पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। 1970 के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण के प्रति चेतना की जागृति का विकास होने से वन संरक्षण को भी बल मिला। वन संरक्षण अधिनियम (1980) का इस दिशा में विशेष योगदान रहा। सन् 1951 से 1980 के बीच वन भूमियों का अपरदन 1.5 लाख हैक्टेयर प्रति वर्ष था जबकि इस अधिनियम के लागू होने के पश्चात भूमि का अपरदन 55 हजार हैक्टेयर रह गया है। इस अधिनियम को अधिक प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने के लिए इसमें वर्ष 1988 में संशोधन किया गया।5
ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण कानून
भारत में ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण के लिए पृथक अधिनियम का प्रावधान नहीं है। भारत में ध्वनि प्रदूषण को वायु प्रदूषण में ही शामिल किया गया है। वायु (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण ) अधिनियम, 1981 में सन् 1987 में संशोधन करते हुए इसमें ‘ध्वनि प्रदूषकों’ को भी ‘वायु प्रदूषकों’ की परिभाषा के अंतर्गत शामिल किया गया है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 6 के अधिन भी ध्वनि प्रदूषकों सहित वायु तथा जल प्रदूषकों की अधिकता को रोकने के लिए कानून बनाने का प्रावधान है। इसका प्रयोग करते हुए ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 2000 पारित किया गया है। इसके तहत विभिन्न क्षेत्रों के लिए ध्वनि के संबंध में वायु गुणवत्ता मानक निर्धारित किए गए हैं। विद्यमान राष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत भी ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण का प्रवधान है। ध्वनि प्रदूषको को आपराधिक श्रेणी में मानते हुए इसके नियंत्रण के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 तथा 290 का प्रयोग किया जा सकता है। पुलिस अधिनियम, 1861 के अंतर्गत पुलिस अधिक्षक को अधिकृत किया गया है कि वह त्योहारों और उत्सवों पर गालियों में संगीत नियंत्रित कर सकता है।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986
संयुक्त राष्ट्र का प्रथम मानव पर्यावरण सम्मेलन 5 जून, 1972 में स्टाकहोम में संपन्न हुआ। इसी से प्रभावित होकर भारत ने पर्यावरण के संरक्षण लिए पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 पास किया। यह एक विशाल अधिनियम है जो पर्यावरण के समस्त विषयों केा ध्यान में रखकर बनाया गया है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वातावरण में द्यातक रसायनों की अधिकता को नियंत्रित करना व पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण मुक्त रखने का प्रयट्टन करना है। इस अधिनियम में 26 धाराएं है जिन्हें 4 अध्यायों में बाँटा गया है। यह कानून पूरे देश में 19 नवम्बर, 1986 से लागू किया गया। अधिनियम की पृष्ठभूमि व उद्द्श्यों के अंतर्गत शामिल बिन्दुओं के आधार पर सारांश में अधिनियम के निम्न उद्दश्यों हैं:
पर्यावरण का संरक्षण एवं सुधार करना
मानव पर्यावरण के स्टॉकहोम सम्मेलन के नियमों को कार्यान्वित करना
मानव, प्राणियों, जीवों, पादपों को संकट से बचाना
पर्यावरण संरक्षण हेतु सामान्य एवं व्यापक विधि निर्मित करना
विद्यमान कानूनों के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण प्रधिकरणों का गठन करना तथा उनके क्रियाकलापों के बीच समन्वय करना
मानवीय पर्यावरण सुरक्षा एवं स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था करना। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) एक व्यापक कानून है। इसके द्वारा केंद्र सरकार के पास ऐसी शक्तियां आ गई हैं जिनके द्वारा वह पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण व सुधार हेतु उचित कदम उठा सकती है। इसके अंतर्गत केंद्रीय सरकार को पर्यावरण गुणवत्ता मानक निर्धारित करने, औद्योगिक क्षेत्रों को प्रतिबंध करने, दुर्घटना से बचने के लिए सुरक्षात्मक उपाय निर्धारित करने तथा हानिकारक तत्वों का निपटान करने, प्रदूषण के मामलों की जांच एवं शोध कार्य करने, प्रभावित क्षेत्रों का तत्काल निरीक्षण करने, प्रयोगशालाओं का निर्माण तथा जानकारी एकत्रित करने के कार्य सौंपे गए हैं। इस कानून की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पहली बार व्यक्तिगत रूप से नागरिकों को इस कानून का पालन न करने वाली फैक्ट्रियों के खिलाफ केस दर्ज करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
जैव-विविधता संरक्षण अधिनियम, 2002
भारत विश्व में जैव-विविधता के स्तर पर 12वें स्थान पर आता है। अकेले भारत में लगभग 45000 पेड-पौधों व 81000 जानवरों की प्रजातियां पाई जाती है जो विश्व की लगभग 7.1 प्रतिशत वनस्पतियों तथा 6.5 प्रतिशत जानवरों की प्रजातियों में से है। जैव-विविधता संरक्षण हेतु केंद्र सरकार ने 2000 में एक राष्ट्रीय जैव-विविधता संरक्षण क्रियानवयन योजना शुरु की जिसमें गैर सरकारी संगठनों, वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों तथा आम जनता को भी शामिल किया गया। इसी प्रक्रिया में सरकार ने जैव विविधता संरक्षण कानून 2002 पास किया जो इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। वर्ष 2002 में पारित इस कानून का उद्देश्य है-जैविक विविधता की रक्षा की व्यवस्था की जाए उसके विभिन्न अंशों का टिकाऊ उपयोग किया जाए, तथा जीव-विज्ञान संसाधन ज्ञान के उपयोग का लाभ सभी में बराबर विभाजित किया जाये। अधिनियम में, राष्ट्रीय स्तर पर जैव-विविधता प्राधिकरण बनाने का भी प्रावधान है, राज्य स्तरों पर राज्य जैव विविधता बोर्ड स्थापित करने, तथा स्थानीय स्तरों पर जैव-विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना करने का प्रावधान है ताकि इस कानून के प्रावधानों को ठीक प्रकार से लागू किया जा सके।
जैव विविधता कानून (2002) केंद्रीय सरकार को निम्न दायित्व भी सौंपता है:
उन परियोजनाओं का प्रर्यावरणीय प्रभाव जांचना जिनसे जैव विविधता को हानि पहुचने की आशंका हो
जैवतकनीकि से उत्पन्न प्रजातियों के जैव विविधता तथा मानव स्वास्थ्य पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभावों के लिए नियंत्रण तथा उपाय सुनिश्चित करना
स्थानीय लोगो की जैव विविधता संरक्षण की परम्परागत विधियों की रक्षा करना
जैव विविधता अधिनियम (2002) जैव विविधता संरक्षण सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
यह सरकार के साथ-साथ आम लोगों की भागिदारिता भी सुनिश्चित करता है। यह सरकार को नीतिगत, संस्थागत तथा वित्तीय अधिकार प्रदान करता है। साथ ही यह सरकार को जैव विविधता की परम्परागत तकनीकों का सम्मान तथा उनका संरक्षण करने का दायित्व भी सौंपता है।
राष्ट्रीय जलनीति, 2002
21वीं सदी में जल के महत्व को स्वीकारते हुए जल संसाधनों के नियोजन, विकास और प्रंबधन के साथ ही इसके सदुपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ‘राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद’ ने 1 अप्रैल, 2002 को राष्ट्रीय जल नीति पारित की। इसमें जल के प्रति स्पष्ट व व्यावहारिक सोच अपनाने की बात कही गई है। इसके कुछ महत्वपूर्ण बिंदु निम्नलिखित है:
इसमें आजादी के बाद पहली बार नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र संगठन बनाने पर आम सहमति व्यस्त की गई है
जल बंटवारे की प्रक्रिया में प्रथम प्राथमिकता पेयजल को दी गई है। इसके बाद सिंचाई, पनबिजली, आदि को स्थान दिया गया है
इसमें पहली बार जल संसाधनों के विकास और प्रबंध पर सरकार के साथ-साथ सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कही गई है
इसमें पहली बार किसी भी जल परियोजना के निर्माण काल से लेकर परियोजना पूरी होने के बाद भी उसके मानव जीवन पर पड़ने वाले असर का मूल्यांकन करने को कहा गया है
जल के बेहतर उपयोग व बचत के लिए जनता में जागरूकता बढ़ाने एवं उसके उपयोग में सुधार लाने के लिए पाठयक्रम, पुरस्कार आदि के माध्यम से जल संरक्षण चेतना उत्पन्न करने की बात कही गई है
मानव जीवन के लिए जल के अति महत्व को देखते हुए, पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने और सभी प्रकार की आर्थिक एवं विकासशील गतिविधियों के लिए और इसकी बढ़ती कमी को ध्यान में रखते हुए इसका उचित प्रबंधन तथा न्यायसंगत उपयोग करना अनिवार्य हो गया है। राष्ट्रीय जल नीति की सफलता पूर्णत: इसमें निहित सिद्धांतों एवं उद्देश्यों पर राष्ट्रीय सर्वसम्मित तथा वचनबद्धता बनाए रखने पर निर्भर करेगी ।
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004
पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने दिसम्बर 2004 को राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2004 का ड्राफ्ट जारी किया है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि समस्याओं को देखते हुए एक व्यापक पर्यावरण नीति की आवश्यकता है। साथ ही वतर्मान पर्यावरणीय नियमों तथा कानूनों को वतर्मान समस्याओं के संदर्भ में संशोधन की आवश्यकता को भी दर्शाया गया है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के निम्न मुख्य उद्देश्य रखे गये हैं:
संकटग्रस्त पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना
पर्यावरणीय संसाधनों पर सभी के विशेषकर गरीबों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करना
संसाधनों का न्यायोचित उपयोग सुनिश्चित करना ताकि वे वतर्मान के साथ-साथ भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकें
आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों के निर्माण में पर्यावरणीय संदर्भ को ध्यान में रखना
संसाधनों के प्रबंधन में खुलेपन, उत्तरदायित्व तथा भागिदारिता के मूल्यों को शामिल करना
उपरोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति विभिन्न संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय, राज्य तथा स्थानीय स्तर पर विभिन्न तकनीकों को अपनाकर करने का प्रावधान किया गया है। इनकी प्राप्ति के लिए सरकार, स्थानीय समुदाय तथा गैर सरकारी संगठनों की साझी भागीदारी भी सुनिश्चित की गई है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ड्राफ्ट नीति में कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत भी दिये गये हैं, जैसे:
प्रत्येक मानव को एक स्वस्थ्य पर्यावरण का अधिकार है
सतत विकास का केंद्र बिंदु मानव है
विकास के अधिकार की प्राप्ति पर्यावरणीय जरूरतों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए
प्रदूर्षणकर्ता को पर्यावरण हानि की क्षतिपूर्ती के नियम का पालन करना
स्थानीय संस्थाओं को पर्यावरण संरक्षण के लिए शक्तिशाली बनाना
वन अधिकार अधिनियम, 2006
वन अधिकार अधिनियम (2006), वन संबंधी नियमों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो 18 दिसम्बर, 2006 को पास हुआ। यह कानून जंगलों में रह रहे लोगों के भूमि तथा प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार से जुड़ा हुआ है जिनसे, औपनिवेशिक काल से ही उन्हें वंचित किया हुआ था। इसका उद्देश्य जहां एक ओर वन संरक्षण है वहां दूसरी ओर यह जंगलों में रहने वाले लोगों को उनके साथ सदियों तक हुए अन्याय की भरपाई का भी प्रयास है। इस कानून के मुख्य प्रावधान निम्न है:
यह जंगलों में निवास करने वाले या वनों पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों की रक्षा करता है
यह उन्हें चार प्रकार के अधिकार प्रदान करता है:
जंगलों में रहने वाले लोगों तथा जनजातियों को उनके द्वारा उपयोग की जा रही भूमि पर उनको अधिकार प्रदान करता है
उन्हें पशु चराने तथा जल संसाधनों के प्रयोग का अधिकार देता है
विस्थापन की स्थिति में उनके पुर्नस्थापन का प्रावधान करता है
जंगल प्रबंधन में स्थानीय भागिदारी सुनिश्चित करता है
जंगल में रह रहे लोगों का विस्थापन केवल वन्यजीवन संरक्षण के उद्देश्य के लिए ही किया जा सकता है। यह भी स्थानीय समुदाय की सहमति पर आधारित होना चाहिए|
वन संरक्षण अधिनियम (2006) स्थानीय लोगों का भूमि पर अधिकार प्रदान कर वन संरक्षण को बढ़ावा देता है। यह वन भूमि पर गैर कानूनी कब्जों को रोकता है तथा वन संरक्षण के लिए स्थानीय लोगों के विस्थापन को अंतिम विकल्प मानता है। विस्थापन की स्थिति में यह लोगों का पुर्नस्थापन का अधिकार भी प्रदान करता है।
पर्यावरण संरक्षण में न्यायपालिका की भूमिका, भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में न्यायपालिका द्वारा महत्वपूर्ण पहल की गई है। जीवन का अधिकार जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 21 में है, की सकारात्मक व्याख्या करके, न्यायपालिका ने इस अधिकार में ही ‘स्वस्थ्य पर्यावरण के अधिकार’ को निहित घोषित किया है। सामाजिक हित, विशेषकर पर्यावरण के संरक्षण के प्रति, न्यायपालिका की वचनबद्धता के कारण ही ‘जनहित मुकद्दमों ’ का विकास हुआ। भारतीय न्यायपालिका ने 1980 से ही पर्यावरण-हितेषी दृष्टिïकोण अपनाया है। न्यायपालिका ने विविध मामलों में निणर्य देते हुए यह स्पष्ट किया है कि गुणवतापूर्ण जीवन की यह मूल आवश्यकता है कि मानव स्वच्छ पर्यावरण में जीवन व्यतीत करे।
पर्यावरण के अधिकार को न्यायिक मान्यता देहरादून की चूने की खान के मामले (ग्रामीण मुकदमेबाजी बनाम उत्तर प्रदेश) में 1987 में दी गई, तथा 1987 में ही श्रीराम गैस रिसाव के मामले (एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ) में इस बात पर पुन: बल दिया गया। न्यायपालिका ने अनेक ऐसे मामलों की सुनवाई भी की है जिनमें पर्यावरण के लक्ष्यों तथा विकास की आवश्यकताओं में तालमेल बैठाया गया। अधिकांश मामलों में न्यायपालिका का विचार रहा है कि हालॉकि विकास के महत्व को गौण स्थान नहीं दिया जा सकता, फिर भी पर्यावरण की कीमत पर विकास को तवज्जों नही दी जा सकती, भले ही इस प्रक्रिया में अल्पकालीन हानि हो जैसे कुछ नौकरियों या राजस्व की हानि आदि। पर्यावरण संरक्षण पर न्यायपालिका के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय निम्नलिखित है :
देहरादून की चूना खान का मामला, 1987
इस मामले का संबंध दून घाटी में चूने की खानों द्वारा पर्यावरण को हो रहे गंभीर खतरे से था। सर्वोच्च न्यायलय ने आदेश दिया कि उन सभी खानों में कार्य बंद कर दिया जाए जहां वे खतरनाक स्थिति में थी, फिर चाहे ऐसा करने से खान मालिकों और खानकर्मियों को आर्थिक हानि ही क्यों न हो। ऐसा करना जनसाधारण केा स्वस्थ पर्यावरण में रहने के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए आवश्यक था चाहे इसके लिए कोई भी मूल्य क्यों न चुकाना पड़े।
श्रीराम गैस रिसाव मामला, 1987
श्रीराम गैस रिसाव मामले में न्यायलय ने आदेश दिया कि उस जोखिम भरे कारखाने को तुरंत बंद किया जाए जिसमें गैस रिसाव के कारण एक कर्मी की मौत हो गई तथा अन्य लोगों का जीवन संकट में पडा। न्यायलय ने कहा कि राज्य के पास अधिकार है कि जोखिम-भरी औद्योगिक गतिविविधयों पर रोक लगा सके, ताकि जनसाधारण के स्वच्छ पर्यावरण में रहने के अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके। इस मामले में न्यायलयने पूर्ण दायित्व के सिधांत का विकास किया ताकि अनुच्छेद 21 की व्याख्या के अनुसार मुआवजा दिया जा सके। इसके अतिरिक्त, न्यायलय ने यह भी कहा कि जीवन के अधिकार में प्रदूषण के जोखिम से पीड़ित व्यक्तियों को मुआवजा माँगने का अधिकार भी निहित है।
गंगा प्रदूषण मामला, 1988
गंगा प्रदूषण मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने अनेक चमड़े के उद्योगों को जो गंगा के तट पर प्रदूषण फैला रहे थे यह आदेश दिया कि वे या तो प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र स्थापित करें या फिर अपने कारखाने बंद कर दें। न्यायलय ने गंगा के किनारे स्थित लागभग 5000 उद्यमों को आदेश दिया कि वे बहने वाले मल को स्वच्छ करने वाले संयंत्र लगाएं तथा प्रदूषण को रोकने वाले उपक्रमों की व्यवस्था भी करें।
पत्थर पीसने वालों का मामला, 1992
इस केस में सर्वोक्वच न्यायलयने दिल्ली में पत्थर पीसने वाली इकाइयों को ब<द कर, हरियाणा के पत्थर पीसने वाले क्षेत्र में स्थापित करने का आदेश दिया। न्यायलयके अनुसार पर्यावरण की गुणवत्ता इस सीमा तक नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि वह उस क्षेत्र में निवास करने वालों के स्वास्थय के लिए खतरनाक बन जाए।
पर्यावरण जागरूकता मामला, 1992
इस मामले में सर्वोक्वच न्यायलय ने देश में पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता का प्रासर करने के निर्देश दिये। इन उपायों में स्कूलों में कक्षा एकसे बाहरवीं तक पर्यावरण को अनिवार्य विषय के रूप में पढाने की व्यवस्था, विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में पर्यावरण शिक्षा का प्रावधान, सिनेमाघरों में पर्यावरण विषय पर संदशों का प्रसार-प्रचार तथा दूरदर्शन एवं रेडियों पर पर्यावरण कार्यक्रमों के प्रसारण शामिल हैं।
दिल्ली वाहन प्रदूषण मामला, 1994
इस मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने दूरगामी निर्देश देकर केंद्र सरकार से कहा है कि वह वाहनों द्वारा फैलाए जाने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए प्रभावी उपाय करें। इन उपायों में शामिल थे सीसा-मुक्त पर्यावरण-हितैषी पैट्रोल का प्रवधान सार्वजनिक परिवहन के वाहनों के अनिवार्य रूप से सी.एन.जी ईंधन पर चलाया जाना, और दिल्ली की सडक़ों पर 15 वर्ष से अधिक पुराने वाहनों के चलाने पर प्रतिबंध।
ताजमहल का मामला, 1997
इस मामले में सर्वोच्च न्यायलयने आदेश दिया कि ताजमहल के आस-पास 10,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में किसी कोयला आधारित उद्योग की अनुमति नहीं होगी। प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से कहा गया कि वे या जो स्वच्छ ईधन का प्रयोग करें या फिर सुरक्षित क्षेत्र से बाहर अपने कारखाने हस्तांतरित करें। केंद्र सरकार और राज्य सरकार केा निर्देश दिया गया कि ताजमहल के आस-पास हरित पट्टी की व्यवस्था करें, और बिना रूकावट के बिजली की आपूर्ति की जाए ताकि डीजल से चलाए जाने वाले जनरेटरों की आवश्यकता न पड़े।
दिल्ली की प्रदूषित औद्योगिक इकाइयों की बंदी तथा स्थानांतरण का आदेश, 1996
यह केस एम.सी. मेहता की एक याचिका से 1985 में शुरू हुआ जिसमें कहा गया था कि दिल्ली में 1 लाख से अधिक औद्योगिक इकाइयां वातावरण को प्रदूषित कर रही है जो नागरिकों के स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पहुंचा रहें हैं सर्वोच्च न्यायलय ने याचिका की सुनवाई करते हुए 8 जुलाई, 1996 को अपना निर्णय सुनाते हुए औद्योगिक ईकाइयों को दिल्ली के पर्यावरण के साथ-साथ आम नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ठहराते हुए 168 बड़ी प्रदूषणकारी इकाइयों को दिल्ली से स्थानांतरित या बंद करने का आदेश दिया।
उपरोक्त मामलों के अलावा जिन अन्य विषयों पर जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायपालिका ने निर्णय किए उनमें शामिल हैं: नगरों के ठोस मलबे का प्रबंधन, दिल्ली के भूमिगत पानी में होती कमी, कोलकाता में हुगली नदी के साथ स्थापित प्रदूषण फैलानेवाले उद्योगों केा बंद करने, पशुओं के प्रति दया, जनजातीय लोगों तथा मछुआरों के विशेषाधिकार, हिमालय तथा वनों की पारिस्थितिकी व्यवस्था, पारिस्थितिकी पर्यटन, भूमि के प्रयोग के प्रतिमान तथा विकास योजनाएँ इत्यादि।
पर्यावरण संरक्षण की प्रक्रिया में न्यायलय द्वारा दिए गए कुछ महत्त्वपूर्ण मौलिक नियम निम्नलिखित हैं:
प्रत्येक नागरिक को स्वच्छ पर्यावरण में जीने का मौलिक अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गये ‘जीवन जीने के अधिकार’ में निहित है|
सरकारी एजेसियाँ पर्यावरणीय कानूनों के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा न करने के लिए वित्तिय या कर्मचारियों की कमी का बहाना नहीं दे सकतीं|
प्रदूषणकर्ता द्वारा आदयगी का सिद्धान्त पर्यावरणीय कानून का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है जिसका तात्पर्य है कि प्रदूषणकर्ता न केवल पर्यावरण की क्षतिपूर्ति के लिए बल्कि प्रदूषण से प्रभावित लोगों को हुई हानि की भी भरपाई करेगा|
पूर्ण दायित्व के नियम के अनुसार यदि कोई उद्योग किसी ऐसे खतरनाक व्यवसाय में रत है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को खतरा है तब उसका यह पूर्ण दायित्व बन जाता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उस कार्य से किसी केा किसी प्रकार का संकट न हो। यदि उस कार्य से किसी को हानि पहुँचती है तो वह उद्योग उस हानि की पूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा।
पूर्व सर्तकता या पूर्व चेतावनी सिधांत के अनुसार सरकारी अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे पर्यावरणीय प्रदूषण के कारणों की पूर्व कल्पना करें उनसे पर्यावरण की सुरक्षा करें। यह सिधांत उद्योगपतियों पर यह उत्तरदायित्व डालता है कि वे यह स्पष्टï करें कि उनके कार्य पर्यावरणीय दृष्टिकोण से हानिकारक नहीं हैं।
आर्थिक गतिविधियॉं लोगों के स्वास्थ्य तथा जीवन की कीमत पर नही चल सकती। पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता।
1980 तथा 1990 के दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जन हित याचिकाओं का आधिकाधिक प्रयोग हुआ। इस प्रक्रिया में पर्यावरण-समर्थक वकिलों जैसे एम.सी.मेहता तथा न्यायाधीशों कुलदीप सिंह तथा कृष्णा अययर का विशेष योगदान रहा। पर्यावरण सुरक्षित रखने के कार्य में, सर्वोच्च न्यायलय तथा उच्च न्यायलय के आरंभिक क्षेत्राधिकार के संविधान के अनुच्छेद 32 और 326 को आधार बनाकर महत्त्वपूर्ण उपाय किए गए। इसके अतिरिक्त न्यायालयों ने स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के मूल अधिकार के क्षेत्र का भी विस्तार किया है।
निष्कर्ष
भारत संसार के उन थोडे से देशों में से एक है जिनके संविधानों में पर्यावरण का विशेष उल्लेख है। भारत ने पर्यावरणीय कानूनों का व्यापक निर्माण किया है तथा हमारी नीतियाँ पर्यावरण संरक्षण में भारत की पहल दर्शाती हैं। पर्यावरण संबंधी सभी विधेयक होने पर भी भारत में पर्यावरण की स्थिति काफी गंभीर बनी हुई है। नाले, नदियां तथा झीलें औद्योगिक कचरे से भरी हुइ हैं। दिल्ली में यमुना नदी एक नाला बनकर रह गई है। वन क्षेत्र में कटाव लगातार बढता जा रहा है जिसके परिणाम हमें हाल ही में बिहार में आई भीषण बाढ़ के रूप में स्पष्ट देखने को मिलता है। भारत में जिस प्रकार से पर्यावरण कानूनों केा लागू किया जा रहा है उसे देखते हुए लगता है कि इन कानूनो के महत्त्व केा समझा ही नहीं गया है। इस दिशा में पर्यावरण नीति (2004) को गंभीरता से लागू करने की आवश्यकता है। पर्यावरण को सुरक्षित करने के प्रयासों में आम जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित करने की जरूरत है।
पर्यावरण संरक्षण में न्यायपालिका ने भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके प्रयासों से स्वच्छ पर्यावरण मौलिक अधिकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। दिल्ली में प्रदूषित इकाइयों की बंदी तथा स्थांनातरण, सी.एन.जी का प्रयोग, ताजमहल को प्रदूषण से बचाना, पर्यावरण को शैषणिक पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग बनाना तथा संचार माध्यमों के द्वारा पर्यावरण के महत्त्व का प्रचार-प्रसार आदि न्यायपालिका के सराहनीय प्रयासों की एक झलक है। जनहित याचिकाओं ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में गैर-सरकारी संगठनों, नागरिक समाज तथा आम आदमी की भागीदारों केा प्रोत्साहित किया है। यह इसके प्रयासों का ही फल है कि आज सरकार तथा नीति निर्माताओं की सूची में पर्यावरण प्रथम मुद्दा है तथा वे पर्यावरण संरक्षण के प्रति गंभीर हो गये हैं।
सन् 1980 ई0 में। यह अधिनियम भारतीय वन अधिनियम 1927 का संशोधित रूप कहा जा सकता है।
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