विधवा विवाह पर निबंध
आधुनिक काल में शिक्षित समाज में विधवा पुनर्विवाह को बुरा नहीं समझा जाता परन्तु कट्टर धार्मिक लोगों और देहाती, अनपढ़ समाज में विधवाओं की दशा अब भी बड़ी शोचनीय है । अतः विधवा पुनर्विवाह की समस्या किसी न किसी रूप में अब भी उपस्थित है । वैदिक साहित्य में विधवा पुनर्विवाह का निरोध नहीं मिलता ।
अथर्ववेद में विधवा के पुनर्विवह का उल्लेख है । अल्टेकर ने लिखा है- ”नियोग के साथ-साथ विधवा पुनर्विवाह भी वैदिक समाज में प्रचलित था ।” वशिष्ठ ने विधवा पुनर्विवाह को स्वीकृति दी है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में विधवा पुनर्विवाह को स्वीकार किया गया है । उच्छंग जातक की कथाओं में भी विधवा पुनर्विवाह का आभास मिलता है ।
विधवा पुनर्विवाह की समस्या की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
अतः यह स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में विधवा पुनर्विवाह का निषेध नहीं अथवा बहुत कम था । 300 ई. पू. से ईसा के 200 वर्ष पश्चात् तक के काल में विधवा पुनर्विवाह को अनुचित माने जाने के प्रमाण मिलते हैं । इस काल में विधवा पुनर्विवाह पर कठोर प्रतिबन्ध हो गये ।
परन्तु विधवा पुनर्विवाह का अधिक प्रबल विरोध ईसा के 600 वर्ष पश्चात् से प्रारम्भ हुआ और 1000 वर्ष बाद तो बाल विधवाओं का विवाह भी बन्द हो गया । विधवाओं का जीवन नर्क बन जाने के कारण अधिकांश स्त्रियाँ पति के साथ जल मरना बेहतर समझती थीं ।
परन्तु विधवा पुनर्विवाह का यह निषेध भारत मैं सार्वभौम कभी नहीं रहा । नीची जातियों में विधवा पुनर्विवाह का निषेध है जो कि ऊँची जातियों में था । उनमें इसको घृर्णित ही नहीं बल्कि अवैध माना जाता था ।
विधवा पुनर्विवाह के इस निषेध के अनेक नैतिक तथा सामाजिक परिणाम दिखलाई पड़े ।
मुख्य नैतिक प्रभाव निम्नलिखित हैं:
विधवा पुनर्विवाह के निपेक्ष के नैतिक प्रभाव:
(i) अनैतिकता की वृद्धि:
विधवा पुनर्विवाह के निषेध का सबसे पहला प्रभाव समाज में अनैतिकता और व्यभिचार का फैलना है । काशी में एक कहावत प्रचलित है ”राँड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी । इनसे बचे सो सेवे काशी ।” यौवन की प्यास बुझाने के लिये कोई वैध उपाय न होने के कारण विधवायें अवैध सम्बन्ध स्थापित करती हैं ।
पर्दे की आड़ में व्यभिचार पलता है और बदनामी से बचने के लिये हजारों भ्रूण हत्यायें तथा गर्भपात होते है । आजकल गर्भ निरोधक औषधियों के आविष्कार से यह भ्रष्टाचार और भी सुलभ हो गया है । वास्तव में बाल विधवाओं से जीवन भर कठोर बह्मचर्य के पालन की आशा रखना मानव मनोविज्ञान के प्रति अज्ञान का परिचायक है । विधवा पुनर्विवाह का विरोध एक अमनोवैज्ञानिक माँग है और समाज के लिये हानिकारक सिद्धान्त है ।
(ii) की वृद्धि:
विधवा पुनर्विवाह के विरोध का दूसरा अनैतिक दुष्परिणाम की संख्या में वृद्धि है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से शब्द की उत्पत्ति रण्डा या रांड शब्द से हुई है जो कि विधवा के लिये प्रयोग किया जाता है । जब विधओं के व्यभिचार का पाप छिपाये नहीं छिपता तो क्रूर पुरुष उनको घर से निकाल देते हैं ।
असहाय और बदनाम विधवा के पास के अतिरिक्त जीविकोपार्जन का कोई दूसरा सहारा नहीं रहता । अतः गुण्डों के चक्कर में आकर वे बन जाती हैं । विधवा विवाह के विरोध के इन्हीं भयंकर परिणामों को देखकर महात्मा गाँधी जी ने लिखा है कि वांछित वैधव्य भयंकर अभिशाप है ।
विधवा पुनर्विवाह के निषेध के सामाजिक प्रभाव:
सामान्यतया विधवा विवाह के निषेध के उपरोक्त दोनों प्रभाव सामाजिक प्रभावों में भी आ सकते हैं । केवल सुविधा की दृष्टि से उनका वर्णन अलग किया गया है ।
विधवा विवाह के निषेध के अन्य सामाजिक प्रभाव निम्नलिखित हैं:
(i) समाज की संख्या वृद्धि में कमी:
बंगाल में विभाजन से पहले सन्तानोत्पादन में समर्थ विधवाओं की संख्या स्त्रियों की कुल संख्या का एक चौथाई थी । उनके पुनर्विवाह का निषेध होने के कारण हिन्दू समाज का भारी जातीय हास हुआ है । 1881 से 1911 तक भारत में मुसलमानों की संख्या में 26.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई ।
किन्तु हिंदूओं में केवल 15.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई । अतः विधवा पुनर्विवाह का निषेध हिन्दू समाज की संख्या वृद्धि में कमी करना है क्योंकि बहुत सी विधवायें विवाह करने के लिए मुसलमान बन जाती थीं अथवा मुसलमान युवकों के साथ घर से भाग जाती थीं ।
(ii) धर्म परिवर्तन:
इस प्रकार विधवा पुनर्विवाह के निषेध का दूसरा बड़ा दुष्परिणाम उनके धर्म परिवर्तन के लिये बाध्य करने के रूप में सामने आया है । हिन्दू रहते किसी विधवा को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी । अत: विवाह की तीव्र इच्छा होने पर उसको बाध्य होकर मुस्लिम या ईसाई होना पड़ता था ।
भारत की 1911 की गणना रिपोर्ट के अनुसार यद्यपि आजकल मुल्लाओं द्वारा मुसलमान बनाने की नियमबद्ध संस्थायें नहीं हैं परन्तु फिर भी कुछ लोग सदैव मुसलमान बनते रहते हैं । मुसलमानों के प्रेम में पड़कर अनेक विधवायें मुसलमान बनकर उनसे विवाह कर लेती हैं । इस प्रकार के प्रेम के खुल जाने पर भी यही परिणाम होता है ।
आजकल अधिकांश शिक्षित व्यक्ति विधवा पुनर्विवाह को सर्वथा उचित मानते हैं परन्तु फिर भी कुछ लोग इसमें शंका उठाते हैं । अतः विधवा पुनर्विवाह के औचित्य का विवेचन करना प्रासंगिक होगा । इसके लिये इस विषय के नैतिक तथा सामाजिक दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक है ।
विधवा पुनर्विवाह के नैतिक औचित्य के विषय में निम्नलिखित बातें कही जा सकती हैं:
1. विधवा पुनर्विवाह का नैतिक पक्ष:
(a) बाल विधवाओं का उद्धार:
इससे आये दिन के अत्याचार से बाल विधवाओं का उद्धार हो जायेगा । बाल विधवाओं को यह भी ज्ञात नहीं होता कि विवाह क्या है ? उन्हें उसके सुख का कोई अनुभव नहीं होता । वे भी अपनी आयु की अन्य लड़कियों के समान खाना पहनना और शृंगार करना चाहती हैं । उनको इन सब निर्दोष कामों से बलात रोकना उन पर भारी अत्याचार है ।
यह उनके व्यक्तित्व के विकास को रोक कर उनको समाज की रूढ़ियों के सामने बलिदान कर देना है । अतः यह घोर अनैतिकता है । नैतिकता का तकाजा है कि जो विधवायें विवाह करना चाहें उन्हें इसकी स्वतन्त्रता दी जाए क्योंकि उनका वैधव्य स्वयं उनका अपराध नहीं है । उनके निर्दोष होते हुये भी उनसे मानस सुलभ अधिकार छीन लेना सर्वथा अनैतिक है और किसी भी व्यक्ति अथवा समाज को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है ।
(b) अनैतिकताओं का उन्मूलन:
विधवा पुनर्विवाह के प्रचलित हो जाने पर समाज की बहुत सी अनैतिकता का उन्मूलन हो सकेगा । इससे विधवाओं को अपनी कामवासनाओं की तृप्ति के लिये लुक छिपकर अनुचित सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता नहीं करनी पड़ेगी, इससे वे भी पत्नी और माँ बन सकेंगी और उन्हें भ्रूण हत्या नहीं करनी पड़ेगी, नहीं बनना पड़ेगा ।
इससे उनको आश्रय मिल जायेगा और उन्हें बेसहारा अपनी इज्जत बेचकर जीवन निर्वाह नहीं करना पड़ेगा । इससे विवाह की इच्छा होने पर वे विवाह कर सकेंगी, उसके लिये उनको मुस्लिम या ईसाई नहीं बनाना पड़ेगा । इससे वे दुष्ट और गुण्डे लोगों के चंगुल से बची रहेंगी और सुरक्षा तथा गौरव के साथ जीवन व्यतीत कर सकेंगी ।
विधवा पुनर्विवाह से विधवाओं को मनुष्य बनकर जीने का अधिकार मिलेगा, उनको समानता और स्वतन्त्रता मिलेगी तथा वे अच्छी पत्नियाँ और अच्छी मातायें बनकर देश और समाज की सेवा कर सकेंगी । इस प्रकार विधवा पुनर्विवाह से समाज से अनाचार, दुराचार, गर्भपात, भ्रूण हत्या तथा वेश्यावृति को रोकने में बड़ी सहायता मिलेगी । अतः नैतिक दृष्टि से विधवा पुनर्विवाह सर्वथा न्यायोचित है ।
2. विधवा पुनर्विवाह का सामाजिक पक्ष:
विधवा पुनर्विवाह का एक सामाजिक पक्ष भी है ।
इस सामाजिक पक्ष में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं:
(I) हिंदू समाज की संख्या वृद्धि:
विधवा पुनर्विवाह का सबसे पहला परिणाम यह होगा कि उन स्त्रियों से जो सन्तानें उत्पन्न होंगी उनसे समाज की संख्या बढ़ेगी । विधवा पुनर्विवाह न होने पर इतने बच्चों को गर्भ अथवा भ्रूण रूप में ही समाप्त कर दिया जाता अथवा वे मुस्लिम या ईसाई समाज की संख्या बढ़ाते ।
(II) धर्म परिवर्तन का विरोध:
विधवा पुनर्विवाह की छूट होने पर विधवाओं को विवाह की इच्छा होने पर मुस्लिम या ईसाई नहीं बनना पड़ेगा और इस प्रकार धर्म परिवर्तन की विभीषिका समाप्त हो जायेगी ।
(III) अनैतिकता से समाज की रक्षा:
विधवा पुनर्विवाह से उस अनैतिकता और व्यभिचार से समाज की रक्षा होगी जो उनके अविवाहित रहने पर फैलता है । इससे बाल विधवाओं पर होने वाले अमानुषिक अत्याचारों का अन्त हो जायेगा ।
(IV) समाज में की कमी:
विधवा पुनर्विवाह की छूट होने से समाज उन से बच जायेगा जो वैधव्य के कारण वेश्यायें बनने पर बाध्य की जाती है । इससे समाज में अनैतिकता कम होगी ।
3. विधवा पुनर्विवाह का कानूनी पक्ष:
विधवा पुनर्विवाह के नैतिक तथा सामाजिक पक्षों के विवेचन के साथ-साथ उसके कानूनी पक्ष का विवेचन भी प्रासंगिक होगा ।
कानूनी पक्ष में महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं:
(क) मृत पति की सम्पत्ति में अधिकार की समाप्ति:
पुनर्विवाह कर लेने पर विधवा को गोत्रज, सपिण्ड अथवा किसी अन्य हैसियत से मृत पति की सम्पत्ति में गुजारे अथवा अन्य किसी भी काम के लिये किसी प्रकार की सम्पत्ति पाने का अधिकार नहीं रहता ।
(ख) नये परिवार में सब कानूनी अधिकार:
पुनर्विवाह करने पर विधवा को नये पति के परिवार में सम्पत्ति तथा अन्य बातों के विषय में वे सब अधिकार प्राप्त होते हैं जो उसको परिवार में पहली बार विवाह करने में प्राप्त होते ।
श्री ईश्वरचन्द्र विद्यागर के प्रयत्नों से पास हुए सन् 1856 के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम से विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया गया है ।
इस अधिनियम से इस विषय में निम्नलिखित बातें स्वीकार की गई:
(1) धारा एक के अनुसार विधवा विवाह और उससे उत्पन्न सन्तान को वैध घोषित किया गया ।
(2) धारा दो के अनुसार दूसरा विवाह करने पर विधवा को मृत पति की सम्पत्ति में किसी प्रकार से कोई भी हिस्सा पाने का अधिकार नहीं रहा ।
(3) पुनर्विवाह करने के पहले धर्म परिवर्तन कर लेने से पहले पति की सम्पत्ति में अधिकार के प्रश्न पर हाई कोर्टों में मतभेद है । इलाहाबाद हाई कोर्ट के अनुसार उसे मृत पति की सम्पत्ति में अधिकार मिलना चाहये क्योंकि उसने हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम के अन्तर्गत विवाह नहीं किया है ।
बम्बई तथा अन्य भारतीय हाई कोर्टों के अनुसार धर्म-परिवर्तन करने के बाद भी उस पर यह कानून लागू होता है और इसलिए उसको मृत पति की सम्पत्ति में अधिकार नहीं मिलेगा ।
(4) हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम की 5वीं धारा के अनुसार विधवा को पुनर्विवाह करने के बाद नये पति के परिवार में वे सब अधिकार प्राप्त होंगे जो कि उसे परिवार में पहली बार विवाह करने से होते ।
(5) इस अधियम की 7वीं धारा के अनुसार यदि विधवा अवयस्क है और उसका पहला विवाह पूर्ण नहीं हुआ है तो वह पिता की अनुमति के बिना विवाह नहीं कर सकती । पिता के न होने पर दादा की, दादा के न होने पर माता की और माता के न होने पर बड़े भाई की सहमति लेनी पड़ेगी ।
(6) उपरोक्त धारा 7 के विरुद्ध विवाह करने पर सिविल कोर्ट उसे अवैध घोषित कर सकता है । धारा 7 के विरुद्ध अर्थात् इन सम्बन्धियों की आज्ञा लिये बिना विधवा को विवाह करने को प्रोत्साहित करने वाले व्यक्ति को जेल और जुर्माना दोनों की सजा हो सकती है । परन्तु यदि विधवा वयस्क हो अथवा उसका विवाह पूर्ण हो चुका हो तो धारा 8 के अनुसार पुनर्विवाह को अवैध नहीं घोषित किया जा सकता ।
कानूनी स्वीकृति के साथ-साथ समाज सुधारकों ने भी विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन दिया है । पिछली आधी शताब्दी में आर्य समाज तथा अन्य संस्थाओं ने इस विषय में जनता में जागृति उत्पन्न की है । आजकल हिन्दू समाज में एक बड़े वर्ग में विधवा पुनर्विवाह को बुरा नहीं समझा जाता ।
उत्तर प्रदेश की सामाजिक परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए पिछली शताब्दी के अन्त में क्रुक ने लिखा था कि विधवा विवाह 76 प्रतिशत जातियों में प्रचलित है और उनमें इसे बढ़ावा दिया जाता है । केवल 24 प्रतिशत जातियाँ विधवा विवाह का निषेध करती हैं ।
वास्तव में आजकल लगभग सभी जातियों में विधवा विवाह को स्वीकार कर लिया गया है । कुछ ऊँची जातियों में कुछ रूढ़िवादी लोग इसे अब भी अनुचित समझते हैं अन्यथा अब यह बुरा नहीं माना जाता । उत्तरी बिहार में ब्राह्मणों कायस्थों व राजपूतों को छोड़कर अन्य सभी में विधवा विवाह प्रचलित है ।
बिहार के बनियों तथा बंगाल के नाम शूद्रों में यह मान्य है । मेन ने लिखा है कि दक्षिणी भारत की अधिकतर नीची जातियों में विधवा विवाह की प्रथा है । उत्तरी भारत के जाटों में पति के मरने के बाद उसका भाई उसका पति बन सकता है । गूजर, अहीर, कुरमी, गड़रिया आदि सभी जातियों में विधवा विवाह परम्परा से होता आया है ।
दार्जिलिंग तथा आसाम की कुछ इनी गिनी ऊँची जातियों को छोड़कर सब कहीं विधवा विवाह की प्रथा है, भाभी विवाह के रूप में यह भारत की बहुत सी जातियों में पाया जाता है । आजकल पाश्चात्य सभ्यता तथा आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से पड़े लिखे लोगों में विधवा विवाह का विरोध नहीं के बराबर है । शिक्षा के सार्वभौम प्रचार से यह बचा-कुचा विरोध भी शीघ्र समाप्त हो जायेगा ।
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Mumbia me Rehta Hoon agar koi Muslim vidhva Hai To shaadi karna chahta hun 22 se 30
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