नागणेची माता इतिहास
राठौड वंश की कुल देवी माँ नागणेची जी का इतिहास
एक बार बचपन में राव धुहड जी ननिहाल गए , तो वहां उन्होने अपने मामा का बहुत बडा पेट देखा ।
बेडोल पेट देखकर वे अपनी हँसी रोक नही पाएं ।
और जोर जोर से हस पडे ।
तब उनके मामा को गुस्सा आ गया और उन्होने राव धुहडजी से कहा की सुन भांनजे । तुम तो मेरा बडा पेट देखकर हँस रहे हो
किन्तु तुम्हारे परिवार को बिना कुलदेवी देखकर सारी दुनिया हंसती है
तुम्हारे दादाजी तो कुलदेवी की मूर्ति भी साथ लेकर नही आ सके
तभी तो तुम्हारा कही स्थाई ठोड-ठिकाना नही बन पा रहा है
मामा के ये कडवे बोल राव धुहडजी के ह्रदय में चुभ गये
उन्होने उसी समय मन ही मन निश्चय किया की मैं अपनी कूलदेवी की मूर्ति अवश्य लाऊगां ।
और वे अपने पिताजी राव आस्थानजी के पास खेड लोट आए
किन्तु बाल धुहडजी को यह पता नही था कि कुलदेवी कौन है
उनकी मूर्ति कहा है ।और वह केसे लाई जा सकती है ।
आखिर कार उन्होने सोचा की क्यो न तपस्या करके देवी को प्रसन्न करूं ।
वे प्रगट हो कर मुझे सब कुछ बता देगी ।
और एक दिन बालक राव धुहडजी चुपचाप घर से निकल गये ।और जंगल मे जा पहुंचे ।
वहा अन्नजल त्याग कर तपस्या करने लगे ।
बालहट के कारण आखिर देवी का ह्रदय पसीजा ।
उन्हे तपस्या करते देख देवी प्रकट हुई ।
तब बालक राव धुहडजी ने देवी को आप बीती बताकर कहा की हे माता मेरी कुलदेवी कौन है ।और उनकी मूर्ति कहा है ।
और वह केसे लाई जा सकती है ।
देवी ने स्नेह पूर्वक उनसे कहा की सून बालक
तुम्हारी कुलदेवी का नाम चक्रेश्वरी है ।और उनकी मूर्ति कन्नौज मे है ।
तुम अभी छोटे हो ,बडे होने पर जा पाओगें ।
तुम्हारी आस्था देखकर मेरा यही कहना है । की एक दिन अवश्य तुम ही उसे लेकर आओगे ।
किन्तु तुम्हे प्रतीक्षा करनी होगी ।
कलांतर में राव आस्थानजी का सवर्गवास हुआ ।
और राव धुहडजी खेड के शासक बनें ।तब एक दिन
राजपूरोहित पीथडजी को साथ लेकर राव धूहडजी कन्नौज रवाना हुए ।
कन्नौज में उन्हें गुरू लुंम्ब रिषि मिले ।
उन्होने उन्हे माता चक्रेश्वरी की मूर्ति के दर्शन कराएं और कहा की यही तुम्हारी कुलदेवी है ।
इसे तुम अपने साथ ले जा सकते हो ।
जब राव धुहडजी ने कुलदेवी की मूर्ति को विधिवत् साथ लेने का उपक्रम किया तो अचानक कुलदेवी की वाणी गुंजी - ठहरो पूत्र
में ऐसे तुम्हारे साथ नही चलूंगी में पंखिनी ( पक्षिनी )
के रूप में तुम्हारे साथ चलूंगी
तब राव धुहडजी ने कहा हे माँ मुझे विश्वास केसे होगा की आप मेरे साथ चल रही है ।तब माँ कुलदेवी ने कहा जब तक तुम्हें पंखिणी के रूप में तुम्हारे साथ चलती दिखूं तुम यह समझना की तुम्हारी कुलदेवी तुम्हारे साथ है ।
लेकिन एक बात का ध्यान रहे , बीच में कही रूकना मत ।
राव धुहडजी ने कुलदेवी का आदेश मान कर वैसे ही किया ।राव धुहडजी कन्नौज से रवाना होकर नागाणा ( आत्मरक्षा ) पर्वत के पास पहुंचते पहुंचते थक चुके थे ।तब विश्राम के लिए एक नीम के नीचे तनिक रूके ।अत्यधिक थकावट के कारण उन्हें वहा नीदं आ गई ।जब आँख खुली तो देखा की पंखिनी नीम वृक्ष पर बैठी है ।
राव धुहडजी हडबडाकर उठें और आगे चलने को तैयार हुए तो कुलदेवी बोली पुत्र , मैनें पहले ही कहा था कि जहां तुम रूकोगें वही मैं भी रूक जाऊंगी और फिर आगे नही चलूंगी ।अब मैं आगे नही चलूंगी ।
तब राव धूहडजी ने कहा की हें माँ अब मेरे लिए क्या आदेश है ।कुलदेवी बोली की तुम ऐसा करना की कल सुबह सवा प्रहर दिन चढने से पहले - पहले अपना घोडा जहाॅ तक संभव हो वहा तक घुमाना यही क्षैत्र अब मेरा ओरण होगा और यहां मै मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।
तब राव धुहडजी ने पूछा की
हे माँ इस बात का पता कैसे चलेगा की आप प्रकट हो चूकी है । तब कुलदेवी ने कहा कि पर्वत पर जोरदार गर्जना होगी बिजलियां चमकेगी और पर्वत से पत्थर दूर दूर तक गिरने लगेंगे उस समय । मैं मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।
किन्तु एक बात का ध्यान रहे , मैं जब प्रकट होऊंगी तब तुम ग्वालिये से कह देना कि वह गायों को हाक न करे , अन्यथा मेरी मूर्ति प्रकट होते होते रूक जाएगी ।
अगले दिन सुबह जल्दी उठकर राव धुहडजी ने माता के कहने के अनुसार अपना घोडा चारों दिशाओं में दौडाया और वहां के ग्वालिये से कहा की गायों को रोकने के लिए आवाज मत करना , चुप रहना , तुम्हारी गाये जहां भी जाएगी ,मै वहां से लाकर दूंगा ।
कुछ ही समय बाद अचानक पर्वत पर जोरदार गर्जना होने लगी , बिजलियां चमकने लगी और ऐसा लगने लगा जैसे प्रलय मचने वाला हो ।
डर के मारे ग्वालिये की गाय इधर - उधर भागने लगी ग्वालियां भी कापने लगा ।
इसके साथ ही भूमि से कुलदेवी की मूर्ति प्रकट होने लगी । तभी स्वभाव वश ग्वालिये के मुह से गायों को रोकने के लिए हाक की आवाज निकल गई । बस, ग्वालिये के मुह से आवाज निकलनी थी की प्रकट होती होती मुर्ति वही थम गई ।
केवल कटि तक ही भूमि से मूर्ति बाहर आ सकी ।देवी का वचन था । वह भला असत्य कैसे होता ।
राव धुहडजी ने होनी को नमस्कार किया । और उसी अर्ध प्रकट मूर्ति के लिए सन् 1305, माघ वदी दशम सवत् 1362 ई. में मन्दिर का निर्माण करवाया ,क्योकि चक्रेश्वरी नागाणा में मूर्ति रूप में प्रकटी ,
अतः वह चारों और नागणेची रूप में प्रसिध्ध हुई ।
इस प्रकार मारवाड में राठौडों की कुलदेवी नागणेची कहलाई ।
Nagneshwari mataji ka janam
देवी आवड़ नागणेची माता का सम्पूर्ण इतिहास
श्री आवड़ माता का अपरनाम
श्रीनागणेचियां माता का इतिहास, मान्यताएं
व परम्परा :-
लेखक
आढ़ा)
डॉ नरेन्द्र सिंह आढ़ा (नरसा
प्रधानाचार्य राउमावि बिकरनी
सिंध के नानणगढ प्रवास के दौरान श्री आवडादि शक्तियां एक दिन हाकरा दरियाव (नदी) पर स्नान कर रहे थे। तभी नानणगढ के शासक अदन (ऊमर) सूमरा के पुत्र के नूरन के मित्र लूंचीया नाई ने इनकों स्नान करते हुए छिप कर देख लिया और उसने इनके कपड़ों को अपनी छडी से छू. दिया था। जब आवाडाधी बहनों संग स्नान करके बाहर आयी तो श्री आवडजी ने देखा कि वहां किसी पुरुष के पैरों के निशान पडे हुए थे। इस पर उन्होंने अपनी बहिनों को कहा कि उस पुरुष ने अपने कपड़ों को अपवित्र कर दिया हैं, अब ये कपडें हम पहन नहीं सकते हैं, इस जंगल में कपडें कहां से लाये जाये ? तब श्री आवडजी ने अपनी दैविक शक्ति से सभी बहिनों को काली नागिनों का रुप धारण करके झोपडे की ओर चलने का आदेश दिया। उधर लूंचीया नाई ने बादशाह के लडके नूरन के पास जाकर इनके अपूर्व रुप सौन्दर्य की जानकारी दे दी। इस पर वे दोनों घोडे पर सवार होकर हाकरा नदी पर आ गये। लेकिन वहां इन्हें मामडियां चारण की सातों पुत्रियां नहीं मिलती हैं। उन्होंने देखा कि सात नागिन जो यहां से मामडियांजी के झोपडी की ओर गये हैं। इसप्रकार श्री आवडादि शक्तियां ने कई बार नागिनों के रुप धारण किये जिसके कारण ये शक्तियां नागणेची या नागणेचियां के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी नाम से ये राठौड राजपूतों में कुलदेवी के रुप में पूजी जाती हैं। इस सम्बन्ध में डिंगल के विद्वान जयसिंहजी सिंढायच के आवड़ माता के रंग के दोहे निम्न प्रकार से हैं।
नागणियां बण नीर में, सारी सगत्यां संग। तज वसन निसरी तुरत, रंग माँ आवड़ रंग ।। उण दिन सु अखिलेशरी, आश्रित हेत उमंग। नाम धरे नगणैच निज, रंग माँ आवड़ रंग ।।
राठौड शब्द का प्रयोग एक राजपूत शाखा
के लिए प्रयुक्त हुआ हैं जिसका प्रचलन केवल भाषा में हैं। संस्कृत पुस्तकों, अभिलेखों और दानपत्रों उसके लिए राष्ट्रकूट शब्द मिलता हैं । प्राकृत शब्दों की उत्पति के नियमानुसार राष्ट्रकूट शब्द का प्राकृत रुप राठ्ठऊड़ होता हैं, जिससे राठउड़ या राठोड़ शब्द बनता हैं, जैसे चित्रकूट से चित्तऊड़ और उससे चित्तौड़ या चीतोड़ बनता हैं। राष्ट्रकूट वंश का प्रतापी शासक अमोघवर्ष (814-876ई.) श्री आवड़ माता का समकालीन था। जेठमल चारण की प्राचीन रचना के अनुसार अमोघवर्ष द्वारा श्री आवड़ माता की पूजा की गई थी जो उसके पद्य में इस प्रकार से मिलता हैं। चोट करतां राकसां, चक्र गेब चलाडै। अमोघव्रख राठवड, पूजा ईक त्यारै ।। अमोघवर्ष के संजन ताम्र पत्र से पता चलता हैं कि वह देवी का बडा भक्त था जिसने एक बार देवी को अपने बाये हाथ की अंगूली श्रद्धावश चढा दी थी। इसकी तुलना दधीचि जैसे पौराणिक महापुरुषों से की जाती हैं। अमोघवर्ष श्री आवड माता का परम भक्त था। उसकी सहायता में श्री आवड़ माता ने गेबी (अदृश्य) चक्र चलाये जिससे उसके राज्य के अधीन अंग, बंग, मालवा और मगध के राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार की। भगवती श्री आवड़ माता ने अपने भक्त अमोघवर्ष की सहायता में अदीठ चक्र चलाये जिसके कारण वे चक्रेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। मां श्री आवड़ की कृपा से उसने 60 वर्षभक्त अमोघवर्ष की सहायता में अदीठ चक्र चलाये जिसके कारण वे चक्रेश्वरी के नाम से प्रसिद्धजिसके कारण वे चक्रेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध
हुए। मां श्री आवड़ की कृपा से उसने 60 वर्ष से अधिक राज किया उसके बाद वह अपने पुत्र कृष्णराज को सौप कर स्वयं भगवती श्री आवड़ माता की साधना में लग गया। उसने कविराजमार्ग नाम का अलंकार ग्रंथ की कन्नड़ भाषा में रचना की। उसके दरबार में विद्धानों का बड़ा आदर था। उसने भगवती श्री आवड़ माता की कृपा से अपनी राजधानी मान्यखेत को इन्द्रपुरी से अधिक सुन्दर बनाया। अमोघवर्ष के बारे में अरबी लेखक सुलेमान अपने ग्रंथ सिल्सिलातुत्तवारीख में लिखा हैं कि वह दुनियां के चार बड़े बादशाहों में से एक था। श्री आवड़ माता की कृपा स्वरुप अमोघवर्ष यशस्वी एवं प्रतापी शासक के रुप में प्रसिद्ध हुआ। उसने ही श्रीआव माता की मूर्ति की स्थापना दक्षिण के कर्णाटक देश में चक्रेश्वरी माता के नाम से की थी। जो राठेश्वरी माता (राठासण माता) भी कही जाती है, जिसे धूहढ़ ने दक्षिण भारत के कर्नाटक से लाकर नागाणा गांव(,निकट कल्याणपुर, जिला बाडमेर) में स्थापित किया था। वर्तमान में नागाणा गांव में नागणेचियां माता का भव्य मंदिर बना हुआ।
जोधपुर राज्य की ख्यात(सं. रघुवीरसिंह एवं मनोहरसिंह राणावत) के पृ.स.27 पर लिखा हैं कि “राव धूहड सम्वत् 1248 रा जैठ सुद 13 (26 मई मंगलवार 1192 ई.) पाट बैठा, नै करणाटक देश सूं कुल देवी चक्रेश्वरी री सोना री मूरत लाय ने गांव नागाणे थापत किवी। तिण सूं नागणेची कहाई” ं। इस ख्यात के संदर्भ की पुष्टि वीर विनोद भाग 3 के पृ.सं. 799-800, जोधपुर राज्य का इतिहास भाग 1(गौरीशंकर हिराचंद ओझा)के पृ.सं. 109 आदि ग्रंथों में हुआ हैं। लोक देवता पाबूजी राठौड़ पर मोडजी आसिया ने पाबू प्रकास ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ का प्रकासन शंकरसिंह आसिया ने किया हैं। इस ग्रंथ के पृ.सं. 95 में लिखा हुआ हैं कि
।। छप्पय ।।
|| आणंद का पूर्व परिचय तथा गांव कड़ाणी की जागीर मिलना।। प्रथम मार परमार। लियौ जूनौ लोहां लड़।। रहै राव पाखती। भड़ा घोड़ा भीड़ोहड़ || करणाणंद, आणंद कवेस। वहण मारूभाषा
वट ।।
बगस जिकां बिरदैत। ईकड़ाणी आगाहट ।। कनवज हूंता किरंड । लाग हठ पेथड़ लायौ । थप नागांणे थांन। पाटपत इम वर पायौ ।। जयचंद हरा तो सिर जपूं। रजाबंध सबदिन रहूं।।
इण भाखर सूं राजस अडिग । सौ-सौ कोस दिसा चहूं।। 56।। अर्थ-आसथान के पुत्र धांधल ने अपने पिता के राज्य से हिस्सा प्राप्त न कर अपनी तलवार की ताकत से नया राज्य स्थापित किया। उसने वहां के परमार राजा को युद्ध में मारकर जूनो (कोळू) नामक राज्य प्राप्त किया। राव धांधल के पास में योद्धाओं और घोड़ों की व्यापकता हैं। मारू भाषा के विद्वान व उसकी राह पर चलने वाले गढवी करमाणंद और आनंद हैं। अनेक उपमाओं से अलंकृत यशस्वी राव धांधल ने कवियों को कड़ाणी नामक गांव सांसण में दिया। राव धूहड़ के पुत्र पेथड़ ने हठपूर्वक कन्नौज जाकर अपनी आराध्य देवी चक्रेश्वरी का किरंड (लकड़ी की बनी पूजा की पेटी) को लाया। फिर उसका नागाणा नामक गांव में स्थापित किया। वहां शक्ति आवड़ ने नागिन रूप में प्रकट होकर खेड़ के राजा को यह आशीर्वाद दिया कि हे जयचंद के पुत्र मैं सदैव तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। इस कारण मेरे स्थान के इस पहाड़ से सो-सो कोस दूर तुम्हारा अडिग शासन चाहती हू
।। छंद अनुष्टप।। ।। शक्ति नागणेची वृतांत ।। चक्रेस्वरी बलेस्थाने। राटेश्वरी तथा रटे ।। पंखणी सप्त मात्रेण नागणेची नमस्तुते।। 57।।
अर्थ:-बलुचिस्तान के लासबेला में हिंगोल पर्वत पर अधिष्ठाती हिंगलाज देवी ही चक्रेश्वरी के नाम से हैं। उसी का राटेस्वरी नाम से स्मरण करते हैं। जब इस देवी ने विक्रमी की आठवीं सदी के प्रारम्भ में आवड़ देवी व उसकी छ: अन्य बहिनों सहित अवतार लिया तथा नागिन के रूप में उपस्थित होकर धूहड़ को दर्शन देकर आशीर्वाद दिया तब से राठौड़ उसे नागणेची देवी के नाम से सात मूर्तियों में पूजते हैं। हे नागणेची देवी तुझे नमस्कार हैं। इसको पंखनी व सप्त माता भी कहते हैं।
श्री आवड माता पर रचित प्राचीनतम डिंगल साहित्य में उनके अपरनाम नागणेचियां,चक्रेश्वरी व पंखनी की पुष्टि होती हैं। इस प्रकार भगवती श्री आवड़ माता के
स्वरुप के नागिण,सवळी (चील), पालम
पक्षी (सुगन चिड़िया) माने जाते हैं।
जेठमल चारण के अनुसार सामें आवे सळहळते, वासंग उणीयारै। नाग रुप नागणेच का, असुर निहारै ।। श्री आवड माता के भाई मेहरखियोंजी के
अनुसार
नावण जाय ननंग, पंगरण की धौ पाणी । कपडों लगी काब, नाग रुप निरुखणी।। मेहाजी किनिया के अनुसार आई देवांळ आग रुप, नाग रुप नागणी। पाळम रुप पंखणी, समळी सोभा घणी । । भगवती श्री आवड़ माता के नामों का उल्लेख करते हुए अनोपदानजी बीठू झणकली अपने छंद जात सारसी में कहते हैं कि आई कमळा नाम ऊभट पावणं आसा पुरी। सिंघणी वृत जोगणीस,आईनाथज उच्चरी।। कत्तीयांणी नागणेची, पीनोतणी नामे पडा । भगवान सूरज करै भगती आदसगती आवड़ा।।
तूं खेची चकरेची सतरंजेची तूं सेहा। तूं नड़ेची ऊनड़ेची माड़ेची मोटी मया ।। बोयणेची बड़ हाड़रे धणियाणीयां बधावड़ा। भगवान सूरज करै भगती आदसगती आवड़ा।।
इसी तरह राजस्थानी शक्ति काव्य के पृ.सं. 95 पर अनोपदानजी बीठू कहते हैं कि बणी नागणी रूप वाघणी चतुर भुज सिंह चम्भा । हो हो कर पटकी जद हाथळ थरक्या गढ़ ओम जय आवड़ अम्बा देवी जय आवड़ अम्बा ।।।
श्रीतेमड़ाराय मंदिर में भगवती श्री आवड़जी के पहले सात नागों के फनों पर सात कन्याओं के रुप में दर्शन होते थे। इस रुप में आवड़जी ने बीकानेर के राजा रायसिंह को वि.सं. 1651 में भाद्रपद सुदी 13 के दिन दर्शन दिये थे जिसका उल्लेख तवारीख जैसलमेर में हुआ हैं।
जब बीकानेर के महाराजा रायसिंह व जैसलमेर महारावल भीमसिंह, जिनकी बहिने आपस में एक दूसरे को ब्याही हुई थी, श्रीतेमड़ाराय दर्शन करने को आये तो यहां छछूंदरी के रुप में दर्शन हुआ तो बीकानेर महाराजा ने शंका की कि छछूंदरी के रुप में दर्शन तो देशनोक के करनी माता मंदिर में हमेशा होते रहते है,जहां मंदिर में हजारों काबा (चूहें) रहते है। इस शंका पर तेमडाराय के पूजारी व महारावल भीमसिंह ने श्रीआवड़ माता का आव्हान किया तो सात नाग के फनों पर सात कन्याओं के रुप में दर्शन में दर्शन देकर महाराजा रायसिंह की शंका का निवारण किया। इस अद्भूत चमत्कार से प्रभावित होकर महाराजा रायसिंह ने तेमड़ाराय के मंदिर का एक बर्जु अपनी यात्रा की यादगार के रूप में बनवाया था, जो बाद में जीर्ण होने के बाद नया बनाया गया हैं। यह बर्जु मंदिर के सामने हैं। लेकिन बाद में पूजारी इस दर्शन से डरने लगे तो उन्होंने निवेदन किया तो इस रूप में दर्शन होना बंद हो गया लेकिन फिर भी कभी-कभी नागिन व छछूंदरी के रुप में दर्शन हो जाते हैं इन दोनों रूपों के दर्शन के विडियो मैंने भी देखे हुए हैं। इन स्वरुपों में भक्तों को दर्शन होना उनके लिए सौभाग्य का सूचक माना जाता हैं। भगवती श्री आवड़ माता द्वारा बीकानेर महाराजा रायसिंह को दर्शन देने का करने का उल्लेख तवारीख जैसलमेर (लखमीचंद) ने पृ०स० 226 पर इस प्रकार से किया हैं। “जिससे तेमडाराय व मुल्क माड से माडधणी आनी व डूंगर पर थांन से डूंगरेचियां नाम कही जी सो नाग के 7 फन पर 7 कन्या रुप में दरसन देती थी फेर पुजारी गोगली भोपे हुवे सो डरने से छछुन्द्री का दरसन होवे है। बीकानेर महाराजा रायसिंह ने छछुन्द्री पर शंका करी तब नाग के फन पर दरशन हुआ था और कई चमत्कार विख्यात है। जिसमें बाजे-बाजे मोका पर लिखा भी हैं।" इस श्रीतेमडाराय मंदिर में राठौड राजा रायसिंह ने बूर्ज का निर्माण करवाया जिसका शिलालेख मौजूद हैं। इस प्रकार से बीकानेर के राजा रायसिंह को भगवती श्री आवड़जी महाराज ने नागणेचियां स्वरुप में दर्शन देकर धन्य किया।
श्री आवड़ माता ही श्रीनागणेचियां माता के नाम से प्रसिद्ध हुई। चारण कवियों ने श्री आवड़ माता की स्तुति करते समय उन्हें उनके चमत्कारों के आधार पर कई नामों से सम्बोधित किया। इस कारण से जनसामान्य में श्रीआवड़ माता बावन नामों से प्रसिद्ध हुए। इस कारण लोगों भ्रमवंश व अज्ञानता के कारण नागणेचियां माता को अलग भी समझने लग गये हैं, जबकि इन दोनों का इतिहास एक ही हैं, इनकी पूजा पद्धति भी एक ही हैं, लेकिन इन दो नामों से पूजी जाने के बावजूद भी इनकी पूजा पद्धति में सदियों बाद भी कोई अन्तर दिखाई नहीं देता हैं। नागणेचियां माता का नाम बहुवचन के रुप में प्रयुक्त होता हुआ दिखाई देता हैं, जो श्रीआवड़ादि सातों बहिनों के सम्मिलित रुप के लिए प्रयुक्त शब्द का द्योतक हैं। इस तरह श्री आवड़ादि इन सातों शक्तियों के बहुवचन रुप में और भी कई नाम मिलते हैं, जिसमें तणुटियां, जोगणियां, स्वांगियां, डूंगरेचियां, ऊपरल्यां, साऊंवाणियां, बायोया, बीजासणियां, चालकनेचियां आदि मुख्य हैं। भगवती श्री आवड़ माता के अपरनाम भगवती श्री आवड़ माता के अपरनाम नागणेचियां की जानकारी पाकिस्तान के सिन्ध प्रदेश के लोगों की मान्यता से भी हमें मिलती हैं, ऊमरकोट के निकट श्री आवड़ माता का स्थान हैं, वहां का विडियो मेरे मित्र जगत देवल ने भेजा था जिसमें उस मंदिर का पूजारी आवड़ माता के अपरनाम का उल्लेख करते हुए उन्हें नागणेचियां माता बता रहा है। अर्थात आवड़ माता के अपरनाम नागणेचियां की मान्यता सिंध, गुजरात व राजस्थान आदि सम्पूर्ण भारत में हैं।
डॉ. भवानी सिंह पातावत बरजांसर ने श्रीनागणेचियां माता पुस्तक के पृ.सं. 107 पर लिखा हैं कि मेहरानगढ दुर्ग में नागणेचियांजी की मूर्ति के साथ सात देवियों की मूर्तियां भी हैं। यह मंदिर जनानी ड्योढी के अन्दर प्रवेश करते ही सामने यह मंदिर आया हुआ हैं। इस प्रकार से स्पष्ट हैं कि राव जोधा के द्धारा निर्मित दुर्ग मेहरानगढ में उसने श्री आवडादि सात शक्तियों की संयुक्त प्रतिमा स्थापित की थी, इस मेहरानगढ दुर्ग की नींव श्रीकरणी माता के हाथों से लगी थी जिसका उल्लेख इतिहास के सभी ग्रंथों में मिलता हैं। चुंकि श्रीकरणी माता के आराध्य श्रीआवड माता थे। अतः उनके द्धारा दुर्ग की नींव रखने से पूर्व श्री आवड़ माता का स्थान स्थापित करना स्वाभाविक था । इसी तरह से उक्त लेखक ने अपनी पुस्तक श्रीनागणेचियां माता के पृ.सं. 47 पर लिखा हैं कि मारवाड के शासक अपनी कुल देवी की पूजा बडे धूमधाम से करते थे। इस अवसर में राजप्रासाद में लापसी (एक प्रकार का मिष्ठान, जो शुभ माना जाता था) बांटी जाती थी। राजगुरु राजा और राजकुमारों के बांह पर सूत के सात धागों में सात गांठे लगाकर देवी के नाम पर रक्षा सूत्र बांधता था, जिसे देवी का कडा कहा जाता था। उक्त रक्षा सूत्र के बनाने की विधि में सात धागों व सात गांठों के लगाने से स्पष्ट हैं कि उनकी कुल देवी श्री आवडादि सप्त-शक्तियां ही हैं, जिस कारण रक्षा सूत्र में 7 अंक का महत्व दिखाई दे रहा हैं। उक्त लेखक श्रीनागणेचियां माता पुस्तक के पृ.सं. 43 पर उहड राठौड री ख्यात (सं. हुकमसिंह भाटी) के हवाले लिखते हैं कि “राव चंद्रसैणजी जैमलजी साथै कुंभलमेर सुं आबु होयनै लोयांणे पधारीया दैवळां नै राणा पदवी दै छपन रा भाषा रां मै होयने नागंणै देवी रै थांन पधारीया पुजन कराय दोय भैसा चडाय नै जैसलमेर पधारीया ।" यह सर्व विदित हैं कि श्री आवड माता को भैंसे का भक्ष्य बहुत प्रिय था। अतः श्रीनागणेचियां माता को भैंसा चढाने की परम्परा इतिहास में दिखाई देती हैं। इस दृष्टि से यह ठोस प्रमाण हैं कि श्रीआवड माता का अपरनाम ही नागणेचियां हैं।
BSF Jawano Ki Mata kaun hai
नागणेची माता की मूर्ति आधी नाग क्यो है?
nagnnechi mata dayya gothar ki kuldevi he kiya
naganeshi mata ki 7 he
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