धारा 370 कौन हटा सकता है
क्या धारा-370 को रद्द किया जा सकता है? यदि हां तो कैसे? कई बार यह तर्क दिया जाता है कि इस धारा को राज्य विधानसभा की सहमति के बिना रद्द करना संवैधानिक रूप से उचित नहीं है। कहा जाता है कि इस संदर्भ में संविधान को एक नजर से देख लेने पर ही यह स्पष्ट है। धारा-370 का महत्वपूर्ण भाग इस प्रकार है-
"धारा के पूर्ववर्णित विधान के बावजूद, राष्ट्रपति सार्वजनिक अधिसूचना के द्वारा, यह घोषणा कर सकता है कि इस धारा को रद्द कर दिया गया है।'
"लेकिन राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना जारी करने से पहले राज्य विधानसभा की सहमति जैसा कि खण्ड (2) में बताया गया है, जरूरी होगी।'
राष्ट्रपति की घोषणा से पहले एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है राज्य विधानसभा की सहमति। दूसरे शब्दों में, यदि केन्द्रीय सरकार इस धारा को रद्द भी करना चाहे तो ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि इसके लिए राज्य की विधानसभा की अनुशंसा आवश्यक होगी। धारा-368 के अन्तर्गत संशोधित प्रावधान भी कोई सहायता नहीं कर सकते।
ऊपरी तौर पर, यह तर्क प्रभावपूर्ण लगता है। लेकिन संविधान का कोई भी विधान अलग से नहीं पढ़ा जा सकता। धारा 1 इससे कहीं ज्यादा मूलभूत महत्ता रखती है। इसके अनुसार-
"1. नाम और भारत का क्षेत्र- भारत राज्यों का एक संघ होगा।
2. राज्य और क्षेत्र प्रथम अनुसूची में दिए गए के अनुसार होंगे।
3. भारत के क्षेत्र में : (क) राज्यों का क्षेत्र, (ख) केन्द्रीय शासित प्रदेशों का क्षेत्र, जैसा कि प्रथम अनुसूची में बताए गए हैं, (ग) और ऐसे अन्य क्षेत्र जो प्राप्त किए जाएंगे, इसके अन्तर्गत आते हैं।'
प्रथम सूची के अनुसार जम्मू-कश्मीर भारत का पन्द्रहवां प्रदेश है और धारा 1 इस पर पूरी तरह लागू होती है। दूसरी ओर धारा-370 अस्थायी है। संविधान के ज्र्ज्र्क्ष् वें भाग का शीर्षक है-"अस्थायी, अल्पकालिक विशेष विधान'। इस प्रकार, जब धारा-370 बनाई गई थी तो इस विचार के साथ कि यह संविधान में बहुत कम समय के लिए देश के परिवर्तन के दौर तक ही रहेगी। क्योंकि राज्य की संवैधानिक सभा अब नहीं है तो धारा-370 के अन्तर्गत इसकी सहमति का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए, धारा-368 के अन्तर्गत केन्द्रीय संसद द्वारा, जो प्रदेश के लोगों का भी प्रतिनिधित्व करती है, संविधान को संशोधित किया जा सकता है। इसके बाद, राज्य की संविधान सभा की सहमति का विधान भी हटाया जा सकता है। यह विधान हटाये जाने के बाद राष्ट्रपति आवश्यक घोषणा कर सकता है। और इस तरह धारा 370 को रद्द किया जा सकता है।
जब भी संविधान के किन्हीं दो विधानों में विरोधाभास हो तो जो तुलनात्मक रूप से अधिक मूलभूत है, वही प्रचलन में रहेगा। संविधान को समझने के दौरान, अदालतों को परिवर्तित परिस्थितियों और सारे देश के उद्देश्यों को ध्यान में रखना होगा, जिनके लिए संविधान बनाया गया है। धारा 1, जैसा कि मैंने पहले कहा, मूलभूत महत्व रखती है। यह देश की क्षेत्रीय एकता और संगठन से सम्बंधित है। सोवियत संघ की तुलना में हमारे देश के किसी राज्य को अलग होने का अधिकार नहीं है। पूरे देश के राजनीतिक और क्षेत्रीय मामले केन्द्रीय संसद से सम्बंधित हैं और इसे यह ध्यान रखने का पूरा-पूरा अधिकार है कि ऐसा कुछ भी न हो जिससे देश की एकता को क्षति पहुंचे।
कश्मीर की वर्तमान स्थिति से सिद्ध होता है कि धारा-370 ने अलगाववादी दृष्टिकोण पैदा किया है और संघ की क्षेत्रीय एकता को चुनौती दी है। संसद को इसलिए इस ओर अवश्य कदम उठाना चाहिए। और जब अदालतों से संविधान को समझने और धारा 1, 368 तथा 370 का समन्वय करने के लिए कहा जाए तो अदालतों को क्षेत्रीय एकता के पक्ष में तर्क देना चाहिए तथा धारा-370 को रद्द करने के संसद के निर्णय में बाधा नहीं डालनी चाहिए। विशेषकर तब जबकि इस धारा को अन्याय के एक साधन की तरह प्रयोग किया जा रहा हो और अदालत का उद्देश्य न्याय दिलवाना और अन्यायपूर्ण स्थितियों को खत्म करना हो। दूसरे शब्दों में, यदि अदालत संविधान को एक कार्यशील और रचनात्मक तरीके से समझती है तो निश्चय ही वह धारा-370 को रद्द करने की पक्षधर होगी, अगर इसके उपवाक्यांश को धारा- 366 के अन्तर्गत संशोधित कर दिया जाए।
भारतीय संविधान की धारा-355 के नियम भी महत्वपूर्ण हैं। यह भारतीय संघ पर बाहरी आक्रमण या अंदरूनी अशांति की परिस्थिति में राज्य की सुरक्षा देने का कत्र्तव्य-भार डालती है। अगर धारा-370 भारतीय संविधान द्वारा इस कत्र्तव्य को पूरा करने की राह में रुकावट बनकर आता है, तो इसे रद्द ही करना होगा। वर्तमान संदर्भ में, जबकि जम्मू-कश्मीर बाहरी आक्रमण और भीतरी अशांति के प्रति संवेदनशील हो गया है और धारा-370 भीतरी अशांति फैलाने तथा बाह्र उग्रता को सरल बनाने में प्रमुख भूमिका अदा कर रहा है तो यह केन्द्रीय सरकार के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह धारा-355 के अन्तर्गत अपना कत्र्तव्य पूरा करने के लिए धारा-370 को रद्द कर दे। इस प्रकार, यदि-370 को धारा 1 और 355 के साथ पढ़ा जाए तो 368 के अन्तर्गत 370 के उपबन्ध को रद्द करना पूर्णतया तर्कसंगत होगा। और यह शर्त रद्द करने के बाद, पूरी धारा-370 को रद्द करने की राष्ट्रपति की घोषणा स्थिति को बिल्कुल साफ और स्पष्ट कर देगी।
यह भी कहा जा सकता है कि धारा-370 की तीव्रता को 35 ए को, रद्द करके भी समाप्त किया जा सकता है। यदि यह रद्द होती है तो धारा 19(1) (ई) और (जी) का पूरा-पूरा प्रयोग होगा। धारा 19 (1) (ई) और (जी) घोषणा करती है--
"हर नागरिक को
(अ) भारत के किसी भी क्षेत्र में रहने और बसने का, तथा
(ब) कोई भी पेशा, व्यवसाय या व्यापार करने का अधिकार होगा।'
संविधान का भाग क्ष्क्ष्क्ष् पहले से ही जम्मू-कश्मीर पर लागू होता है। धारा 19 (1) (ई) (जी) को निर्बाध रूप से लागू करने पर कोई भी भारतीय जम्मू-कश्मीर में जाकर बस सकता है और इस तरह बसने और नागरिकता के संदर्भ में जम्मू-कश्मीर संविधान के जितने अतार्किक और अन्यायपूर्ण नियम हैं, जो भारतीय संविधान के अयोग्य हैं, खत्म हो जाएंगे।
राज्य विषयों पर प्रतिबंधों के पक्षधर कभी-कभी यह कहते हैं कि ये प्रतिबंध 1947 के बाद राज्य सरकार या शेख अब्दुल्ला द्वारा नहीं बल्कि 1893 में डोगरा और पंडित सभा के प्रतिनिधित्व पर महाराजा द्वारा लगाए गए थे। यह तर्क बिल्कुल गलत तरह से दिया गया है। हमारा मार्गदर्शन 1893 की परिस्थितियों, मूल्यों और विचारों से नहीं हो सकता बल्कि हम भारत की वर्तमान महत्वाकांक्षाओं और भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों से प्रेरित होते हैं। इन प्रतिबन्धों के अनौचित्य को तो 1931-32 में ही जान लिया गया था जब शिकायत समिति के अध्यक्ष (बर्टेन्ड ग्लांसी) ने अपनी रपट में दर्ज किया था, "राज्य जनता की वर्तमान परिभाषा अनुचित रूप से कठोर जान पड़ती है, एक हजार वर्ष तक राज्य में अधिवास पर भी किसी व्यक्ति को, इस परिभाषा के अनुसार, यहां बसने के योग्य नहीं माना जाता। एक व्यक्ति, जिसने लगभग पांच वर्षों तक राज्य में अधिवास किया है और स्थानीय चीजों में अपनी पहचान बनाई है, उसे मतदान का अधिकार न देना, अनुचित ही नहीं अतार्किक भी है।'
लेकिन इन प्रतिबन्धों को स्वार्थी इरादों से न केवल जारी रखा गया बल्कि संवैधानिक सुरक्षा भी दे दी गई। यह जान-बूझकर "भुला' दिया गया कि ये प्रतिबंध पहले पहल महाराजा ने अंग्रेजों को कश्मीर से दूर रखने के लिए लगाये थे।
विस्थापितों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, लेकिन धारा-370 राज्य संविधान और इनके अन्तर्गत बनाए गए कानूनों की वजह से सर्वोच्च न्यायालय विस्थापितों को कोई सहायता नहीं दे सका।
21 अगस्त, 1962 को धारा-370 के सम्बंध में लिखे पं0 प्रेमनाथ बजाज के पत्र का उत्तर देते हुए पं0 जवाहरलाल ने लिखा था--
"वास्तविकता यह है कि संविधान में इस धारा के रहते हुए भी, जोकि जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा देती है, बहुत कुछ किया जा चुका है और जो थोड़ी-बहुत बाधा है, वह भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। सवाल भावुकता का अधिक है, बजाय और कुछ होने के। कभी-कभी भावना महत्वपूर्ण होती है लेकिन हमें दोनों पक्षों को तौलना चाहिए और मैं सोचता हूं कि वर्तमान में हमें इस सम्बंध में और कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए।'
इस पत्र से यह प्रकट होता है कि नेहरू ने स्वयं धारा-370 में भावी परिवर्तन से इनकार नहीं किया था। और जहां तक भावनाओं का सम्बंध है, अब तक यह स्पष्ट हो चुका है कि उनका विरोधी दिशा में ही क्रियान्वयन हुआ है और उन्होंने फूटपरस्त अलगाववादी प्रवृत्तियों को ही मजबूत किया है। जिसके परिणामस्वरूप देश की एकता तथा अखण्डता के लिए संकट पैदा हो गया है। यही समय है जब उस बीज को, जिसने एक विषैले पौधे को जन्म दिया, जड़ से उखाड़कर फेंका जा सकता है।
धारा-370 को बनाये रखने के लिए उसके औचित्य को यह कहकर सिद्ध किया जाता है कि यह एक दीवार नहीं वरन् एक सुरंग है। भूतपूर्व केन्द्रीय गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नन्दा ने 4 दिसम्बर, 1964 को कहा था-- "इस सुरंग द्वारा बहुत मात्रा में यातायात जा चुका है तथा अब और अधिक जायेगा।' उसके कुछ दिनों बाद शिक्षा मंत्री श्री एम.सी. छागला ने कहा था-"धारा 370 के माध्यम से भारत का पूरा संविधान जम्मू और कश्मीर पर लागू किया जा सकता है।'
सिद्धान्तत: इस स्थिति को मानना बहुत अच्छा लग सकता है, लेकिन यह इस नितान्त नग्न सत्य की उपेक्षा कर देता है कि इस सुरंग द्वार का नियन्त्रण किसी और के द्वारा किया जा रहा है। और यदि राज्यपाल शासनकाल 7 मार्च से 6 दिसम्बर तक के एकमात्र अपवाद को छोड़ दिया जाए तो उस समय क्या होगा जब सुरंग अवरुद्ध हो जाए? इसके बावजूद इसमें क्या बुद्धिमत्ता है कि जब एक सीधा, मजबूत और प्रशस्त मार्ग उपलब्ध हो तब भी एक खतरनाक रूप से बनी सुरंग द्वारा ही जाया जाए?कभी-कभी एक तर्क यह भी दिया जाता है कि अगर धारा-370 को रद्द कर दिया गया, भारत से कश्मीर के सम्बंधों की कड़ी टूट जाएगी। यह तर्क बहुत अधिक कानूनी है और क्रियात्मक रूप में इसका कोई अर्थ नहीं। अगर ब्रिटेन की संसद भारत स्वतंत्रता अधिनियम को भूतकालीन प्रभाव सहित भंग कर दे, जैसा कि करने की वह कानूनी सामथ्र्य रखती है तो क्या उसके परिणामस्वरूप भारत फिर से उपनिवेश बन जायेगा?
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