सरसों का वैज्ञानिक नाम
सरसों क्रूसीफेरी (ब्रैसीकेसी) कुल का द्विबीजपत्री, एकवर्षीय शाक जातीय पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम ब्रेसिका कम्प्रेसटिस है। पौधे की ऊँचाई 1 से 3 फुट होती है। इसके तने में शाखा-प्रशाखा होते हैं। प्रत्येक पर्व सन्धियों पर एक सामान्य पत्ती लगी रहती है। पत्तियाँ सरल, एकान्त आपाती, बीणकार होती हैं जिनके किनारे अनियमित, शीर्ष नुकीले, शिराविन्यास जालिकावत होते हैं। इसमें पीले रंग के सम्पूर्ण फूल लगते हैं जो तने और शाखाओं के ऊपरी भाग में स्थित होते हैं। फूलों में ओवरी सुपीरियर, लम्बी, चपटी और छोटी वर्तिकावाली होती है। फलियाँ पकने पर फट जाती हैं और बीज जमीन पर गिर जाते हैं। प्रत्येक फली में 8-10 बीज होते हैं। उपजाति के आधार पर बीज काले अथवा पीले रंग के होते हैं। इसकी उपज के लिए दोमट मिट्टी उपयुक्त है। सामान्यतः यह दिसम्बर में बोई जाती है और मार्च-अप्रैल में इसकी कटाई होती है। भारत में इसकी खेती पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और गुजरात में अधिक होती है।
सरसों के बीज से तेल निकाला जाता है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाने और शरीर में लगाने में किया जाता है। इसका तेल अंचार, साबुन तथा ग्लिसराल बनाने के काम आता है। तेल निकाले जाने के बाद प्राप्त खली मवेशियों को खिलाने के काम आती है। खली का उपयोग उर्वरक के रूप में भी होता है। इसका सूखा डंठल जलावन के काम में आता है। इसके हरे पत्ते से सब्जी भी बनाई जाती है। इसके बीजों का उपयोग मसाले के रूप में भी होता है। यह आयुर्वेद
की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसका तेल सभी चर्म रोगों से रक्षा
करता है। सरसों रस और विपाक में चरपरा, स्निग्ध, कड़वा, तीखा, गर्म, कफ तथा
वातनाशक, रक्तपित्त और अग्निवर्द्धक, खुजली, कोढ़, पेट के कृमि आदि नाशक
है और अनेक घरेलू नुस्खों में काम आता है। जर्मनी में सरसों के तेल का उपयोग जैव ईंधन के रूप में भी किया जाता है।
भारत में मूँगफली के बाद सरसों दूसरी सबसे महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है जो मुख्यतया राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल एवं असम
में उगायी जाती है। सरसों की खेती कृषकों के लिए बहुत लोकप्रिय होती जा
रही है क्योंकि इससे कम सिंचाई व लागत से अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ
प्राप्त हो रहा है। इसकी खेती मिश्रित फसल के रूप में या दो फसलीय चक्र में
आसानी से की जा सकती है। सरसों की कम उत्पादकता के मुख्य कारण उपयुक्त
किस्मों का चयन असंतुलित उर्वरक प्रयोग एवं पादप रोग व कीटों की पर्याप्त
रोकथाम न करना, आदि हैं। अनुसंधनों से पता चला है कि उन्नतशील सस्य विधियाँ
अपना कर सरसों से 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा
सकती है। फसल की कम उत्पादकता से किसानों की आर्थिक स्थिति काफी हद तक
प्रभावित होती है। इस परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि इस फसल की खेती
उन्नतशील सस्य विधियाँ अपनाकर की जाये।
सरसों
की अच्छी उपज के लिए समतल एवं अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट से दोमट
मिट्टी उपयुक्त रहती है, लेकिन यह लवणीय एवं क्षारीयता से मुक्त हो। क्षारीय भूमि से उपयुक्त किस्मों का चुनाव करके भी इसकी खेती की जा सकती है। जहाँ की मृदा क्षारीय से वहां प्रति तीसरे वर्ष जिप्सम 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम की आवश्यकता मृदा पी. एच. मान
के अनुसार भिन्न हो सकती है। जिप्सम को मई-जून में जमीन में मिला देना
चाहिए। सरसों की खेती बारानी एवं सिंचित दोनों ही दशाओं में की जाती है।
सिंचित क्षेत्रों में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद
तीन-चार जुताईयां तबेदार हल से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में
पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न बनें। बुआई से पूर्व अगर भूमि में
नमी की कमी हो तो खेत में पलेवा करने के बाद बुआई करें। फसल बुआई से पूर्व
खेत खरपतवारों से रहित होना चाहिए। बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक बरसात के
बाद तवेदार हल से जुताई करनी चाहिए जिससे नमी का संरक्षण हो सके। प्रत्येक
जुताई के बाद पाटा लगाना चाहिए जिससे कि मृदा में नमी बने रहे। अंतिम
जुताई के समय 1.5 प्रतिशत क्यूनॉलफॉस 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर
से मृदा में मिला दें, ताकि भूमिगत कीड़ों से फसल की सुरक्षा हो सके।
बीज
की मात्रा, बीजोपचार एवं बुआई बुआई में देरी होने के उपज और तेल की मात्रा
दोनों में कमी आती है। बुआई का उचित समय किस्म के अनुसार सितम्बर मध्य से
लेकर अंत तक है। बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर 4-5 किलो ग्राम पर्याप्त
होती है। बुआई से पहले बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए
कार्बेण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम अथवा एप्रोन (एस.डी. 35) 6 ग्राम
कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने
वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। बीज को पौधे से पौधे की दूरी
10 सें.मी. रखते हुय कतारों में 5 सें.मी. गहरा बोयें। कतार के कतार की
दूरी 45 सें.मी. रखें। बरानी क्षेत्रों में बीज की गहराई मृदा नमी के
अनुसार करें।
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा. / हक्टे.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
पूसा बोल्ड | 110-140 | 2000-2500 | 40 | राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, महाराष्ट्र |
पूसा जयकिसान (बायो 902) | 155-135 | 2500-3500 | 40 | गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान |
क्रान्ति | 125-135 | 1100-2135 | 42 | हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान |
आर एच 30 | 130-135 | 1600-2200 | 39 | हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी राजस्थान |
आर एल एम 619 | 140-145 | 1340-1900 | 42 | गुजरात, हरियाणा, जम्मू व कश्मीर, राजस्थान |
पूसा विजय | 135-154 | 1890-2715 | 38 | दिल्ली |
पूसा मस्टर्ड 21 | 137-152 | 1800-2100 | 37 | पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश |
पूसा मस्टर्ड 22 | 138-148 | 1674-2528 | 36 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
एन आर सी एच बी 506 | 130-140 | 1550-2542 | 41 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान |
डी एम एच 1 | 145-150 | 1782-2249 | 39 | पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान |
पी ए सी 432 | 130-135 | 2000-2200 | 41 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान |
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
अरावली | 130-135 | 1200-1500 | 42 | राजस्थान, हरियाणा |
गीता | 145-150 | 1700-1800 | 40 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
आर जी एन 48 | 138-157 | 1600-2000 | 40 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
आर बी 50 | 141-152 | 846-2425 | 40 | दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, जम्मू व कश्मीर |
पूसा बहार | 108-110 | 1000-1200 | 42 | असम, बिहार, उडीसा, पश्चिम बंगाल |
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
पूसा अग्रणी | 110-115 | 1500-1800 | 40 | दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान |
पूसा मस्टर्ड 27 | 115-120 | 1400-1700 | 42 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उतराखंड, राजस्थान |
पूसा मस्टर्ड 28 | 105-110 | 1750-1990 | 41.5 | हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, जम्मू कश्मीर |
पूसा सरसों 25 | 105-110 | 39.6 | उत्तरी पश्चिमी राज्य | |
पूसा तारक | 118-123 | 40 | उत्तरी पश्चिमी राज्य | |
पूसा महक | 115-120 | 40 | उत्तरी-पूर्वी व पूर्वी राज्य |
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
एन आर सी एच बी 101 | 120-125 | 1200-1450 | 40 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान |
सी एस 56 | 113-147 | 1170-1425 | 38 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
आर आर एन 505 | 121-127 | 1200-1400 | 40 | राजस्थान |
आर जी एन 145 | 121-141 | 1450-1640 | 39 | दिल्ली पंजाब, हरियाणा |
पूसा मस्टर्ड 24 | 135-145 | 2020-2900 | 37 | राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू व कश्मीर |
पूसा मस्टर्ड 26 | 123-128 | 1400-1800 | 38 | जम्मू व कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश |
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
सी एस 54 | 135-145 | 1600-1900 | 40 | सभी लवणीयता प्रभावित क्षेत्र |
सी एस 52 | 135-145 | 580-1600 | 41 | सभी लवणीयता प्रभावित क्षेत्र |
नरेन्द्र राई 1 | 125-130 | 1100-1335 | 39 | सभी लवणीयता प्रभावित क्षेत्र |
मृदा
की उर्वरता एवं उत्पादकता बनाये रखने के लिए उर्वरकों का संतुलित उपयोग
बहुत आवश्यक होता है। संतुलित उर्वरक उपयोग के लिए नियमित भूमि परीक्षण
आवश्यक होता है। मृदा परीक्षण के आधर पर उर्वरकों की मात्रा निर्धरित की जा
सकती है। सरसों की फसल नत्राजन के प्रति अधिक संवेदनशील होती है व इसकी
आवश्यकता भी अधिक मात्रा में होती है। असिंचित क्षेत्रों में सरसों की फसल
में 40-60 किलो ग्राम नत्राजन, 20-30 किलो ग्राम फास्फोरस, 20 किलो ग्राम
पोटाश व 20 किलोग्राम सल्फर की आवश्यकता है जबकि सिंचित फसल को 80-120 किलो
ग्राम नत्राजन, 50-60 किलो ग्राम फास्फोरस, 20-40 किलो ग्राम पोटाश व
20-40 किलो ग्राम सल्फर की आवश्यकता होती है। नत्राजन की पूर्ति हेतु
अमोनियम सल्फेट का उपयोग करना चाहिए क्योंकि इसमें सल्फर की उपलब्ध् रहता
है। सिंचित क्षेत्रों में नत्राजन की आधी मात्रा व फास्फोरस पोटाश एवं
सल्फर की पूरी मात्रा को बुआई के समय, बीज से 5 सें.मी. नीचे मृदा में देना
चाहिए तथा नत्राजन की शेष आधी मात्रा को पहली सिंचाई के साथ देना चाहिए।
अिंचित क्षेत्रों में उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा बुआई के समय खेत में डाल
देनी चाहिए।
सरसों की फसल से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों का
उपयोग अतिआवश्यक होता है। जिंक की कमी वाली मृदा में जिंक डालने से करीब
25-30 प्रतिशत तक पैदावार में वृद्धि होती है। जिंक की पूर्ति हेतु भूमि
में बुआई से पहले 25 किलो ग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर अकेले या जैविक
खाद के साथ प्रयोग किया जा सकता है। अगर खड़ी फसल में जिंक की कमी के
लक्षण दिखाई दे तो 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट व 0.25 प्रति बुझे हुए चूने
(200 लीटर पानी में 1 किलोग्राम जिंक सल्फेट तथा बुझे हुए चूने) का घोल
बनाकर पर्णीय छिड़काव करना चाहिए। बोरोन की कमी वाली मृदाओं में 10 किलो
ग्राम बोरेक्स प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के पूर्व मृदा में मिला दें।
अनुसंधनों
एव परीक्षणों के ज्ञात हुआ है कि थायो युरिया के प्रयोग से सरसों की उपज
को 15 से 20 प्रतिशत तक बढाया जा सकता है। थायो युरिया में उपस्थित सल्फर
के कारण पौधें की आन्तरिक कार्यिकी में सुधर होता है। थायो युरिया में 42
प्रतिशत गंध्क एवं 36 प्रतिशत नत्राजन होती है। सरसों की फसल में 0.1
प्रतिशत थायो युरिया (500 लीटर पानी में 500 ग्राम थायो युरिया) के दो
पर्णीय छिड़काव उपयुक्त पाये गये हैं। पहला छिड़काव फूल आने के समय (बुआई
के 50 दिन बाद) एवं दूसरा छिड़काव फलियां बनते समय करना चाहिए।
असिंचित
क्षेत्रों में 4-5 टन प्रति हेक्टेयर तथा सिंचित क्षेत्रों में 8-10 टन
प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद बुआई के एक माह पूर्व
खेत में डालकर जुताई कर अच्छी तरह मृदा में मिला दें। गोबर की खाद में
मुख्य पोषक तत्वों के साथ सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं जिससे पौधें
को उचित पोषण प्राप्त होता है। गोबर की खाद से मृदा की जल धरण क्षमता में
वृद्धि होती है एवं मृदा संरचना में सुधर होता है। अतः भूमि की उर्वरा
शक्ति को बनाये रखने के लिए जैविक खादों का उपयोग आवश्यक होता है। सरसों की
फसल से पूर्व हरी खाद का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए वर्षा शुरू
होते ही ढैंचा की बुआई करें व 45-50 दिन बाद फूल आने से पहले मृदा में दबा
देना चाहिए। सिंचित एवं बारानी दोनों क्षेत्रों में पी.एस.बी. (10-15 ग्राम
प्रति किलो ग्राम बीज) एवं एजोटोबैक्टर से बीजोपचार भी लाभदायक रहता है,
इसके नत्राजन एवं फास्फोरस की उपलब्ध्ता बढ़ती है व उपज में वृद्धि होती
है।
खेत
में पौधें की उचित संरक्षण और समान बढ़वार के लिए बुआई के 15-20 दिन बाद
पौधें का विरलीकरण आवश्यक रूप से करना चाहिए। विरलीकरण द्वारा पौधें से
पौधें की दूरी 10 से 15 से.मी. कर देनी चाहिए जिससे पौधें की उचित बढ़वार
हो सकें।
सरसों
की अच्छी फसल के लिए पहली सिंचाई खेत की नमी, फसल की जाति और मृदा प्रकार
को देखते हुए 30 से 40 दिन के बीच फूल बनने की अवस्था पर ही करनी चाहिए।
दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय (60-70 दिन) करना लाभदायक होता है। जहाँ पानी
की कमी हो या खारा पानी हो वहाँ सिपर्फ एक ही सिंचाई करना अच्छा रहता है।
बारानी क्षेत्रों में सरसों की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए मानसून के
दौरान खेत की अच्छी तरह दो-तीन बार जुताई करें एवं गोबर की खाद का प्रयोग
करें जिससे मृदा की जल धरण क्षमता में वृद्धि होती है। वाष्पीकरण द्वारा
नमी का ह्रास रोकने के लिए अन्तः सस्य क्रियायें करें एवं मृदा सतह पर
जलवार का प्रयोग करें।
खरपतवार
फसल के साथ जल, पोषक तत्वों, स्थान एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्ध करते
हैं। खरपतवारों को खेत से निकालने और नमी संरक्षण के लिए बुआई के 25 से 30
दिन बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। खरपतवारों के कारण सरसों की उपज में 60
प्रतिशत तक की कमी आ जाती है। खरपतवार नियंत्रण के लिए खुरपी एवं हैण्ड हो
का प्रयोग किया जाता है। रसायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्रलुक्लोरेलिन
(45 ई.सी.) की एक लीटर सक्रिय तत्व/हेक्टेयर (2.2 लीटर दवा) की दर से 800
लीटर पानी में मिलाकर बुआई के पूर्व छिड़काव कर भूमि में भली-भांति मिला
देना चाहिए अथवा पेन्डीमिथेलीन (30 ई.सी) की 1 लीटर सक्रिय तत्व (3.3 लीटर
दवाद्ध को 800 लीटर पानी में मिलाकर बुआई के तुरन्त बाद (बुआई के 1-2 दिन
के अन्दर) छिड़काव करना चाहिए।
सरसों
की उपज को बढाने तथा उसे टिकाउफ बनाने के मार्ग में नाशक जीवों और रोगों
का प्रकोप एक प्रमुख समस्या है। इस फसल को कीटों एवं रोगों से काफी नुकसान
पहुंचता है जिससे इसकी उपज में काफी कमी हो जाती है। यदि समय रहते इन रोगों
एवं कीटों का नियंत्रण कर लिया जाये तो सरसों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी की
जा सकती है। चेंपा या माहू, आरामक्खी, चितकबरा कीट, लीफ माइनर, बिहार
हेयरी केटरपिलर आदि सरसों के मुख्य नाशी कीट हैं। काला ध्ब्बा, सफेद रतुआ,
मृदुरोमिल आसिता, चूर्णल आसिता एवं तना गलन आदि सरसों के मुख्य रोग हैं।
सरसों में माहू
पंखहीन या पंखयुक्त हल्के स्लेटी या हरे रंग के 1.5-3.0 मिमी. लम्बे चुभने
एवम चूसने मुखांग वाले छोटे कीट होते है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पौधों
के कोमल तनों, पत्तियों, फूलो एवम नई फलियों से रस चूसकर उसे कमजोर एवम
छतिग्रस्त तो करते ही है साथ-साथ रस चूसते समय पत्तियोपेर मधुस्राव भी करते
है। इस मधुस्राव पर काले कवक का प्रकोप हो जाता है तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित हो जाती है। इस कीट का प्रकोप दिसम्बर-जनवरी से लेकर मार्च तक बना रहता है।
जब फसल में कम से कम 10 प्रतिशत पौधें की संख्या चेंपा से ग्रसित हो व
26-28 चेंपा/पौधा हो तब डाइमिथोएट (रोगोर) 30 ई सी या मोनोक्रोटोफास
(न्यूवाक्रोन) 36 घुलनशील द्रव्य की 1 लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी
में घोलकर प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए। यदि दुबारा से कीट का
प्रकोप हो तो 15 दिन के अंतराल से पुनः छिड़काव करना चाहिए।
इसके प्रबन्धन के लिये-
इस कीट की रोकथाम हेतु मेलाथियान 50 ई.सी. मात्रा को 500 लीटर पानी में
घोलकर प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर दुबारा
छिड़काव करना चाहिए।
इस कीट की रोकथाम हेतु 20-25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 1.5
प्रतिशत क्यूनालफास चूर्ण का भुरकाव करें। उग्र प्रकोप के समय मेलाथियान 50
ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के
हिसाब से छिड़काव करें।
इसकी रोकथाम हेतु मेलाथियान 50 ई.सी. की 1.0 लीटर मात्रा को 500 लीटर
पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें। सरसों के प्रमुख
रोग
फसल के रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब (डाइथेन एम-45) या रिडोमिल
एम.जेड. 72 डब्लू.पी. फफूँदनाशी के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव 15-15 दिन
के अन्तर पर करने के सफेद रतुआ से बचाया जा सकता है।
इस रोग की रोकथाम हेतु आईप्रोडियॉन (रोवरॉल), मेन्कोजेब (डाइथेन एम-45)
फफूंदनाशी के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देने पर 15-15
दिन के से अधिकतम तीन छिड़काव करें।
चूर्णिल आसिता रोग की रोकथाम हेतु घुलनशील सल्फर (0.2 प्रतिशत) या
डिनोकाप (0.1 प्रतिशत) की वांछित मात्रा का घोल बनाकर रोग के लक्षण दिखाई
देने पर छिड़काव करें। आवश्यकता होने पर 15 दिन बाद पुनः छिड़काव करें।
सफेद रतुआ रोग के प्रबंधन द्वारा इस रोग का भी नियंत्रण हो जाता है।
कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) फफूंदीनाशक का छिड़काव दो बार फूल आने के
समय 20 दिन के अन्तराल (बुआई के 50वें व 70वें दिन पर) पर करने से रोग का
बचाव किया जा सकता है।
सरसों
की फसल फरवरी-मार्च तक पक जाती है। फसल की उचित पैदावार के लिए जब 75
प्रतिशत फलियाँ पीली हो जायें तब ही फसल की कटाई करें क्योंकि अधिकतर
किस्मों में इस अवस्था के बाद बीज भार तथा तेल प्रतिशत में कमी हो जाती है।
सरसों की फसल में दानों का बिखराव रोकने के लिए फसल की कटाई सुबह के समय
करनी चाहिए क्योंकि रात की ओस से सुबह के समय फलियाँ नम रहती है तथा बीज का
बिखराव कम होता है।
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