अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति
अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति -
किसी भी विषय-अनुशासन की प्रकृति से तात्पर्य उसकी अनुसंधान प्रवृत्ति से है। प्रकृति-विश्लेषण से विषय की रुचि के क्षेत्र-सीमा की विमाओं का ज्ञान होता है। विषय की प्रकृति का ज्ञान होते ही, हमें उस विषय-विशेष की आधारभूत विषयवस्तु की जानकारी हो जाती है। विषयवस्तु का स्पष्ट ज्ञान, अध्ययन की गुणवत्ता व उसकी उपादेयता के लिए आवश्यक है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विषयवस्तु को लेकर भी विद्वानों में कम विवाद नहीं है। प्रमुख प्रश्न यही है कि- विषय के अध्ययन का प्रमुख लक्ष्य क्या होना चाहिए ? इस प्रमुख प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न लोगों ने विभिन्न प्रकार से किया है। प्रत्येक व्यक्ति की किसी विषय-विशेष से अपनी अपेक्षा हो सकती है। उस विषय की तकनीकों एवं तथ्यों से वह अपेक्षा पूरी हो सकती है। इससे तो बस उस विषय की उपादेयता का पता लगता है। किसी विषय-विशेष से की जाने वाली प्राथमिक अपेक्षा ही विषय की प्रकृति को निर्धारित कर सकती है। इस प्राथमिक अपेक्षा की पहचान करना सरल न था। विद्वानों ने अपने अपने दृष्टिकोण से इस विषय के अध्ययन का प्रमुख लक्ष्य तय किया है। इन उत्तरों का सम्यक विश्लेषण हमें इस विषय से हमारी प्राथमिक अपेक्षा समझने में मदद करेगा।
प्रारम्भ से ही विद्वान इस विषय की विषयवस्तु में प्रमुखतया राज्यों के परस्पर संबंधों की जटिलताओं के अध्ययन को शामिल करने पर ज़ोर देते रहे हैं। राज्यों के परस्पर संबंध निश्चित ही अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, इन पारस्परिक संबंधों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। संबंधों की जटिलताएँ ही अन्यान्य वैश्विक परिघटनाओं को जन्म देती हैं। सभी विद्वान एक स्वर से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के परस्पर संबंधों के अध्ययन की महत्ता को स्वीकार करते हैं। परस्पर संबंधों को निर्धारित करने वाले तत्वों में रुचि ही विद्वानों को राज्यों की विदेश/वाह्य नीतियों के अध्ययन को प्रेरित करती है। कई विद्वान तो राज्यों के विदेश नीतियों के अध्ययन को ही इस विषय का प्रमुख उद्देश्य बतलाते हैं।
किन्हीं दो देशों के मध्य कई अन्य संबंधों की अपेक्षा आर्थिक संबंध बहुत ही अहम होते हैं, क्योंकि इसमें दोनों अर्थव्यवस्थाओं की आवश्यकताएँ संतुष्ट होती हैं। विश्व के सभी देश, अपनी अपनी आर्थिक प्रगति के लिए सभी राष्ट्रों से आर्थिक संबंध अवश्य बनाना चाहते हैं। इन आर्थिक संबंधों की राह में आने वाले अन्य राजनीतिक, कूटनीतिक अथवा अन्य किसी अवरोध को वे न्यूनतम या समय-विशेष के लिए परे रख आगे बढ़ना चाहते हैं। आधुनिक विश्व में निस्संदेह आर्थिक गतिविधियां प्रमुख रूप से प्रभावी है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के उदारवादियों ने इस आर्थिक परिघटना को महसूस करते हुए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की प्रमुख विषयवस्तु उन बढ़ती हुई आर्थिक गतिविधियों एवं मैत्रियों को बनाने पर बल दिया जो राष्ट्रों की सीमाओं की मर्यादाओं में सीमित नहीं रह सकती। चूंकि आर्थिक संबंधों की प्रगाढ़ता, अन्य प्रकार के संबंधों को भी प्रोत्साहित करती है एवं प्रत्येक राष्ट्र के इच्छित विकास के लिए मजबूत अर्थव्यवस्था की आवश्यकता भी है इसलिए निश्चित ही राष्ट्रों के परस्पर आर्थिक संबंध अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु हो सकते ही हैं। आर्थिक-संबंधों के निर्वाह में स्वयमेव राजनीतिक-कूटनीतिक एवं ऐतिहासिक तत्व प्रायः प्रभावी होते हैं।
बीसवीं शताब्दी में सत्तर के दशक के विद्वानों ने राष्ट्रों के मध्य बढ़ रही परस्परिक अन्तःनिर्भरता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। प्रत्येक राष्ट्र को अपने विकास के लिए अधिकाधिक संसाधनों एवं पूंजी-लाभ की आवश्यकता उन्हें परस्पर अन्तःनिर्भरता के लिए बाध्य करती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए राष्ट्र अपने अन्य मतभेद परे रख आगे बढ्ने की कोशिश करते हैं। इस परिघटना से प्रभावित विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु में राष्ट्रों के मध्य बढ़ रही परस्परिक अन्तःनिर्भरता को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहते हैं।
लगभग इसी समय मार्क्सवादी विचारकों ने, राष्ट्रों के मध्य गहराते आर्थिक संबंधों एवं बढ़ते परस्परिक अन्तःनिर्भरता के बीच एक और प्रवृत्ति पर ध्यान आकृष्ट किया। बढ़ रही विविध आर्थिक संक्रियाओं में मजबूत राष्ट्रों के प्रभावी होते प्रभुत्व एवं उनपर कमजोर राष्ट्रों की लगातार बढ़ रही एकतरफा निर्भरता उनकी प्रमुख चिंता है। यह एक सुपरिचित तथ्य है कि कुछ देशों की विश्व अर्थव्यवस्था में पकड़ बढ़ती चली जा रही है और कुछ देश महज बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भर बन कर रह गए हैं। यह एकतरफा होता आर्थिक शक्ति संतुलन अन्य समानान्तर संतुलनों को भी प्रभावित करता है। इसलिए मार्क्सवादी विचारक चाहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु यही विश्लेषण हो।
कुछ विद्वान, वैश्वीकरण की समस्त प्रक्रियाओं के द्वारा उद्भूत चारों तरफ हो रहे परिवर्तनों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु बनाने पर बल देते हैं। समकालीन विद्वान भी इसकी महती अनिवार्यता पर एकमत हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु पर कुछ चर्चायेँ व प्रश्न और भी हैं, जो समीचीन हैं। जैसे कुछ विद्वान कहते हैं कि- क्या अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिघटनाओं का अध्ययन प्रयोगाश्रित-अनुभवसिद्ध तथ्यों-तकनीकों (Empirical Tools) का इस्तेमाल, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सम्यक विधियों एवं विन्यासों की खोज के लिए किया जाना चाहिए द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात व्यवहारवादी विचारों के प्रचलन से इस धारणा को और भी बल मिला। प्रयोगाश्रित तथ्य, विश्लेषण के लिए एक आवश्यक तत्व के रूप में स्वीकार किए जाने लगे हैं। प्रसिद्ध विचारक बुल की राय में ऐतिहासिक तथ्यों के प्रयोग से यह जाना जा सकता है कि वर्तमान की किसी परिघटना में क्या और कितना अपूर्व एवं विशिष्ट है। महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक विचारक वाईट उन वैचारिक परम्पराओं की खोज करने पर बल देते हैं जो शताब्दियों से विश्व-राजनीति में प्रासंगिक हैं। इसलिए निश्चित ही मार्क्स के मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन संभव है, जिसमें उत्पादन, वर्ग एवं भौतिक असमानताओं को कसौटी बनाया जा सकता है।
बाजार की शक्तिशाली उपस्थिति से प्रभावित हो, वाल्ज़ कहते हैं कि- बाजारों के व्यवहार-अनुक्रमों का अध्ययन संभवतः उन संगत आर्थिक शक्तियों की कार्यप्रणाली को समझाने में सक्षम हो, जिनके प्रभाव में लगभग सभी राज्य लगभग एक ही तरह व्यवहार करने लग जाते हैं। इसप्रकार यह भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु हो सकती है।
वैश्विक नीतिशास्त्र के अनुगामी, राज्यों के उन लक्ष्यों की प्रकृति में रुचि रखते हैं जिन पर राष्ट्र अपनी मौजूदा कार्यप्रणाली व रणनीति निर्धारित करते हैं। बीज जैसे विचारक जानना चाहते हैं कि राज्यों के विविध लक्ष्यों का अध्ययन क्या उनकी वैश्विक-न्याय स्थापित करने की क्षमता को आंक सकने में सक्षम है? इसीतरह पोज यह जानना चाहते हैं कि लक्ष्यों का अध्ययन वैश्विक गरीबी के समर्पित प्रयासों को माप सकती है। इन समीचीन प्रश्नो के मध्य एक स्वाभाविक किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या विभिन्न विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विषयवस्तु के अंतर्गत विभिन्न विश्लेषणों में व्याख्याएँ निरपेक्ष कर सकेंगे?
उपरोक्त विमर्श से यदि हम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति एवं इसकी विषय-सीमा समझना चाहें तो इतना स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति बेहद ही गतिशील, समसामयिक एवं प्रासंगिक है। इसके विषयवस्तु के अंतर्गत वे समस्त प्रश्न व विश्लेषण समाहित हैं जो राज्यों के परस्पर अन्यान्य सम्बन्धों व उनकी राजनीति को निर्धारित करते हैं। समस्त प्रकार के शक्ति-संतुलनों का विश्लेषण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की गहरी रुचि का क्षेत्र है एवं एक विषय-अनुशासन के रूप में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, वैश्विक मूल्यों की स्थापना के प्रयासों को रेखांकित भी करती है।
Kya antararashtriya rajniti ki prakriti gatisheel hai. Aalochanatmak roop se btaye?
Antararashtriya rajniti ki aalicht
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